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[ साधारण धर्म
-ज्ञान:वाचस्पति-मिश्रका मत है कि निष्काम-कर्म उपासनादिका कर्मजन्य अपूर्व जान ) फल विविदिपारूप जिज्ञासा है, निर्मल में उपयोगी सामग्री अन्तःकरणमे जिज्ञासाके उत्पन्न हो जानेपर
का जनक है। कर्मजन्य अपूर्व अपना फल देकर नष्ट हो जाता है । जिज्ञासाके होते हुए भी उत्तम गुरु-शास्त्रादि सामग्री सिद्ध होवे तब ज्ञानकी प्राप्ति सम्भव होती है । उत्तम गुरु-शास्त्रादि मामग्रीके बिना जिज्ञासा होनेपर भी जानका सम्भव नहीं।" परन्तु विवरणकार इससे आगे बढ़कर और नुजा टांककर क्या ही सुन्दर सिद्वान्त करते हैं कि 'निष्काम-कर्मादिका फ्त केवल जिनासा ही नहीं, बल्कि जिज्ञासाद्वारा ज्ञान है । मजन्य अपूर्व ज्ञानकी उत्पत्तिपर्यन्त शेष रहता है, वह ज्ञानको उत्पन्न करके ही नष्ट होता है और इस जन्ममें अथवा भाषी जन्ममे कर्मजन्य अपूर्व उत्तम गुरु-शास्त्रादि सामग्रीको स्वयं ही सम्पादन करता है।
इस सिद्धान्तके अनुसार हमारा आत्मदेव सद्गुरुकी शरण सद्गुरु महिमा } को प्राप्त हो चुका है और उनके चरणोमें
आत्मनिवेदन कर चुका है। उन सद्गुरुकी महिमा वर्णन करने के लिये न वाणीकी सामर्थ्य है और न लेखनीमें ही वल है, मन ही जानता है। परन्तु मनकी गति भी महिमा वर्णन करनेमें गुगेके गुड़ के समान है। बलिहारी जाऊँ! और कोटिशः वारी-बारी नाऊँ उन सद्गुरुके चरणकमलोंपर । धन्य है, हे गुरो! आपकी कारीगरी और आपके हाथकी सफाईको बार•म्बार धन्य है ! चुपके चुपके वह काम किया, शरीर और मनइन्द्रियोंपर ऐसा अधिकार पाया और उनको भम्मकर ऐसा - अपने प्रात्मस्वतनके जाननेको इच्छा। संस्कार ।
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