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आत्मविलास ]
[२३६ 'मेरुः शिखरिणामहम्' 'स्थावगणां हिमालय.' 'स्रोतमामस्मि जाह्नवी' अश्वत्थः मर्ग वृत्ताणाम' बननेयश्च पक्षिणाम' 'अनन्तश्चास्मि नागानाम्' 'साणामस्मि वासुकि.' 'मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहम्' 'धेनुनामस्मि कामधुक' 'ऐरावतं गजेन्द्राणाम' 'इन्द्रियाणां मनचास्मि' 'भूतानामरिम चेतना' 'प्णिनां वासु. देवोऽस्मि' 'पाण्डवानां धनञ्जय' इत्यादि और अन्तमे स्पष्ट कर दिया है।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भृतं चराचरम् ।। नान्तोऽस्ति मम दिव्याना विभृतीनां परन्तप । एप तूद्देशतः प्रोक्तो विभूनेविस्तरो मया ॥ यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदर्जितमेव वा । तत्तदेवावगच्छ वं मम तेजोशसम्भवम् ॥
(गी अ. १० श्लो, ३९.४०-४१) अर्थ :-हे अर्जुन जो कुछ भी सब भूतजात हैं उनका बीज मैं ही हूँ,चराचर भूतोंमें ऐसा कोई नहीं जो मेरे विना सिद्ध हो। हे परन्तप ! मेरी दिव्य विभूतियोंका कोई अन्त नहीं है, यह अपनी विभूतिका विस्तार मैंने सङ्केतमात्र कथन किया है। (सारांश यह है कि) जो-जो विभूतियुक्त, कान्तियुक्त अथवा शक्तियुक्त वस्तु है, वह वह. सव मेरे तेजके अंशसे ही उपजी जानी
भावराज्यका यह विलक्षण महत्त्व है कि इस प्रकार शुद्ध भावके अनुसार मूर्तिपूजा मूर्तिको स्पर्श न करके मूर्तिमानको