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साधारण धर्म कर्म है। देवस्थितिपर्यन्त जैसे भूखप्यास विकार नहीं छूटते
और उनके लिये भिक्षा माँगने जैसे लज्जितकर्म करने के लिये भी 'संन्यास' में जब स्वतन्त्रता है, तब अनासक्त व्यवहारिक शास्त्रोक्त कर्म करनेमें कौन प्रत्यवाय है ? (गी. र. पृ. ३१८)
(६) ज्ञानीका अहंकार छूटनेसे 'मैं-मेरा भाषा नहीं रहती, इसलिये ज्ञानी निर्मम होता है। उसके बदले 'जगत् ध जगत्का' अथवा भनि-पक्षमे 'ईश्वर व ईश्वरका' ऐसे शब्द ज्ञानीद्वारा प्रयुक्त होते हैं। घासना छूटनेसे ज्ञानीका यह भाव रहता है कि 'संसारके सब व्यवहार ईश्वरके हैं और ईश्वरने उनको करनेके लिये ही हमें उत्पन्न किया है। (गी. र. पृ. ३२४) ।
(७) 'लोकसंग्रहका अर्थ कोई ढकोसला नहीं, बल्कि लोकों को खोटी प्रवृत्तिले बचा कर शुभ प्रवृत्तिमे लगाना है तथा 'ज्ञानियोंके गृहस्थमें रहनेसे लोकसंग्रह अधिक सम्पादन होता है, इसलिये ज्ञानियोंको गृहस्थमें ही रहना चाहिये । (गी. र. पृ० ३२६ से ३३१)
(८) जब 'योग' ही मुख्य है तब प्रश्न होता है कि स्मृतिप्रन्यों में वर्णित संन्यास-आश्रमको क्या दशा होगी ? जब कि मनु आदि सभी स्मृत्तिकार यज्ञ-यागादिका परित्याग करके धीरेधीरे संन्यास आश्रम धारण कर मोक्षप्राप्तिकी ताकीद करते हैं। इसका समाधान तिलकमतमें यह है कि मनुके ध्यानमें अच्छी तरह यह बात आगई थी कि संन्यासकी ओर लोगोंकी फिजूल प्रवृत्ति होनेसे संसारका कर्तव्य नष्ट हो जायगा और समाज पंगु होजायगा । इसीलिये मनुने तीनों ऋणों (देव, पिध पितर) की मर्यादा बाँध दी है कि इन ऋणोंसे उऋण होकर फिर सैन्यास ले । इससे यह सिद्ध होता है कि पाश्रम-धर्म का मूल