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आत्मविलास
[१७६ द्वि० खण्ड प्रकट होकर इन अवस्थामोमे कर्ता-भोक्ता होता है और वही इनके सचित-संस्कारोसे जन्मान्तरसे अपने भोगके लिये शरीर धारण करता है।
(४२) विचारसे देखा जाय तो जायत्-प्रपञ्चका लय स्वप्नमे सम्भव हो भी नहीं सकता। स्वामे तो जाग्रत्की लयरूपनिवृत्ति तभी मानी जा सकती थी, जब कि स्वप्नसे जाग्रत्की उत्पनि मानी जाती । क्योकि कार्यका लय अपने उपादानमे ही होता है, जैसे घटका प्रध्वंसरूप लय कपालोमे ही होता है और स्वासे जाग्रतकी उत्पत्ति किसीको इष्ट है नहीं, इसलिये परिणामीउपादानरूप सुपुप्तिमे ही जामत्की निवृत्ति माननी होगी। जब कि जाग्रत्का लय सुपुप्तिमे माना गया, तब जाप्रसे स्वप्नकी भी उत्पत्ति असम्भव है, क्योकि जाग्रत् जब अपने स्वरूपसे ही स्वप्नकालमे नहीं रहता, तब वह स्वप्नका कारण कैसे हो? वस्तुतः स्वप्नकालमे न जानदेह ही रहता है, न जाग्रतहन्द्रियाँ और न मन-बुद्धयादि जाग्रत्अन्तःकरण ही शेष रहता है, बल्कि वहाँ सारी त्रिपुटी नवीन ही होती है । इस प्रकार न जायतका कारण स्वप्न है और न स्वप्नका कारण जाग्रत, बल्कि क्या स्वप्न और क्या जाग्रत् दोनोका परिणामी-उपादान सुपुप्ति ही स्वतः सिद्ध है, क्रम-क्रमसे दोनो ही अपने उपादान सुषुप्तिमे लग होते है और सुषुप्तिसे ही निकलते है।
(४३) शङ्का:यदि जागत् और स्वप्न दोनोका परिणामीउपादान सुयुप्ति ही है तो वनसे जागे मनुष्यको स्वप्न-प्रपञ्चमे मिथ्यात्व तथा जाग्रतमे सत्यत्वप्रतीति नहीं होनी चाहिये। क्योकि एक ही उपादानसे- एक कार्य सत्य तथा एक मिथ्या हो नहीं सकता, या तो दोनों ही सत्य प्रतीत होने चाहिये अथवा दोनों ही मिथ्या। किन्तु इन दोनोंमें सत्यता व मिथ्यात्व विलक्षण