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[आत्मविलास
४६] यद्यपि वाणी करके अथवा शरीर करके बडे-बड़े उपदेशन दिये जाएँ और कोई संगठन न किया जाय, तथापि उन अधिकारानुसार चेष्टाओंका यथार्थ पाचरण ही सच्ची व सुदृढ़ लोकसेवाव लोकसंग्रहको सिद्ध कर देता है । परन्तु तिलक महोदयने तो अपनी एकदेशीय दृष्टिसे अधिकारको मिटाकर केवल एक रेखा निकाल दी है कि 'वस, इससे आग और कुछ है ही नहीं।' परन्तु भगवान एक ऐसे भरकर उपदेष्टा नही थे सम्पूर्ण गीतामें कहीं भी ऐसा एक भी शब्द उनके मुखारविन्दसे नहीं निकला जिसमें उन्होंने निवृत्तिपक्षको निन्दित ठहराया हो, जैसा विला भगवान् मुक्तकण्ठसे निवृत्तिमार्गको निन्दित कर रहे हैं। यदि वास्तवमें निवृत्तिपक्ष निन्दनीय था तो क्या वे (भगवान्) स्पष्ट रूपसे उसको त्या-य नहीं कह सकते थे, जैसा उन्होंने सकाम-कर्मकी खुले शब्दोमें निन्दा की है यहाँतक कि स्वर्गपर्यन्त विपयसुखोको भी उन्होंने घृणाष्टिसे निरूपण किया है और अपने मार्गमें उनको प्रतिवन्धक बतलाया है। देखो गी. अ.२ श्लो. ४२, ४३, ४४ और अन्तमे स्पष्ट कह दिया है:दूरेण धवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनजय। बुद्धौ शरणमनविच्छ कृपणाः फलहेतवः । (अ. २, ४६)
अर्थ बुद्धि-योगसे सकाम-कर्म अत्यन्त तुच्छ है, इसलिये हे धनक्षय | तुम बुद्धि-योगका आश्रय ग्रहण करो। जो फलकी वासनावाले हैं वे अत्यन्त दीन हैं।
यदि स्वयं भगवानके विचारसे निवृत्तिपक्ष निन्दित होता तो ऐसी अवस्थामें क्या साथ ही वे उसका स्पष्ट रूपसे खण्डन नहीं कर सकते थे और उसको भी क्या निन्दित नहीं कह सकते है थे कि हे अर्जुन भिक्षा माँगना निर्लज्जताका व्यवहार है और