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( ३ ) रहते, फिर शरीरके नाश होनेपर तो इन नातोंने रहना' ही क्या हैं ? अर्थात शरीरको जब मैं आपा करके जानता हूँ तभी यह ममताका बन्धन मुझको बाँध लेता है। ।
(२) मो शरीर में कदापि नहीं। किन्तु यह तो 'पाँचों भूतोंके साझेकी एक गठंडी है किसी एक भूत की भी नहीं, फिर मैं यह शरीर कैसे हो सकता हूँ? दूसरेकी वस्तुको अपना मान बैठना तो चोरी है। ऐसा पाप करके मैं दुःखका भागी क्यों चलूँ ? और मैंने तो अपनी भूलसे इसे शरीरको मेरा मानकर ही संतोप नहीं किया, किन्तु यह शरीरं ही में वन वैठा और ममताके नाते जोड़ने लेगा। यह तो एक घर पञ्चभूतोंने रचकर मुझको थोड़े काल निवासके लिये दिया था, परन्तु मैं तो अपनी जड़ता करके घर ही आप वन वैठा और इसके सुख-दुःख, मान-अपमान से तपने लगा। सभी क्लेशोंकी मूल इस शरीरके साथ अहेन्तासम्बन्ध ही है । घरमे रहनेवाला किरायेदार आप घर नहीं हो जाता और न घरके नाश होनेसे अपना नाश हो मानता है। .. . (इसलिये न मैं शरीर हूँ और ने मेरा शरीर है । और जब शरीरं ही मैं नहीं तो मर्मताके विषय पदार्थ कोई भी मेरे नहीं। मैं तोक्त्या स्थूल-शरीर, क्या सूक्ष्म शरीर क्या कारण-शरीरै अर्थात् जाग्रत, स्वप्न व सुषुप्ति तीनों अवस्थाओंका देखनेवाला व जाननेवाला हूँ। यह तीनों अवस्थाएँ व्यभिचारी हैं ! अर्थात् जाग्रत् में स्वप्न-सुपुप्ति नहीं, स्वममें जाग्रत सुपुप्ति नहीं और सुषुप्ति में जाग्रत्-स्वप्न नहीं रहते। परन्तु 'मैं तीनों अवस्थाओं में है और तीनों अवस्थाओंको देखने जाननेवाला ‘साक्षीरूप से सब अवस्थाओमें हाजिर हूँ। तथा संब'अवस्थाओंमें रहने को अपनी प्रत्यक्ष साक्षी भी देता हूं कि "धुमिमें मैंने देखा संसार तथा शरीर इन्द्रियाँ मन, बुद्धि व अहंकार कुछ भी नहीं थे, केवल सुख ही सुख था। और स्वप्नमें मैंने देखा कि बड़ी चञ्चल देशा थीं,
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