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प्रात्मविलासाः
लेखक
स्वामी आत्मानन्द मुनि
'श्रीश्रानन्दकुटीर-ट्रस्ट पुष्कर' की स्वीकृतिसे
श्रीभद्धा-साहित्य-निकेतन, कचहरी रोड, अजमेरद्वारा प्रकाशित किया गया
द्वितीयावृत्ति
मूल्य २॥
•. २०००
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नोट:इस ग्रन्थका प्रकाशन-अधिकार श्रीमानन्द-कुटीर-ट्रस्ट पुष्करने स्वाधीन रक्खा है। इस लिये उक्त दृस्टकी स्वीकृति बिना
कोई सज्जन, किसी मापामें इसके छपानेका
पुस्तक प्राप्ति स्थान.(१) श्रीमैनेजर, श्रद्धा-साहित्य निकेतन,
कचहरी रोड अवमेर (२) म. गणपतराम गंगाराम सर्राफ,
नया बाजार, अजमेर
नोट-यदि कोई सजन रेल्वे पारसलसे अधिक पुस्तकें मॅगवाना
चाहें तो चौथाई मूल्य पेशगी भेज देना चाहिये।
(१) सस्ता-साहित्य प्रेस, अजमेर
(प्रथम सह सम्पूर्ण तथा परिशिष्ट भाग) (२ अप्रवाल प्रेस, अजमेर
(दि .०२ पृष्ट) (३) गुरुकुल प्रेम, न्यावर
(दि.संघ ०३.२०)
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दो शब्द
इस ग्रन्थकी प्रथमावृत्ति एक हज़राकी संख्यामें श्रीयुत द्वारकाप्रसादजी लक्ष्मणदासजी नारनौलनिवासीने सन् १६४० में अपनी फर्म कराचीसे प्रकाशित कराई थी। उन्होंने अपनी स्वगीया श्रीमाताजीके स्मारकमें लोकहितार्थ दृष्टि से इस ग्रन्थको किसी नकद मूल्यके बिना ही वितरण किया था। अर्थात् श्रद्धा व विचारसहित पाठ तथा यथाशक्ति धारणा' ही इसका मूल्य रखा गया था। थोड़े सपयमें ही इस ग्रन्थकी सब प्रतियाँ वितरण हो गई और जनताने आदरभावसे इसको ग्रहण किया । कुछ महानुभावोंने अपने सद्विचार भी इस ग्रन्थके विषयमें प्रकट किये, जो पाठकोंकी जानकारीके लिये अलग पृष्टपर उद्धृत किये जाते हैं। यहॉतक कि 'सस्तु-साहित्य-वर्धक कार्यालय ट्रस्ट' अहमदाबादने गुजराती जनताके हितकी दृष्टिसे इस ग्रन्थको गुजराती भाषामें अनुवाद कराके ५ हजार प्रतिऍ प्रकाशित की । हर्षका विषय है कि गुजराती जनताने इस ग्रन्थको बहुत आदर दिया
और उक्त ५ हजार प्रतियाँ हाथों-हाथ विक गई। यह अनुवाद इस ग्रन्थके लेखकसे अनुमति प्राप्त किये बिना और इसके कुछ आवश्यक भाग छोड़कर प्रकाशित किया गया था।
जिज्ञासु जनताके सद्भाव और आदरको देखकर तथा इस इष्टिसे कि भविष्यमें कोई व्यक्ति मनमाने रूपमे इस ग्रन्थका अङ्गभङ्ग न कर सके, इस ग्रन्थके लेखकने सन् १६४६में इस ग्रन्थका और अपनी दूसरी पुस्तक 'गीतादर्पण'का प्रकाशन अधिकार श्री. आनन्द-कुटीर-ट्रस्ट पुष्कर' को समर्पण कर दिया है। ट्रस्ट उस समयसे ही सचेष्ट रहा कि जहाँतक हो सके यह ग्रन्थ जनताके
हाथोंमें शीघ्र पहुँचाया जाय । परन्तु देश-कालकी अनेक वर्तमान ' कठिनाइयोंके कारण हमे इस विषयमें इससे पहले सफलता न
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( ४ ) मिल सकी। व्यावरनिवासी भक्त श्रीकन्हैयालालजी गार्गीय तथा श्रीमवरीलालजी दाणीने इस प्रकाशनकार्यमे तन-मनसे सहायता की है। और उक्त ट्रस्ट के सेक्रेटरी वा० श्रीजयकृष्णजो टण्डनने सब प्रकारसे इस कार्य सम्पादन में व्यक्तिगत सहयोग दिया है। म० श्रीमुनिलालजीने इस पुस्तकके प्रफशोधनमे पूरी सहायता दी है। इनके अतिरिक्त निम्नलिखित सज्जनोंने अपने ही भावसे रित हो इस प्रन्यके प्रकाशनमें आर्थिक सहायता प्रदान की है(१) १०००) एक प्रेमी भक्तका गुप्त दान) (२) ६१५) श्रीमान् लाला कन्हैयालालजी भोलानाथ फिरोजपुर (३) ४४०) " लाला जगन्नाथजी रामजीलाल फीरोजपुर (४) २००) " भ. बद्रीदासजी अजमेर
१५०) " लाला कन्हैयालालजी जगदीशप्रसाद फीरोजपुर (६) १००) " एक प्रेमी भक्तका गुप्त दान (७) ५०) " म० हरिरामजी न्यावर
उपयुक्त सब सजनोंकी सेवा और सहयोग के लिये हम आभारी है । ग्रन्थके विषयमें इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि ग्रन्थ अपने स्वरूपसे पूर्ण है। प्रकृतिराज्य प्रवृति व निवृति दो मागापर ही अवलम्बित है। हमें विश्वास है कि यह ग्रन्थ प्रत्येक मार्गावलम्बीके लिये सोपान क्रमसे श्रेय-पथका प्रदर्शक होगा और प्राकृतिक नियमकी उत्तम शिक्षा देनेवाला प्रमाणित होगा। यदि मनमे सत्यताका आदर धारणकर इसे पढ़ा गया वो 'वर्तमानमें हमारा चित्त किस सोपानपर है। ऐसा प्रत्येक पाठक अपने-अपने चित्तोंको इस ग्रन्थकी कसौटीपर रखकर भलीभॉति परख सकेंगे और इससे आगे लिये उनके साधनका मार्ग दर्शन भी इस ग्रन्थसे प्राप्त हो सकेगा।
__ मदनमोहन वर्मा, एम.ए., राय बहादुर ' (रजिस्ट्रार राजपूताना विश्वविद्यालय),प्रधान,आ. कु. टू पुष्कर
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इस ग्रन्थके सम्बन्धमें
कुछ महानुभावोंके सद्भाव माननीय श्रीमनु स्वेदार बम्बई (M. L. A Onetrel) प्रधान
श्रीसस्तु-साहित्य-वर्धक कार्यालय-ट्रस्ट अहमदाबाद, इसी ग्रन्थके गुजराती अनुवादको भूमिकामें इस ग्रन्थका परिचय • देते हुए यूं लिखते हैं - ।, आत्मविलास' अर्थात् 'संसारके खरे-खोटे खेल में अपना आत्मा किस प्रकार रम रहा है। यह दिखलानेवाला तथा 'अज्ञानमेंसे ज्ञानमें किस प्रकार पहुँचा जाता है। यह सूचित करनेवाला, यह ग्रन्थ है। लेखककी प्रखर विद्या और ज्ञानवल तो इस पुस्तकसे ज्ञात-होगा, परन्तु उन्होंने इस पुस्तकमें तो अपने अनुभवकी कथा लिखी है.। उनका गम्भीर और हृदयसी अध्यात्म ज्ञान इस पुस्तकमें स्थल-स्थलपर तर आता है।
वस्तु,एक ही है । देहभाव तथा जीवभावमेंसे आत्मभाव व ब्रह्मभावमें कैसे पहुँचा जा सकता है; व्यवहारिक जीवन मेंसे आंशिक अथवा पूर्णरूपसे पारमार्थिक जीवनमें कैसे जा सकते हैं, तामसमेंसे राजसमें और राजसमेंसे सत्त्वमें कैसे जाना होता है और क्यों जाना चाहये-इत्यादि प्रश्न प्रत्येक जिज्ञासुके चित्तमें प्रतिदिन खड़े होते हैं और वह इनका उत्तर बारम्बार नई-नई दृष्टिविन्दुसे मॉग रहा है। इस पुस्तकमें लेखकने ये उत्तर निश्चयात्मक रीतिसे अस्तुत किये हैं। भिक्षु अखण्डानन्दजीद्वारा जो ज्ञानगंगारूप यह संस्था बहाई गई है, उसकी ओरसे ऐसे उपयोगी और पथप्रदर्शक पुस्तकको जनताके सम्मुख रजु करते हुए हमें प्रसन्नता होती है।
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'प्रमु सर्वशक्तिमान है। ऐसा प्रत्येक समय और प्रत्येक विषयमें अनुभव हो सके, तमो श्रात्मानुभवका प्रारम्भ हुआ है, ऐसा मानना चाहये। शास्त्रार्थ महारथि पपडितरोज श्रीवेणीमधवजी शास्त्री, घटिका
शतक शतावधान संस्कृताशु कवि कविचक्रवर्ती कशीसे लिखते हैं.
आपका लिखा हुआ आत्माविलास नामका दार्शनिक रहस्य प्रकाश देखकर हदय अत्यन्न प्रसन्न हुआ। आपने बहुत परिश्रमसे इस दर्शन-शखको तैयार किया है। आपने इस पुस्तकको विद्यावलसे नहीं लिखा, किन्तु विद्या-ज्ञान दोनों घलसे लिखा है, जैसा कि तुलसीदास स्वामीका, रामायण दोनों वलसे है। लोकमान्य तिलकके प्रवृत्तिमार्गको आपने प्रमाण व युक्तियोंसे ऐसा खण्डन किया है कि अभूतपूर्व कल्पना आपने किया है। इस पुस्तकसे देशका महान कल्याण है। व्याकरण-न्यायादि शास्त्रों में हम भी बहुत टीकाएँ लिख चुके हैं। लेखरहस्थका हमको अनुभव है आपका सुलेख हमको मुग्धकर आपके दर्शनकी इच्छा करा रहा है। श्रीयुद हनुमानप्रसादजी पोदारसम्पादक 'कल्याण गोरखपुर लिखते हैं:
यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि प्रस्तुत ग्रन्थ आध्यात्मिक विषयको खानि है। और यदि इसका विस्तृत रूपसे प्रचार किया जाय तो निश्चय ही यह पाठकोंको अत्यन्त
आध्यात्मिक लाम प्रदान करेगा। मनकी एकाग्रताका स्वरूप और तत्सम्बन्धी
विभिन्न विचार व प्रार्थनाएँ यह पुस्तक अलग भी छपाई गई है मूल्या
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(७) गीता-दर्पण (श्रीमद्भगवद् गीतापर एक अपूर्व हिन्दी-भाष्य )
लेखक स्वामी आत्मानन्द मुनि पृष्ट संख्या ८८२, २०४३०-१६ पेजी पका पाइंडिंग
मूल्य 0 समालोचनाएँ अंगरेजी समाचार पत्रोंके मुख्य-मुख्य स्थलोंका हिन्दी अनुवाद भी दिया जाता है"Sind Observer Karachi, Dated 8/11/44" Prof: R. S. Dozvedi M. A. St. Johns College,
. Agra says:-I have read with great interest & profit Swami Atmanandji's Gita-Darpan in Hindi. Its merit lies in tbe correct exposition of the highest philosophical truths of the Gita in a language that is intelligible to the mind of a layman like myself. The treatment of the subject matter is marked by a depth of learn. ing and & thought that is rare. Swamiji's interpretation establishes & synthesis beto ween 'Karmyog' and Sankhyayog' that is atonce masterly & cenvincing. .
The most important point: emphasized by Swamiji is that Karmyog taught by
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Bhagwan Krishna consists in 'skilled action' ( योगः कर्मसु कौशलम् )which is neither actionlessnessnor action whose fruit is dedicated to God, hut action that is devoid of reactions which create bopdage for the doer & cause the endless chann of births and deaths. This is अकर्म or सहजकर्म, This shows how Gita is primarily a guide to right knowledge & a guide to right action only in so far as such action automatically springs from right knowledge.
Gita-Durpan thus corréots erroneous vios of some of the modern commentations whose approachi has been mainly iftellectual & who have read it the divine words little more than the approval of their own mental inclinations tempered, as they are, by the contemporary envoirment. Anyone interested in the right message of the Gita ought to read Gita-Darpán. (१) सिंघओवर कराची, ता०९-११-४४ समालोचक पं. श्रीरामस्वरूपजी द्विवेदी, एम० ए० प्रोफेसर सेएट-जोन्स
कालेल, आगरा मैंने अत्यन्त रुची तथा लाभके साथ स्वामी आत्मानन्दजीद्वारा रचित 'गीता-दर्पण'का स्वाध्याय किया है । इस प्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें गीताके उच्चतम दार्शनिक तथ्योंका यथार्थ विवेचन ऐमी सरल भाषामें किया गया है, जिसे मेरे जैसा साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है। विषयका
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प्रतिपादन जिम पाण्डित्य तथा गम्भीर विचारसे किया गया है, वह अन्यन्न, नहीं मिलेगा। स्वामीजीकी व्याख्या 'कर्म-योग' व 'मांख्य योग'का जैसा समन्वय करती है, वह एकदम अनूठी तथा ह्रदयवाही है। ___ स्वामीजीके दृष्टिकोणसे भगवान् श्रीकृष्णद्वारा प्रतिपादित 'कर्म योग' अर्थात् 'कर्म-कौशलता' न तो निष्क्रियतामें ही है और न उस कर्ममें ही है जिसका फल भगवान् के अर्पण कर दिया जाय, वरन् उस यथार्थ कर्ममे है, जिसमें वह बन्धनात्मक प्रतिक्रिया नहीं होती जोकि कर्ताके असंख्य जन्ममरणके प्रवाहका हेतु होता है। यही वास्तवमे 'अकर्म' या 'सहज कर्म' है। इस प्रकार गीता-दपर्ण कतिपय टीकाकारोंके उस नितान्त बौद्धिक दृष्टिभ्रमका उन्मूलन करता है, जिसके अनुसार उन्होंने तत्कालीन वातावरणसे प्रभावित होकर, भगवद् वचनोंमें केवल अपने ही विचारोंकी पुष्टि समझ,ली है । अतः गीताके मत्य मन्देशके जिज्ञासुओंको गीता-दर्पण अवश्य पढ़ना चाहिये।
... (2)THE MODERN REVIEW,Sep.1942 page 223 ... This - book contains all the original slokas of the Gita with simple Hindi rendering of reach, given just after the text,.and then followed by an explanatory note on it in the light of the Sankara Bhasya. The notes, being a sort of commentary; are called 'Sri Rameshwaranandi.Anubhavartha-Dipeka Bhasha-Bhasya' after the name of author's Guru. The sub-title of the bookisrightly given
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(Po) Jnana-yoga slintrat, 134 Gita cxpounds Brnhnie-Jonna and the means to itu realisation. This is, no doubt, the orthodox und age-old view according to which Abuluto Wisdom existing alrondly in tho hourt of every human boing ix ! puntancourly unfolded with the oxtinction of dosires and tho consC. queut purification of the mind.
In the lengthy introduction autoris more than throc hundred pagos, The Swubit gives a critical analysis of onch chapter of the Gita and useful annotations on tho nature of Freedom, bondago, Yogi and other relevant problems. This has made tho volumo quite interesting and attractive to the general Teaders for whom it is primarily intended The historical sotting in the form of a narrative leading to the origin of the Gita, 16 appropriately appended to tno introduc. tion. It must be said to tho oredit of the author that his exposition has succeeded in carrying his understanding and 108ight to the reader in a simple manner. Because he practises what he writes abouts, his expositi. on is so clear and convincing. The Gila 18 said to epitomize the essentials of Hindu ro
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ligion and philosophy but few people have the necessary time and opportunity to study its abstruae original commentaries in Sans krite-Hence the only way to popularise its grand teachings is to publish such lucid dissertations in the provincial Vernaculars as has been successfully attempted in Hindi by the writer of the book under review. It is a book unique of its kind and is sure to demo. cratite the massage of the Gita among the Hindi-reading public. The more the gospel of the Gita is thus broadcasted, the better at • will be for oar life and society. ___. .. . Sd. Swami Jagadiswaranandan (२).'मोडन-रिव्यु' कलकत्ता-सितम्बर सं० १६४३, समालोचक , श्रीस्वामी जगदीश्वरानन्दजी महाराजः
. प्रस्तुत पुस्तकका नाम जो 'ज्ञान-योग-शास्त्र' रखा गया है वह उपयुक्त रही है, क्योंकि गीता ब्रह्मज्ञान और उसके साक्षाकारके साधनोंका ही प्रतिपादन करती है। तीन सो (३००) पृष्ठसे अधिक इस ग्रन्थकी विस्तृत प्रस्तावनामें स्वामीजीने गीताके प्रत्येक अध्यायकी अलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए 'मुक्ति', 'बन्धन', 'योग' तथा अन्य सम्बन्धित विषयोंकी उपयोगी व्याख्या की है, जिससे यह ग्रन्थ साधारण जनताके लिये, मुख्या तया जिनको लक्ष्य करके ही यह लिखा गया है, अत्यन्त रोचक तथा हृदयग्राही बन गया है । महाभारतका यह ऐतिहासिक वृत्तान्त भी जो गीताके जन्मका कारण वना, प्रस्तावनाके साथ जोड़ा गया है, वह उपयुक्त ही है । यह माननीय है कि स्वामीजी
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( १२ ) अपने विश्लेषणद्वारा अपने भाव व अनुभवको सरलताले साथ पाठकॉतक पहुंचनेमे सफल हुए हैं, क्योंकि वे अपने अनुभव के
आधारपर लिखते हैं इसलिये उनकी व्याख्या स्पष्ट व विश्वाम करानेवाली है। यह ग्रन्थ अपने ढंगका अनुपम है और हिन्दी जनतामे निश्चयसे गीताका सन्देश विस्तृतरूपमें प्रचार कर सकेगा। (3)'BOMBAY CHRONICLE' Dated 19. 12. 43. Page 13 Reprever Hon Manu Subedar (M, L. A. Central)
This 18 an outstanding publication consisting of two parts. The oliginal verses with explanation for each verse are in the second part There is a note at the end of each dha. pter, giving a review of the teaching therein. It is, hower the first part which is remark ably original contribution to the Grta literature of. India In this the author, whose previous publications have been warmly received by the Hindu publio, has dealt in fine terse language with plenty of illustrations and stories with some of the basic doctrines both of Sankhya and of yoga philosophy. He bas further given a discourse . on each chapter correlating the taching and
picking out the central thread, which 18 running throughout this great and universally accepted revelation:
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( १३ ). A variety of new standpoints, the same teaching in a different from and from a neve angle, is therefore belpful, and it is in this * light that we strongly recommend lovers of Gita to read this Hindi publication of Swami Attmanard Muni (३. बोम्बे-क्रानिकल ता० १६-१२-४३ समालोचक माननीय
श्रीमनु सूवेदार (M.L A. Central)
यह अमूल्य रचना दो खण्डोंमे विभक्त है। पहले खण्डमें मूल श्लोक और उनका भावार्थ दिया गया है। प्रत्येक अभ्यायके अन्तमें उसी अध्यायका स्पष्टीकरण भी दिया गया है । परन्तु यह वह पहला खण्ड है, जोकि भारतके गीता-साहित्यके लिये एक मौलिक और स्वतंत्र देन है इसमें लेखकने 'सांख्य व 'योग' दोनोंके मूलभूत सिद्धान्त अनेकों युक्तियों व दृष्टान्तोंसे सुन्दर व संक्षिप्त भापामें खोला है। उन्होंने प्रत्येक अध्यायपर समालोचना भी दी है, जिसके द्वारा उन्होंने गीताके उपदेशोंका समन्वय किया है तथा इस जगन्मान्य भगवद्-वाणीमे आदिसे अन्ततक चलनेवाले सारभूत सूत्रको पकडकर प्रकटकर दिया है। ___ नये नये मतोंका कई रूपोंमें प्रतिपादन तथा मूलभूत उपदेशका एक निराले ढंगसे तथा नये दृष्टिकोणसे विवेचन बहुत उपयोगी है । इस आधारवर हम गीताप्रेमियोंको सानुरोध • परामर्श देते हैं कि वे इस हिन्दी रचनाका मनन करें। (४) माधुरी' लखनउ, अक्टूबर सन् १६४४, समालोचक राय बहादुर श्री मदनमोहनजी वर्मा, एम ए, सेक्रटी शिक्षा-विभागबोर्ड अजमेर, वर्तमान रजिस्ट्रार राजपूताना विश्व विद्यालय
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हिन्दुधर्मके अध्यात्मिक ग्रन्थोंमें श्रीमद्भगवद्गीताका अनूठा स्थान है और यह सदग्रन्थ भारतके अतिरिक्त पाश्चात्य देशोंमे भी प्रतिष्ठित है। इसकी अनेक टीकाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं । परन्तु बहुधा टीकाकारोंने अपनी-अपनी निष्ठाके अनुसार अपनी टिप्पणियोंमें 'कर्म'को विशेष स्थान देकर साधन
और साध्यको अभेद सा कर दिया है। स्वर्गीय विद्यावाचस्पति तिलक महोदयने अपनी प्रख्यात पुस्तक 'गीता-रहस्यमै गीताके सूक्ष्म उपदेशको कर्मपर ही तोड़ दिया है। ज्ञाननिष्ठ श्रीआत्मानन्द मुनिजी महाराजने 'गीता-दपर्ण रचकर एक प्रकारसे दूध-का-दूध और पानी-का-पानी कर दिया है और अपने स्थान पर कर्मकी उपयोगिताको मानते हुए यह सिद्ध किया है कि निष्काम कर्म गीताके सूक्ष्म उपदेशकी पराकाष्ठा नहीं है, परन्
आत्मसाक्षात्कारके पात्र वननेका एक साधन है। स्वामीजीने बड़े परिश्रम तथा बड़ी विद्वत्तासे ही नहीं, बल्कि स्वानुभावसे गीताके अमृतमय उपदेशोंमें पद-पदपर जो रहस्य भरा पड़ा है, उसपर खूब ही प्रकाश डाला है। हो सकता है कि आधुनिक टीकाकारोंकी मर-मारसे पीड़ित होकर लेखककी लेखनीमे कर्मवादियोंके प्रति कहीं-कहीं किसी अंशमें कठोरता नहीं तो पक्षपातकी-सी झलक प्रतीत हो और भापाकी दृष्टिसे कई बातें अनेक बार दुहराई गई मालूम हों, परन्तु उससे यह लाभ भी होगा कि अधिकतर आधुनिक टीकाकारोंकी टीकाएँ जिन्होंने पढी हैं, उनको तथा अन्य पाठकोंको स्वामीजीके स्पष्ट, विस्तृत व सरल लेखनीद्वारा समझनेमे बड़ी सुगमता होगी। इस अप्रिसे गीता-दर्पण' एक बड़ी ही उपयोगी और नवीन पुस्तक सावित होगी, जिससे जिज्ञासु व विद्वान् परम लाम उठावेंगे(५ पं० श्रीदुगोशङ्करजी नागर सम्मादक 'कल्प-वृक्ष' उज्जैन
पुस्तक वास्तवमें अपने ढगकी अनूठी है । आपने इसे
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( 94 ) प्रकाशित करके आध्यात्मिक जगतको एक अमूल्य वस्तुप्रदान की है। इसके लिये आपको हार्दिक धन्यवाद । (6 TRIBUNE Monday January 13. 1944
What is karam, wherein lies the salvation of man ? What 18 freedom, bondage, yoga, knowledge, happiness and Maya ? How the universe grow? These and many other rele. tant questions pertaining to the Philosophy of the Gita bave been answered in this work of great utility in a lengthy introduction for. ming the first part, covering more than 300 pages, with a critical analysis of each chapt. er with useful annotations. The historical setting in the form of a narrative leading to the origin of tbe Gita, is- appropriately appended to the introduction. In must be said in fairness to the author that the exposition of the various difficult subjects has been given 'in simple language which is quite understandable by an average reader for whom this work is meant ?
The Gita epitomizes the essentials of Hindu religion and philosophy but fow people have the necessary time, and opportunity to delve deep into its inmost recesses and to study its abstruse original cammenta.
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ries in Sanskrit. The rendering of the origi. nal "Slokas" of the Gita into simple Hindi and the Lucid disperations given by Swamij, will certainly help to popularise the great teachings of Lord Krishna the gospel of Truth and Karam which has moved many a' time the infldels to the depth of their very souls (६ 'ट्रीब्यून' लाहौर ता० १० जनवरी सं० १६४४
कर्म क्या है और किम स्थलपर मनुष्यका इमसे निस्तार हो सकता है ? 'मुक्ति', 'वन्धन', 'योग', 'जान', 'श्रानन्द' और 'माया' क्या हैं ? विश्व कैसे उत्पन्न हुआ ? ये तथा अन्य बहुतसे गीता-दर्शनसे सम्बन्धित प्रश्न बड़े रहस्यके साथ इस ग्रन्थ की विशाल प्रस्तावनामे, जो 300 पृष्ठमे है, प्रत्येक अध्यायका सूचम विश्लेषण करते हुए लाभदायक व्याख्याके साथ हल किये गये हैं। यह कहना न्यायसंगत ही होगा कि अनेक कठिन विषय एक सरल भाषामें ममझाये गये हैं, जोकि साधारण पाठकके समझमे आनेयोग्य हैं, जिनको लक्ष्य करके ही यह पुस्तक लिखी गई है । गीताके असली श्लोकोंका हिन्दीमै सरल अनुवाद तथा स्पष्ट विवरण जो स्वामीजीके द्वारा दिया गया है वह निश्चयसे भगवान् श्रीकृष्णके महान् उपदेशके प्रचारमे सहायक होगा, जोकि 'सत्य' व 'कर्म का सन्देश है और जिसने नास्तिकोंके भी हृदयतलको हिला दिया है। 17 HINDUSTAN TIMES Monday January 10 1944.
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(१७)
Commentaries on the Gita are legion. Almost every major Philosphical writer and religious teacher during the last seven hund. rod years has reinterpreated its rich doctrine to'gain support for his own point of view, Swami Atmanand Muni's' commentary is ah interesting addition to the Gita literature, Swamiji has emphasized the Janna aspect of Yoga in a way somewhate different from shankara and reinforced his arugment with a wealth of homely illustrations. , (७) 'हिन्दुस्थान टाइम्स' १८ जनवरी सं० १६४४ .
गीतापर अनेकानेक भाष्य हैं, लंग-भग प्रत्येक दर्शनाचार्य और धर्मोपदेशकने गत २० वर्षमे अपने-अपने दृष्टिकोणको समर्थन करनेके लिये गीताके अमूल्य सिद्धान्तको पुनः पुनः व्याख्या की है। स्वामी आत्मानन्द मुनिका भाष्य गीतासाहित्य के लिये एक चित्ताकर्षक वृद्धि करनेवाला है । स्वामीजीने 'योग' को ज्ञानके पहलुमें ग्रहण किया है जोकि शङ्करसे याकिन्चित् भिन्न है और सबके निजी अनुभवमे आनेवाली बहुत-सी युक्तियों और दृष्टान्तोंसे उसकी पुष्टि की है। (8) PRABUDDHA BHARATA Page 221
: May 1944 The book consists of two parts The first Part, in which the author's originality comes out very strikingly, deals with the
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( १८ )
basic doctrines of sankhya and yoga. In the second part are the shlokas of the Gata follow ed by the author's elucidations. After uach chapter there 18a resume of the main topics. Furthermore the author, with judicious care picks up the main themes and waves them into a beautiful pattern. All the main philosophical terms receive careful consideration and exposition,
Gita epitomizes the essentials of Hinduism. As such, it should be studied from all possible points of view. We therefore, welcome this volume beartily, though we do not agree fully with its author. The Sanskrit commentaries are too often beyond the in telleotual ken of the masses This Hindi exposition is calculated to reach wider public - ()'प्रबुद्ध-भारत' मई सं० १६४४-इस पुस्तकके दो खण्ड है, प्रथम सएड जिसमें लेखककी विचार-स्वातंत्र्यता चिताकर्षक रूप से निपर आती है, वहा संख्य' व 'योग'के तात्त्विक सिद्धान्तोंसे सम्बन्धित है। दूमरे खण्डमें गीताके श्लोक हैं जिनके साथ लेखक ने अपना भावार्थ भी दिया है। प्रत्येक अध्यायके अन्तमें उसी अध्यायके सारतत्त्वोंफा स्पष्टिकरण भी दिया गया है। इसके अतिरिक्त लेखकने न्यायपूर्वक सावधानीसे मुख्य लक्ष्यको चुनफर उसे सुन्दर नमूनेमे पिरो दिया है । सम्पूर्ण दार्शनिक परिभाषाओंका सावधानीसे ध्यानपूर्वक विश्लेषण किया गया है।
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१६
)
गीतामें हिन्दु धर्मके समस्त सारतत्वोंका संग्रह है। इसलिये इस अन्थका प्रत्येक सम्भव दृष्टिसे स्वाध्याय करना चाहिये । अतः, हम इस रचनाका हृदयसलसे स्वागत करते हैं, यद्यपि हम सर्व अंशमें लेखफसे सहमत नहीं है। संस्कृतके भाष्य बहुधा जनसाधारणकी समझसे बाहर हैं, हमें आशा है कि यह हिन्दी भाष्य जनसाधारणके हाथोंमें विस्तृत रूपसे पहुँचेगा।
मिलने का पता:(१) श्री मैनेजर श्रद्धा-साहित्य-निकेवन, कचहरी रोड़, अजमेर (२) भ० गणपतराम गंगाराम सर्राफ, नयावाजार, अजमेर
निवेदकजयकृष्ण टंडन,
सेक्रेटरी ट्रस्ट
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( २० ।
॥ॐ॥
* भूमिका
'केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि' [अर्थात् हृदयस्थित किसी देवके द्वारा जैसे मैं जोड़ दिया जाता हूँ, वैसे ही बलात्कारसे मुझे करना होता है।]
उक्त वचनके अनुसार ग्रन्थरचनाका कोई सङ्कल्प न होते हुए भी,न जाने किस बलवान् शक्तिद्वारा गन्थाकारमे ये पक्तियाँ इसीप्रकार बलात्कारसे लिखा दी गई हैं, जैसे कोई हृदयमे खलबली मचाकर और हायमें कुलम पकड़ाकर आग्रहपूर्वक कहता हो कि लिख । इस लिये लेखकने भी बिना किसी ऐसे विचारोंके कि 'ये पंक्तियाँ विद्वानों और महानुभावोंके सम्मुख
आदरणीय होंगी या नहीं, अथवा ठुकराई जाकर अपमानित तो न होंगी किसी काभावके बिना निर्भयतासे जैसी अन्दरसे प्रेरणा हुई और जिसपर अन्दरवालेने अपनी स्वीकृतिकी मोहर लगाई, न्यूँ की-त्यू लिख दी गई हैं। जिसप्रकार शरीरमें फोड़ा उत्पन्न होकर पीप मर जाय, तब पीप अपने निकलनेका मार्ग चाहती है और जबतक उसको निकलनेका मार्ग न दिया जाय चित्तको चञ्चल ही करती है तथा पीपके निकल जानेसे शान्ति प्राप्त होती है। ठीक इसी प्रकार अन्धरचनाका यदि कोई प्रयोजन
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( २१ ) हो सकता है तो इतना ही, कि समय-समयपर विचारोंके प्रवाहने जब-जब अन्दर खलबली मचाई तब-तब उनको निकालकर चित्त को शान्त कर लिया गया। शेषमें यह प्रन्थ किसोके लिये कुछ उपयोगी होगा या नहीं, यह तो दृष्टि रक्खी ही नहीं गई है। क्योंकि ईश्वरको नीति कुछ ऐमी ही है कि कोई वस्तु कदापि निरुपयोगी उत्पन्न होती ही नहीं है, जैसी वस्तु उत्पन्न होती है उसकी उत्पत्तिसे पहले वैसे ही उसके ग्राहक भी मौजूद रहते हैं। जिसप्रकार समुद्र-मथनके समय अमृत और वारुणी साथ-साथ उत्पन्न हुए, परन्तु उनकी उत्पत्तिसे पहले ही वस्तु के अनुसार उन दोनोंके ग्राहक देव और असुर हाजिर खड़े हुए थे।
संसारमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दो ही मार्ग हैं। दोनों प्रकारके मार्गावलम्बियोंको अपने अपने अधिकारानुसार जिस-जिसमार्गके जिस-जिस सोपानप जो अधिकारी है, उसको यह गन्थ श्रामविकासका मार्ग देगा, ऐसी शशा की जाती है। 'पुण्य-पापकी व्याख्या में प्रवृत्ति-मार्ग और 'माधारण धर्म' शीर्षकमें निवृत्तिमार्गका बहुलतासे वर्णन है। • अपनी अज्ञान-निद्रामें यह आत्मदेव प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप कैसे-कैसे विलास (खेल) करता है,इसी विषयका इस गन्थमें निरूपण हुआ है, इसलिये इस गन्थका नाम 'यात्मविलास रखा गया है ।। ॐ॥
-लेखक
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॥ॐ॥
२२
PARAN
-ग्रन्थ
ब्रह्मलीन पूज्यपाद देवाधिदेव श्रीगुरुदेव श्री १०८ मुनिराज श्रीस्वामी रामेश्वरानन्दजी महाराजके
चरण कमलों में
हे गुरो ! तीन लोक, चौदह भुवन, सप्त द्वीप, नव खण्ड केवल आपका भृकुटी-विलास है। आपके नेत्र खोलनेसे संसार की उत्तपति और नेत्र बन्द करनेसे ससारका प्रलय स्वतः सिद्ध है। अनन्त ब्रह्माण्ड आपका स्फुरणमात्र है। अखिल संसारके
आदि कारण 'कारणं कारणानाम्'• आप ही हैं, सत्यस्य सत्य प्राणा वै मत्यं तेषामेष सत्यमिति' सत्यके सत्य वह परम सत्य पाप ही हैं । सव कुछ करते हुए भी आप अकर्ता हैं सब कुछ भोगते हुए भी आप अभोक्ता हैं । हे सर्वसाक्षिन् । सम्पूर्ण अध्यात्म, आदिदेव और अधिभूत अर्थात समष्टि इन्द्रियों,उनके विषय और उनके देवता आपके स्वरूपमें मायामात्र हैं, जोकि
आपके आश्रय प्रतीत होते हुए भी आपके स्वरूपमे इनका न भाव हैन अभाव । सभी भाव-अभावोंसे परे आप परम भावरूप हैं और किमी भी वृत्तिके विषय नहीं होते । यद्यपि प्रत्येक वृत्ति और प्रत्येक भाव-अभावरूप विषयमें आप होते जरूर हैं तथा सर्वरूप होरर नयके द्रष्टा भी हैं, परन्तु किसी करके दिखलाई नहीं पढते।
'येनेदं सर्व विजानाति तं केन विजानीयात' हे सर्वात्मन् ! यद्यपि आप सबकी आत्मा हैं, सबके अपनेआप हैं और नको देसते-जानते हैं, तथापि आपको देखे व जाने विना बड़ा कष्ट है । संसारके सब दुःखोंका मूल केवल आप
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( २३ ) को न देखना और न जानना ही है। सब भूत प्राणियोंके जीवन का लक्ष्य साक्षात अथवा परम्परा करके एकमात्र आपके स्वरूप की प्राप्ति ही है। न जाने आप कैसे मधुर होंगे ? जिन्होंने सभी भूत-प्राणियोंको अपने लिये ऐसे ही व्याकुल किया हुआ है, जैसे 'फणि मणि विनु जिमि जल बिनु मीना।
हे देव ! साक्षात् श्राप न यज्ञसे प्राप्त किये जाते हैं न तपसे, 'न दान करके ही श्राप मिलते हैं न जपसे, न तीर्थयात्रा करके हो
आपको पाया जा सकता है और न व्रत करके। यदि आप हमसे कुछ भिन्न हुए होते तो इन साधनाद्वारा आपको भली-भाँति मनाया जा सकता था। परन्तु आप तो सबके अपने-श्राप है, फिर साक्षात् इन साधनोंद्वारा आपको कैसे पाया जाय ? केवल महावाक्यरूप शंन्टोसे सर्वत्यागद्वारा अपने ज्ञान करके ही आप पाये जाते हैं, अन्य कोई मार्ग आपकी प्राप्ति के लिये न हुआ है और न होगा। . 'नान्यः पन्था विमुक्तये ।
यद्यपि आपको जानकर शन्द निस्सार हो जाते हैं, तथापि जाने जाते हैं श्राप शन्दोंद्वारा ही। जैसे धानको लेकर भूसा त्याग कर दिया जाता है, परन्तु धानकी प्राप्ति होती तो भूसेसे ही है। . हे वैराग्यमूर्चि शिवस्वरूप ! पत्र-पुष्परूपसे ये कुछ त्यागकी भेटें आपके चरण-कमलोंमें निवेदन की जा रही हैं । यद्यपि श्राप के दर्शनसे त्यागका भी त्याग सिद्ध हो जाता है, तथापि जिस प्रकार दीपकसे सूर्यनारायणकी आरती करनेमें सूर्यनारायणको प्रकाश करना उद्देश्य न जान, केवल भावुक भक्तका भाव ही ग्रहण कर लिया जाता है ।इसी प्रकार इन भेटस्वरूप पत्र-पुष्पोंसे
आप भ्रमरके समान अपने प्रिय शिष्यके भावरूप सुगन्धको ग्रहण करनेकी कृपा करें, यही आपके चरणों में विनम्र निवेदन है ॥
दासानुदास-आत्मानन्द मुनि
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( २४ ) विषय सूची:
प्रथम खण्ड पुण्य-पापकी व्याख्या १-६१
पृष्टांक
१ सृष्टिकी उत्पत्तिका निमित्त व त्रिविध प्रल्यनिरूपण १ २ द्विविध भोग, उनका निमित्त तथा जीवनका लक्ष्य ३ धर्मका निर्णय और त्रिविध बुद्धिके लक्षण ४ पुण्य-पापका निर्णय ५ पुण्य व पापके हेतु राग व द्वषपर विचार ६ रागसे पुण्य व द्वे पसे पापमें रहस्य । ७ जीव-विकासवाद-निरूपण ... ...१८ ८ मनुष्य योनिमें पुण्य-पापका बन्धन क्योंकर हुआ ? २४ ६ मनुष्य योनिमें किस-किस अवस्थामे कमेका वन्धन नहीं रहता?
. २६ १. मनुष्येतर योनियोंमें पुण्य-पापका असम्भव और
मनुष्य योनिमें जीवका कर्तव्य ११ प्रकृतिका अटल नियम ' .
...३३ १२ प्रकृतिका अन्य अटल नियम ..
...४० १३ प्रवृत्ति व निवृत्तिभेद तथा प्रवृत्तिमार्गकी पॉच श्रोणियाँ ४३ १. प्रथम श्रेणी, उद्भिज-मनुष्य अर्थात् पेटपालु २५ द्वितीय श्रेणी, कीट-मनुष्य अथोत् कुटुम्बपालु ...४६ १६ तृतीय श्रेणी, पशु-मनुष्य अर्थात् जातिप्रेमी ...४८ २७ चतुर्थ श्रेणी, मनुष्य पदवाच्य-मनुष्य अर्थात् देशभक्त १८ पञ्चम श्रेणी, देव-मनुष्य अर्थात् तत्त्ववेत्ता १६ उपसंहार
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...७०
...७४
साधारण धर्म ६२-२६४ २० प्राणीमात्रका व्येय केवल सुख है २१ सुखका उद्गम स्थान और धर्मका स्वरूप २२ धर्मका प्राण केवल त्याग है ... २६ भोग्य पदार्थोंमें सुखका असम्भव २४ सुख इच्छानिवृत्तिमे ही है २५ सुखकी साक्षात् प्राप्ति केवल अहङ्कारसे पल्ला छुड़ानेमे है २६ स्वधर्म क्या है ?
...२ २७ धर्म व अधिकारका परस्पर सम्बन्ध ...४
(१) पामर पुरुष ८८.१०६ २८ पामर-पुरुपके लक्षण और उसके प्रति उपदेश ... २८ धार्मिक विवाहका उद्देश्य ... ३० 'वैताल' शब्दकी व्याख्या ...
...६४ ३१ पामर-पुरुषोंद्वारा किये जानेवाले यज्ञ-दानादिका स्वरूप ६५ ३२ पामर-पुरुपोंका प्राकृत स्वभाव तथा वैतालके चरणोंमें त्यागकी प्रथम भेट
... ३३ वैतालके चरणोंमे त्यागकी द्वितीय भेट
- (२) पिपयी पुरुष ३०६-१२७ ३४ विपयी पुरुपके लक्षण
....१०६ ३५ विपयी पुरुपके साथ परस्पर विचारोंका परिवर्तन
., तथा इहलौकिक पदार्थोमें सुखका असम्भव ...११० ३६ स्वर्गसम्बन्धी भोग्य-विपयोंमें सुखका असम्भव , ...११७ ३५ सुखस्वरूपी वैवालके चरणों में स्याकी तीसरी भेट...१२२ ३७ त्यागकी तीसरी मेटका भावार्थ और उसका फल ...१२५
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( २६ )
(३) निष्काम निज्ञासु १२७.१५६
३६ चतुर्थ भेट व निष्काम-जिज्ञासुका स्वरूप
.. १२७ ४० भावका महत्व
. १२६ ४१ वन्ध व मोन हेतुक भावका स्वरूप ...१३० ४२ निष्काम कर्मका उपयोग व स्वरूप ...१३२ ४३ कर्मका महत्त्व ४४ कर्मकी व्याख्या ४५ कर्मकी अनिवार्यता ४६ कर्मद्वारा प्रकृतिकी निवृत्तिमुखीनता ...१४१ ४७ निष्काम कर्मका रहस्य ... ४८ कर्म-अकर्मका रहस्य . ४६ निष्काम-कर्मका उपसहार और त्यागकी पञ्चम भेट १५५
...१३६ ...१३६
...१३
...१४४
(७) उपासक जिज्ञासु १५६-२३९
...१५६ ...१५७
५० उपासना व भक्तिका अर्थ ... ५१ प्रेम-महिमा ५२ प्रेमका उत्तर ५३ उपयुक्त समतारूपी प्रेमका साधन ५४ सगुण भक्तिकी आवश्यकता ५५ श्रद्धाका महत्त्व ५६ सगुण-उपासनाका साधन, प्रथम श्रेणी ५७ द्वितीय श्रेणी, श्रवण-भक्ति ५८ तृतीय श्रेणी, कीर्तनभक्वि
चतुर्थ श्रेणी, स्मरण-भक्ति व नाम-महिमा
...१७३ ...१७७ ...१७६
...११
....१८३
...१८४
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(२७ )
६० पञ्चम श्रेणी, प्रतिमा-पूजन अर्थान् पाद-सेवन,
अर्चन, वन्दन-भक्ति ६१ प्रतिमापूजनकी अनिवार्यता
...२०४ ६२ उपास्यदेव
...२१२ विष्णु भूतिमें कारण-ब्रह्मरूप निर्गुण-भाव
...२१६ '६४ शिव-मूर्तिम कारण-ब्रह्मरूप निर्गुण-भाव
...२१६ '६५ सूर्य मूर्तिमें कारण-ब्रह्मरूप निर्गुण-भाव
...२२३ ६६ गणेश मूर्तिमें कारण-ब्रह्मरूप निर्गुण-भाव
...२२५ ६७ शक्ति मूर्ति में कारण-ब्रह्मरूप निगुण-भाव. ...२२६ ६८ पूजाका रहस्य
...२३४ ६६ उपासनाकी छठी श्रेणी मानसिक पूजा ...२३७
(५) वैराग्यवान जिज्ञासु २४०.२६४ ७. वैराग्यका हेतु च स्वरूप
...२४० ७१ वैराग्यवानके चित्तकी अवस्था ७२ वैराग्यको शुभागमन, चतुर्विध वैराग्य-निरूपण ...२५१ ७३ वैराग्यशून्य पुरुपकी वेदान्त-प्रवृत्तिमें दोप
...२५५ ७४ पूर्णपक्षीकी शका व समाधान
द्वितीय खण्ड १-१३४ ७५ तिलक-मत निरूपण ७६ तिलक-भतके प्रथम अङ्कका निराकरण ७७ तिलक मतके द्वितीय अङ्कका निराकरण
तिलक मत्तके तृतीय अङ्कका निराकरण ७ तिलक-मतके चतुर्थ अङ्कका निराकरण ८० ,तिलक मतके पंचम अङ्कका निराकरण
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(
२८
)
...११६
५१ विलक-मतमें प्रमाणभूत गीता-श्लोकींकी समालोचना । ८२ तिलक-मतके षष्ट अङ्कका निराकरण २३. तिलक-मतके सप्तम अङ्कका निराकरण ८४ तिलक-मतके अष्टम अङ्कका निराकरण ८५ देशभक्त नवयुवकोंसे विनती ८६ तिलक-मतके नवम अङ्कका निराकरण ....१११. २७ उपसहार
...११२ मम त्याग-वैराग्यपर पूर्वपक्ष RE उक्त पूर्णपक्षका समाधान
...११६ ज्ञान १३५.१४६ ६० कर्मजन्य अपूर्व ज्ञानमें उपयोगी सामग्रीका जनक है १३५ ६१ मद्गुरु-महिमा
...१३५ १२ ज्ञानमें उपयोगी त्रिविध कृपा और विचार-महिमा ..१४३
सम-विधार १४०-२०७ १३ एक निर्षिकार कूटस्थ सत्ताके आश्रय ही अशेप
विकारोंका सम्भव है (अङ्क १-५) ...१४७ ६४ त्रिविध परिच्छेदोंकी अन्योऽन्याश्रयता (अङ्क ६-२६) १५१ ६५ कारण-कार्य-अभेद (अङ्क-२७-३८)
...१६४ १६ जाग्रत् व स्वप्नका अभेद् (अङ्क ३६-५२) ...१७३ १७ वशिष्ठ, वाचस्पति और एक जीववाद निरूपण तथा
उक्त तीनों मतोंकी परस्पर सङ्गति( अङ्क ५३-७०)१८७' पर उपसंहार
...२०५ परिशिष्ट भाग-मनको एकाग्रता और तत्सम्बन्धो
विभिन्न विचार व प्रार्थनाएँ
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ॐ तत्सत् ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
आत्मविलास
पुण्य-पाप की व्याख्या
वेदका सिद्धांत है कि संसार जीवको भोगरूप है, जीव सृष्टिको उत्पत्तिका के भोगसे भिन्न संसारका और कोई निमित्त और त्रिविध- रूप नहीं । अर्थात् जीवके कर्मसंस्कार प्रलयनिरूपण
| जव भोगके सम्मुख होते हैं, तब वे ही संसारके रूपमें परिणत होते है और जब वे भोग देनेके सम्मुख नहीं होते, तव संसारका लय हो जाता है। जैसे बीज ही वृक्षरूपमें विकसित होता है, इसी प्रकार भोगके सम्मुख कर्मसंस्कार ही संसाररूपमें विकसित होते हैं । यथा श्रुतिः
तद्यथेह कर्मवितो लोकः क्षीयते
एवमेवामुत्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते
अर्थ यह है कि जिस प्रकार यह कर्मरचित लोक क्षय हो जाता है, उसी प्रकार पुण्यरचित परलोक स्वर्गादिक भी अपना भोग ।
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[२
आत्मविलास] देकर क्षय होजाते हैं। सो लोकक्षय अथवा प्रलय नित्य, नैमित्तिक और महाप्रलय रूपसे तीन प्रकारका माना गया है । यथाः-- __(१) नित्य ही सुपुप्त अवस्थामै जीवके कर्मसस्कार भोगसे उदासीन रहते हैं, नित्य ही ऐमा होते रहनेसे इसको, नित्य-प्रलय कहते हैं।
(२) जव प्रारब्धका अन्त होकर शरीर मृत्युसम्मुम्ब होता है, तव अन्य शरीरकी प्राप्तिपर्यन्त नैमित्तिक-प्रलय कहा जाता है, क्योंकि प्रारब्धके क्षयके निमित्तसे ही इस प्रलयकी उत्पत्ति होती है।
(३) जब अपने परमात्मस्वरूपके साक्षात्कारके अनन्तर अविद्याकी निवृतिद्वारा संचित व प्रारब्ध कर्मका नाश हो जाता है, तब इसको महाप्रलय कहते हैं।
-
इससे सिद्ध हुआ कि मोगके सम्मुख जीवके कर्मसस्कार ही द्विविध भोग उनका | संसाररूपमें प्रकट होते हैं, ससारका निमित्त तथा जीवन और कोई रूप नहीं।सो भोग सुखरूप व का लक्ष्य ... दुःखरूप दो ही भागोंमें विभक्त कियाजा सकता है । सुख व दुखकी उत्पत्ति पुण्य व पापसे होती है । पुण्यसे सुख और पापसे दुःख उत्पन्न होता है। सुखकी प्राप्ति और दुःखकी निवृत्ति प्रत्येक प्राणी के जीवनका निर्विवाद लक्ष्य है। प्रत्येक प्राणी अपने जीवनभर में दिन-रात इसी लक्ष्यकी पूर्तिमे लगा हुआ है कि दुःखोंकी अत्यन्त निवृत्ति हो और ऐसा सुख मिले जिसका कभी क्षय, न हो। परन्तु जब तक दुःख-सुखका मूल पाप व । पुण्यका प्रवाह चल रहा है, इस लक्ष्यकी पूति कैसे सम्भव हो
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लक्षण
. ।
[ पुण्य-पाप की व्याख्या सकती है ?, इसलिये दुःख व सुखका मूल कारण जो पाप व पुण्य है, उनका तत्त्व यथार्थ रूपसे जानना आवश्यक है वास्तविक रहस्यको जाने विना बहुत-सी भूलोंका होना सम्भव है। यद्यपि शाखांमें यह विषय अनेक इतिहासों व दृष्टान्तों से स्पष्ट हुआ है, फिर भी यह विषय बड़ा गहन है । 'गहना कर्मणो गतिः। यक्षके प्रश्न पर युधिष्ठरने कहा है :- .
| तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः धर्मका निर्णय और निविध बुद्धि के
नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां, . महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥
( महाभारत, वनपर्व) भावार्थ:-धर्मका मार्ग कैसे निर्णय किया जाय ? इस विषय मे-युधिष्ठिर महाराज कहते हैं किः। तर्क अर्थात् दलील अनिश्चित है, इसीसे धर्मका निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि जो जितना बुद्धिमान होगा वह दूसरेकी युक्तियोंको बुद्धिवलसे. काट सकता है। श्रुति भी भिन्न र हैं, इस लिये केवल श्रुतिके आधार पर भी धर्मका निर्णय नहीं हो सकता। मुनि भी अनेक हुए हैं और उनके वचनोंमें भी भेद है तथा ऐसा कोई मुनि नहीं जिसका वचन प्रमाणभूत न हो। अतः धर्मका तत्त्व शुद्धसात्त्विकवुद्धिरूपी गुहामें स्थित है, अर्थात् सात्त्विकी बुद्धिद्वारा वेद व मुनियोंके वचनके अनुकूल तर्ककी संगति लंगाकर श्रेष्ठ पुरुष जिस मार्गसे गये हैं, वहीं धर्ममार्ग हो सकता है। श्राशय यह है कि (१) वेद, (२) मुनियों का वचन, (३) श्रेष्ठ पुरुपोंका व्यवहार (४) और शुद्ध सात्त्विकबुद्धिद्वारा
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श्रामविलाम] उक्त तीनोंकी युक्तियुक्त संगति, किसी भी धर्ममार्गके निर्णय करने के लिये इन चारोंका मेल आवश्यक है। इन चारोंकी संगतिद्वारा जो निर्णय होगा वह निर्दोप निर्णय कहा जायगा।
इसी लिये गीताके १८ वें अध्यायमे सत्त्व, रज व तमभेद से बुद्धि तीन प्रकार की निर्णय की गई है यथाः
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये । वन्धं मोदं च या वेत्ति बुद्धिःसा पार्थ सात्त्वकी । यया धर्ममधर्म व कार्य चाकार्यमेव च । अयथावत्मजानाति बुद्धिःसा पार्थ राजस। ॥ अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता । सर्वार्थाविपरोतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥
श्लो० ३०, ३१, ३२ अर्थ:-हे पार्थ । जिस बुद्धिद्वारा प्रवृत्ति-निवृत्ति, कर्तव्यअकर्तव्य, मय-अभय तथा बन्ध-मोक्ष यथावत् जाना जाय वह बुद्धि सात्त्विकी है। जिस बुद्धिद्वारा धर्म-अधर्म तथा कर्तव्यअकर्तव्य यथावत् न जाना जाय, वह रजोगुणो बुद्धि है । तथा तमोगुण करके श्रावृत जिस बुद्धिद्वारा अधर्मको ही धर्म मान लिया जाय और सभी अोंको विपरीत जाना जाय, वह तामसी है।
धर्तमानमें मत-मतान्तरोंका वादविवाद भी इसी कारण से है कि प्राशयके यथार्य समझे विना केवल शब्दों व पंक्तियाँ की ही चातानी की जाती है। विषय यद्यपि गहन है तथापि
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[पाप-पुण्य की व्याख्या शास्त्रोंके बहुत मे प्रमाण न देकर, परन्तु उनके आशयको दृष्टि में रख कर निजी अनुभवके आधार पर कुछ कहा जायगा।
पुण्य-पापका निर्णय शरीर तथा मनकी स्थूल चेष्टासे नहीं या हो सकता, परन्तु कताकी चुद्धिके भाव
पर ही पुण्य व पाप निर्भर है भाव कहिये, का निर्णय
| खयाल कहिये या विचार कह लीजिये, भाव ही जीवके बन्ध-मोक्षका हेतु है, स्थूल कर्म वन्ध-मोक्ष का हेतु नहीं । स्थूलदष्टिसे पाप-कर्म भी भावके परिवर्तनसे पुण्यरूप बन सकता है तथा पुण्य-कर्म पापरूप हो सकता है। इस विषयको स्पष्ट करनेके लिये हम एक कहानी कहेगे:
किसी ग्राममें एक दुष्ट पापी मनुष्य रहता था, उसका सम्पूर्ण जीवन दुराचार व पापाचरणमे ही व्यतीत हुा । प्रकृतिका नियम है कि प्रत्येक पदार्थ जव गिरावकी सीमाको पहुँच जाता है तब वहाँसे उसका उठना स्वाभाविक है। क्या देश, क्या जाति,क्या व्यक्ति सभी पर इस नियमका राज्य है। इसी नियमके अनुमार उस मनुष्यको विचार उत्पन्न हुआ कि 'मेरा सम्पूर्ण जीवन दुष्ट काँमें ही व्यतीत हुआ, हाय । अन्त समय मेरी क्या गति होगी? हे प्रभो ! मैं किस प्रकार अपने दुराचारों से मुक्त होगा। इस प्रकार पश्चात्ताप करता हुआ, प्रामके वाहर एक महात्मा रहते थे, उनकी सेवामें वह रात्रिके समय गया। महात्माजी द्वार बन्द किये एकान्त सेवन कर रहे थे। इसने अपना नाम बतला कर उनसे द्वार खोलनेकी प्रार्थना की । इसकी प्रसिद्धि महात्माजी को पहले ज्ञात थी, उन्होंने समझा आज इमका वार हमारे उपर है, ऐसा विचार कर उन्होंने द्वार नहीं खोला। अन्तमें इसकी विशेष दीनता पर महात्माजीको दया आई और उन्होंने द्वार खोल दिया। यह दीनतापूर्वक महात्माजीके चरणों में लिपट
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[६
आत्मविलास] गया और अपने उद्वारका मार्ग पूछने लगा। महात्माजीने विचार किया कि 'इमकी सम्पूर्ण आयु तो दुराचारोंमें ही व्यतीत हुई है अब इसके लिये क्या उपदेश हो सकता है ! उपदेश भी पात्रमे ही शोभा पाता है। इस प्रकार इससे निराश होकर अपना पीछा छुडानेके लिये, उन्होंने एक शुष्क वॉसकी लाठी इसको देकर कहा कि "तू इस लाठीको लेकर जगलमे चला जा, जव यह लाठी हरी हो जाय तथा अगूर ले आवे तव हमारे पास श्राना ।” महामाजीका आशय तो यह था कि न लाठी हरी होगी न यह हमारे पास आयेगा । यह मनुष्य महात्माजीके वचनोंमे विश्वास रखकर तत्काल बाहर जंगलमे चला गयारात्रिके समय दूर जाताजाता थक कर एक प्रामके वाहर वृक्षके नीचे बैठ गया। थोड़ी देर पीछे दो मनुष्य आये और इससे थोड़े फासले पर वे भी एक वृक्षके नीचे बैठ गये। अन्धेरी रातमे उन्होंने इसको नहीं देखा
और वे परस्पर वार्तालाप करने लगे कि 'इस ग्राममें हमारा अमुक शत्रु रहता है उसको मारना हमें जरूरी है, यह हमने निश्चय कर लिया है । परन्तु यदि हम उस अकेलेको ही मारेंगे तो हमारी उसकी शत्रुता प्रसिद्ध है, इसलिये हम अवश्य पकडे जायेंगे । श्रेष्ठ उपाय यही है कि इस रात्रिके समय ग्रामको ही अग्नि लगा दें, जिससे सम्पूर्ण मनुष्योंके साथ वह भी जल मरेगा
और हम भी वच जायेगे।' इस प्रकार के वाते कर रहे थे और यह मनुष्य उनकी सव चचो सुन रहा था। इसका हृदय बड़ा दुःम्बी हुआ । इसने विचार किया, 'बड़ा अनर्थ है । एक जीवके लिये यह पापी सैकड़ों जीवोंकी हत्या करनेके लिये उद्यत हुए हैं, मेरा जीवन तो हजारों जीवो की हत्या करते ही व्यतीत हुआ है वहाँ यह दो हत्या और अधिक सही, परन्तु इन सैकड़ों जीवॉके तो प्राण बच जायेंगे।' ऐसा विचार कर वह चुप-चाप अंधेरे में उनके निकट गया और महात्माजीकी प्रदान की हुई लाठीसे
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७]
[ पुण्य-पाप की व्याख्या उसने दोनोंके सिर फोड दिये और चैनसे अलग जाकर सो रहा। प्रभात उठकर क्या देखता है कि जिस भागमे लाठी उनके रक्त से सनी हुई थी उसी भागमे वह हरी होगई और अंगूर निकल
आया। यह कोई आश्चर्य नहीं है, जहाँ समष्टि हित होता है उसके साधनभूत जड़ वॉसमें प्रकृति अपना प्रकाश कर सकती है, जिस प्रकार आनेवाले समष्टि हर्ष-शोक की सूचना पशु-पक्षियोंद्वारा तथा वृक्ष, गुल्म, लताओद्वारा प्रकृति स्वाभाविक देती रहती है, जैसाकि रामायणमे अनेक स्थलों पर ऐसा कथन किया गया है। तब वह मनुष्य बड़े प्रसन्नचित्तसे महात्माजीके पास दौड़ा गया
और उनके उपदेशका पात्र हुआ। - इससे सिद्ध हुआ कि मारणरूप कर्म, जोकि उसके लिये पापोंका ढेर बना हुआ था, वही भावके फेरसे परम पुण्यरूप सिद्ध होकर सम्पूर्ण पापोंका प्रायश्चित्त बन गया। अब देखना यह है कि कौनसा भाव पुण्यको उत्पन्न करनेवाला है और कौनसा पापको इस पर विचारद्वारा यह स्पष्ट होता है कि जिस भावमे जितनी मात्रामे हमारा स्वार्थत्याग होगा उतना ही वह पुण्यरूप होगा और जितनी मात्रामें स्वार्थकी पकड़ होगी उतना ही वह पापरूप होवेगा । जिस प्रकार सुख व दुख सापेक्ष न्यून-अधिक हैं, एक सुखसे दूसरा सुख अधिक और दूसरेसे पहला न्यून, तथा एक दु.खसे दूसरा दुःख अधिक और दूसरेसे पहला न्यून, इसी प्रकार पुण्य-पाप भी अवश्य सापेन न्यूनाधिक है तथा केवल पुण्य व केवल सुख इनसे विलक्षण है। इसको आगे चल कर स्पष्ट किया जायगा।
वेदान्त का कथन है कि रागसे पुण्यकी उत्पत्ति होती है पुण्य व पापके हेतु | और द्वेषसे पापकी वृद्धि होती हैं । अब गग-द्वेष पर विचार | यहाँ प्रश्न होता है कि कौन-सा राग पुण्य
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आत्मविलास ] को उत्पन्न करेगा ? क्या वह जिसमे हमारा व्यक्तिगत स्वार्थ भरा हुआ है ? नहीं, नहीं, स्वार्थमूलक राग पुण्यका हेतु कैसे हो सकता है ? वह तो पापरूप ही है। वही राग पुण्यरूप होगा, जिसमे हमारा व्यक्तिगत स्वार्थाश छूटा हुआ हो और जितने अशमे इस स्वार्थका अधिक त्याग होगा उतने ही अधिक अंश मे वह पुण्यरूप भी होगा। तथा कानसा द्वीप पापको उत्पन्न करेगा? क्या वह दुप, जिसमें हमारे स्वार्थका परित्याग है ? नहीं, ऐसा द्वीप तो पुण्यरूप होना चाहिये। वही द्वीप पापरूप होगा, जिसमें हमारे व्यक्तिगत स्वार्थ का लगाव है। इस विषय को दृष्टान्त स्थल पर स्पष्ट किया जाता है। . चोरी, जारी और हिंसा, तीन ही कर्म मुख्य पापके जनक हैं, और निदित कर्म इनके अन्तर्गत ही पा सकते हैं। अब इन तीनों का भिन्न-भिन्न विचार किया जाता है।
चोरी-चोरीमें राग पापरूप है और चोरीसे द्वप पुण्यरूप है, यह सभी शास्त्रोंका मत है। ऐसा क्यों ? इसीलिये कि चोर-कर्म दुष्ट स्वार्थमूलक है । परंतु यदि चोरीका ऐसा कोई दृष्टान्त मिले जिसमे स्वार्थत्यागका सवध हो तो वह अवश्य पुण्यरूप होगा । महर्षि विश्वामित्र के लिये १२ वर्षके दुष्काल के कारण कुत्ते के निकृष्ट भागके मांसकी चोरी, वह भी चांडाल के घरसे, पुण्यरूप हुई। क्यों ? इसीलिये कि इस अमक्ष्यभक्षणके द्वारा शरीरकी स्थितिमे उनका उद्देश्य भोगपरायण नहीं था, बल्कि परमोपकार-परायण था । परमोपकारके
अन्य पुरुपोंके इहलौकिक प्रेयसाधनको 'परोपकार' कहते है, सधा भन्य पुरुषोंका पारलौकिक श्रेयसाधन करना 'परमोपकार' कहा जाता है।
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[ पुण्यपापकी व्याख्या लिये इस निन्दित साधनद्वारा अभक्ष्य-भक्षण करके भी उन्होंने शरीरकी स्थितिको स्वीकार किया, जोकि उनके स्वार्थत्याग का चलन्त दुधांत है। इसीलिये यह कर्म पुण्यरूप हुआ। चौराग्रगण्य भगवान् श्रीकृष्णकी तो बात ही क्या है ? जिनके चोर-कर्मकी प्रशसाके कारण ही श्रीमद्भागवतको श्रादर मिला, जिनकी लीलाएं भक्तोंके हृदयरूपी नन्दन-वनके लिये आनन्दामृतवर्पिणी वन गई । किसी कविने इस चौराप्रगण्यको क्या ही सुन्दर नमस्कार किया है• बजे प्रसिद्धं नवनीतचौरं गोपाङ्गनानां च दुकूलचौरम् ।
अनेकजन्मार्जितपापचौरं चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ॥१॥ श्रीराधिकाया हृदयस्य चौरं नवाम्बुजश्यामलकान्तिचौरम् । शरणागतानांच समस्तचौरं चौरानगण्य पुरुष नमामि ॥२॥ - अर्थः जमे जो प्रसिद्ध माखनके चुरानेवाले हैं, जो गोपियोंके वस्त्र चुरानेवाले हैं और जो भक्तोंके अनेक जन्मों के संचित पापोंको चुरानेवाले हैं, ऐसे चोरों मे अग्रगण्य भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ। जो श्रीराधाजीके हृदयको चुरानेवाले हैं, नवीन कमलकी श्यामल कान्तिको चुरानेचाले हैं तथा शरणागतोंका (तन, मन, धन) सब कुछ चुरानेवाले हैं, ऐसे चोरोंमे अग्रगण्य भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ।
ऐसा क्यों हुआ? इसीलिये, कि उनका अपने शरीरके साथ कोई व्यक्तिगत अहंभाव ही मौजूद न था । स्वार्थकी तो वार्ता ही क्या ? स्वार्थका सम्बन्ध तो अहंभावसे ही होता है। न उनका अपना शरीर ही अपने पुण्य-पापरचित था, बल्कि
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[१० आत्मविलास] साधुओंके पुण्य और दुष्ठोंके पापरचित संस्कारों द्वारा ही उनके शरीरकी प्रकटता हुई थी । जैसा गीता अध्याय ४ मे कहा गया है:
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया । यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।
(श्लोक ६, ७ ८) अर्थ.-मैं अजन्मा व अविनाशीरूप होने पर भी और सव भूतोंका ईश्वर होने पर भी, अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी मायासे प्रकट होता हूँ। कब ? जब-जब धर्ममें ग्लानि उत्पन्न होती है, तब-तब मैं अपने रूपको प्रकट करता हूँ। क्यों ? साधु पुरुषोंका उद्धार तथा दुष्टोंका विनाश करनेके लिये मैं युग-युगमे प्रकट होता हूँ।
क्योंकि अपनी शारीरिक चेष्टाओंमे उनका किसी प्रकार कर्तृत्व-अहंकार नहीं था इसीलिये जिन्होंने उनकी चेष्टाओंसे द्वीप किया, भगवानको उन चेष्टाओंका पाप स्पर्श न करके उन द्वोपियोंको ही पापका सर्श हुआ । तथा जिन्होंने उनकी चेष्टाओंसे राग किया, उसका पुण्य भगवान्को स्पर्श न करके उन पुरुषोंको ही पुण्य भागी होना पड़ा। ईश्वरकोटिको छोड
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११]
[पुण्य-यापकी व्याख्या
कर अन्य जीवकोटिके युद्धानयोगियोंके साथ भी इसी नियम का सम्बन्ध है।
आशय यह है कि राग-द्वीप और पुण्य-पापका सम्बन्ध कंवल कर्तृत्व-अहंकारसे ही है। जिनमे कर्तृत्व-अहंकार जाग्रत् है उनको ही राग-द्वप,पुण्य-पापके साथ बंधनापडता है और जिन में कर्तृत्व-अहंकार जाग्रत् नहीं उनका राग-द्वपादिके साथ कोई वन्धन नहीं । स्वयं भगवान् तथा योगियोंमे ज्ञानके प्रभावसे कर्तृत्व-अहंकार सर्वथा गलित रहता है, इसीलिये उनको राग-द्वीप और पुण्य-पापका स्पर्श असम्भव है। क्योंकि वहाँ राग-पादि का आधारभूत कर्तृत्व-अहंकारका ही प्रभाव है, फिर आधार विना प्राधेयकी स्थिति कैसे हो ? उनकी आमासमात्र चेष्टाओंमें अन्य पुरुष जोराग-द्वीप करते हैं, वहीं अपने राग-द्वपद्वारा पुण्यपापके बन्धनमें आते हैं। जैसे युधिष्ठिरकी यज्ञशालामे दुर्योधन जलमें स्थल और स्थलमे जलकी विपरीत भावनासे अपने अज्ञानद्वारा आप ही भ्रमित हुआ था।
जारी:-जार कर्ममे राग पापरूप है, यह सभी शास्त्रोंका मत है । क्यों ? इसीलिये, कि इसमें इन्द्रियपरायणतारूप स्वार्थ भरा हुआ है। यदि इस रागका संकोच होकर अपनी पत्नीमें ही यह राग केन्द्रीभूत हो तो पुण्यरूप है । यदि यह क्रमश.
, गुरुशास्त्रके उपदेश और अपने पुरुषार्थद्वारा जिन्होने अपने परमात्मस्वरूप को प्राप्त किया है, वे युन्जान-योगी कहे जाते हैं। जिनको अपमा परमात्मम्वरूप विस्मरण नहीं हुआ, तथा गुरूशास्त्र के उपदेशकी जिनके लिये ज़रूरत नहीं हुई, वे युक्त-योगी कहे जाते हैं, जैसे राम-कृष्णादि ।
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श्रामविलास ]
[१२ और भी संकुचित होकर पितृ-ऋणसे छूटनेके उद्देश्यसे एक पुत्रकी उत्पत्ति पर ही समाप्त हो जाय तो महान् पुण्यरूप है। जितना इन्द्रियलोलुपताप राग संकुचित होगा, उतना ही पुण्य-रूप और जितना विकसित होगा उतना ही पापरूप होगा। जैसा मनुजीने कहा है :--
प्रवृत्तिरेपा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला अर्थात् भूतोंकी प्रवृत्ति भोगोंमे स्वाभाविक है, परन्तु निवृत्ति महाफलदायनी है । इन्द्रियलोलुपताके सर्वथा अभाव के कारण ही महर्षि ज्यासदेवके द्वारा धृतराष्ट्र, विदुर और पाएडुकी उत्पत्ति पापरूप न होकर पुण्यरूप ही हुई। ___ हिंसा-जो हिंसा अपने पेटको कत्र बनानेके लिये या अन्य किसी तुच्छ स्वार्थ के लिये की गई है, वह अवश्य पापरूप है। परन्तु हिंसामे ही यदि उदारतापूर्वक स्वार्थत्याग भरा हुआ हो तो महान् पुण्यरूप है, जैसा एक कहानीके द्वारा पीछे निरूपण किया गया है । राजाके लिये प्रजापालननीतिसे अपराधीको दण्ड देना पुण्यरूप है, अथवा धर्मरक्षाके लिये युद्ध ठानना परम पुण्य है। परन्तु प्रजापालननीति तथा धर्मरक्षा लक्ष्य न रह कर केवल अपने स्वार्थके ही लिये हिंसा की जाय तो महान् अनर्थरूप है। जैसे वर्तमान में राजनीति का प्रवाह चल रहा है, क्योंकि वर्तमान राजनीति प्राकृतिक नियमविरुद्ध है, इस लिये अवश्य इस नीतिको प्रकृतिके डंडेकी चोट सहनी पडेगी, कोई शक्ति नहीं जो इसकी चोटको रोक सके।
१. यह अन्य बृटिशराज्यके समय शिखा गया था, यहाँ उसो नीति से
संरेत किया गया है।
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• १३ ]
[पाप-पुण्यकी व्याख्या उपयुक्त व्याख्यासे सिद्ध हुआ कि केवल राग पुण्यका राग से पुण्य और हेतु और केवल उप पापका हंतु नहीं, द्वेष से राप मे किन्तु जिस रागके साथ स्वार्थका रहस्य
| लगाव है वह सग भी पापरूप और जिस द्वपके साथ स्वार्थत्यागका सम्बन्ध है वह द्वप भी ' पुण्यरूप है। अर्थात् जिस रागके साथ स्वार्थत्याग है वही • पुण्यरूप हो सकता है और स्वार्थमूलक द्वप ही पापरूप है।
अव वेदान्तके इन वचनोंकी 'रागसे पुण्य औरद्वेप से पाप होता है। उपयुक्त व्याख्या से कैसे मगति लगाई जाय ? इसका समाधान यह है :
वेदान्त कहता है कि संसारमे एक ही पाप है और एक ही पुण्य । अपने आपको यावत् संसारसे भिन्न करके जानना, 'मैं और हूँ, शेप मब संसार मेरेसे भिन्न है, मैं इस साढ़े तीन हाथकी हमें ही महदूद हूँ', इस प्रकारका परिच्छिन्न-अहंकार ही एक पाप है शेष सब पापोंकी जड । 'अन्योऽसावन्योऽहमस्मि न स वेद यथा पशुः । (श्रुति)
अर्थात्, 'वह और है, मैं और हूँ' ऐसा भेद-दृष्टियुक्त पुरुप पशु के समान कुछ नहीं जानता। और इस परिच्छिन्नअहंभावका अभाव होना, यही एक पुण्य है सव पुण्यों
की भूल।
इस सिद्धान्तके अनुसार जिन चेष्टाओद्वारा अहंभाव रद्द होता है वे पापरूप और जिन चेष्टाओंमें अहंभाव शिथिल होता है वे पुण्यरूप होंगी, इसमे संदेह ही क्या है ? इसी कारण यह नियम है कि जितनी-जितनी स्वार्थकी वृद्धि होगी उतना-उतना ही
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आत्मविलास ]
[१४ अहंभाव मकुचित होकर बढ होगा,यही पापानौर जितना-जिनना स्वार्थत्याग होगा उतना-उननाही अदभाव विकामको मान होकर फेलेगा, यही पुण्य है । जैन पानी जितना-जितना गीनर नयोग को प्राप्त होगा उतना-उतना ही मागित होकर अपना को प्रार होगा और जितना-जिनना अग्नि के सयोगको पारंगा उतना-नगा ही द्रवीभूत होकर विसारको प्राप्त होगा। यहाँ ताकि भार के रूपमे सूक्ष्म होकर महान ग्राफाशको घर लेगा और साथ ही महान् शक्ति सपन्न भी होजायगा । ठीक. मी नरहने अहभाव जितना-जिनना स्वार्थपरायण होगा,उतना-नना ही नए चितहोकर जडताको प्राम होगा और उतना-तनारी भय-क्रोधादि
आसुरी सम्पत्तिका अधिकारी होगा। तथा जितना जितना न्या. त्यागको धारण करेगा,उतना उतना ही सूक्ष्म होकर विस्तृत होगा
और उतना-उतना ही शक्ति, शान्ति र निर्भयता प्रादि वी सम्पत्तिका अधिकारी होगा। यहाँ तक कि वह मुमताको धारण करता हुआ और आकाशकं समान नम्पूर्ण मंमाग्ग व्याप्त होता हुश्रा सम्पूर्ण संसारके साथ अपनी एफनामा अनुभव कर मकेगा और इस प्रकार जीवमे शिवरूप बन जायगा। इसके विपरीत अहंभाव जितना-जितना जस्ता को प्राप्त होगा, प्राकृतिक नियमके अनुसार उनके आटेके समान उतना-उतना ही दुःखोंकी चोटें लगना भी स्वाभाविक है। उसी लिये अभावकी दृढ़ता व जडता पापरूप और इसका क्षीण होना पुण्यरूप है।
राग हमेशा उन्हीं पदार्थों में होता है, जिनमे सुसवुद्धि होती है और सुखवुद्धि के विषय जो पदार्थ हैं, उनमें आत्मबुद्धि करके ही सुखवुद्धि होती है। अर्थात् अपना-आपा जान कर ही उन पदार्थों में चित्त दिया जाता है, अन्य प्रकारसे तो
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१५ ]
[ पुण्य-पापकी व्याख्या मुखवुद्धि हो ही कैसे। क्योंकि आत्मासे भिन्न अन्य कोई पदार्थ सुखरूप व प्रियरूप हो ही नहीं सकता । इसी लिये श्रुति ने आत्माको 'अस्ति, भाति, प्रियरूप' वर्णन किया है। धन, पुत्र, श्री यावत् संसारके पदार्थ उसी काल तक हमको सुखदाई हैं, जब तक उनमे श्रात्मबुद्धि विद्यमान है। जिस क्षण उनमे से आत्मबुद्धि दूर होती है, उसी क्षण उनमेसे सुखचुद्धि भी कूच कर जाती है। प्रत्येक प्राणी नित्य ही अपने जीवन में इमको अनुभव कर रहा है और श्रुति भी ऐसा ही पुकार-पुकार कर कह रही है।
'नबारे सर्वस्य तु कामाय सर्व प्रियं भवति
श्रात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति' । अर्थ:-सव पदार्थोके लिये सब पदार्थोंकों प्यार नहीं किया जाता, किन्तु अपने ही लिये सब पदार्थोंको प्यार किया जाता है। • इससे सिद्ध हुआ कि जिन पढाथोंमे राग होता है, उनमें आत्मबुद्धिका डेरा पहले ही जमाया जाता है, अर्थात् आत्मबुद्धि करके ही इनमें राग किया जाता है कि यह मेरी आत्मा है। और आत्मवृद्धि ही वेदान्तका प्रतिपाद्य विषय है, इस लिये राग तो पापरूप हो ही कैसे ? रागके द्वारा तो अहंभावका विकास होता है और अपने परिच्छिन्न शरीरसे आगे बढ़कर राग का विषय जो पदार्थ है उसमें भी आत्मबुद्धि अपना श्रासन लगाती है। और यही वेदान्त का लक्ष्य है कि राग यहाँ तक विस्तृत हो कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें ही प्रात्मवुद्धि होने लगे।
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आत्मविलास]
[१६ ___ इसलिये राग तो अपने रूपसे वेदान्तके लक्ष्यके अनुकूल है, वह किसी तरह भी पापरूप नहीं हो सकता। हॉ, प्रकृति का यह अटल नियम है कि किसी भी परिच्छिन्न पदार्थमें सत्यत्वबुद्विसे राग, उससे भिन्न अन्य सब पदार्थोमें कैप उत्पन्न कर देता है, जो कि अनिवार्य है। वेदान्त तो यह चाहता है कि दूध तो पिया जाय, परन्तु कुत्ते की खलडीमें डाल कर नहीं। राग तो किया जाय, परन्तु परिच्छिन्न-दृष्टि से नहीं, बल्कि रागकी समतारष्टिका विस्तार हो, इसीको आत्मविकास कहते हैं । परन्तु किया क्या जाय ? किसी भी परिच्छिन्नवस्तु में सत्यत्वबुद्धिसे राग, अपने साथ द्वप लिये हुए है। जितना-जितना राग संकुचित होगा,उतना-उतनाही द्वष विकसित होगा और जितना-जितना-राग विकसित होगा,उतना-उतना ही द्वेप सकुचित होगा । अर्थात् जितना-जितना तुच्छतादृष्टि से राग होगा, उतना ही द्वपकी वृद्धि होगी और जितना-जितना उदारता व विशालता-दृष्टिसे राग होगा, उतना-उतना ही द्वेष का अभाव होगा।
___ अत सिद्ध हुआ कि राग अपने स्वरूपसे पापरूप नहीं है। परन्तु परिच्छिन्न-वस्तुका राग, द्वेपको उपजाने करके द्वापरूप से पाप है,रागरूपसे पाप नहीं। जितना-जितना रागसंकुचित होगा, उतना-उतना ही द्वप अधिक होगा और उतनी ही पाप की वृद्धि होगी। तथा जितना-जितना राग विकसित होगा, उतना ही द्वीप न्यून होगा और उतना ही पुण्यकी वृद्धि होगी। इसीलिये स्वार्थमूलक राग पापरूप और स्वार्थत्यागमूलक राग पुण्यरूप है। क्योंकि स्वार्थ अपने सम्बन्धसे रागको संकुचित व सीमावद्ध करके द्वपकी वृद्धि करता है, इसीलिये वह दूषित और पाप है।
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१७ ]
[पाप-पुण्यकी व्याख्या द्वप हमेशा उन पदार्थों में ही होता है, जिनके साथ आत्म-' बुद्धिका लगाव नहीं, अर्थात् जो अपनी हृदयगत ज्योतिसे धन्यो नहीं हुई । इमलिये द्वेप अपने म्वरूपसे तो वेदान्तके लक्ष्यके प्रतिकूल ही है, अपने स्वरूपसे पुण्यरूप हो ही कैमे १ परन्तु ग्वार्थत्याग-मूलक द्वेपको जो पुण्यरूप बतलाया गया है, उसका कारण यह है
वेदान्त कहता है कि हमारे हृदयमे जो रागका म्वाभाविक स्रोत विद्यमान है वह किसी एक व्यक्तिके हृदयकी चीज़ नहीं है, उस स्रोत पर सम्पूर्ण संसारका अधिकार है। देव, ऋपि, पितर, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतग अर्थात् उद्भिज, ग्वेदज, अण्डज, जरायुज चागे खानीके भूतप्राणी सभी हमसे उम रागके पानेके अधिकारी हैं, उस पर सभीका अधिकार है.जितना-जिनना हम उनसे आत्मष्ट्रिसे प्रेम करेंगे, उतना-उतना ही प्रेम हम उनसे पायेंगे। वाह । प्रकृतिका कैमा सुन्दर नियम है, जितना-जितना खर्च किया जायगा उतना-उतना वृद्धिको प्राप्त होगा। जितना-जिनना वीज पृथ्वी रुलादिया जायगा, उससे कई गुणा होकर वह हमको मिलेगा। कैमा मुनाफेका सौदा है ? परन्तु शोक हमने इमको वरतना नहीं सीखा। समुद्रकी तह पर जब एक लहर प्रकट होती है, तब वह पहले स्थूल आकार में प्रकट होती है। परन्तु यह नियम है कि स्थूलरूपमें प्रगट होते ही वह फैलने लगती है और पतली होते-होते यहाँ तक फैलती है कि अपना आकार मिटाकर समुद्ररूप ही हो जाती है, फिर सम्पूर्ण लहरोंमें बही ममाई हुई होती है और मन रूपोंमे डाढ़े मारती है। इसी प्रकार प्राकृतिक नियम चाहता है कि इस रागके स्रोत को जो हमारे हृदयदेशमें उत्पन्न हुआ है, यहाँ तक फैला हैं कि यह फैज्ञते-कैलते सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें व्याप्त होजाय, किर सन्पूर्ण संसारके हम ही स्वामी है और सब हृदयोंमें हमारा ही
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आत्मविलास ]
[१८
आसन है । परन्तु विपरीत इसके, जब हम इस हृदयगत गएको किसी एक केन्द्र बाँधकर तुच्छ स्वार्थका बन्धन लगा देते हैं और इसको फैलने से रोक देते हैं, तब इसका प्रवाह चलनेसे रुक जाता है । इस प्रकार एक स्थानमे ही रोके रमकर और इसको परिमित बनाके हम इसको अपवित्र व गटला कर देते हैं। जैसे नदीका पानी जब एक स्थानमें ही पाल बॉधकर रोक दिया जाय तो उसका स्रोत रुक जायगा, साथ ही वह मैला होकर सडने लगेगा, परन्तु यदि उसकी पाल तोडदी जाय तो यह स्रोत के रूपमें चालु होजानेसे पवित्र व निर्मल होने लगेगा और साथ ही बहुतसी भूमि उसके प्रतापसे हरी-भरी होजायगी ।
'बहता पानी निर्मला, खड़ा सो गंदा होय'
इसी प्रकार स्वार्थत्यागमूलक द्वेप इसीलिये पुण्यरूप है कि वह केन्द्रित रागके तुच्छ स्वार्थी बन्धनको, जिमन राम के प्रवाह को रोककर अपवित्र कर दिया था, तोडकर फेला देता है, उस रागके स्रोतको चालू करके निर्मल बना देता है और बहुतसे हृदय-क्षेत्रोंको हराभरा करदेता है । इससे सिद्ध हुआ कि स्वार्थस्वाग-मूलक द्वेप, द्वेपरूपसे पुण्य नहीं, किन्तु रागकी समताका विस्तार करके रागरूपसे पुण्य है। एक वैराग्यचान् महात्माके लिये वैराग्य इसीलिये महान् पुण्यरूप है कि उसने तुच्छ समारसम्बन्धी रागके बंधनको तोड़कर रागकी समताका विस्तार किया है और 'वसुधैव कुटुम्बकम' भावको जाग्रत कर दिया है।
राग-द्वेषसे पुण्य पापका सम्बन्ध किस प्रकारसे कैसा है ? जाब विकासनगद इसकी व्याख्या की गई। अब प्रकृतिके गुणों के तारतम्यसे पुण्य-पाप तथा आत्म
निरूपण
विकासका कुछ निरूपण किया जाता है । प्रकृति के राज्यमें जितने
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१६]
[पुण्य-पाप की व्याख्या भी पदार्थ हैं, सत, रज और तम तीनों गुणोंका सबसे सम्बन्ध है। गीता अ०१८ मे कहा गया है।
म तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः । सच्चं प्रकृतिजमुक्तं यदेमिः स्यास्त्रिभिगुणेः ॥ (श्लोक ४०)
अर्थः-पृथ्वी या स्वर्गमे अथवा देवताओमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जो प्रकृति के इन तीनो गुणोंसे रहित हो।
अर्थात् पापाणसे लेकर चारों खानि व चारों वाणिमें जितने भी पदार्थ है, सव इन त्रिगुणोंसे सम्बन्धवाले हैं । यावत् प्रपंच जबकि प्रकृतिका कार्य है तो प्रत्येक वस्तुमें प्रकृति के तीनों गुणों का रहना भी आवश्यक है। तीनों गुणोंमेंसे किसी एक गुणका प्रत्येक पदार्थम विकाम होता है, शेष दो दवे रहते हैं, सम्बन्ध तीनों गुणीका ही बना रहता है । जिस गुणका जिस पदार्थमें विकास होता है, वह पदार्थ उस गुणवाला ही कहा जाता है। पाषाण तमोगुणकी गाढ अवस्थासे सम्बन्ध रखता है, परन्तु तमोगुणकी इस अवस्थाके रहते हुए भी हीरे, माणिक आदिमे प्रकाशके कारण सत्त्वगुणका विकास देखा जाता है, क्योकि सत्त्वगुण प्रकाशरूप है। पापारणमें भी जीव माना गया है, इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि पापाण अथवा मृत्तिकाकी खानिमे पापाण तथा भृत्तिका निकाल कर कुछ कालके लिये यदि उसको छोड़ दें तो वह खानि अवश्य पूर्वकी अपेक्षा बढ़ी हुई दिखलाई पड़ती है। विकासवादकी दृष्टिसे इससे आगे जव जीवभावका विकास उद्भिजवर्गमे प्रकट होता है, तब उनमें तमोगुणकी क्षीण अवस्था का विकास देखा जाता है, इसी कारण उनमें दिन-दिन उपरकी ओर गति होती जाती है। तमोगुणकी गाढ़ताके कारण पाषण में गति भान नहीं होती थी परन्तु तमोगुणकी क्षीणताके कारण उद्धिनों मे उसका भान होने लगता है। वृक्षादिक तमोगुणी
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आत्मविलास]
[२० होते हुए भी जातिभेढसे वट, पीपल आदिमें सत्वगुणकी अधिकता होती है।
'अश्वत्यः सर्ववृक्षाणाम्' गी० अ० १०, २६ । अर्थात् 'सर्च वृत्तोंमें पीपल मेरी ही विभूति है। सत्वगुणके विकसके कारण ही ऐमा भगवान्ने कहा है । गुणोंके विकासके साथ साथ ही पचकोश तथा तीन अवस्थावोंका भी विकास होता जाता है। जिस प्रकार तीनो गुण प्रत्येक पदार्थमे विद्यमान हैं, उसी प्रकार पंचकोश तथा तीनों अवस्थाओका सम्बन्ध भी प्रत्येक पदार्थ तथा प्रत्येक योनिसे बना रहता है. केवल क्रम-क्रम से उनका विकास गुणाके साथ-साथ होता रहता है। तीन
वस्थाओंमें सुपुप्ति-श्रवस्या तमोगुणी, स्वप्न-अवस्था रजोगुणी और जाग्रत् अवस्था सत्त्वगुणी होती है। तमोगुणके लक्षण जड़ता. बालस्य. प्रमाद और अज्ञान हैं जोकि सुपुनि अन्यामे मिलते हैं। रजोगुणके लक्षण चंचलता. इच्छा एव तृप्णा आदि हैं, जारि स्वप्न अवस्थामे मिलते है । सत्त्वगुणके लक्षण दिकाव, प्रकाश, शाति और ज्ञान है, जोकि जाग्रत-अवस्थामे पाये जाते है। जैसा चीता अ०१४ लोक १७ मे कहा गया है.
१.पंचकोश नाम- असमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय । स्थूल शरीर जो मनले सन्बन्धसे घटता-ठता है मन्त्रमयकोश' कहा जाता है । प्राग व पर्नेन्द्रियों को प्राणमयकोश' कहते है। पंचज्ञाने. न्द्रियों व मन 'मनोमयकोश' है। पंचज्ञानेन्द्रियाँ व बुदि विज्ञानमयकोश' है। जहाँ इदि का पूर्ण विशस होकर सुख को इच्छा प्रज्वलित हो पाती है यह 'भानन्दमयकोश है। कोशनाम खा के नाना है। जिस प्रकार सन्यान से ढकी रहती है इसी प्रकार सारमा इन कोशों मेरका हुआ है।
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२१)
स्या
[ पाप-पुण्यकी व्याख्या सत्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ इस नियमके अनुसार द्भिनवर्गम तमोगुणके साथ-साथ नीनों अवस्थाओं तथा पॉचों कोशाके रहते हुए भी विकास केवल क्षीण-सुपुप्ति-अवस्था तथा अन्नमयकोशका ही देखा जाता है। अन्नमयकोशके विकामके कारणही उनके अन्दर हर समय सीधी रेखामे गति बनी हुई है। ध्यान रहे कि गुण, अवस्था कोश कहीं बाहर से इन योनियोंमे प्रवेश नहीं करते, किन्तु प्राकृतिक नियमानुसार अपने अन्दरसे ही इसी प्रकार विकमिन होते जाते हैं, जिस प्रकार चीजमे से कपल, टहनी, फूल व फलादि अपनेअपने समय पर विकसित होते रहते हैं। ___ उद्भिजवर्गसे आगे चलकर जीवभावका विकास स्वेदजयोनि मे होता है । यहाँ उनके अन्दर रजोगुण, स्वप्न-अवस्था और प्राणमयकोशका विकास होने लगता है। उनके भीतर श्वासोच्छ्वासकी क्रिया भी देखनेमे आती है तथा एक स्थानसे दूमरे स्थानमे गति भी पाई जाती है, जोकि उद्लियोनिमें मौजूद न थी। यही प्राणमयकोश, रजोगुण और स्वप्नअवस्थाके विकासका लक्षण है । क्रियाके सिवाय उनमे मनकी अथवा वुद्धिकी कोई चेष्टा नहीं पायी जाती । न वे अपने बच्चों को प्यार करना जानते हैं और न किसी प्रकारको बौद्धिक चेष्टा ही पाई जाती है, केवल जड़ावस्थामे गति तथा प्राणसंचार ही उनके अन्दर मिलता है। स्वेदज-योनिमें अनेक जातिके ऐसे कृमि है जोकि शरीरके अन्दर रक्तशोधन तथा शरीरके अनेक दोष दूर करनेमे सहायक हैं, इस लिये साधारणतया स्वेदजयोनिमे रजोगुणका किंचित् विकाम होते हुएभी उनको सत्वगुणप्रधान कहा जा सकता है ।
स्वेट जयोनि से आगे जीवभावका त्रिकाम अएडजयोनिमै
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श्रामविलास होता है । यहाँ उनमे रजोगुणी अधिकता माथ-साथ स्नान अवस्थाका प्रसार तथा अन्नमय व प्राणमयकोशके अतिरिक्त मनोमयकोशका विकास भी पाया जाता है। यहाँ उनमें चंचलता का वेग तीव्र गतिसे चल पडता है । जेमे स्वप्न अवस्थामै मन के परिणाम बडी शीघ्रतासे होते हैं. वैसे ही उनमे यहाँ पाये जाते है। उनका मन फ एक लिये भी स्थिर नहीं होने पाता, दिनभर उनमे शारीरिक व मानसिक चेष्टाएँ अनियमित रूप से बनी रहती हैं, जोकि नीचेकी योनियों में मौजूद नहीं थीं। उनमें भूख-प्यापका वेग जोरों पर होता है, वे अपने वशों से प्यार करना भी जानते है, एक दूसरेके माथ चैमनस्य भी कुछ देर के लिये ठान लेते हैं, परन्तु स्थायी रूपसे नहीं, जोकि उनमें मनोमयकोश, रजोगुण व स्वप्न अवस्थाके विकास का परिचायक है। रजोगुणकी प्रौढता रहते हुए भी जातिभेदसे कपोत तथा मयूरादि योनियों में सत्त्वगुणकी अधिकता देखी जाती है। मनुष्य इनको पालते हैं और इनके द्वारा अनेक कार्य भी लिये जाते हैं । यह मनुष्योंके प्रति अपना प्रेमभाव प्रकट करना जानते हैं, इसलिये रजोगुण होते हुए भी इनको सत्त्वगुणप्रधान कहा जा सकता है। 'वैनतेवश्च पक्षिणाम' गी० अ० १० श्लोक ३० मे इसीलिये गण्डको भगवानने अपनी विभूति वर्णन किया है।
अण्डजयोनिसे निकलकर जीवभावका विकास अव जरायुजयोनिमे होता है । मनुष्ययोनि भी यद्यपि जरायुजयोनि मे ही शामिल है, परन्तु मनुष्ययोनिको छोडकर अन्य चारपायों में रजोगुणके साथ-साथ सत्त्वगुणका भी विकास दखने में आता है । यहाँ उनमें अन्य तीन कोशोंके अतिरिक्त विज्ञानमयकोशका भी विकास देखनेमें आता है । अण्डजयोनिमे जितनी चंचलताका वेग मौजूद था वह अव इनमें नहीं है, किन्तु इनकी
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२३ ]
[ पुण्य-पापकी व्याख्या
गति सापेक्ष टिकी हुई है, यही सत्र गुणके विकासका चिह्न है । अन्य जाति के साथ तथा अपनी जातिमे यहाँ अनेक प्रकारसे प्रेमका प्रकाश स्थिर रूपसे प्रकट होता है । मनुष्य गो, कुत्ते
अश्वादिको पालते हैं, कुत्तों के द्वारा अनेक प्रकारके कार्य लिये जाते हैं । वह एक चौकीदारको ड्यटी भली भाँति पूरी करता है। वह अपने कुटुम्बके मनुष्योंमे तथा अन्य मनुष्य में भली-भाँति पहिचान करता है । कोई चीज इसको दिखलाकर पानीमें फेंकी जाय तो वह झट निकाल लाता है । अश्वादिको भी अनेक प्रकारते सधाया जाता है, जोकि बौद्धिक विकास ( विज्ञानमयकोश) के भली-भाँति परिचायक है। इस योनिमें जातीय भेदसे गौ श्रादि पशुओं में सत्त्वगुणका अधिक विकास देखने में आता है ।
इससे आगे चलकर जीवभावका विकास मनुष्य योनिमे हुआ । यहाँ उसमें तीनों गुण, तीनों अवस्था तथा पाँचों कोशी का विकास हो धाया, व उसकी प्रकृति पूर्ण है । जाग्रत्अवस्था, सत्त्वगुण तथा श्रानन्दमयकोशका भी यहाँ प्रादुर्भाव हो चुका है। आनन्दमयकोशके विकासका ही यह फल है कि अव उसकी दश इन्द्रियों, मन व बुद्धि पूर्ण रूपसे विकसित हो चुके है। यहाँ उसको रसना -इन्द्रियके सुस्वादु भोजनोंके नाना रसोंका ज्ञान है और उनकी इच्छा करता है । चतु-इन्द्रियके विपय सुन्दर रूपोंके देखनेकी लालसा होती है। श्रोत्र-इन्द्रिय के विषय मधुर शब्दों के सुननेको चित्त करता है । त्वक्-इन्द्रिय के विषय कोमल स्पर्श के पाने की जिज्ञासा होती है। घ्राणइन्द्रियके विषय सुगन्धित द्रव्यके पानेकी रुचि होती है, जोकि नीचेकी योनियोंमें प्रकट नहीं हुई थी । यह उसके अन्दर श्रानन्दमय कोश और मन इन्द्रियके पूर्ण विकासका चिह्न है । यहाँ उसमें बौद्धिक-विक्रामकी पूर्ण रूपसे प्रकटता हो चुकी है।
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आत्मविलास ]
[ २४
माधारण मनुष्य अपने सुख-दुखको भली-भाँति पहिचानते है । किस प्रकार सासारिक सुख सम्पादन किया जाय ? किस प्रकार मांसारिक दुखो छुटकारा पाया जाय ? इनके सामान्य साधन भी वह जानता है और करता है । यहाँ वह अनेकानेक सांसारिक विद्याओ का मंग्रह करके बुद्धिके विचित्र-विचित्र आविष्कार निकालता है । बुद्धिवलसे भाप व विद्युत आदि पर भी अपना अधिकार जमाता है और देश कालका उच्छेद करता है । अब वह साढ़े तीन हाथके अन्दर ही परिच्छिन्न नहीं रह जाता, चरन निराधार-तार (Wireless Telegraphy) के जरिये अपने फानोंसे हजारो मीलके शब्द सुनता है। वायुयान आदि के
रिये अपने पॉच सैंकडो मीलकी रफ्तारके बना लेता है, जो पूर्ण सत्त्वगुण व पूर्ण बौद्धिक विकासका परिचय देते हैं।
इस प्रकार पापारण योनिसे आरम्भ करके जीवभावका विकास प्रकृति के तले पलटा खाता हुआ मनुष्नयोनि पर्यन्त विकसित हो आया । नोचेकी योनियांमे जीव अपनी-अपनी प्रकृतिके अधीन था। उसकी खान-पान, रहन-सहन, सोनाजागना, मैथुनादि सर्व चेष्टा प्रकृतिके अधीन होती थी। कोई चेष्टा श्रपनी प्रकृतिके विरुद्ध करनेमे वह समर्थ नही था और न अपनी चेष्टाश्रमे उसका कर्तृत्व अकार ही विकसित हुआ था । इसलिये उसकी सव चेष्टाएँ प्रकृति के अनुकूल ही होती थीं, इमोलिये उन योनियां मे अपने किसी कर्मको जुम्मेवारी भी उस पर लागू नही हो सकती थी और वह अपनी चेष्टाओं के लिये किसी प्रकार पाप-पुण्यका भागी भी नहीं बनाया जा सकता था । दृष्टान्तस्थल पर समझ सकते है कि सिंहका भोजन केवल मां है, इसके लिये वह किसी जीव-हिमाका उत्तरदाता नहीं ठहराया जा सकता प्राकृतिक रूपसे उसके अगोंकी रचना ही
मनुष्ययोनि मे पुण्य-पाप का बन्धन क्योंकर हुआ
"
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[ पुण्य-पापको व्याख्या इस विषय को सिद्ध करती है। परन्तु मनुष्ययोनिमें आकर जोक्को यह दशा नहीं रही, यहाँ उसकी प्रकृति पूर्ण हो चुकी है और क त्व-अहकार पूर्ण रूपसे उदय होचुका है । अव वह प्रकृति के अधीन नहीं रहा, बल्कि प्रकृतिके विरुद्ध अनेक चेष्टाएँ करने में समर्थ है, इसलिये उस पर अपनी मब चेष्टाओंका पूर्ण रूपसे दायित्व (जुम्मेवारी) है। जिस प्रकार शिशुकालमें बच्चेकी सब चेष्टा माताके अधीन होती थी, इसलिये अपनी चेष्ट्याओं की जुम्मेवारी भी उसपर न रहकर सब भार माता पर ही रहता था, परन्तु जव बाल्यावस्थासे निकलकर मनुष्य योपन अवस्था को प्रात हो चुका, फिर माता पर अब कोई जुम्मेवारी न रहकर अपनी चेष्टाओका वह आप जुम्मेवार होता है। इसी प्रकार नीची योनियोंमें प्रकृतिके अधीन होनेके कारण जीव पर अपनी चेष्टाओंका ' दायित्व न रहकर, मनुन्थयोनिमें अहंभाव व प्रकृतिकी पूर्णताके कारण जीव पर अपनी मव चेताओंका भार है। गवर्नमेण्टके राज्मे भी ऐसा ही निरम देखनेमे आता है, मनुष्य पर सव प्रकारकी पावन्दी लगाई जाती है, बड़े-बड़े नगरों में सड़क पर चलनेके लिये दफा ३४ का वर्ताव भी सर्व साधारणसे किया जाता है, परन्तु यह कहीं नहीं देखा गया कि उन्हीं सड़कों पर चलनेवाले घोड़े, बैल आदि पशुओं पर भी मलमूत्र त्यागके कारण कोई अपराध निश्चित किया गया हो। आशय यह कि अन्य योनियोंमे अानन्दमयकोशका विकास नहीं हुआ था, इसलिये जीवमे सुखको इच्छा भी वलवती नहीं थी, परन्तु मनुष्ययोनिमें आकर आनन्दमयकोशका पूर्ण रूपसे विकास हो चुका है, इससे सुखकी इच्छा भी तीव्र हो
आई है। सुखकी' इच्छासे भोक्तृत्व व क त्व-अइंकार जागृत हो आया है तथा कर त्व-अहंकारसे' पदार्थो में अनुकूल व' प्रतिकूल बुद्धि खिल आई है । अनुकूलमें राग और प्रतिकूलमें
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आत्मविलास] द्वेप स्वामाविक ही है और राग-द्वेपबुद्धिम पाप-पुण्यका सम्बन्ध किस प्रकार है । यह पृष्ट ७ मे १८ पर वर्णन कर आये है। इस प्रकार सुखकी इच्छासं कर्तृत्व-अहंकार व राग-द्वेप दृढ़ होजानेके कारण जीव मनुष्ययो.नेमे पुण्य-पापसे बन्धायमान होता है, परन्तु अन्य योनियोमे नहीं। ___ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट किया गया कि किस प्रकार जोबमनुष्ययोनिमें किस भावका विकास पापारण व उद्विजयोनि किस अवस्था से श्रारम्भ होकर गुण, अवस्था और का बंधन नहींा कोशाके अनुसार क्रम-क्रमसं प्रकृतिके
" अधीन निर्विघ्नतापूर्वक प्रकट होते हुए वह मनुष्ययोनि पर्यन्त पहुँच जाता है और अन्य योनियोंमे जीव अपने कर्मोंका जुम्मेवार न होकर मनुष्ययोनिमें क्योंकर जुम्मेवार बनाया जाता है। मनुष्ययोनिमें भी माताके गर्भ से निकल कर जब तक बच्चेका जीवन माताके स्तनपान पर निर्भर है, वह उसकी सुपुमि-अवस्था है। इससे आगे चल कर जव बच्चेके दाँत निकल गये, कुछ-कुछ अन्न खाने लगा, अपने पॉव पर चलने लगा, गुडे-गुडियोंके खेलोंमें अपना चित्त वहलाने लगा, तब वह उसकी स्वम अवस्था है। क्योंकि इन दोनों अवस्थाओंमें भी इसकी प्रकृति अपूर्ण है, कर्तृत्वअहंकार व बुद्धिका पूर्ण विकास यहाँ नहीं है, इसलिये प्राकतिक नियमानुसार उस पर इन दोनों अवस्थाओंमें अपनी चेष्टाओंका दायित्व आरोपित नहीं हो सकता । तथा उन महापुरुषोंका तो कहना ही क्या है, जो मनुष्य-जन्मको प्राप्त कर 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्' के भारसे मुक्त हुए हैं। जिन्होंने चौरासी लाखके चक्करसे थक कर अपनी कमर खोल दी है और कर्तुत्वाईकार को ज्ञानाग्नि में भस्म कर दिया है।
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२७ ]
[पुण्यपापकी व्याख्या लाख चौरासीके चक्करसे थका खोली कमर । अब रहा पाराम पाना, काम क्या वाकी रहा ? डाल दो हथियार मेरी राय पुखता अव हुई। लग गया पूरा निशाना, काम क्या बाकी रहा ? घोर निद्रासे जगाया सदगुरुने वाह ! वाह !! अब नहीं जगना-जगाना, काम क्या बाको रहा ? मानके मनमें मियाँ मौलाका मेला है यह सब । फिर बर्नु अब क्या मौलाना! काम क्या वाकी रहा ? जानकर तौहीदका मनशा शुवा सब मिट गया। यू ही गालोंका बजाना, काम क्या बाकी रहा ? एकमें कसरत व कसरतमें भी एक ही एक है। अब नहों डरना-डराना, काम क्या वाकी रहा ? द्वैत व अद्वैतके झगड़ेमें पड़ना है फिजूल ।
अव न दाँतोंको घिसाना, काम क्या वाकी रहा ? जिन्होंने करामलकवत् संसारके तत्त्वको लान लिया है, ज्ञानरूपी दीपक हृदयमे प्रकट कर चिन्नड-प्रन्थिको सुलझा लिया है, अविद्याका भार जो अनेक कल्पसे जीव अपने सर पर लादे हुए था उसको फैंक जो अब अनन्त विश्रामको प्राप्त हुए हैं, कर्तृत्व अहंकार जिनका गलित हुआ है और जो सब कुछ करके भी कुछ न करके रह रहे हैं। नैव क्रिश्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्वविद । पश्यन्मृणवनस्पृशञ्जिवनश्ननाच्छन्स्वपन्श्वसन् ।। १. अद्वैत
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आत्मविलास]
[२८ प्रलपन्धिसृजन्गृह्णन्नन्मिपन्निमिपन्नति इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् (गी० भ०५ श्लो०८) यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्थस्य न लिप्यते । हवापि स इमल्लिोकान हन्ति न निबध्यते(गी० २०१८ श्लो०१७)
अर्थ.-तत्वका जाननेवाला योगी देखता हुआ, सुनता हुमा, छूता, सूंघता, ग्याता, चलता, गोता, श्वास लेता, बोलता, त्यागता, ग्रहण करता तथा ऑबोको खोलता व मीचता हुआ भी में कुछ नहीं कर रहा हूँ, इन्द्रियाँ अपने अर्थोमे बरत रही है ऐसा मानता है। जिसमे अहंक त्वभाव नहीं है और जित्तकी बुद्धि कर्मोमे लिपागमान नहीं होती है वह सब लोको को मारकर भी नहीं मारता और नहीं बॅवता । इम्न प्रकार मनुष्ययोनिमे भी इन तीनो अवस्थाओक कर्म फल देने योग्य नहीं रहत। __ अब हम इम परिणाम पर पहुंचते हैं कि जीवभावके विकास मनुप्पतर योनिगाम | का प्रारम्भ पापाण व उद्धिन्नयोनि से पुण्य पापका असम्भव | होने पर भी पुण्य-पापका भार मनुष्ययोनि और मनुष्ययोनि में में ही इनपर लादा जाता है, वह भी जीवा पपकर्तृत्व-अहकारके पूर्ण विकास पर । अहंकारकी वह अवस्था ही जीवके वन्धन व मुक्तिका कारण है। अर्थात् श्राहकारकी इस जामत्-अवस्थाको प्राप्त होकर मनुष्य चाहे अपने-आपको नानका अधिकारी बनाकर और अपने प्रात्मस्वरूपको प्राप्त करके आवागमनके वन्धनसे छुडा लेवे, श्रथवा पाशविकणवृत्तिमें फंसकर फिर जड़ योनियोंको प्राप्त होजाय, यह इसकी इच्छा पर निर्भर है। क्योंकि अब वह अपने
मौका जुन्मेवार बन गया है इसलिये उनके लिये निकृष्ट कोके फलमें जड़ योनियोकी प्रानि भी जानकाय है। प्रकृतिका ऐसा
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२६
[ पुण्य-पाप की व्याख्या नियम है कि क्रमोंके अनुमारही गुणोंकी वृद्धि होती है और गुणों के अनुसार योनियोंकी प्राप्ती होती है, जैसा गीता अ० १४ श्लो. १८ में भगवान् ने कहा है -
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वेस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || अर्थात् सत्त्वगुणी पुरुष ऊर्ध्व लोकोंको जाते हैं, रजोगुणी मध्यमें अर्थात मनुष्य लोकमें रहते है और नाममी पुरुष अधोगति तिर्यगादि (कीट, पश्चादि ) योनिको प्राप्त होते हैं।
दोनों अवस्थाओकी प्राप्ति अव इसके अधीन है और दोनों मार्ग यहींसे आर भ होते हैं। अहकार यद्यपि पशु-पक्षियोंसे भी विद्यमान है, अहंकारके विना भूख-प्याम तथा उनकी निवृत्ति का साधन, इत्यादि ध्यपहारकी लिद्धि ही नहीं देती। परन्तु उनमें अहंकार अभी जाग्रत-त्रावस्थाको प्राप्त नहीं हुआ, बल्कि भ्वातुल्य है। जिस प्रकार मनुष्य के लिये ग्वप्नावस्थामें किय हुए कर्म पुरव-पापके संसार उत्पन्न करकं इसके बन्धनके हेतु नहीं होने, जिप प्रकार बाल्याव थामें किये गये शुभाशुभ कर्मके लिये राज्यकी ओरसे बालकके उपर कोई दायित्व नहीं प्रारोपित किया जाता; इसी प्रकार उन तियेगादि रोनियों में अहकार का विकास स्वप्न-अवस्था तक ही परिमित रहनेके कारण ये भी किसी दायित्वके भागी नहीं हो सकते । उनके कर्म पुण्य-पापक हेतु नो तव हो जबकि वे सरकार को उत्पन्न करें, परन्तु कुद्धिकी अपूर्णताके कारण और कर्तुत्वाहकारके स्वमवत् रहने के कारण उनके कर्म मंकारको ही उत्पन्न नहीं कर सकते । इसीलिये उनको अपनी योनियोके कर्मोका पुण्य-पाप असम्भव है। कि अव मनुष्य-योनिको प्राप्त करके जीवने अहंकारकी पूर्णता प्राप्त करनी है, पाँचों कोशोंका विकास होचुका है, प्रकृनि-माताने सर्व प्रकार इसको योग्य बनाकर इस परसे अपनी जम्मवारी हटाता
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आत्मविलाम]
[३० है और इसको स्वतन्त्र करके स्वतन्त्रताका प्रमाण-पत्र दे दिया है, इसलिये अब इसको इच्छा है कि चाहे यह प्रकृति-माताके परिश्रमको मफल करता हुआ, प्रकृति-माताकी मंया करना हमा तथा इसके अनुकूल वर्नता हुआ स्मार्थत्यागराग रागी ममता को सम्पादन करके 'वसुबंध कुटुम्बकम' भावं आर्जन करत हुआ निरन्तर मुग्वको प्राप्त होकर आवागमनके फन्दस अपने
आपको छुडाले, क्योंकि प्रकृतिकी सम्पूर्ण चेष्टा इमी निमित्त थी। अथवा प्रकृति-माताका अनादर करके और उसके प्रतिकूल चलकर अनियमित प्रवृत्ति और अनर्गल भोगवामनाकी धधकती हुई अग्निकी सामग्री उपार्जन करके दीपकमै पनग के समान अपने-आपको भस्म करले और इस प्रकार प्रामुरी सम्पत्तिका अधिकारी वनकर अपने लिये चौरामी लाग्नका चयर तयार करले । ऐसे श्रासुरी सम्पदावानकी क्या गति होगी ? मो स्वयं भगवान् गीता अ० १६ में यूं वर्णन करते हैं ।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृत्त ।। प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।।
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । यजन्ते नामयज्ञेस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् । अहङ्कारं बलं दर्प कामं क्रोधं च संश्रिताः । ममात्मपरदेहेषु प्रद्विपन्तोऽभ्यसूयकाः ।। तानहं द्विषतः करान्संसारेषु नराधमान् । क्षिपाम्यजसमशुभानासुरोवेव योनिषु ।। १. अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी ही हमारा कुटुम्ब है।
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३१]
[पुण्य पाप की व्याख्या आसुरी योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्येच कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ।।(श्लोकइसे२०)
अर्थः-अनेक प्रकारसे भ्रान्तचित्तवाले अज्ञानीजन मोहजाल में फंसे हुए और विपय-भोगोंमें आसक्त अपविन नरकमें गिरते हैं। ऐसे पुरुप अपने-आपको ही श्रेष्ठ माननेवाले, टेढ़े, धन ध मानके मदसे मदान्वित दम्भ करके विधिस रहित अहंकार की पूजाके लिये नाममात्रके यत्रोको करते हैं। अहंकार, बल, घमण्ड. काम और क्रोध करके युक्त हुए एक-दूसरेकी निन्दा करनेवाले अपने शरीरमे तथा दूसरे देहोंमें स्थित मुम अन्तयोमादेवसे कैप करते हैं। (अर्थात वे यह नहीं जानते कि अपने शरीर तथा प्रतिपक्षी शरीरमें एकही अन्तर्यामीदेव है। उसको न जानकर अर्थात् जलवुद्धिका त्याग कर तरंग-रष्टिसे शरीरमें ही सत्यत्व बुद्धि रसकर जो विप उगना जारहा है, वह अन्तमै अपनेको हो चढ़के रहेगा । ऐसे पुरुषों को क्या गति होगा?)। उन द्वैप करनेवाले क्रूर नोच पुरुषोंको मैं घोर अम आसुरो यानियोंमें हो ससारमै फैंक देता हूँ, अर्थात् कूकर-शूकर योनियोको प्राप्त करता हूँ। हे कुन्तीपुत्र । वे मूद पुरुप जन्म-जन्ममे ही आसुरी योनियोको प्राप्त होकर और मुझको न पाकर नीच गतियोंको ही पाते हैं।
निष्कर्ष यह कि विकासद्वारा मनुष्ययोनि प्राप्त करके प्रकृति का जीव पर तकाजा है कि वह आसुरी सम्पदासे विपके ममान भयभीत रहकर दैवी सम्पदाका पथ्य सेवन करे और अपनेश्रापको शिवस्वरूपका अधिकारी बनावे । सारांश, यह स्पष्ट हुआ कि अहंकार और बुद्धिके पूर्ण विकास करके ही जोर अपने-आपको ऊँचसे ऊँच योनिको प्राप्त कर सकता है और नीचसे नोच जड़ योनियों तक गिरा सकता है। जिस प्रकार
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श्रात्मविलास ]
[ ३२ लोहे करके लोहा काटा जाग्नकता है, उसी प्रकार अहंकारके द्वारा अहकार और बुद्धिके द्वारा बुद्धि काटी जासकती है, अर्थात् मत्त्वगुणी अहकार व बुद्धिके द्वारा ही राजमिक व तामसिक अहंकारादि काटे जासकते है, परन्तु यह सब कार्य बुद्धिकी पूर्णताको पाकरही होसकता है। अब कुछ मामान्य रूपसे यह दर्शाया जाता है कि किस रूपसे मनुष्य नीचसे नीच योनियों को और किस रूपसे ऊँचस ऊंच योनियोंको प्राप्त करनेमें समर्थ है । यह स्पष्ट है कि जिस प्रकार बच्चा अपनी माताको सेवा पाकर' ही यौवन अवस्थाको प्राप्त होता है । जव उसको मल-मूत्रादि की कोई सुधि नहीं थी, तव माताने उसके लिये नीचसे नीच कार्य भी किया है, चाडाल तकका धधा भी उसके लिये प्रेम से धारण किया है, रातो जागती हुई उसके कष्टको न सहकर
आप उसके मूत्रमे शयन किया है और उसको सूखेमे सुलाया है । जय पश्चा नन्हा-मा होंट निकालकर रोने लगा तो माताको हृदय भी उसके दुःखको न सहकर द्रवीभूत हो पाया है। इसके प्रतिकारमे युवावस्था पाकर अब उसका यह कर्तव्य है कि वह अपनी माताके अनुकूल चलकर उसके परिश्रमको सार्थक करें, इसीमे उसके लिये भलाई है । यदि वह माताके अनुकूल नवरत कर उसके विपरीत चलेगा तो अवश्य उसको पमयातना महनी पडेगी, इसमे सन्देह नहीं है । इसी प्रकार प्रकृतिमाताने अपने जीवरूपी वालकको पापाण-वृक्षादिकी जड़ावस्था में उठाकर, जब कि वह सर्वथा दीन-हीन दशाको प्राप्त था और इसको किमी प्रकारसे कोई ज्ञान ही नहीं था, क्रम-क्रमसे निर्विघ्नतापूर्वक अपनी गोद में लालन-पालन करते हुए मनुष्ययोनि प्राप्त कराके और सर्व प्रकारकी योग्यता प्रदान कर चवावस्थाको प्राप्त करदिया है। श्रय इस अवस्थामें जीवके लिये एकमात्र कर्तव्य यही है कि वह प्रकृति-माताकी आज्ञामे
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३३]
[ पुण्य-पाप की व्याख्या चलकर और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करके उसके कठिन परिश्रम को सार्थक करे और परमपितासे मेल पाजाय, क्योंकि प्रकृति का सम्पूर्ण व्यवहार इसी निमित्त था। प्रकृति-माताने इसको मुक्त करानेका भार तो अपने सिरपर ले ही लिया है और इससे कोई सन्देह नहीं कि वह इसको मुक्त कराये बिना न श्राप विश्राम लेगी और न इसको ही चैन से बैठने देगी। इसके विपरीत यदि इसकी चाल वेढड़ी जड़तापूर्वक ही रही बार माताका अनादर ही किया जाता रहा तो अवश्य यह माता कालीरूपसे विकरालम्बरूप धारण करके इसको नीचसे नीच योनियोंमे फैंके बिना भी न रहेगी। जैसा गीता अ० १६ श्लोक १७ से २० मे वर्णन किया गया है और इसी प्रसङ्गमे पीछे पृ० ३०, ३१ पर निरूपण कर आये हैं । अब यह जीवको खुशी है कि चाहे ठोकरें खा-खा कर पिट-पिट कर सीधे मार्ग चल पड़े, चाहे पहले विना कुटे-पिटे ही अपने रास्ते पर आजाय । इससे अच्छा तो यही है कि पहले ही सीधे रास्ते पर आजाय जिससे मार तो न खानी पड़े।
प्रकृति ही परमात्माका कानून है जोकि बड़ा कठोर है। प्रकृतिका भटल | इसको किसीका लिहाज नहीं, जो इसका _नियम , | सेवा करते हैं उनके लिये यह भवानीरूप से दर्शन देती है और शिवस्वरूपसे मेल करा देती है, परन्तु अनादर करनेवालोंको यह कालीरूपसे मर्दन किये विना भी नहीं छोड़ती पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रादि जिसकी कलाकौशलसे शून्यमे टिके हुए हैं। जिसके भयसे पवन चलता है, जिसके भयसे सूर्य नियमित समय पर कॉपता हुआ निकल
आता है, जिसके भयसे अग्नि, इन्द्र तथा मृत्यु दौड़ते रहते हैं। जिसका चलाया हुआ काल-चेक दिन, रात, पन, माल, पट्-ऋतु तथा संवत्तरके रूपमे घम रहा है। समुद्र साठी प्रहर जिसके
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आत्म-विलाम]
[2 कटाक्षरो नृत्य करता रहता है और नियमिन समय पर चार भाटेके रूपमे उसकी लीलारा तश्य दिग्गला जाना बाकाग को शुन्यता, वायुको पन्दता, अग्निको उपाता. जनको वता. पृथ्वाको कठोरता उसकी ही प्रदान की हुई हैं । मागंश, प्रभा. विष्णु तथा रुद्र जिसके इशारेमे मंमारकी उत्पत्ति, स्थिति तथा ला-क्रियाको करते हैं, उम प्रकृति-माताक अनुकूल चल कर ही मनुष्य अपने आपको प्रतिके बन्धनमे छुड़ा सकता है. अन्यथा इसके बन्धनसे छूटना असम्भव है। जिस प्रकार किसी नदीके उपरसे रेलगाडी निकालनी मंजूर हो तो पानी को वहावका रास्ता दकर और पुल बनाकर उनके अनुयूल चलकर ही निकाली जा सकती हैं। जलका प्रवाह रोक कर हजार उपाय कर देखो, क्या कार्यसिद्धि की जा सकती है ? कि इसी प्रकार मनुष्य प्रकृतिके अनुकूल चलकर ही प्रकृतिके बन्धन से छूट सकता है। ___ यहाँ प्रश्न होता है कि प्रकृतिकी अनुकूलता किस्म है और प्रकृति चाहती क्या है ? विचारसे देखा जाता है कि जब जीव किसी प्रकारसे धन-पुत्रादि वाह्य पदार्थीको पकडको प्रहरण करता है, अथवा शरीरसम्बन्धी मान-वडाईकी पकड़ करता है, उसी समय उसका वातावरण दुख, शोक और चिन्तासे परिपूर्ण होजाता है। पकड़के कारण ही क्या वर्तमान और क्या भावी दोनों काल ही इस जीवके विरुद्ध कटिबद्ध होकर खड़े होजाते हैं। वर्तमानमे तो अनेक भूतसमुदाय इस जीवके प्रति पकडके कारण शत्रुतामें वरतने लगते हैं और भविष्यत् मे उन कर्मोके फलरूपमें आधिदैविक शक्ति इस जीवके विरोध में दुःखमय फलभोग भुगानेके लिये, सशस्त्र खड़ी होजाती है। वर्तमानमें जो भी दुःख जीवको प्राप्त होरहा है, उसके मूलमे निर्विवादरूपसे एकमात्र कारण यही होसकता है कि इस जोव
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३५ ]
[पुण्य-पाप की व्याख्या ने भून अथवा निकटवर्ती वर्तमान कालमे किसी प्रकार पकड़ को ग्रहण किया था, इसके सिवा अन्य कोई कारण न हुा है न होगा। इससे स्पष्ट है कि अध्यात्म (आधि-व्याधिताप) अधिदेव व अधिभूत निविध-तापोंकी प्राप्ति एकमात्र पकड़ का के ही है । जितनी पकड़ अधिक होगी उतने ही ताप भी अधिक होग, जितनी पकड़ कम होगो उतने ही ताप भी कम होंगे और ज्यूँ ही पकड़का परित्याग किया जायगा, त्यूँ हो इसका वातावरण सुख-शान्तिमय होजायगा और तीनों ताप भी पीठ दिखाते होगे। भगवान् दत्तात्रेयने अपने २४ गुरुवोंमे ईल (चील) पक्षी को भी अपना गुरु बनाया है जोकि एक मांसका टुकडा लेकर आकाशमें उड़ी जारही थी। उस मांसके टुकडेको देख ईलसमुदाय इसके विरोधके लिये खड़ा होगया और इसको नोच-नोच खाने लगा। ज्यूँ ही इसने मांसके टुकड़ेका परित्याग किया त्यूँ ही सब पक्षियोंने इसका पीछा छोड़ दिया और यह सुखने विचरने लगी। इससे स्पष्ट है कि जिस-तिस प्रकारसे त्यागका अनुसरण करना, इसीमे प्रकृति की अनूकूलता है और ग्रहणका अनुसरण करना, इसीमें प्रकृतिकी प्रतिकूलता है ।
उपयुक्त रीतिसे स्पष्ट हुआ कि त्यागमें ही प्रकृतिकी अनुकूलता है और सर्वत्याग ही प्रकृतिका ध्येय और अन्तिम लक्ष्य है । वहीं प्रकृतिको विश्राम है और वहाँ पहुँचकर ही प्रकृतिके वन्धनसे छुटकारा है । इसी उद्देश्यको सम्मुख रख कर प्रकृति ने, जैसा पीछे वर्णन किया जाचुका है, जीवको पाषाण व उद्भिजादिकी जड़योनियोंसे उठाकर क्रम-क्रमसे तमोगुण व रजोगुण को गलाते हुए पन्चकोशके विकासद्वारा मनुष्ययोनि
, शारीरिक व मानसिक दु.ख ! २. गृह, नक्षत्र व अग्निजलादिजन्य दुःख । ३. मनुष्य पश्वादिजन्य दुःख ।
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आत्म-विलास]
[३६ * प्राप्ति करती है और सत्त्वगणके विकासद्वारा मनुष्यमे बुद्धिकी पूर्णता प्रदान करदी है जिससे उसको सुख-दुःख, हानिलाभ और पुण्य-पापादिका ज्ञान होने लगा। बुद्धिको पूर्णताको प्रदान करके यद्यपि प्रकृतिने तो अपने कर्तव्यकी पूर्ति करदी है, जीवको स्वतन्त्रता प्रदान करती है और अपनी जुम्मेवारीसे हाथ उठा लिया है, परन्तु बुद्धिकी इस पूर्णता व स्वतन्त्रताको प्राप्त करके मनुष्य अब अपने व्यक्तिगत स्वार्थको पकड बन्दर को भॉति कर बैठा है, इसीकी पूर्तिमे लग पडा है और यही जीवनका लक्ष्य मान बैठा है । न इसको छोड़ना चाहता है और न आगे वढना चाहता है। अव प्रकृतिका मनुष्य पर तकाजा है कि वह क्रम-क्रमसे अपने तुच्छ तमोगुणी स्वार्थोकी वलि दे और इस प्रकार स्वार्थत्यागपरायण हुआ अन्तत. अपने परिच्छिन्न-अहंको ही सूली पर चढ़ा दे और जीवसे शिवरूप मे श्रारुढ होजाय । यही प्रकृतिका मुख्य ध्येय है।
यद्यपि प्रकृतिका धेय इस प्रकार परम त्यागमे ही है, तथापि प्रकृतिका आशय यह है कि त्याग अधिकारीके अधिकारानुसार हो, अधिकारको उल्लङ्घन करके नहीं। जिस प्रकार अधिकारानुसार उचित मात्रामे खाया हुआ भोजन ही हमको वल देसकता है और अधिकारविरुद्ध अधिक मात्रामे सेवन किया हुआ अमृत भो विपरूप हो जाता है, इसी प्रकार अधिकारानुसार उचित मात्रामे त्यागस ही हम बल प्राप्त कर सकते हैं और इस त्याग-चलसे बलवान होकर हम और अधिक त्यागकी वलि दनेमे समर्थ हो सकते है। इस रीतिसे बलसे वल प्राप्त करते हुए हम सर्वत्यागके अविकारी हो सकते हैं और सर्वत्याग कर सकते हैं। यदि अधिकार व मात्राका निरादर करके हमने अनधिकार ऊँचा त्याग भी किया तो भी हम उससे बल प्राप्त न कर सकेंगे, बल्कि उल्टा निर्वल होने की संभावना होगी।
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सर्वत्याला प्रकार अधिकारीको वृद्धि करके उन्त अधिक मात्रा
३७]
[पुण्य-पापकी व्याख्या जिस प्रकार रोगीके लिये उचित मात्रामें दिया हुआ संखिया रोग-निवृत्तिमें सहायक है और अमृत है,परन्तु अधिक मात्रामें देने पर वही संखिया उसके रोगकी वृद्धि करके उल्टा उसको दुर्वल कर देगा, इसी प्रकार अधिकारानुसार स्वार्थत्यागकी पलि देते हुए सर्वत्याग सिद्ध करना, इसीमे प्रकृतिकी अनुकूलता है और इसीप्रकार प्रकृतिके अनुकूल चलकर प्रकृतिके वधनसे छूटना हो सकता है, यही सर्व धर्मोंका रहस्य है। इसीलिये भगवान् ने गीताके अन्तमे ऊर्ध्वबाहु होकर स्पष्ट कह दिया है :
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठिताद । स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्मिपम् ।। सहज कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सर्वांरम्मा हि दोपेण धूमेनाग्निरियावृताः ॥ यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे। मिथ्येष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोच्यति ।। स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा । कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ।।
(गी. अ. १८ श्लो, ४७,४४,५९,६०) अर्थ:-अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरोके धर्मसे अपना गुणरहित धर्म भी श्रेष्ट है, क्योंकि स्वभावसे नियत किये हुए कर्मको करता हुआ मनुष्य पापको नहीं प्राप्त होता । इसलिये हे कौन्तेय ! दोपयुक्त भी स्वाभाविक कर्म नहीं त्यागना चाहिये, क्योकि प्रारम्भमे धूम्रसे अग्निके सहश्य सभी कर्म विमान किसी दोपसे आवृत होते ही है । हे अर्जुन ! जो अहंकारकं
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आत्मविलास ]
[३८ वशीभूत हुआ तू ऐमा मानता है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' यह तेरा मिथ्या ही हठ है, क्यों के प्रकृति तेरेको बलात्कारसे युद्धर्म जोड देगी। स्वभावसे अपने स्वकर्मोसे वॅधा हुआ हे कुन्तीपुत्र ! जो तू अपने स्वकर्मको न करनेकी इच्छा करता है तो भी यो तेरेको वलात्कारसे करना ही पडेगा।
अर्थात् जिस प्रकार धूम्रकी निवृति करके अग्नि निर्धम्र हो सकती है, इसी प्रकार प्राकृतिक मटोप कर्म करने-करते भी मनुष्य निर्दोप हो सकता है । आशय यह है कि तमोगुण व रजोगुण का भी अपने अपने समय पर मनुष्यमे विकास होना आवश्यक है और कर्मके द्वारा ही उस गुणका वेग त्याग किया जा सकता है। अर्थात् उस गुणके वेगको कर्मद्वारा ही निवृत्त करके सत्त्वगुण मे आरूढ हो सकते हैं, अन्य कोई उपाय गुणत्यागका नहीं हैं। दृष्टान्तरूप से देखा जाता है कि निद्रारूप तमोगुणको शयनके द्वारा ही दूर किया जा सकता है, यदि हम आग्रह करे कि शर्यन के बिना ही तमोगुण दूर हो तो असम्भव है। इसी प्रकार भगवानका कथन है कि यद्यपि सव ही फर्म आरम्भमे धूम्रसे अग्निके समान दोपसे आवृत्त हैं, तथापि स्वाभाविक कर्मका त्याग न करे, क्योकि उपयुक्त रीतिसे कर्मके द्वारा ही गुणका वेग दूर करके निष्कर्मताको प्राप्त किया जा सकता है । प्रकृतिके राज्यमे कर्म तो अपने स्वरूपसे दोपयुक्त है ही, एक कर्म एक के लिये एक अंशमें गुणरूप होगा तो किसी दूसरेके लिये अथवा किसी दूसरे अंशमै उसका दोपयुक्त भी होना जरूरी है, जैसा आगे आत्मविकासको पाँच श्रेणियोंके प्रसंगमें निरूपण किया जायगा । यद्यपि ऐसा है फिर भी अपने स्वाभाविक कर्मद्वारा ही तमोगुणादिके वेगका त्याग करके मनुष्य सत्त्वगुणमें आरूढ हो सकता है और तब ज्ञानद्वारा गुण-कर्मके बन्धनसे
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[पुण्य-पापकी व्याख्या मुक्त हो सकता है । अभिप्राय यह कि सत्त्वगुण कही बाहरसे इसमे प्रवेश नहीं करेगा, बल्कि वह इसके अन्दर ही है और रज-तम गुणों के नीचे दवा हुआ है, रज-तमका वेग निवृत्त होने पर सत्त्वगुण इसके अन्दर ही विक्रमित हो पायेगा, जैसे फुलके पीछे ही फल है, फूल निकल चुकने पर फल अपने श्राप निकल आता है। इसका आशय यह नहीं कि स्वाभाविक सदोप काँका प्रवाह चालु ही रक्खा जाय, बल्कि आशय यह है कि जिस प्रकार एक मुँहजोर घोड़ा सवारके हाथमे हो किन्तु उसके अधीन न हो तो उसको चाहिये कि उमपर भारुड होकर उसी के रुखेपर थोड़ा उसको चलावे, फिर चावुक लगाकर उसको अपने मार्गपर ले आये। इसी प्रकार इधर स्वाभाविकटोपयुक्त कर्मके वेगको थोडा कके द्वारा निवृत्त कर, किन्तु चित्तमे उसको समूल नष्ट करनेका ध्यान रक्वे और उधर प्रकृतिके अनुकूल वरताव करता हुआ, जैसा पीछे वर्णन किया जाचुका है, अधिकारानुसार त्यागका बल अन्दर भरे। इसी प्रकार स्वा. भाविककर्मके प्राचरणमे भगवानका प्राशय है। अत: सिद्ध हुआ कि प्रकृतिके अनुकूल चलना ही पुण्य है, धर्म है और इसके विपरीत चलना ही पाप है, अधर्म है । क्या व्यवहारिक, क्या पारमार्थिक, क्या शारीरिक, क्या मानसिक सभी प्रकार की उन्नतियोंके साथ प्रकृतिका सम्बन्ध है। घटान्त रूपमे देखा जा सकता है कि पशु-पक्षियोंम खान-पान, रहन-सहन, मैथुन आदि मय शारीरिक चेष्टा प्रकृति के अनुकूल होती है, उसीलिचे वे प्रायः स्वस्थ रहते हैं। उनके लिये प्रकृति ही एक वै है जो कि उनके स्वास्थ्यकी जुम्मेवार है । परन्तु मनुष्ययोनिमे आकर जीव प्राय शारारिक व मानसिफ चंद्राओं में प्रकृतिक नियमको तोडता रहता है, यही उमकं नितापोंस तपनका एकमात्र
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नयम
आत्मविलास ]
प्रकृतिरूपी चौकोदार हर समय जीवके सिरपर बडा हुआ प्रकृतिका अन्य 1ऊँचे स्वरसे पुकार-पुकार कर कह रहा
है,"आगे बढ़ो, पीछे हटो अर्थात् जव तक तुम अपने उहिष्ट स्थानपर न पहुंच लो, मार्ग में किसी भी Point ('बाइट, स्थान) पर खड़े रहनेकी तुमको इजाजत नहीं हो सकती। यदि तुम आगे बढ़नेसे इन्कार करते हो तो तुमको पीछे हटना ही पडेगा। आशय यह कि जबतक तुम अपने अन्तिम धेयको प्राप्त न करलो, तब तक बीचके किसी पड़ाव को ही उद्दिष्ट स्थान न मान बैठो और वहीं डेरे डाल देनेकी भूल न करो, क्योकि सरायको हो घर बना बैठोगे तो वहीं तुमको कोई टिकने न देगा, इमलिये आगे अपने घरकी ओर बढ़ो तो अच्छा, नहीं तो डडे मारकर पीछेको ओर फैंक दिये जाओगे। इससे उत्तम यही है कि कुछ काल यहाँ विश्राम करके
आगे चलन का ध्यान रक्खो, जिससे पीछे तो न धकेले जाओ। इस प्रकार यद्यपि इन बीचकी सरायोंमें से गुजरना तो जरूरी है, परन्तु डेरे डाल देना भयदायक है। जिस प्रकार नदीका प्रवाह पहाड़की जड भूमिसे निकलकर पहाड़ी मार्गमे शीघ्रता से गदगद करता हुआ समुद्रमे मिलने के लिये मैदानमे आता है । मैदान में आकर इसकी गति मन्द व टिकी हुई होती है, यहाँ यदि इस प्रवाहको पाल लगाकर आगे बढनेसे रोक दिया जाय तो यह प्रवाह उसी स्थान पर खड़ा नहीं रह सकता, इसको पीछे टक्कर मारकर हटना पडेगा अथवा किनारे तोड़कर इधर-उधर गहों में पानी फैलकर सूख जाना होगा। ठीक इसी भॉति जीवरूपी नदी का प्रवाह अघिद्याकी गाढ़ सुपुप्तिअवस्था पापाण-वृक्षादि जड योनियोंसे निकलकर ब्रह्मरूपी समुद्रमें मिलनेके लिये चला है। पहाडी मार्गमे प्रवाह जिस प्रकार तीव्र गतिसे चलता है और वहाँ यह रोका नहीं जानकता, इसी प्रकार स्वेदज, अंडज, जरायुज योनियों में जीव-विकासको गति प्रकृतिके अधीन होनेसे
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४१]
[ पुण्य-पापणे व्याख्या क्रप-नसे बडी शोवतासे बढ़ती रहती है, वहाँ इसके प्रवाह की गति रोकी नहीं जा सकती। परन्तु जाग्रत अवस्थारूप मनुष्ययोनिमें आकर पचकारी व तीनों अवस्थाओके विकास के कारण जीव स्वतन्त्र होजाता है और यहाँ उसकी गति मन्द होजाती है। अब यदि इस प्रवाहको आत्मविकासद्वारा आगे बढानेसे रोका जायगा तो अवश्य इसको टक्कर खाकर पीछे जड़ योनियोमें लौटना पड़ेगा, अथवा शास्त्रमर्यादारूपी किनारो को तोडकर सांसारिक विपयरूपी गड्ढोंमे गिरना पड़ेगा। जिन प्रकार जल गड्ढोके अन्दर गिरकर सड़ॉद पैदा करता हुआ सूर्यक तापसे जल्दी हो सुख जाता है, इसी प्रकार शास्त्रमर्यादा का त्याग करनेके कारण जीवप्रवाह के लिये प्रकृतिरूपी सूर्यके अध्यात्म, अधिदैव व अधिभूतरूपी त्रितापोंसे तप कर दुःखरूपी सॉद पैदा करते हुए नष्ट-भ्रष्ट होजाना जरूरी है।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहाहसि ।।
(गी० म, १६ श्लो. २४१५ अर्थः-इसलिये कार्य-अकार्यको व्यवस्थामै शास्त्र हो तेरे लिये प्रमाण हैं, शास्त्रोक्त विधानको जानकर तू कर्म करने के योग्य हैं। ___ यद्यपि जीवकी उपाधि अविद्या मलिन-सत्त्वप्रधान होनेके कारण तमोगुणी है, इसलिये मनुष्ययोनिमें जड़ताका प्रकट होना तो स्वाभाविक ही है, परन्तु इस जड़ताका स्थिर रहना
पाप है। मनुष्ययोनिमे.आकर जीवका पुरुषार्थ यही है कि इस 1. अहंभावरूपी जड़ताको, जोकि साढ़े तीन हाथके टापुमें घरकर } बैठा है, शनैः शनैः सोपानक्रमसे विस्तृत करके प्रवृत्तिसे निवृत्तिम
ओर हदसे बेहदमें समान कर दिया जाय । यदि वह इस
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आत्मविलास ]
[४२ प्रकार इनका विस्तार करनेसे रुकता है, तो जैसाकि उपर चर्चा की गई है, उसको टक्कर खाकर पीछे हटना ही पड़ेगा और निकृष्ट योनियोंमें यात्रा करनी ही पड़ेगी। चारों वर्षों और चारों आश्रमोकी मर्यादा जीवप्रवाहके तटोंको सुन्द बनाये रखने के लिये ही थी, जिससे जीवप्रवाह इधर-उधर किनारे मो न तोड़कर सीधा अपनी गतिसे चलता हुआ ब्रह्मसमुद्र में मिलकर प्रवृत्तिसे निवृत्तिमे और हदसे वेहदमें समाप्त हो
आय । इसीलिये वर्णाश्रम धर्मका लक्षण शास्त्रकारोंने इस प्रकार किया है।
प्रवृत्तिरोधको वर्णो निवृत्तिपोपश्चाश्रमः अर्थात् वर्णधर्म प्रवृत्तिको आगे बढनेसे रोकता है, यानि विषयप्रवृतिको हदमे रखता है और पानमधर्म निवृत्तिका पोपण करके उसको आगे बढाता है । वास्तवमे विचारसे देखा जाय तो विषयप्रवृत्ति भी विपयनिवृत्ति के लिये ही है। प्रवृत्ति बिना तो निवृत्ति ही कैसी १ इस प्रकार वर्णधर्मका उद्देश्य भी 'गुडजिद्वान्याय' से निवृत्तिमें ही है । जिस प्रकार माता अपने रोगी बालकको कटु श्रोपधि पिलाकर उसका रोग शान्त करना चाहती है। बच्चा श्रोपधिकी कटुता सुनकर उससे भागता है तो माता उम नादान बनेको बहलानेके लिये अपने , हाथकी एक अंगुलीमे चुपकेसे गुडका रस लगा लाती है और बचके मम्मुम दूसरी अंगुली ओपधिमे डुबोकर उसको दिखाती है कि देख, प्रोपधि कटु नहीं, मीठी है। परन्तु चटानेके समय ओपधिवाली अंगुली न चटाकर गुढके रमवाली अंगुली चटा दती है । वास्तवमै माताका आशय गुड चटानेमें ही नहीं यल्फि क ोपधि पिलाकर उमका रोग शान्त करनेमे है। ठीक इस प्रकार अतिमाताने भोग-रोगसे रोगी अपने जीवरुपी पुत्र * प्रवृत्तिरूपी करके निवारणकं लिये विषय-प्रवृत्तिको गुड
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४३ ]
[ पुण्य-पापकी व्याख्या जिहान्यायसे रचा है। वास्तवमें श्रुतिमाताका श्राशय निवृत्तिरूपी कटु अोपधि पिलाकर उसका रोग शान्त करनेमे ही है, न कि प्रवृत्तिरूपी कीचड़में फंसाये रखनेमे । यह नियम है कि जहाँ-जहाँ जिननी-जितनी प्रवृत्ती है वहाँ-वहाँ उतनी-उतनो ही संकीर्णता व कृपणता है और जहाँ-जहाँ जितनी-जितनी निवृत्ति है वहाँ-वहाँ उतनी उतनी ही उदारता है । तथा जितनी-जितनी कृपणता व संकीर्णता है उतनी-उतनी ही अहंभावकी जड़ता है और जितनी-जितनी उदारता है उतनी-उतनी ही अहमावको द्रवता व विस्तरिता है। इसीलिये जितनी-जितनी प्रवृत्ति है उतनाउतना ही पाप व दुःख और जितनी-जितनी निवृत्ति है उतनाउतना ही पुण्य व सुख है। प्रवृत्तिमें भी जहाँ कहीं किसी अंश 'में पुण्य मिलता है तो केवल निवृत्तिके संयोगसे ही, केवल प्रवृत्ति अपने स्वरूपसे कदापि पुण्यरूप नहीं हो सकती।
इस प्रकार प्रकृतिका जीव पर मनुष्ययोनि प्रान्तिके पश्चात प्रवृत्ति व निवृत्तिभेद | तकाजा है कि वह जिस अधिकार पर स्थित तथा प्रवृत्तिमार्गी है उमसे आगे चलकर आत्मविकासकी पाँच श्राणयाँ ओर अग्रसर होता हुआ, 'वसुधैव कुटुम्बकम रूपी पूर्ण समताको प्राप्त कर ले। इस सम्बन्धमें जितने भी साधन हो सकते हैं उनको दो भागोंमे विभक्त किया जासकता है (१) प्रवृत्तिमुख (२) निवृत्तिमुख । निवृत्तिमुख साधन वे हो सकते हैं जिनके द्वारा मल-विक्षेपादि ढोषोंको दूर करके अन्तःकरणकी निर्मलता उपार्जन की जाय और इस प्रकार राग के विषय जो संसारसम्बन्धो पदार्थ हैं, जिन्होंने हृदयगत राग को सीमावद्ध करके उसके विस्तारका निरोध किया हुआ है, उस परिच्छिन्न रागको विवेक-वैराग्यद्वारा तोड़कर रागकी समता सम्पादन की जाय । जैसा इसी लेखमें राग-द्वेषके प्रसंग से पीछे पृ. ७ से १८ पर वर्णन किया जा चुका है, यह मार्ग
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श्रामविलाम]
। ४४ निवृत्तिमुख होनेसे सत्त्वगुणप्रधान है। यन, दान, तप तथा शास्त्रोके यावत् विधिरम्प की परम्पराम वराग्यकी उत्पत्तिमे सहायक है । उनका श्राशय केवल वैगग्यकी ओर लेजानेमें ही है,इसलिये प्रकृति के अनुकूल होनसे वे सभी पुण्यस्प है। जितनाजितना जो साधन वैराग्यकी उत्पत्तिमे निक्टतर है उतना-उनना वह अधिक पुण्यरूप है । यन्न, दानादिक तथा यावन विचिस्प को शुभ मकाम भावनामे किये हुए निष्काम भावकी उत्पत्ति में सहायक हैं, निष्काम भाव भक्तिकी उत्पत्तिगे महायक है और भक्तिके द्वारा ही वैराग्य का प्रादुर्भाव सम्भव है। इस प्रकार यह क्रम-क्रमसे अधिक पुण्यरूप हैं। प्रवृत्तिमुख मावन वे हैं, जिनके द्वारा प्रवृत्तिका संकोच न होकर प्रवृत्तिके विस्तारके माथ-साथ स्वार्थत्यागद्वारा अहभावका विस्तार किया जाय । यह मार्ग रजोगुणप्रधान है इस मार्गमें भी प्रवृत्तिका अपनी अवधिको प्राप्त करके निवृत्तिमे बदल जाना आवश्यक है। वास्तवमै प्रत्येक विधिरूप प्रवृत्ति अपने गर्भमे निवृत्तिको धारण किये हुए होती है, जोकि परिपक होकर निवृत्तिमें परिणत हो जाती है। जिस प्रकार फल वह कर और पक कर वृक्षसे आप ही छूट जाता है, इसी प्रकार प्रवृत्तिका भी बढ़ कर और पक कर छूट जाना जरूरी है। दोनों ही मार्ग अपने-अपने अधिकारानुसार उत्तम है मुत्य व गौण नहीं कहे जा सकते । अब इस प्रवृत्तिमार्गका संक्षेपसे निरूपण किया जाता है, हम मार्गके अनुसारी मनुष्योंको पाँच श्रेणियोंमे विभक्त किया जा सकता है।
प्रथम श्रेणीके मनुष्य के है, जो केवल इन्द्रियारामी हैं और प्रथम श्रेणी 'उशिन | जिन्होंने इन्द्रियोंकी धधकती हुई अग्नि
-1 मे विपयरूपी धृतकी आहुति देते रहना मनुष्य' अर्थात् पेटपाल
ही अपने जीवनका लक्ष्य बनाया है।
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४५]
[ पुण्य-कापकी व्याख्या बूट-सूट, मोडा-सीगार, हिसकी-ब्रॉडी आदि अनेक भोग्य विषय ही जिनके सुग्बके केन्द्र बने हुए हैं। इस प्रकारकी सोसाइटीके मित्रोंसे मिलकर बैठना और उनकी प्रसन्नताके लिये अपने द्रव्यको लुटा देना, इसीमें वे अपने-आपको कृतकृत्य माने हुए हैं और यही उनके लिये महायज्ञ है। स्त्रो-बचोंको 'पेटभर रोटी भी मिलता है या नहीं, इसका उनको ध्यान नहीं । रोकी
ओरसे प्रार्थना की जाती है, "आज घरमे धान नहीं रहा, मेरे मर पर दुपट्टा (ओढ़ना) फट गया है, लल्लूका कुड़ता नहीं रहा, जाड़े मारता है" इत्यादि । इस प्रकारके शब्द उनके लिये ऐसे हैं, मानो एक पके फोडे पर अगार रग्ब दिया हो। इसके उत्तरमें खूर अपशहीसे उस प्रवलाका स्वागत किया जाता है और किसी-किसी समा तो हाथ-पॉवसे भी उसकी पूजा किये विना उनका सन्ताय नहीं होता, मानो वह अनाथ उनके किसी परमार्थमे विघ्नकारक हो गई है । गति व देशकी क्या दशा है, इस सम्बन्धमे तो उनका ध्यान ही क्या हो सकता है ? हॉ, अपनी सोमाइटीम उन जातिप्रिय व देशप्रिय सज्जनो पर खुले कटाक्ष किये जाने हैं, मानों इनको दृष्टिम ऐसे सजन ससार में उत्पन्न होकर केवल भारवाही ही हो रहे हैं, इनकी अपनी दृष्टि से तो उन्होंने मंसारका तनिक भी सुख नहीं उठाया और मंसारके सुख उठानेके ठेकेदार एकमात्र यही हुए है। ऐसे पुरुष केवल पेटपाल हैं, उनको गतिको लहकी गतिसे तुलना दी जा सकता है । जिस प्रकार घुमाया हुआ लट्टे चक्कर तो बड़ी शीघ्रतासं काटता है, परन्तु अपने ही इर्द-गिदे, इसी प्रकार यद्यपि उनके. जीवनमें गति व चेष्टाएँ तो अनन्त होती हैं, परन्तु अपने ही शरीरके केन्द्रमें, शरीरके बाहर उनके द्वारा कोई गति प्रकट नहीं होती। इसीलिये ऐसे पुरुषोको मनुष्य योनि पाकर भी 'उद्विान मनुष्य' को उपमा दे सकते हैं। जिस प्रकार
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आत्मविलास
[४६ उद्भिन्नवर्गमे गति तो है, परन्तु अपन ही केन्द्रमे मीधी रखा में उनकी गति प्रकट होती है, स्थानान्तरमें उनकी गतिका अभाव है, इसी प्रकार इन पुस्पाम भी अपनेमे बाहर कोई गति प्रकट नहीं की जाती । पचकोशांका विकास होने पर मा ऐसे पुरुप केवल तमोगुणप्रधान हैं और उनकी चंदा जड़ीभूत केवल स्वार्थपरायण होनेसे केवल पापरूप और दु.न्यपरिणामी हैं।
- 'अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति'
अर्थ''हे अर्जुन से इन्द्रियों के मुग्यको भोगनवाला पाप-आयु पुरुष व्यर्थ ही जीता है। चूंकि अधियाका इम जीवके साथ चिरकालीन सम्बन्ध है, इसलिये यद्यपि इम अवस्थाका प्रकट होना तो स्वाभाविक है, परन्तु इसका स्थिर रहना दोषयुक्त है।
आत्मविकास अब द्वितीय श्रेणीने विकसित हुआ और नाही . कालप्रभावसे जैसे बीज अपनी जड
अवस्थासे कोपलके रूपमे विकसित मनुष्य अर्थात् कुटुम्ब.
85 हो पाता है, इसी प्रकार यह शरीर के पाल
स्वार्थ में ही टिका न रहकर अब इसन कुटुम्बके स्वार्थमें अपना डेरा डाल दिया। अब यह कुटुम्बक सुखसे सुखी और कुटुम्बके दुःखसे दुःखी होने लगा तथा कुटुम्बकी हानिको अपनी हानि और कुटुम्बके लाभको अपना लाम जानने लगा। इस प्रकार अब पेटपालू ही न रह कर कुटुम्ब-पालु बन गया और कुटुम्बमें मान-सत्कार पाने लगा। अब इसकी गति लड़के समान केवल अपने ही केन्द्र में घिरी नहीं रह गई, वल्कि अब उसे कोल्हूके वेलकी शतिसे तुलना दी जा सकती है। जिस प्रकार कोल्हूका बैल' अपने ही केन्द्रमें न घूमकर कोल्हूके इर्द-गिर्द घूमता रहता है,
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४७]
[ पुण्यपापकी व्याख्या यद्यपि दिनभरमें उसके द्वारा अनेक मीलोका चक्कर तो काटा जाता है, परन्तु सायकालको कोल्हूसे वहीं गजमरके फासले पर ही रहता है। इसी प्रकार उसकी गति अपने ही शरीरके स्वार्थ पर निर्भर न रहकर अव वह कुटुम्बके स्वार्थके इर्द-गिर्द चक्कर तो काटने लगा, परन्तु अन्य कुटुम्ब, जाति और देशमे जहाँ कही भी उसके कुटुम्बसम्बन्धो स्वार्थको धक्का लगनेकी सम्भावना होने लगती है वह वहाँ अन्य कुटुम्ब, आति
और देशके स्वार्थ पर ध्यान न देकर उनके साथ विरोध भी ठानता है । कुटुम्बके रागके कारण उसकी चेष्टाएँ केवल तमोगुणी न रहकर अब तम-रजमिश्रित होने लगीं। इस प्रकार
आत्माका किञ्चित विकाम होनेके कारण वे चेष्टा यद्यपि किञ्चित् पुण्यरूप तो हैं, परन्तु अन्य कुटुम्ब, जाति और देशके स्वार्थसे द्वेपवती होनेस चे अधिक पापरूप भी हैं। जिस प्रकार कीटयोनिमें जीवको गति एक स्थानसं दूसरे स्थानमें भी देखनेमें आती है, परन्तु वह फिसलकर पेटके बल ही चल सकता है । इसी प्रकार यद्यपि इसकी गति भी एक स्थानमें हो सकी न रहकर स्थानान्तरमें तो प्रकट हुई, परन्तु कुटुम्बके स्वार्थमे बद्ध रहनेके कारण वह फिसलकर चलने के समान ही है । इसलिये ऐसे. पुरुषोंको मनुष्ययोनि पाकर भी 'कीट-मनुष्य' कहा जा सकता है।
प्राकातेक नियमके अनुसार जैस-जैस इसके कुटुम्बका विस्तार होता है, वैसे-वैसे ही कुटुम्बके विस्तारके साथ-साथ उस विस्तृत कुटुम्बके प्रति आत्मत्वभावका विकास करना अब इसका कर्तव्य है। यदि वह कुटुम्बके विस्तारके साथ-साथ भ्राता आदिके कुटुम्बके प्रति आत्मत्वभाव प्रकट करनेसे इन्कार करता है तो जैसा पीछे सिद्धान्त किया जा चुका है, इस विकास के प्रवाहको रोकनेके कारणं इमको टक्कर खाकर अवश्य पीछे
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आत्मविलास] हटना पडेगा, जिसके परिणाममे ईर्ष्या-द्वेप भैरव व कालीरूप धारकर इसका रक्तपान किये बिना न रहेंगे और मानके स्थान पर अपमान इसका स्वागत किये विना न छोड़ेगा। वर्तमान भारतमें अनेक कुटुम्ब इसके ज्वलन्त दृष्टान्तस्वरूप है।
आत्मविकास अब तीसरी श्रेणीमे प्रकट हुआ। अहंभाव तृतीय श्रेणी, 'पशु- | अपने शरीर तथा कुटुम्ब तक हो घिरा मनुष्य' अथात् न रहकर अब आगे बढा और जाति मे जातिप्रेमी _ डेरा जा लगाया । अब जातिका स्वार्थ ही इसका अपना स्वार्थ है, जातिका लाभ ही इसका लाभ और आतिकी हानि हो इसकी अपनी हानि । इस प्रकार कुटुम्बमें ही मानपात्र न रहकर अब यह जातिमे मान पाने लगा । अव इसकी गति लह व कोल्हूके सहश्य ही न रहकर आगे बढ़ी, परन्तु सीधी गति अव मी न हुई, जहाँ अन्य जाति व देशके स्वार्थ के साथ इमके जातीय स्वार्थको धक्का लगनेकी सम्भावना हुई, वहाँ तत्काल यह अन्य जाति व देशसे विरोध ठाननेको तत्पर हुआ। इसलिये अब इसको गतिको छकडे के वैलसे तुलना देसकते हैं। जिस प्रकार छकड़ेका बैल, एक दायरेके अन्दर ही न घूमकर, जैसे-जैसे सडक चॉकी-टेढ़ी जाती है वैसे-वैसे ही अपनी धीमी चालसे चला जाता है, सडक छोड़कर नहीं चल सकता, इसी प्रकार इसकी गति भी कुटुम्ब के स्वार्थ तक ही घिरी न रहकर जिधरको जातीय स्वार्थ ले जाता है उधरको ही खिंचा चला जाता है किन्तु जातीय म्वार्यकी सड़क छोडकर स्वतन्त्र नहीं चल सकता । जिस प्रकार पशुवामें फिसलकर चलना तो नहीं रहा, परन्तु फिर भी ये सब प्रकारसे प्रकृतिके वन्धनमें ही है, स्वतन्त्रता पूर्वक उनकी कोई चेष्टा नहीं हो सकती, इमी प्रकार ऐसे पुरुषों को जातीय ग्वार्थमें बंधे रहनेके कारण 'पशु-मनुष्य की तुलना
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४]
[पुण्य-पापकी व्याख्या दी जा सकती है। यद्यपि ऐसे सज्जनोंके द्वारा जातीय सुधारका बहुत-सा कार्य सम्पादन होता है, परन्तु अन्य जाति व देश के लिये उनके द्वारा बहुत कुछ हानि की सम्भावना भी हो सकती है। इस प्रकार उनकी चेष्टाएँ अधिक रजोगुणी होनेसे रागके अधिक विस्तारके कारण अधिक पुण्यरूप तो हुई, परन्तु अन्य जाति व देशके साथ द्वेपरूप होनेसे पापरूप भी हैं, केवल पुण्यरूप नहीं। , वर्तमान भारतमे जातीय सुधारका कोलाहल बहुत कुछ मचा हुआ है । प्रति वर्ष अनेक प्रकारको जातीय कान्फस होती हैं, परन्तु जाताय सुधार वैसा देखनेमें नहीं आता। इसपर विचार करनेसे पता चलता है कि ऐसे सुधारकलोग प्रायः दूमरी श्रेणीके होते हैं जिनका अहंभाव कुटुम्ब तक ही, परिमित रहता है, जातिके अन्दर उनका अहंभाव अभी विकसित नहीं हुआ और वे कुटुम्बसम्बन्धी स्वार्थ से ऊँचे नहीं उठे । ऐसे पुरुषोंद्वारा यथार्थ रूपसे जातीय सुधार होना असम्भव है, बल्कि कुछ विगाड और जातीय द्वेपकी सम्भावना भी की जा सकती है । जिस प्रकार एक क्लर्क के द्वारा न्यायाधीश का कार्य चलना असम्भव है, इसी प्रकार इनके द्वारा जातीय सुधार होना कठिन है, क्योंकि अभी उनका आत्मभाव जाति में विकसित नहीं हुआ, बल्कि अभी उनका आत्मत्व कुटुम्ब तक ही परिमित है । अर्थात् अभी कुटुम्ब को ही वे अपनो आत्मा माने हुए है, जातिको उन्होंने अभी अपनो आत्मा हो नहीं जाना । यह नियम है कि सुधार हमेशा आपका ही किया जा सकता है, आत्ममिन्न वस्तुका तो सुधार ही कैसा ? इसलिये जिस वस्तुके साथ जब तक आत्मसम्बन्ध स्थिर न हो ले, तब तक उसका मुधार नहीं हो सकता । जिन पुरुषों में कुटुम्ब वक ही आत्मभाव संकोर्ण
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आत्मविलास] है, उन सकुचित चित्ताद्वारा जानीय बार में मात्र हो सकता है ? जातीय सुधार लिय गो नमानाचा होना आवश्यक है, जितना नागरी अंगामासाना नाहिय। ___ अत्मविकास अब चौथी मार्ग पगा 'पौर जाना चतुर्थश्रेणी, 'मनुष्य स्वार्थ पर निर्भर न करे अब देश पदवाच्य मनुष्य' कावार्य ही उसका अपना न्याय होगा। अर्थात् देशभक्त अभाव सानिक दर निगन रहकर तीन गतिसे आगे बढा और देगा माथ मन्यन्य पा गया। अब यह देशकी निमे हुयी व दंग लाममे सुखी होने लगा और इस प्रकार देशम मानपान होगया । पुरुषोंमें उदारता मलकने लग पड़ती है और उनका द्वंपभाव लुप्तप्राय हो जाता है। मसारमे उनका व्यक्तिगत, गुम्यान
और जातिगत कुछ भी स्वार्थ न रहकर कमात्र देशकी उमति व भलाई हो लक्ष्य रह जाता है। उनका ग्यान-पान, चाल-चलन, रहन-सहन, वल्कि शारीरिक स्थिति भी केवल देशके लिय ही होती है, अपने लिये नहीं। ऐसे महापुरुप वानवमे धन्यवाद के पात्र है, जिनका 'मपन' साढे तीन हाथके टापुमं घिरान रहकर व्यापक देश ही जिनका अपना शरीर बन गया है। ऐसे ही सन्ननोंके द्वारा देशका कल्याण सम्पादन होता है। परन्तु जहाँ अन्य देशोके साथ उनके देशसम्बन्धी स्वार्थकी टक्कर होती है, वहाँ वे अन्य देशोंके साथ द्वेप भी ठानते हैं और प्राय ऐसे अवसर भो पाते है कि अपने देशके लिये रक्त की नदियाँ बहाई जाती है और पृथ्वीतल रक्तसे सिंचन किया
ऐसे पुरुपोंकी गति अव छकडेके समान न रहकर मोटरगाडीकी समताको प्राप्त होगई। जिस प्रकार मोटर वडी तीव्र गतिसे दौड़ती है और सैकड़ो मीलोका रास्ता घंटों में काट लेती है, परन्तु चलवी है सड़कके अनुसार ही, जिधरको सड़क
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[ पुण्य-पाप की व्याख्या
चक्कर काटके जाती है उसके अनुसार ही उसको चलना पड़ता है, सीधी रेखा में इसका चलना असम्भव है । ऐसे ही इन महापुरुषों की गति भी आत्मोन्नतिको सड़क पर बडी तीव्र गति मे तो हो रही है, परन्तु जिधर उनको देशस्वार्थ खींचता है उधर ही चक्कर लगा कर उनको चलना पड़ता है। उनकी चेष्टा अधिक उदारता तथा अधिक रागका विकास होने से उन्हें सत्त्वगुणी कहा जा सकता है। इस प्रकार उनकी चष्टाएँ अधिक पुण्यरूप तो है, परन्तु केवल पुण्यरूप ध्रुव भी नहीं । अन्य देशोंके स्वार्थसे द्वपवती होने करके वे पापरूप भी हैं। ऐसे महापुरुषोंमें ग्वार्थत्याग व उदार भावकी अधिकता के कारण केवल उनको ही 'मनुष्य- शब्दवाच्य मनुष्य' कह सकते हैं।
५१ ]
し
पिछली तीनों श्रेणियों में क्रम-क्रम से स्वार्थत्यागरूप आत्मविकासका प्रकट होना तो उत्तम है, परन्तु इनमें से किसीमें भो टिक कर मनुष्यको गतिका रुक जाना प्रकृतिको मान्य नहीं है । यदि प्राकृतिक नियमके विरुद्ध इन मध्यवर्ती किसी श्रेणीमें ही अपनी गति निरुद्ध कर दी जायगी और आगे बढ़ने से संकोच किया जायगा तो अवश्य ही उस मनुष्यका अव पतन होगा, वह वहीं खड़ा न रह सकेगा । दृष्टान्तस्थल पर देख सकते हैं कि जातीय-भक्त-पुरुप यदि किसी एक जातिमें परिच्छिन्न रहकर अपनी गतिको रोक देता है, उसीमें घर कर बैठता है और अपने जीवन के उद्देश्यकी वहीं पूर्ति मान बैठता है तो उसके द्वारा अनेक प्रकारके जातीयविप्लव प्रकट होने लगते हैं। जैसा आये दिन सनातनधर्म, आर्यसमाज व जैनधर्म आदिके परस्पर वैमनस्य देखने में आते हैं। हिन्दू, मुस्लिम और सिख आदि जातियोंमें परस्पर सैंकडों जानोंका रक्त इसी नियम के अधीन बहाया जाता है कि वे इन मध्यवर्ती सरायोको ही
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[ ५२
आत्मावलास ] अपना घर मान बैठे, आगे बढ़नसे मकोच कर लिया और व्हीं कमर खोल दी। यदि वे इन सरायोको ही अपना घर माननेकी मूल न करके वहीं अपनी कमर न खोलते और समझते कि घर इससे आगे है तो इस प्रकार जातीय-विप्लव प्रकट होनेका अवसर ही न मिलता। आये दिनके समाचारपत्र इसके साक्षी हैं, जिसके परिणाममे रागकी वृद्धिके स्थान पर उपवृद्धि होने लगती है। यदि वे जातीय-स्वार्थ पर ही अपने लक्ष्यकी पूर्ति न मान बैठते तो उनके द्वारा अन्य जातियोंसे द्वेप प्रकट न होता, बल्कि अन्य जातियांमे भी प्रेमका विकास होता और उनको गति आगे बढ़ जाती । देश-भक्त-पुरुप देशरवार्थ में ही परिच्छिन्न रहकर यदि अपना गतिको रोक देता है तो उसके परिणाममें अनेक प्रकारके राष्ट्रविप्लवोका प्रकट होना जरूरी है इस विषयमे वर्तमान इङ्गलेण्ड इसका ज्वलन्त दृष्टान्त है । इस देशके निवासी यद्यपि देश-प्रेमी तो है, जो कि चतुर्थ श्रेणीका पवित्र कार्य है, परन्तु इसके माथ ही अपने देशके लिये जौंकके समान अन्य देशोंका रक्त चूसनेमे भी चतुर हैं। यही कारण है कि भारत, मिस्र, आयलॅण्डमे जागृति हो आयी है और इङ्गलैंड की उन्नतिका सूर्ये मध्याह्न पर पहुंच कर ढलना प्रारम्भ हो गया है। कुटुम्वपालूकी चर्चा तो इस सम्बन्धमे पहले ही की जाचुकी है तथा पेटपालूकी तो चर्चा हो क्या है ? वास्तव में वात तो यह है कि 'एक देशीय स्वार्थ' यह शब्द व अर्थ प्रकृतिको मान्य है ही नहीं। स्वार्थके नामसे तो चाहे वह किसी श्रेणीका भी क्यों न हो, यह नाक भी ही चढ़ाती रहती है। स्वार्थके नामसे तो इसको चौका ही फेरना मजूर है । परन्तु किया क्या जाय ? जब तक परिच्छिन्न-अहकार किसी भी श्रशमें मौजूद है, ग्वार्थ से सर्वथा छुटकारा मी कैसे हो सकता है ? जब तक हम अपने
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५३]
[ पुण्य-पापकी व्याख्या आपको परिच्छिन्नरूपसे कुछ और जानते हैं और अपनेसे भिन्न प्रपंचको कुछ और समझते हैं तो अनुकूल-प्रतिकूल ज्ञान का प्रकट हो पाना स्वमाविक ही है और यही अज्ञान है। फिर अनुकूलमें राग व प्रतिकूलमें द्रुपका प्रादुर्भाव होना भी जरूरी है। तदनन्तर गगमे पुण्य व द्वेपसे पाप और पुण्यसे सुख व पापसे दु.ख तो कहीं गया ही नहीं। एकके आनेसे दूसरे समी अपने-अपने ठिकाने आ ही जाएँगे। इसीलिये तो श्रुति का दिढोरा है :--
अन्योऽसावन्योऽहमस्मि न स वेद यथा पशुः अर्थ:--'मैं और हूँ, वह और है। ऐसा जो जानता है, वह पशुके समान कुछ नहीं जानता। यही भेदरष्टि एक रोग है शेप सब रोगोंकी जड़ । आत्म-विकासको मव श्रेणियाँ तो इस अहंभावकी जड़को निकालनेके लिये पत्ते-डालियोंके तोड़ने के ममान निमित्तरूप ही थी, न कि पत्ते-डालियाँ तोडकर ही सन्तोप कर लेनेके लिये। जड़ निकले विना नो पत्ते-डालियों का फिर फूट आना आवश्यक ही है। इसी प्रकार अहंभावकी जड़ निकाले विना हो भक जाना और इस निमित्तको ही परिणाम समझ लेना तो प्रकृतिको किसी तरह भी ग्वीकार है ही नहीं।
अत्मविकास पञ्चम श्रेणीमे प्रकट होकर अव अपनी पञ्चम श्रेणी, 'देव अवधिको प्राप्त होगया और उसका मनुष्य' अर्थात सरव- [प्रात्ममाव हदसे निकलकर चेहद मे वेत्ता . ___ । पहुँच गया । तरङ्गोमे जलके ममान सव भूतोंमें स्थित अपने श्रात्माको देख-देव अब वह विकसित हो रहा है, मर्यात्मैक्य दृष्टिसे (अर्थात् सब मेरी ही आत्मा है) अपने नाना रूपोको देख-देख समुद्रकं समान उछल रहा है और आनन्दसे डाढ़े मार रहा है।
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आत्मविज्ञास]
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः (गो० अ० ६. २६)
भावार्थ-योगयुक्त समदर्शीपुरुष मर्वत्र ही मव भूतमि स्थित अपने आत्माको साक्षी रूपये और प्रात्मामें स्थित मब भूतोंको विवर्त रूपसे देखता है। अर्थान जिम प्रकार रम्मीमें सर्प, दण्ड व माला अदि प्रतीतिमात्र हैं, परन्तु रस्मोको उनका कोई स्पर्श नहीं, रस्सी अपने आश्रय केवल उनकी प्रतीति करा रही है और आप ज्यू को त्य हैइसी प्रकार प्रात्मा अपने आश्रय सव भूतोंकी प्रतीति कराता हुआ आप निर्विकार रूपमे न्यूँ का त्यूँ स्थित है। अत्र उमका परिच्छिन्न-अहकार तत्त्वविचारद्वारा ज्ञानाग्निसे जल कर भुने बीजके ममान रह गया है जो कि फलके योग्य नहीं रहा । अथवा जली रस्सीके समान होगया है, जो कि यद्यपि आकारको धारण किये हुए है परन्तु बन्धनकी सामध्ये नहीं रखता। अव सब श्रेणियामे वही अपना खेल खेल रहा है, किन्तु वास्तवमें सव श्रेणियासे अतीत है। मंसारमें अव उसका न कोई व्यक्तिगत स्वार्थ है, न कुटुम्बगत, न जातिगत ही कोई स्वार्थ है और न देशगत । वह तो अव 'स्वार्थ' शब्द व अर्थसे परे परमार्थ रूपसे स्थित है। सब स्वार्थ उसीसे सिद्ध होते हैं परन्तु वास्तवमें वह सब स्वार्थों से दूर खड़ा हुआ है।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।(गी.अ.३ श्लो.१८) अर्थ:- इस संसारमें उस पुरुषके लिये कुछ किये जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है और न किये जानेसे भी कोई प्रयोजन नहीं है, तथा उसका सम्पूर्ण भूतोंमें कुछ भी स्वार्थ
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५५]
[ पुण्य-पापकी व्याख्या का सम्बन्ध नहीं है, अर्थात् अाकाशके समान वह भूतोमें असंग रूपसे स्थित है । सब कुछ उसके द्वारा किया जाता है, परन्तु उसमें कुछ नहीं किया जाता, अर्थात् सब कुछ करता हुआ भी कर्तृत्व-अहंकारके गलित हो जानेसे वह कुछ नहीं करता। सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशो। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कास्यन् ।। (गी० अ० ५ श्लो० १३) ___ भावार्थ:-नव द्वारवाले शरीररूपी घरमे स्थित योगयुक्त पुरुष निश्चयसे सर्व कर्मोका त्याग करके, अर्थात् 'इन्द्रियाँ अपने विपयोमे वर्तती हैं, मेरेमे उनका कोई स्पर्श नहीं ऐसा तत्त्वसे जानता हुया अपने मचिदानन्दस्वरूपमे स्थित हुआ निस्सन्देह न कुछ करता है और न कुछ करवाता है।
अव उसका सम्पूर्ण भूतोंमे न किसीमे राग है न द्रुप, यहाँ तक कि रागसे भी न राग है और द्वपसे भी न द्वेष वह तो अव राग-द्वपम छूटा हुआ सम्पूर्ण मनोवृत्तियोका
आत्ममावसे स्वागत कर रहा है। सब राग-द्वीपोंको सत्ता देनेवाला वही है परन्तु वास्तवमें सब राग-द्वेयोंसे परे है। (१) ज्ञः सचिन्त्योऽपि निश्चिन्त सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः । - सबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहंकारोऽनहंकृतिः ।
(अष्टावक्र गीता) (२) प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वोष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि' कांक्षति ।। उदासीनवदासीनो गुणयों न विचाल्यते ।
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[५६
अात्मविलास ] गुणा वर्तन्त इत्येव योऽनतिष्ठति नेङ्गते ।
नी० भ० १४ लो २२,२३) अर्थः--(१' तत्ववेत्ता बानी पम्प चिन्तायुक्त दिखायी देने पर भी चिन्तातीत है, इन्द्रियवान होने पर भी इन्द्रियातीत है, बुद्धियुक्त होने पर भी बुद्धिसे परे है नथा अहकारयुक्त होने पर मी अहंकारसे दूर खडा है। अर्थान् बुद्धि, चित्त व इन्द्रियाँ इन सवका साक्षी हुआ इन सबसे असंग है।
(२) हे पाण्डव । सत्त्वगुणमे प्रकाश, रजोगुणसे प्रवृत्ति तथा तमोगुणसे मोह उत्पन्न होता है। तत्त्ववेत्ता पुरुप इन तीनों गुणों के प्रवृत्त होने पर न द्वीप करता है और न उन निवृत्त हुए गुणों की इच्छा करता है। (क्योकि वह अपनी प्रात्मामे इन तीनों गुणोंका कोई लेप नहीं देखता)। वह तो एक साक्षी के सहश स्थित हुआ गुणोंके द्वारा चलायमान नहीं होता है। किन्तु गुण अपने गुणराज्यमें वर्त रहे हैं, ऐसा समझता हुआ अपने परमात्मस्वरूपमें अचल रूपसे स्थित रहता है और उस स्थितिसे विचलित नहीं होता।
किसी प्रकारका स्वार्थ न रहनेसे अव उसके लिये कोई सड़क व गति न रह गई, सड़क तो सार्थके साथ थी जो कि इसको अपनी ओर खींचती थी । अव वायुयानके समान सम्पूर्ण पायुमण्डल हो इसके विहारके लिये नन्दनवन है। वास्तवमे सब गतियाँ उसके द्वारा सिद्ध होरही हैं, परन्तु वह सव गतियोंसे रहित मन्दराचलके समान अचल है। इस प्रकार उसकी चेष्टाओंको केवल गुणातीत कहा जा सकता है,
सपि सब गुण उसीके द्वारा वर्त रहे हैं, परन्तु वास्तव में वह सव गुणोंसे अतीत है।
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५७]
[पुण्य-पापकी व्याख्या नत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकमविभागयोः । गुणा गुणेषु वतन्त इति मत्वा न मन्जते ।।(यी० अ० ३ श्लो २८) ___ अर्थः हे महाबाहु ! तत्त्वको जाननेवाला बोगी गुण व कर्मके विभागमें 'गुण अपने गुणोंमे वर्तते हैं। ऐसा मानकर
आसक्त नहीं होता, अर्थान् गुण और कोमे सानीरूप से यतता हुआ भी कमलदलके समान निर्लेप रहता है।
यहा अवस्था पुण्य-पापसे रहित केवल पुण्य और सुखदुःखसे रहित केवल सुख है।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।। असक्तं सबभृञ्च निर्गुणं गुणभोक्त च ॥
(गां० अ० १३ श्लो १४) भावार्थ:--सव इन्द्रिय व गुणोको प्रकाश करता है, किन्तु वास्तधमे वह सब इन्द्रियोंसे छूटा हुआ है, सवका भरणपोपण करता हुआ भी वह निर्लेप है और मव गुणोंका भोक्ता होकर भी वास्तवमें सब गुणोंसे अतोत है। . पुण्य-पाप, सुख-दुख, गुण-इन्द्रिय, गति व चेष्टा इत्यादि तो प्रकृति के राज्यमे हो अपना प्रभाव जमाये हुए थे और कॉटेके समान खटकते थे तथा प्रकृतिका सम्बन्ध परिच्छिन्न-अहंकार तक ही था। अब उसने तत्त्वविचारद्वारा सिंहके समान परिच्छिन्न-अहंकारके पिंजरेको चूरमूर कर दिया और प्रकृतिके राज्यसे लंघ गरा। सर्वात्मैक्यभावना (नव में ही है) को ऑधी जो वेगमे चली तो प्रकृति व अहंकारको तृणके समान उड़ा ले गई। अब उसने प्रकृति के रूपको ज्यका. त्यं जान लिया ओर प्रकृतिको कलई खुल गई । वास्तवमें. तो प्रकृतिने पुरुष के रिमानेको यह नाना खेल रचे थे और उसको अपनी कलाओं
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श्रामविलास ] मे मोहित किया हुआ था। परन्तु जब पुरुपने प्रकृतिकी वास्तविकताको जाना तो पता भी न चला कि वह कहाँ गई । जिम प्रकार नटनी, जब तक उसको अमलियत नहीं जानी जाती, तत्र तक भाँति-भौतिके वॉग बनाके भ्रमित करती रहती है, परन्तु जव उसकी श्रमलियत जान ली जाती है तो ऐसी छुपती है कि मुँह भी नहीं दिखाती। दिखाया प्रकृतिने नाच पूग,
सिलेमें उड़ गई अहह ! सितम है। गलत गुफ्तम शिकायतकी नहीं जा,
मिलो श्रा पुरुषमें अदलो करम है । अर्थात् प्रकृतिने अपना पूरा नाच दिखाया और अपने नृत्यके पुरस्कारमें वह स्वयं उड गई, यह बड़ा शोक है। कवि फिर सॅमल कर कहता है कि मैंने भूल की, शिकायतका कोई अवसर नहीं, क्योंकि प्रकृति अपने नत्यके पुरकारमें स्वयं पुरुषसे अभेद पा गयो । यही तो उसका पुरस्कार था और यही न्याय, कि जिससे उपजी थी उसीमे लय होगई। यही पुरुपकी कृपा है कि उसने अपनेमें प्रकृतिको एक कर लिया।
साराश, सांसारिक पुण्य पापसे मिश्रित है, सासारिक सुख उपसंहार दुःखस प्रसा हुआ है, सांसारिक राग कैपसे
" सना हुआ है। कोई कर्म पुण्यरूप नहीं हो सकता, जिसके साथ स्वार्थत्यागका लगाव किसी भी अंशम मौजूद न हो। अर्थात् किसी कर्मको पुण्यरूप बनानेके लिये स्वार्थत्याग होना जरूरी है। स्वार्थत्यागकी मात्रा जितनी अधिक होगी, उतना ही पुण्य अधिक होगा। जितना स्वार्थाश अधिक दृढ़ किया जायगा, उतनी हा पापकी वृद्धि होगी।
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५६]
[ पुण्य-पापकी व्याख्या स्वार्थत्याग पुण्यरूप क्यों है तथा म्वार्थ पापरूप क्यों है ? इस विषय पर विचार करनेसे ज्ञात होगा कि संसारका मूल कारण एकमात्र परिच्छिन्न-अहंकार ही है। एक, निविकार, अपरिच्छिन्न, सत्यस्वरूप परमात्माको आवरण करके, उसको दबाकर उसके स्थान पर जब सविकार, परिच्छिन्न, मिथ्या अहंकार डेरा जमाता है, तभी सब अनर्थ आन उपस्थित होते हैं। वह सत्यस्वरूप भला कब सहन कर सकता है कि उसकी अनन्तता को नष्ट-भ्रष्ट किया जाकर एक तुच्छ अहंकार उसका स्थान ग्रहण करे। वह तो अपने सिवाय किसीको देखना ही नहीं चाहता। इधर यह तुच्छ अहंकार उसकी अनन्तताको सान्त में बदलने पर तुला हुआ है और मिथ्याके नीचे इस सत्य को दबाना व छुपाना चाहता है । अब भला यह सत्यकी अनन्त स्टीम मिथ्या व तुच्छ अहंकारके नीचे कैसे दवाई जा सकती है ? भारीसे भारी अञ्जिनोंको भी आतिशबाजीके अनारदानों की भॉति टुकड़े-टुकड़े करके उड़ाये बिना यह वस न करेगी और जब तक यह स्टीम बिल्कुल आजाद न होजाय जीवको कभी चैन न लेने देगी । इसी सिद्धान्तके अनुसार, चूंकि स्वार्थत्यागमूलक कर्म इस अहंकारके ढक्कनको ढीला व पतला करते हैं जिससे उस सत्यम्वरूपी स्टीमको पानाद होनेका अवकाश मिलता है अर्थात् उसकी अनन्तताका विस्तार होता है, इसी लिये इसका परिणाम पुण्य व सुख है। तथा स्वार्थमूलक कर्म अहंकारके ढक्कनको ह व मोटा करते हैं, जिससे आन्तरिक सत्यस्वरूपी स्टीम इस ढक्कनको अपने उपर देखना नहीं चाहती और इसे फैकती है तथा सूईके समान अपनी वीक्षण नोकसे इसको गूंदती है। इधर यह स्टीम न तो अपने ऊपर कोई आवरण देखना चाहती है और न अपनो अनन्तता का संकोच रखना चाहता है, उधर तुच्छ अहंकार म्वार्थके
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[६०
श्रात्मविलास] द्वारा उसकी अनन्तताको दवाना चाहता है। क्योकि ग्वार्थक द्वारा उस अनन्तताका संकोच होता है, इमो लिये उमका परिणाम पाप व दुःख है। जितना-जितना यह अहकाररूपी ढक्कन पतला पड़ेगा, उतना-उतना ही पुण्य व मुम्ब अधिक होगा और जब यह ढक्कन सर्वथा दूर हो जायगा, तभी और केवल तभी निरुपाधिक च निरपेन पुण्य व मुखकी प्राप्ति होगी।
हे सुखके अभिलापियो । यदि सुख चाहते हो तो अपने स्वार्थोंका बलिदान करो, तभी आप सुनके अधिकारी बनने। त्याग विना सुख कहाँ १ देना ही पाना है । जो कुछ भी वर्तमान में तुमको मिल रहा है, यह तुम्हारे किसी त्यागका ही परिणाम है । छोडना ही पुण्य व मुख है, पकडना हो पाप व दुख है। श्रव तुम वन्दरकी मॉति पदार्थोंसे मुट्ठी भी भरे रखना चाहते हो और मॉडेसे हाथ भी निकालना चाहते हो, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? मॉडेसे सही-सलामत हाथ निकालने के लिये मुटुका खाली करना जरूरी है । 'चुपडी और दो-दो'
१. भारतवर्षमै बाज़ीगर वन्दरको विचित्र युक्तिसे पकहते है। वे लोग जंगलमें सक्ढे मुंहका पान उस वृक्षके नीचे रख देते हैं, जिस पर बन्दर बैठा होता है और उस पात्रमें उसके खानेयोग्य रुचिकर पदार्थ डाल देते हैं । धन्दर आता है और उन पदार्थों लेनेके लिये पात्र में हाथ डालता है । खाली हाथ तो उस पात्र में प्रवेश कर जाता है, परन्तु पदार्थोकी पडसे मुहि भारी हो जाती है। अब वह हाथ पात्र से निकालना चाहता है, लेकिन पदार्थोकी पकढके कारण मुष्टि भारी होनेसे हाथ निकल नहीं सकता । पदार्थीको छोडकर मुष्टि बह खाली करता नहीं और समझता है कि मुझे किसीने पकड़ लिया। ऐसा समझ कर वह चिल्लाता है और बाजीगर मानकर उसको पकड़ लेता है।
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[पुण्य-पापकी व्याख्या यह कैसे निभ सकता है ? हाय ! तुम तो मूलमे ही भूल कर आये हो, इमसे पाछे हटो, और क्रम-क्रममे स्वार्थत्याग का अवलम्बन करके केवल पुण्य व केवल सुम्बके भागी बनो !
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इसी प्रसार संसाररूपी बनमें अज्ञानी जीवरूपी धन्दर भ्रम रहा है । मायारूपा बाजीगरने इसको पकड़नेके लिये देहामिमानरूपी सँकड़े मुंहका पात्र रखा है, जिसमें स्वार्थ और भोगोंकी आसक्तिरूपी रुचिकर फल बाल दिये हैं। जीवरूपी मरने हनको प्रिय ज न इस देहाभिमानके पात्रम हाय डाल दिया है और स्वार्थ व आसक्ति रूपी फलोंसे मुद्वि भर ली है। मुद्वि भर तो ली, परन्तु स्वार्थ, आसक्ति व अभिमानको पक्ढसे जो दुस हुआ नो हम से हाथ निकालने के लिये यह व्याकुल हो रहा है । परन्तु मूर्ख स्वार्थ र आसक्तिरूपी फलोंसे मुडि खाली नहीं करना । यदि मुद्धि इन फलोसे खाली कर दें तो इसके लिये कोई पद नहीं है और इस देहाभिमानकै पात्रसे सही-सलामत हाथ निकल सकता है । वस्तुतः दुसरा तो कोई इसको पकड़नेवाला है नहीं, यह स्वयं ही अपने अज्ञानद्वारा मिथ्या पकड़ने अपना हाथ फंसा बैठा है । परन्तु इस रहस्यको म जान और अज्ञानद्वारा ऐसा समझ कर कि मुझे किसी विशेष शक्ति ईश्वर अथवा मायाने इस पात्रमें इन फलोंके साथ बांध रखा है, गेता और चिल्लाता तो है. लेकिन मुडी खाली नहीं करता और मायारूपी बाजीगरद्वारा प्रमा नाकर तथा गलेमे अहंकर्तृत्वाभ्यासरूपी रस्सीसे बाँधा जाकर अनेक यानिमि खम नचाया जाता है।
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श्रामविलास ]
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साधारण धर्म संसारमें ब्रह्मासे लेकर चिउँटीपर्यन्त प्राणीमात्री प्रणीमात्रका धेय | दौड़धूप दिन-रात, आठ पहर, चौमठ घड़ी केवळ सुख है। बल्कि प्रत्येक क्षण, किस पदार्थके लिये हो रही है ? वह कौन मधुर वस्तु है जो अपने लिये प्रत्येक प्राणीके जीवनको कटु बना रही है ? मुख, केवल मुख । यद्यपि प्रत्येक प्राणीकी चेष्टा दिन-रात अपने-अपने विचरानुसार भिन्न-भिन्न हो रही हैं, परन्तु निर्दिष्ट स्थान सबका केवल सुख है, अन्य कुछ नहीं । ब्रह्मा सृष्टिको उत्पन्न कर रहा है । पृथ्वी अपने सिरपर पहाड़ों व घृतोंको धारण किये नाच रही है। समुद्र उछल रहा है। सूर्य तपा रहा है । चन्द्रमा अपनी शीतल किरणोंका प्रसार कर रहा है। नदिया पहाडोंसे तीव्र गति से उतरकर समुद्रकी ओर दौड़ रही हैं। बुलबुलें चहचहा रही हैं । चिउँटियाँ दिन-रात दौड़ रही हैं । कीट रेंग रहे हैं। बीज पृथ्वीमें पड़ते ही फलनेके लिये उतावला हो रहा है। माता प्रसवकी वेदना सह रही है । तपस्वी पञ्चाग्नि ताप रहे हैं। राजाओंमें युद्ध हो रहा है और पृथ्वीको रकसे सींचा जा रहा है। इधर ऊँचे-ऊँचे महलोंको त्यागकर विकट जगलों में डेरा लगाया जा रहा है। बाजारोंमें विचित्र ही लेन-देमकी चहल-पहल हो रही है। अदालतोंमें घमसान मच रहा है, बजों, वकीलों, मुद्दई, मुद्दायलोंकी छेड़-छाड़ हो रही है, एकदूसरेफो झुटला रहा है। इधर मत-मतान्तरोंका झगड़ा चल रहा है। सारांश, कहाँतक वर्णन किया जाय न जाने संसार में प्रत्येक जण कितनी असंख्य चेष्टाओंका प्राकट्य हो रहा
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[ साधारण धर्म होगा, कौन गिनती कर सकता है ? परन्तु प्रत्येक चेष्टाद्वारा माक्षात अथवा परम्परासे जो वस्तु बटोरी जा रही है, वह केवल सुख है।
गावन तुध न पवन पाणी वसन्तर, गावन तुध न राजा धर्मद्वारे। गावन तुध नॅ चित्रगुप्त लिख जाणे, लिख लिख धर्म विचारे । गावन तुध नॅ पण्डित पढन ऋषीश्वर, जुग जुग वेदा नाले । गावन तुध न मोहनियाँ मन मोहन, स्वर्गा मच्छ पियाले । गावन तुध नॅ रल उपाय तेरे, अठसठ तीरथ नाले । गावन तुध न जोधा महावलसूरा, गावन तुध न खाणी पारे । गावन तुघ ने खण्ड मण्डल ब्रह्मण्डा, कर कर रक्खे बेरे धारे। . सेई तुध न गावन जो तुध भावन, र तेरे भक्त रसाले । होर केते तुघ ने गावन से मैं चिच न श्रावन, नानक किया विचारे ।
(गुरुग्रन्थसाहिब मोहल्ला पहला )
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आत्मविलाम
[६४ अर्थ-हे सुखस्वरूप | अपनी सत्र पात्रोंमे सम्पूर्ण भून तेरा ही गीत गा रहे हैं, अर्थात तुझे ही मॉग रहे हैं, अन्य कुछ नहीं । वायु जल व अग्नि स्वयं अपनी मब चेष्टायोंगे. अथवा अन्य प्राणी वायु जल, व अग्निके द्वारा नग ही योज कर रहे हैं। राजा धर्मके द्वारा, अर्थात अपना धर्म पालन करके तेरी ही मिना मॉग रहा है । चित्रगुप्त (धर्मराजका गुमाशता) भी तेरे ही गीत गा रहा है, जो कि जीवों का का हिसाब लिख-लिखकर और धर्मका विचार कर करके जानता है कि तू कैसे पाया जाता है ? तथा पण्डित-ऋपिश्वर प्रत्येक युगमे वेदोद्वारा तेरा ही गीत गा रहे हैं, अन्य कोई धेय उनका नहीं हो सकता। इधर मनको मोहनेवाली मोहनियाँ स्वोंमे भोगोंद्वारा बात अथवा अज्ञात रूपसे अपनी प्रत्येक छवियोंमे तेरे लिये ही नृत्य कर रही हैं कि किप्ती प्रकार तेरा दर्शन हो । अन्य जो तेरे उत्पन्न किये रत्न अर्थान् अद्भुत शक्तियाँ प्रकट हुई हैं, अथवा तेरे प्रकाशकी झलक मारनेवाले जो हीरे, माणिक आदि रल हैं, वे सब तुझे ही गा रहे हैं अर्थात् तेरे ही अस्ति-मातिस्वरूपका चमत्कार दिखला रहे हैं। और साथ ही अड़सठ तीर्थ तेरी ही नित्यनिर्मलताका गीत गा रहे हैं। महाबलवान् जोधा शूरवीर भी केवल तुझे ही गा रहे हैं, अर्थात् उनमें जो शक्ति है वह अपनी नहीं बल्कि वे तेरी ही शक्तिसे शक्तिसम्पन्न हो रहे हैं और अपने बलद्वारा तुम सुरवस्वरूपकी प्राप्ति ही उनका धेय हैं । इस प्रकार चारों सानि तको ही गा रहे हैं और सव खण्ड, मण्डल व ब्रह्माण्ड जो तेरे आधार टिके हुए हैं ये सब तेरा ही गीत गा रहे हैं। वे जो में भाये हुए हैं, अर्थात् तेरे रसिकभक्त जो तेरी प्रीतिमें रते
तो साक्षात् रूपसे तुझं गाते ही हैं । अन्तमें गुरु नानक
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'६५ ]
[ साधारण धर्म देव कहते हैं कि और कितने ही अनन्त हैं जो तुझको ही गा रहे हैं, जिनकी संख्या में नहीं कर सकता। .
कुमरियाँ आशिक है तेरी, सरख बन्दा है तेरा ।
बुलबुले तुझ पर फिदा हैं, गुल तेरा दीवाना है ।। जिस वस्तुक लिये इतनी अथक चेष्टा हो रही है, मानो किसी स्थानमें प्रचण्ड अग्नि लगी हो और उसके बुझाने के लिये चारों ओरसे मनुष्योंके मुण्डके झुण्ड दौड़े चले जा रहे हों; उसी प्रकार जिस सुखकी प्यास बुझानेके लिये प्राणियों की तीव्र वेगसे ऐसी चेष्टा हो रही है, उस सुखका उद्गमस्थान हमको जानना चाहिये।
इस विषयमै श्रुति-भगवती हमको क्तलाती है, सुखका उद्गम स्थान (१) "सत्यमेव जयते नानृतम्"
और धर्मशा स्वरूप (२) "यतो धर्मस्ततो जय" अर्थ यह कि (१) सत्य (धर्म) की जय होती है, झूठ (अधर्म) की नहीं (२) जहाँ धर्म है वहीं जय है। ___ 'जय' शब्दका अनर्थ न कर दना, 'जय' शब्दका यह अर्थ नहीं कि अपने किसी शत्रुको कुचलकर उस पर अपना स्वामित्व जमाया जाय और इस प्रकार अपने व्यक्तिगत अहंकार को पुष्ट करके सर्पको दूध पिलाया जाय | यह तो जय नहीं पराजय है। यह तो सत्य नहीं अनृत है। यह तो धर्म नहीं अधर्म है, उल्टी गङ्गा वहाना है, और रोगको बढ़ाना है । 'जय' शब्दका यहाँ अर्थ है, 'सुख' 'शान्ति' । आशय यह है, जहाँ
५. पक्षी विशेषका नाम । २. वृक्षका नाम जो सीधी रेखामें जाता है।
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श्रामविलास ] धर्म व सत्य है, वहीं मुन व गानित गलिय नि गमे हमको हमारा जीवनफल प्राप्त होता है, उनका रूपमको कुछ जानना चाहिये। _ 'धर्मी शब्दका अर्थ है, 'येनेतद्धार्यतन धर्म। श्रागय याः कि जिस शक्तिद्वारा या संसार वारया किया जा स- बही शक्ति 'धर्म' शब्दका मुत्र प्रय। जो गान प्रारुपाणविकर्पण (राग-द्वेप) प्रर्थात Attitletin & Repulsion की ममताद्वारा पृथ्वी, नक्षत्र, मय, चन्द्रमा पार्टिशो शून्य प्रकाशमे लटकाये हुए है, मानो किमी विचित्र कारीगरने छतम निरोधार गोले लटका दिये हो । जो शांक शून्यमें सूर्यको अपने फेन्द्र में घुमा रही है और गली श्रादि नानोपनी अपनी कक्षामें सूर्यके इर्द-गिर्द धुमा दी है। शक्ति ध्या में गंधरूपस, जलमे. रमरूपसे, मूर्य व चन्द्रमामे प्रकाशरूप से, पवनमें स्पर्शरूपसे और: अाकाशमें शब्दरूपसे . विराज: रही है.। यथा
रसोऽहमप्सु कौन्तेयं प्रभास्मि शशिमययोः। -- 'प्रणवः सर्ववेद" शब्दावे पौरुष नृप ।
पुण्यो गन्धः पृथिव्या च तेजश्चास्मि विभावसौ ! • जीवनं सर्वभूतेषु : तपश्चास्मि तपस्विपु ना बीजं मां सर्वभूतीनों विद्धि पाथै सनातनम् । (गो. :
बुद्धिबुद्धिमतामस्मि तेजातेजस्वितामहम् ॥ पलो. २०२४) अर्थः ह कौन्तेय ! जलमें रसरूप, सूर्य-चन्द्रमामें प्रकाशरूप, सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणवरूप, आकाशमें 'शब्दरूप, मानध्याम बलरूप, पृथ्वीमें पवित्र गंध, अग्निमें तेज, सर्व मतोंमे जीवन और तपस्वियोंमें वपरूप मैं ही हूँ। सारांश,
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[ माधारण धर्म है पार्थ न मर्व भूतोंमें मनातन वीजरूपस मुझको ही जान नया बुद्धिमानाम बुद्धि और तेजस्वियों में तेजरूप में ही हूँ।
जो शक्ति अग्निमें 'उष्णता, 'जलमें 'द्रवत्ता, पृथ्वीम जइना, वायुमें सन्द, और प्राकशिम शून्यता रूपसे विराजमान है । जिस शक्तिके अधीन ब्रह्मा रूपसे 'सृष्टिको उत्पत्ति, विष्णु रूपमे पालन और शिव रूपसे महार हो रहा है। जो शक्ति भोजन वनके ग्वाई जा रहोगहै, जठराग्निरूपम जसको एका रही है,रमरूपमें बदल रही है रक्तरूपसे नाड़ियाम दौडरही है, मांसलमे शरोस्को पुष्ट करारही है, वीर्यरूप मेवल दे रही है, नेत्रमें हाकर देख रही हैं, श्रोत्रमै होकर मुन रही है, ग्राणमें होकरः सूघ नही है, रसनारूपमें बाँद ले रही है, त्वचालपमे, छू रही है, जो सबमें सब कुछ है, वह भक्ति ही धर्म शब्दका मुख्य अर्थ है। - - - - अहं.सर्वस्यै प्रभवो मत्तः सर्व प्रवत
. ।इति मत्वा भजन्त माधुधा भीर्वसमन्विताःगी...।
अथे. मुझसे ही सर्व जगतकी उत्पत्ति हुई है और मेरे से हो सब चेष्टाएँ होती है, ऐसा- मानकर भावमयुक्त बुद्धिमान मुंमको भजते है।
" काले जिसको भृकुटिविलास है और क्षण-क्षणं करके पल, घड़ी,प्रहर, दिन-रात, तिथि, पक्ष, मास, उत्तरायण, दक्षिणायन, वर्ष, मन्वन्तर,युग और सर्गरूपमें जिसके अधीन नृत्य करें रहा है। श्रुति, स्मृति, पुराणादि जिसके चन्द्रीगणे हैं और निरन्तर जिसकी स्तुति करते रहते हैं।जों उत्पन्न नहीं हुआ और नित्यनूतन है, इसीलिये इसको सनातन धर्म के नामसे अभिहित किया गया है। अटकेसेंकटक और महिमालयसें रासकुमारीतक हो जिसका राज्य नहीं, बल्कि मब देश, सब काल और लव वस्तुपर जिसका अधिकार है। हिन्दूमात्रसे
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आत्मविलास]
[5 हो जिसका सम्बन्ध नहीं, वरन् क्या हिन्दू, क्या मुसलिम, क्या वौद्ध, क्या ईसाई, क्या भूसाई, क्या सिक्व, क्या जैन, क्या बच्चा, क्या युवा, क्या वृद्ध, क्या गर्भस्थ शिशु, क्या मरण सनिहित और मरणान्त जोव; सब जाति, सब मत व सव सम्प्रदायों और सब अवस्थाओंसे जिसका सम्बन्ध है और जो सबके लिये अधिकारानुसार श्रेय-पथप्रदर्शक है । मनुष्य मात्रके लिये ही जो कल्याणरूप नहीं, परन्तु पापाणसे लेकर उद्भिज, स्वेदन, अण्डज व जरायुज चारों खानियोंके लिये जो माताके समान हितकारी है। जिस प्रकार माता वच्चेको स्तनपान करातो हुई, सब प्रकार उसको सेवा करके लालन-पालन करती हुई वजेको युवावस्थातक पहुँचा देती है, उसी प्रकार जो धर्म जोयको पापाण-उद्भिलादिको जड योनियोंसे उठाकर तीनो अवस्थाओ और पॉचो कोशोंकी निर्विप्रतया क्रमोन्नति करता हुआ, जीवको मनुष्ययोनिमे पहुँचा कर प्रकृतिको पूर्णता सम्पादन कर देता है। मनुष्ययोनि प्राप्त कराके भी जो अपने अनुसारी जीवोंको पार्वतीके समान उनपर कल्याण करके और अपने शिवस्वरूपकी प्राप्ति कराके कैवल्यपदको प्राप्त करा देता है। परन्तु अपनेसे विमुख मनमुखो जीवोंको जो चोटें लगाये विना भी नहीं रहता, भैरवरूप धारकर अध्यात्म,अधिदैव व अधिभूत त्रितापरूपी त्रिशूलसे उनके हृदयोंको विदोर्ण करता है और योगिनीरूप धारकर उनके रक्तको पान करता रहता है। इस प्रकार अनेक रौरव-नरकॉकी यमयातना भुगाकर भी जो उनको अपने अनुसारी वनाए विना नहीं छोडता । क्या राजा, क्या प्रजा, क्या जाति, क्या व्यक्ति, क्या देश, किसीका- इसको लिहाज़ नहीं। और तो और, भगवान् रामचन्द्रको भी, रुलाये विना और भगवान कृष्णको भी चीरका निशाना बनाये बिना
१. इसका विवरण पृ. १६ से २४ पर्यन्त पीछे किया जा चुका है।
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[ साधारण धर्म इमन न छोड़ा। देवर्षि नारदको भो बन्दरको प्राकृति प्रदानकर वपाये बिना यह न रहा और इसके फलस्वरूपमे अपरिच्छिन्न 'विष्णुको भो परिच्छिन्न रूपसे माताके गर्भमै सुलाये बिना न माना । वेदव्यासजीको रुलाके ही छोडा और प्रताप दुर्वामाऋषिको भी मुदर्शन चक्रको मारसे भगाये बिना न रहा। महर्पिवशिष्टकं शत पुत्रोको पूर्णाहुति लिये बिना इसकी तृप्ति न हुई
और विश्वामित्रकी सम्पूर्ण सेनाको हड़प किये बिना इमसे न रहा गया । इन्द्र के शरीरको छलनो बना के ही इसने दम लिया और जयन्तको अॉख निकलचा कर ही इग्मको स्न्तोष हुआ । वर्तमान त्रिटिश गवर्नमेण्टकी तो चर्चा हा क्या करनी है, काल आप ही अपनी मोहर लगायेगा। इसके विपरीत पाँच वर्षके वालक ध्रुव को निर्जन वनके क्लेश भुगाकर भी अटल पच्ची दिये बिना यह न रहा । प्रह्राटको कुमार अवस्थामे हो पत्थरोकी वो, पहाड़मे गिराना, अग्निमें जलाना इत्यादि प्रचड कष्ट भुगाकर मी अपनेमें तल्लीन करके ही हमनं दम लिया । हरिश्चन्द्र के परिवारके बीच बाजार दमड़े करके भी उत्तम लाकोंको प्राप्त करके ही छोडा । मोरध्वजके द्वारा अपने पुत्रके वीचमेसे ठीक दो टुकडं कराके भो उसको सद्गनि ढिय विना न माना। और अब भारतसपनोंको जेलमै दूंस-ठूम तथा गोलीका निशाना बना-बनाकर भी स्वराज्य [ यद्यपि यह वास्तविक स्वराज्य नहीं कहला मकता, वास्तविक स्वराज्य किसीके अधीन नहीं, किन्तु अपने ही परम पुरुषार्थके अधीन है ] प्रदान किये बिना यह क्य रहने लगा है ? माराश, कहाँतक निरूपण किया जाय, यह बडा हठीला है। इसको बालक, वृद्ध, ज्ञानी, अज्ञानी किमीपर भी व्या नहीं आती। लोहेके चने चबाये विना यह किमीको नहीं छोडता । सुखके प्रोमियोको इसके आगे नतमस्तक होना हो पड़गा, इसके नियमको सिरपर धारना ही होगा, इसके बिना ,
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fifty Li छुटकारा है ही नहीं । इस प्रकार जब यह अपने न मियाकी अटी
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ढीली करा लेता है और उनके अभाव के बीच बाजार, एक, दो, तीन करके मूड कर लेता तब उनसे रोकता भी ऐसा है कि कुछ ने पूछों ! सारा ससार उनपर न्यौछावर कर देता और पतिव्रता स्त्रीको भाँति उनके दामनसे, ऐसा गठजोड़ा करता Chill है कि छुड़ाये भी नहीं छूटती । 11 यत्तद्रये विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्
सुखं सान्त्रिक प्रोक्तमात्स वृद्धि प्रसाद जमे 11 श्री
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अर्थ जो सुख प्रथम साधनकें और फीलमें यद्यपि विपके संदेश भौसतो है परन्तु परिणाम अमृत तुल्य है, ऐसा जो भव बुद्धि प्रसादसे उत्पन्न हा सुख
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सात्त्विक कहा गया है ।
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ल यही वह शक्ति है, जिससे हमारी बान्वित सुखको स्रोतं वहता
है, जो हमारी वोक्ति जीवन फल प्रदान करनेके लिये चिन्तामणिके समान है। आयुर्वेद शास्त्र आयु बढ़ानेवाले घृतको मी 'आयुष्य' शब्द प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार वह चेष्टाएँ भी जिनके द्वारा हमें उपयुक्त वनको और "सम्मुख हो 'धर्मरूपसे अभिहित की गई है। इसी लक्ष्यको ध्यानम रेखकरें धर्मको 'अन्य लक्षण किया गया है:
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"यंतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धि से धर्मः" FIFAD
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--- अर्थात् जिन चेष्टाओंसे इस 'लोकमें ऐश्वर्य तथा परलोकम मुक्तिकी सिद्धि हो वह 'धर्म' है
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अव प्रश्न होता है, वह कौनसी चेष्टाएँ हो सकती है जिनेक धर्मका प्राण' केवल | स्याग हैं ।"
द्वारा अभ्युदय व निश्रेयसैसिद्धि हो । 'उत्तर एक ही है- 'त्याग' 12 किसी भी चेष्टाको धर्मप बनानेके लिये जरुरी है,
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(साधारण धर्म कि उसके साथ यागरूपी चटनी हो..त्यागका किसी अंशमै मम्बन्धं जुड़नेके बिना धर्म कसे उपार्जन किया जा सकता है ? जितने अंशम त्यांगको अधिकता होगी, उतने ही अंशम धर्मको पृद्धि होगी। धर्मरूपी नादियको चलाने के लिये आवश्यक है कि वैराग्यमूर्ति, व्यलिभूषण, भस्मविलेपन और गरलपान करनेहारे शिव-शम्मुको उसपर बारूद किया जाय, तभी, जया है। इसी त्यागरूपी महेशके मस्तकपर शांतिरूपी द्वितीयाका चन्द्रमा शोभायमान है, जिसकी कला- नित्य वृद्धिको प्राप्त होनेवाली हैं, यही शङ्कर-महादेव दुःखरूपी विषपान करनेवाला है।
त्यांगको तीन भागोंमें विभक्त कर सकते हैं ।।१) श्रीथिंकत्याग, (२) सारीरिकत्याग और (३) मानसिकस्यायः ! धन, भूमि, गी आदि अपनेसे भिन्न यावत पदार्थों का त्याग आर्थिकत्याग है। शरीर व वाणीद्वारी अपना स्वार्थी खोकर किसीको लाभ पहुंचांना शारीरिक त्याग काम-क्रोधादि मनोवृत्तियों का त्याग 'मानसिक-त्याग है । पहिले त्यागसे दूसरा और दूसरे मे तीसरा अधिक महत्त्ववाला है। जैसे बफैले जल तथा जल से भापमें अधिकतवला होता है, इसी प्रकार यह तीनों त्याग भी मापेक्ष महत्त्वशाली हैं। ईश्वरीय नीतिमें त्यागका कुछ ऐसा महत्त्व रक्खा गया है कि जब हम पदार्थोंमें मुंह मोड़ेंगे, वे आप हाजिर हो जाएंगे और जिव उिनपरनअधिकार जिमाया जायगा तो उनको खोया जायगा । किसी पदार्थको पाने के लिये उसका "पहले त्याग बहुत जरूरी है। जिस प्रकार बीज जमीनमें बोया हुआ पन्जव तक अिपने आपको भूमिमे नष्ट करके सिद्दीमे न सिला ले, ड्रगने वा फल देनेके योग्य नहीं बनाया जा सकता। मिटा दे अपनी हस्तीको, अगर कुछ मरतबा बाहै। के दाना खाकमें मिलकर, गुले गुलजार होता है. ॥ ,
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अात्मविलास]
[७२ अर्थात् 'खोना ही पाना है' । जेसा वीज होगा वेमा ही उससे फल निकलेगा। धन देगे, धन पायेंगे, भूमि देंगे, भूमि पायेगे, शारीरिक सेवा देगे, सेवा पायेंगे, विद्या देगे विद्या पायेगे; मुख देगे, सुख पायेगे, दु ग्व देंगे, दुग्व पायेगे, शान्ति दंगे, शान्ति पायेगे, इच्छाका त्याग करेंगे, इच्छित पदार्थ पायेंगे।
घर मिले उसे, जो अपना घर खोवे है । जो घर रक्खे, सो घर घर में रोवे है। जो राज तजे, वह महाराज करे है । धन तजे, नो फिर दौलत से घर भरे है ।। सुख तजे, तो फिर औरों का नख हरे है। जो जान तजे, वह कभी नहीं मरे है। जो पलङ्ग तजे, वह फूलों पे सोवे है । जो घर रक्खे, वह घर घर में से है ॥१॥... जो पर दारा को तजे, वह पावे रानी । और झूठ वचन दे त्याग, सिद्ध हो वाणी ॥ जो दुर्बुद्धि को तजे, वही है ज्ञानो । मन से हो त्यागी, ऋद्धि मिले मनमानो। '
to whom he aha ghof
१. निग अचल सुरख । २. संसारसम्बन्धी महन्ता-ममता ३ प्रत्येक योनि ।।
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[ साधारण धर्म जो सर्व तजे, उससे का सब कुछ होवे है । जो घर रखे, सो घर घर में रोवे है ।।२।। जो इच्छा नहीं करे, वह इच्छा पावे । अरु स्वाद तजे, फिर अमृत भोजन खाने । नहीं मोंगे, तो फल पावे जो मन भावे । हैं त्याग में तीनों लोक, वेद यही गावे ॥ जो मैला होकर रहे, वह दिल धोवे है । जो घर रक्खे, सो घर घर में रोवे है ||३||
धनादिक संसारके यावत् भोग्य-पदार्थ के सम्बन्धसे किस प्रकार हमको सुख मिलता है ? इस विपयपर यदि विचार किया जाय तो स्पष्ट होगा कि मंसारके भोग्य-पदार्थ केवल उनी कालमें हमको सुावी करेंगे, जबकि उनका त्याग किया जायगा, उन्हें वो जायगा अथवा नष्ट किया जायगा । जिस प्रकार दीपक मे रौशनी पानके लिय तेल व बत्तीका जलना जरूरी है, तेल व बत्तीको बनाये रखकर दीपक प्रकाश नहीं दे सकता । ठीक, इसी प्रकार भोग्य-पदार्थोंसे भी सुख प्राप्त करनेके लिये इनका नष्ट किया जाना, अर्थात् उपयोगरूपी अग्निपर इनकी धूप-दीप करना बहुत-बहुत जरूरी है। इनको बनाये रखकर इनसे कदापि सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता, प्रकृतिका कुछ ऐसा ही नियम है। इस विषयको स्पष्ट करनेके लिये एक कहानीका सहारा लिया जायगा।
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1. अर्थात् जो संसारसे उदासीन रहे ।
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श्रात्मविलास ]
[ ७१
दो महात्मा मिलकर तीर्थाटनको निक्ले । एक उनमें गी अर्थात् धनसंग्रह करनेवाला था और दूसरा त्यागी । मार्गम धनके ग्रहण व त्यागके दोनों चर्चा करते जा रहे थे। रागी महात्मा areas गुणों पक्ष लिये जाते थे और त्यागीजी उसके दोपोपर टटं हुए थे । मायफाल के समय दोनों एक नदी के किनारे पहुंचे । रागी महात्माने कहा "शतको हम जाडेमें यहाँ ठिठुर जायेंगे, साथ ही जनल का मौका है भेड़िये हमको वा जायेंगे अच्छा यह होगा कि नौकापर आरूढ़ होकर नदीपार उस माममें जा ठहरे।" त्यागीजीको भी यह प्रस्ताव प्रिय हुआ । अन्ततः नौकावाले से ठहराव काव करके दोनो नदीपार ग्राम में जा ठहरे। नौका से उतरकर रागी - महात्मा बिगड़े और त्यागीजीको डाटने लगे ! "धनसंग्रहका तत्काल फल देख लिया, यदि मैं धनका सग्रह न रखता तो हम दोनों आज ही रातको जाड़े व हिंस्रपशुवो करके मारे जाते, फिर कभी त्यागका उपदेश न करना ।" त्यागी - महात्मा वोले "यदि तुम धनका त्याग न करते, नौकावालेको धन न देते, यदि तुम धनका सब्चय किये रहते तो हम दोनों अवश्य जाडे व हिंस्र-पशुवी करके मारे जाते, मेरे विश्वास व त्यागके कारण ही तुम्हारी जेब मेरी जेब वन गई, मुमको कभी कोई कष्ट नहीं होता ।"
सुखका असम्भव
धनके साथ ही नहीं, यावत् भोग्य-पदार्थो के साथ इसी भोग्य-प नियमका सम्बन्ध है । कोई मोग्य-पदार्थ अपनी विद्यमानता ही, जबतक कि वह नष्ट न किया जाय, सुखसाधन नहीं हो सकता । जिस प्रकार श्रतिशवाजी के अनारदानेसे शब्द व प्रकाश उसी कालमे प्राप्त होता है, जब कि उसको अग्नि लगा कर टुकड़े-टुकडे करके उड़ा दिया जाता है। परिणाम स्पष्ट है, भोग्य-पदार्थोंको ही
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[साधारण धर्म सुखरूप जानकर इनके पीछे दौड़ना ऐसा ही है, जैसा कि हरिण का बच्चा प्यास बुमानेके लिये मृगतृष्णाके जलके पीछे दौडदौड़कर अपनेको व्याकुल बना लेता है और प्यास बुझाने के बदले,धूपमें दौडकर प्यास बुझाना तो कैसा ? लटा अपनी द्वाहको अधिकाधिक बढ़ा लेता है। ठीक, यही गति उन जीवों की है, जो सुखके लिये इन भोग्य-पदार्थोंके पीछे उठ भागते है
और सुग्बी बनानेके बजाय अपनेको अधिकाधिक व्याकुल बना लेते हैं। वास्तवमें यदि यह पदार्थ सुखरूप होते तो इनको अपनी विद्यमानतामे ही हमे सुखी बनाना चाहिये था, न कि अपने नाश किये जानेपर, अपने जलानेपर। दूसरी वात यह है कि यदि इन भोग्य-पदार्थोको ही सुखस्वरूप माना जाय तो इनको हमें उस काल में भी सुखी बनाना चाहिये था जब कि हमको इनकी इच्छा नहीं रहती। तीसरे, यदि यह पदार्थ सुखस्वरूप होते तो इन भोग्य-पदार्थोमसे कोई एक वस्तु लव जीवोंके लिये सुखस्वरूप मन्तब्य होनी चाहिये थी, क्योंकि ब्रह्मासे लेकर चिऊँटीपर्यन्त भिन्न-भिन्न प्राणियोंकी भिन्न-भिन्न चेप्राओंमें जो वस्तु बटोरी जा रही है, वह केवल सुख है और वह एक वस्तु है, न कि अनेक । यद्यपि अपने-अपने विचारानुसार उमके पानेके मार्ग भिन्न-भिन्न हैं, लेकिन लक्ष्य केवल एक सुख ही है । इस प्रकार यदि यह पदार्थ सुखस्वरूप ठहरें तो कोई एक ही पदार्थ मवके लिये सुखस्वरूप ठहरना चाहिये था, जैसे मिश्री अपने स्वरूपसे मीठी है तव सबके लिये वह मीठी ही भान होती है। परन्तु ऐसा तो नहीं हो रहा, कोई धनमें सुखको हूँढ रहा है तो कोई बीम; कोई सुख की तलाश पुत्रमें कर रहा है तो कोई मान पानेमें; कोई विद्या में सुख देख रहा है तो कोई जाति व कुलमें; कोई इन पदार्थों के रागमें आनन्द पाना चाहता है तो कोई त्यागमें। चौथे,
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शात्मविलास] जिम-जिसने अपने अन्य अनुसार जिन-जिम यग्नुको मुम्बम्वरूप जाना है यदि यानबमें वही यन्तु उसके अपने विचागनुवार मुग्नम्बरस होती तो उस यन्नु पार कर जानेपर मुनके लिये उसी दोर-प मगानगो जानी नाय थी, क्योंकि सुम्यवस्प यह चम्न उनको प्रा परन्नु ऐसा भी देगनम नहीं शाना, ५ पटाकी प्राप्रिय पान भी सुग्यके निमित्त अनर्गन्न प्रजनिका प्रयास गर्नमें हर आता है। इससे स्पष्ट है कि वाम्नवम भाग्य-पदार्थ नुपम्वरूप नहीं, बल्कि सुखशून्य पदामि नवबुद्धि उल्टा मार दुःम्य का साधन है, जैसे जलशुन्य मृगतृष्णाकी नदीमे जल-बुद्धि प्यास बुझाने के स्थानपर प्यामकी वृद्धि करनेवाला ।। श्री. जब यह पदार्थ अपने स्वरूपमे ही मुग्यशुन्य, नव उन मुग्न शून्य पदाथोंके साथ ममन भी सुग्नका नाधन न होकर दुःस्व का ही साधन होगा।
अब प्रश्न होता है कि जब यह पदार्थ बालबमें मुग्यमुख इच्छानिवृत्ति स्वरूप नहीं तो इनके मन्वन्धम मुग्ध
... क्यो भान होता है। इस विषयको वेदान्त — स्पष्ट करता है कि सुख पदार्थमे नहीं, किन्तु कंवल इच्छाकी निवृत्तिमे ही है । इच्छा सड़ी हुई हमारे लिये दु.न्यदायी रहती है और उसकी निवृत्तिले सुख-शान्ति प्राप्त होती है। जैसे फोड़ा पका हुआ दु.खदायी रहता है और उसको चीरनेसे सुख मिलता है। संसारमै प्राणीमात्रके लिये जवजव सुख-दुःखकी प्राप्ति होती है, उन सबके मूलमे विना किसी विवादके केवल एक इसी नियमा राज्य होता रहता है। अर्थात् जब-जब जिस-जिस प्राणिको दु.खकी प्राप्ति होती है. तब-तब इसके मूलमे अवश्य कोई इच्छा उसके हृदयको मसोसती हुई दीख पडती है और जब-जब जिस-जिम प्राणि
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७७]
[माधारण धर्म को सुखकी प्राप्ति होती है, तब-तव उसका हृदय अवश्य किमी न किसी इच्छासे खाली हुआ जाना जाता है। इसके सिवाय और कोई मुख-दुःखका निगित्त बन नहीं पड़ता।
'आशा हि परमं दुःखं, निराशा हि परमं सुखम्'
जैसे जब हमको शौचादिकी शङ्का होती है, उस समय हम अपन-आपको कष्टमे पाते है और जव शौच शङ्काकी निवृत्ति कर लेते हैं तो अपने-आपको सुग्वी मानते है। अथवा अपने शरीरपर कोचड़ लपेटकर हम अपनेको दुःवी बनाते है और कीचड़ धोकर कीचडके मलसे छूटकर अपनेको सुखी मानते हैं । ठीक, इमी प्रकार पदार्थोकी इच्छा करके, कीचड लपेटकर हम अपने हृदयको चञ्चल करते है व दुःखका अनुभव करते हैं
और उस इच्छित पदार्थकी प्राप्तिद्वारा इच्छारूपी कीचड़ धोकर अपने हृदयको निश्चल पाते हैं और हृदयकी निश्चलतामे मुखका अनुभव करते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि सुख केवल हृदयको इच्छासे खाली करनेमें है, चाहे पदार्थको प्रामि करके उनको खाली करलें, अथवा विचार-सत्संगद्वारा पदार्थोसे वैराग्य करके । भेट इतना ही है कि जिस विपयकी प्राप्तिद्वारा इच्छा निवृत्त हुई है वह विषयजन्य सुख क्षणिक होता है, क्योंकि जहाँ उस विषयको इच्छानिवृत्तिद्वारा क्षणभरके लिये हृदय निश्चिल हुआ, वहाँ तत्काल दूसरी इच्छा हृदयको चञ्चल कर देगी । तथा विचार-वैराग्यद्वारा जो इच्छानिवृत्ति है, वह निर्विपयक होनेसे और केवल त्याग ही उसका विषय होनसे म्यायो है, अर्थात् पदार्थ में अज्ञानद्वारा सुखरूपताका जो भ्रम हो रहा था, वह भ्रम विचार-वैराग्यद्वारा निवृत्त हो जाता है, इसलिये फिर इच्छा होती ही नहीं। चाहे कुछ भी हो, सुख मिलेगा केवल इच्छा से पल्ला छुड़ानेपर ही। जब ऐसा है तब
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आत्मविलास ]
प्रक्षालनादि पवस्य दूरावस्पर्शन वरम् ।
अर्थात् कीचड लपेटकर धोनसे कीचडसे दूर रहना ही श्रेष्ठ है। गीता अध्याय २ के अन्तमे उनीलिये भगवान्ने हाथ उठाकर कह दिया हैआपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वकामा य प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामो। विहाय कामान्यः सर्वान्पुमश्चति निःस्पृहः । (गी० ० २ निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ सो० ७०, ०१.) __अर्थ:-जैसे सब ओरसे परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्र में नाना नदियोंके जल प्रवेश करके उसको क्षोभित नहीं करते, उसी प्रकार जिस गम्भीर हृदयमे कामनाएं किसी प्रकार विकार उत्पन्न किये बिना समा जाती है, वहो शान्तिको प्राम होता है न कि कामकामी-पुरुप । जो सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर इच्छारहित, ममतारहित व अहकाररहित विचरता है, वही शान्तिको प्राप्त होता है।
चाह चमारी चूहड़ी चाह नीचन की नीच । तू तो पूर्ण ब्रह्म था जो चाह न होती बीच ।। इससे सिद्ध हुआ कि सुख केवल इच्छाकी निवृत्तिमे है। जिस प्रकार वायुद्वारा हिलते हुए दर्पण या पानीमें हमारे मुख का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता और वायुके निःस्पन्द कालमें ठहरे हुए दर्पण वा जलमें हमारे मुखका प्रतिविम्ब स्पष्ट भासता है। इसी प्रकार इच्छारूपी वायुके वेग करके हिलते हुए श्रन्त.. करणमें हमारे वास्तविक सुखस्वरूप प्रात्माका अाभास नहीं पड सकता और इच्छाशून्य अन्तःकरणमें उसका भलीभाँति
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[ माधारण धर्म भान होता है। इस रीतिसे मुखकी प्राप्ति तो होती है केवल सुखस्वरूप आत्माका निश्चल अन्तःकरणमें आभास ग्रहण करने से ही, परन्तु चूंकि पदार्थको प्रामि तथा निश्चल अन्त:फरणमे आत्म-प्राभास, एक ही कालमें होता है, इसलिये बुद्धि को यह भ्रम हो जाता है कि विपयसम्बन्धसे ही सुख मिला । यदि विषयहम्बन्धस ही सुखकी प्राप्ति मानी जाय, तो सुग्वरूप विपयकी प्राप्तिके पश्चात् हमको दु.ख कदापि नहीं होना चाहिये तथा मुग्नकी इच्छा निवृत्त हो जानी चाहिये, परन्तु ऐमा तो नहीं होता । इमने यह स्पष्ट है कि सुखरूप विपय नहीं, सुखरूप केवल आत्मा ही है और सुखप्रतीति कालमे विषयसम्बन्धसे सुख नहीं था, किन्तु इच्छानिवृत्तिद्वारा सुखस्वरूप आत्माके श्राभाससे ही सुख था । क्योकि सुखका निमिनभूत कोई तीसरी वस्तु तो हो नहीं सकती, या तो इच्छितवस्तुकी उपलब्धि ही निमित्त हो सकती है, या निश्चल अन्तःकरणमे आत्म-अामास । इमसे स्पष्ट है कि मुख वास्तवमे कहीं बाहर नहीं है, बल्कि मुख केवल हमारे अन्तरात्मासे हो निकलता है। कैसे आश्चर्य की बात है कि हम आप ही इच्छा खड़ो करके अपनी दृष्टियोसे उन भोग्यपदार्थोको मनोहरता प्रदान करते हैं और फिर आप ही उनके पीछे भाग पड़ते हैं। ___ यदि विचारको कुछ और आगे बढ़ाया जाय तो स्पष्ट होगर मुखका साक्षाव | कि सुख वास्तवमै इच्छाकी निवृत्तिमें प्राप्ति केवल अहकार भी नहीं। इच्छाकी निवृत्ति सुखकी प्रानि से पल्ला छुड़ानेमे है। में सहायक है जर, परन्तु साक्षात् सुख को प्राप्त करनेवाली नहीं, बल्कि परम्परा करके सुखको देने वाली है। सुखकी साक्षात् प्राप्ति है अहंकारके निवृत्त होने में । अहंकारके उत्पन्न होते ही इच्छाकी उत्पत्ति होती है, इच्छा उत्पन्न होकर अहकारको बढ़ करती है और उसी समय दुःख
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श्रामविलाम]
[८० मिर झुकाकर सलाम कर लेता है-'हुजरके वोलवाले रहे, खादिमको कैसे याद फरमाया गया ? खादिम हर तरह खिदमतके लिये हाजिर है। जब इच्छा निवृत्त होती है, तव इच्छा निवृत्ति कालम अहकार भी लय हो जाता है, जैसे वायुके निस्पंदकालमे सौम्यजलमे तरङ्ग लय हो जाता है और तय माथ ही दु.ग्य भी पीठ दिग्याता होता है। जैसे हमको हमारे घ्राणका तभी पता लगता है जब कोई गन्ध हमारे सम्मुख होती है, अथवा रसनाका तभी ध्यान होता है जब किसी रसका उससे सम्बन्ध होता है; इमी प्रकार अहंकारकी प्रतीति तभी होती है जब कोई इच्छा सम्मुख ग्बडी होती है। क्रोध, लोभ, मोह एवं भय आदि मनोवृत्तियाँ तो इच्छाके परिणाममें ही उत्पन्न होती हैं, इच्छा ही इन सवका मूल है । जैसे वायुकं निःस्पन्द होनेपर जलमे तरङ्ग लय हो जाती है और तरङ्गके लय हुए मौम्य जल अपने आपमें प्रकाशता है, इसी प्रकार इच्छारूप वायुके निःस्पन्द हुए अहंकाररूपी तरह भी लय हो जाती है और अहंकाररूपी तरङ्गके लय हुए ही सुखस्वरूप प्रात्मा अपने-आपमें प्रकाशता है । अथोत् इच्छा अपनी निवृत्तिद्वारा अहकारको निवृत्त करके ही सुखसाधनरूप होती है, अन्य रूपसे नहीं।
इससे सिद्ध हुआ कि इच्छानिवृत्ति कालमें जव अहकार भी खोया हुआ रहता है, तभी हम सुखका मुंह देखते हैं, अन्यथा नहीं। विपयभोग भी हमको केवल उसी समय सुख देते हैं, जब कि हम उनके भोक्ता नहीं रहते । हम भोगगेका संख भी भोगें और उनके भोक्ता भी बने रहें, यह दोनों बातें
साथ नहीं निभ सकतीं। मोग केवल उसी. कालमें हमें
नन्दित करेंगे, जब कि हमारा भोक्तृभाव उनपर वलिदान चपका होगा। अर्थात भोक्तापनसे छूटकर भोग्यम्प धन
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८१]
[साधारण धर्म कर ही हम भोगोंका रस ले सकते हैं, भोक्ता बने रहकर ही कदापि नही।
उपयुक्त व्याख्यासे सिद्ध हुआ कि सुख एकमात्र अहंकार से पल्ला छुड़ानेमे है, चाहे विषयसम्बन्धी सुख हो चाहे परमार्थ सम्बन्धी। विषयभोग भी अपनी प्राप्तिकालमें यद्यपि किसी क्षणके लिये अहंकारसे छुट्टी दिलाते हैं, परन्तु साथ ही अहंकारकी जड़को निकालनेमें सहायक नहीं, इसके विपरीत अहंकारकी जड़को पातालपर्यन्त बढ़ करनेमे हो अपनी सहायता देते हैं, जिसके परिणाममे वास्तविक सुखप्राप्तिके वजाय नरकादिकको यम-यातना ही पल्ले पड़ती है । जिस प्रकार कोई मदिरा-प्रेमी मदिरासेवनसे कुछ कालके लिये देहाध्याससे छुटकारा पाकर अपने आपको सुग्बो मानता है, परन्तु उसके निरन्तर सेवनसे चुपके-चुपके फेफडे गलने लगते हैं, क्षय-रोग उसकी गर्दन पकड़ लेता है और उसकी हड्डियोंको छलनी बना डालता है । ठीक, यही गति विपयमे मीकी विषयोंके सम्बन्ध से होती है । सारांश, सुखका चमत्कार तो हुआ था उपयुक्त रीतिसे अहंकार व इच्छाकी निवृत्तिद्वारा हमारे अन्तरात्मा से, परन्तु अज्ञान करके सुख आया हुआ जानते हैं हम उन विषयोंसे । इसी अज्ञानसे विषयों की इच्छा कर करके हमारी गति कुञ्जरके स्नानके तुल्य हो जाती है और कुलर (हस्ति) की भॉति हम आप ही अपने मस्तकपर विपयरूपी धूल डालते रहते हैं। एक पुरुषने एक सुन्दर गुलाबके पुप्पको देखकर सूचनेके लिये तोड़ा। ज्यों ही उसको नाकतक ले गया कि एकदम चिल्ला उठा । जानते हो! इसके अंदर क्या था? एक शहदकी मक्खी उसके अन्दर छुपी हुई थी, उसने अपना आहार कर लिया। इसी प्रकार इन रमणीय पदाथाको सुन्दर जानकर आप इनको भले ही भोगें, परन्तु इनके भीतर जो विप छिपा हुआ है,
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आत्मविलास ]
[ २
वह आपको भोगे बिना न रहेगा। मिथ्या भासमान पदार्थोंमें मन फॅसा बैठनेके कारण, 'अरे । मेरा कलेजा फट गया,' 'हाय ! मैं मारा गया, ' इस प्रकार रुलाये बिना वह विप पीछा न छोडेंगा । आखिर ईश्वरसम्बन्धी सत्यता तुमने इन मिथ्या पदार्थम आरोपण क्यों की? इस रीति विपत्ति को बुलाने के बजाय अभ्तमं दुःखको ही निमंत्रित करती है । अपने आचरण में आया हुआ तथा धोया-पीया हुआ 'धर्म' ही एकमात्र ऐसा अमृत है, जो शनैः-शनै अधिकारानुसार इच्छारूपी कूकरी से पल्ला छुड़ाकर इस दुखरूप प्रकारकी मूलको निकाल फेंकता है और नित्य-निरन्तर अक्षयसुखका भागी बनाता है । इस धर्मरूप, कल्याणस्वरूप शिवको मेरा हार्दिक नमस्कार है । है देव । तू धन्य है । कि तूने मेरी अपनी छातीसे छाती, हाथसे हाथ और अपने स्वरसे स्वर मिलाया, जिससे मैं तेरे अपने गीत गाने समर्थ हुआ ।
अब प्रश्न होता है कि वह कौनसी चेष्टाएँ है, जिनको धर्मस्वधर्म क्या है ? रूपसे धारण किया जाय, जिनके द्वारा इस दु.स्वस्वरूप अकारकी मूलको निकाल फेंका जा सके ? इस विषय में भगवान् ने गीता अर्जुनके प्रति उपदेश किया है:
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः (अ० २ ० २१)
अर्थ:--- पराये धर्मको भली भाँति श्राचरणमे लानेसे अपना थोड़ा गुणरहित धर्मका वर्ताव भी श्रेष्ठ है, अपने स्वधर्म को वर्तते वर्तते मरजाना श्रेष्ठ है परन्तु पराया धर्म ( अधिकारभिन्न धर्म) भयदायक है ।
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१३]
[साधारण धर्म जिस प्रकार रोगीके लिये उनके दोपोंके अधिकारके अनुसार यदि एक दमडीकी भी औपध दी गई तो वही उसकी रोगनिवृत्ति में सहायक हो सकती है, बहुमूल्य औपधसे कुछ न बनेगा। ठीक, इमी प्रकार जिम अधिकारपर वर्तमान कालमें चित्त है, उसके अनुसार की जानेवाली चेष्टा ही उसको ऊँचा उठाकर शनैःशनैः जीवसे शिवरूपको प्राप्त करा सकती है। जैसे चीजको पृथ्वी में दबाने के उपरान्न फलकी प्राप्निपर्यन्त उसको दिन-दिन सैंकड़ों अवस्थाऑमसे गुजरना पड़ता है । वीजको पृथ्वीमे दवानेके उपरान्त वह फूलता है और अपनी कोमल जड़ पृथ्वीमें फैलाने लगता है। इधर बीज फूलकर बीचमेंमे ठीक हो दाल बनकर फूठ जाता है, वह दाल झडकर म्वादका काम देती है और उसके अन्दरसे एक नयी ही वस्तु, जिमका देखनेमे बीजसे कोई सम्बन्ध नहीं प्रतीत होता, निकल आती है जिसमे दो कोमल पत्तियाँ होती हैं । वहीं ज्यूं-ज्यूँ अपनी जड़ नीचे फैलाती है, त्। -त्यू ऊपर को पत्ते, टहनी व तनेके रूपमे फैलती-फैलती हड़ होकर और असंख्य अवस्थाओंमेंसे गुजरकर फूलको निकाल देती है तथा फूलमेसे ही फल निकल पड़ता है। यदि इस बीजको वीचकी किसी भी अवस्थामै गुजरनेसे रोक दिया जाय तो वह कदापि फलके सम्मुख नहीं हो सकेगा, जबतक उस अवस्थाकी पूर्ति न करले। ठीक, इसी प्रकार हृदयक्षेत्रम अधिकारानुसार धर्मरूपी वील भारोपण करनेकी आवश्यकता है, उसमें वारम्बार अभ्यासरूपी जल सींचनेकी जरूरत है तथा बहिर्मुखी कुसङ्गरूपी डंगरोंसे उसकी रक्षा उपयोगी है। यह हो गया तो फिर इसके निमित्त विशेष कर्तव्यकी जरूरत नहीं, ज्यूँ-ज्यूँ इसकी जड़े त्यागरूपी शिवमें अन्दरकी तरफ फैलेंगी, त्यू -— यह बाहर विस्तार पाता जायगा और सांसारिक सुख (अभ्युदय) रूपी नाना अवस्थाओंमेंसे गुजरता हुआ निश्रेयसरूप मोतफल पा
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[६४
आत्मविलाम] जायेगा। स्वधर्मका अर्थ केवल घर्णाश्रम-धर्म ही न ले लेना। स्वधर्मका व्यापक अर्थ यह है कि जिस किसी भी शुभ चेष्टामें स्वाभाविक चित्तका लगाव हो, उसके लिये वही स्वधर्म हो सकता है । प्रकृतिका नियम है कि चित्त जिस अधिकारका होगा, अपने अधिकारानुसार चेष्टाके साथ स्वभाविक ही उसका लगाव हो जायगा और उस स्वभाविक चेष्टासे लगकर ही चिन्त ऊँचा उठाया जा सकता है । जिस तरहसे वीजमसे सब अवस्थाएँ अपने अपने समयपर उसके अन्दरमे श्राप निकल आती है, उसी प्रकार धर्मरूप स्वाभाविक चेष्टाओंमेसे भी शेप अवस्थाए अपने आप उसके अन्दरसे निकलेगी। इसी लिये ताकीद की गयी है -
सहज कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सर्वारम्मा हि दोपेण धूमेनाग्निरिवायता: (गोभ० ५८ श्लोक ८)
अर्थ-हे कौन्तेय ! स्वभावसिद्ध कर्म चाहे सदोष भी हो तोभी उसका परित्याग न करे, क्योंकि सभी कर्म इसी प्रकार प्रारम्भमे दोपोंसे घिरे हुए हैं जैसे अग्नि धूमसे । अग्निका स्वच्छ व निर्मल करनेके लिये जैसे धूममेंसे होकर निकलना जरूरी है, वैसे ही मनुष्यको निर्मल करनेके लिये भी स्वभावसिद्ध कमों से होकर निकलना जरूरी है। यही स्वधमेका ब्यापक अर्थ है । (विस्तार के लिये देखो पृ० ३३ से ३६)
धर्म व अधिकारका परपर घनिष्ट सम्बन्ध है, धर्म व वधिकारका | अधिकारको मिन्न-भिन्न नहीं किया जा सकता। परस्पर सम्बन्ध धर्म ही अधिकार है और अधिकार ही धर्म है। अधिकारानुसार वतो हुआ धर्मका कोई भी अङ्ग शेप सब अगोंको इसी प्रकार खीच लावा है, जैसे जमीरकी एक कड़ी
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.८५]
[साधारण धर्म पकड़कर खींचनेसे सारी जखीर खिची चली आती है, अथवा मनुप्यकी एक अङ्गुली पकड़कर खीचनेसे शेप सब श्रङ्ग खिंचा चला आता है, धर्मके सब अङ्गोंमें भी पररपर ऐसा ही घनिष्ट सम्बन्ध है । इसी लिये आवश्यकता है धर्मके किसी भी अङ्गको वास्तविक रूपसे व्यवहारमें लाने की, हाथ-पॉवमे इतर आने की। फिर शेष सब अङ्ग अन्दरने इसी प्रकार निकल पड़ेंगे, जैसे छोटेसे वीजसे बड़ विस्तारवाला वृक्ष निकल पडता है। अग्निकी एक चिनगारी भी यदि जीती-जागती है तो वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको भस्म करनेमे समर्थ है । इसी प्रकार धर्म का कोई भी अग वास्तविकरूपमै वर्ता हुआ दुःखरूप संसार को भस्मकर निरन्तर अक्षय आनन्द्रकी मॉकी करा सकता है। प्रकृतिदेवीने इस जीवको शिवरूपमें पहुँचानका भार तो अपन सिरपर उठा ही लिया है, अब जरूरत है मागे चल पड़ने की, जिस स्थानपर हम बड़े हुए हैं उमसे आगे कदम उठान की। यदि आपको छतके ऊपर चढ़ना मंजूर है तो आपको चाहिये कि अपना एक कदम सबसे नीची पौड़ीपर मजबूतीसे जमा ले, जब इस पौड़ीपर कुटम जम गया तो दूसरा कदम बिना किसा रोक-टोकके अपने-आप उठकर दूसरी पौड़ीपर पहुँच जायगा । इस प्रकार आप खट-खट करते हुए बिना किसी वाधाकं छतपर पहुँच जायेंगे। इसके विपरीत यदि अापने वीचकी किसी पौड़ी को छोड़कर छलॉग मारकर जानेकी चेष्टा की तो आप धमसे उल्टा नीचे गिर पड़ेंगे और सिर फुड़ा लेगे। अन्तत. छतपर पहुँचनेके लिये आपको इस पौडीपर पॉव टिकाकर ही जाना होगा, फिर, गुफ्तम सिर मुड़ानसे क्या लाभ ? ठीक, इसी प्रकार यदि आप नाम-रूप मंसारसे ऊपर जाना चाहते है तो
आपको चाहिये कि जिस सोपान (पौडी) पर आप अपना पॉव टिका सकते हैं, उसपर दृढ़तापूर्वक अपना पाँव जमा ले । यह
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श्रात्मविलास 1
[ =६
जरूरत
होगया तो प्रकृतिदेवीके रचे हुए अन्य मोपानोंको आप विना fair वाधाके अपने-आप लॉबते चले जायेंगे, कोई शक्ति आपको ऊपर जानेसे रोक नहीं सकेगी। पानीका बहाव उल्टा चल पड़ा है यानी पर्वतकी ओर बहने लग पडा है, अर्थात् जीव का प्रवाह जो जड़तारून भोगोकी ओर चल पड़ा है, केवल इतनी ही है कि इसका प्रवाह अधर्मरूप जडतासे मोड़कर मांध कर दें धर्मरूप समुद्रकी ओर, फिर कोई चिन्ता नहीं । प्रवाह अपनी गति के साथ चलता हुआ ब्रह्मरूपी समुद्रमे आप जा मिलेगा, कोई शक्ति चाधा डालने में समर्थ नहीं है । स्वय भगवान् ने गीता पट्टा लिख दिया है - पार्थ नैवेद्द नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
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न हि कन्यकृत्कचिदुर्गति तात गच्छति ॥ (४. ६.४८ )
अर्थ —हे पार्थ । न इम लोकमे ही उसका नाश हो सकता है और न परलोकमे ही, क्योंकि हे तात् । कल्याणका करनेवाला दुर्गतिको जा ही नही सकता
मरके भी उसको बलात्कारसे उसी ओर इसी प्रकार खिंचना पडेगा, जैसे पक्षी पेटीसे बँधा हुआ खींचा जाता है। यदि आपने किसी दरो (पौडी ) पर विना पॉव टिकाये छलॉग मारनेकी चेष्टा की तो आप नीचे गिरेंगे और चोट खा लेंगे, आखिर मरहम-पट्टीसे छुटकारा पानेके पीछे फिर भी आपको उस पौडी के ऊपर पॉच जमाकर ही ऊपर जाना होगा, इसके बिना छुटकारा है ही नहीं । यह कानून बड़ा ठोस है, जोकि उल्लङ्घन नहीं किया जा सकता । यह बात तो सबको ही स्वीकार करनी पड़ेगी कि बल घृतमें नहीं है, बल केवल उस भोजनमे है जिसको जठराग्नि पचा ले। यदि घृतमे ही वल माना जाय तो ज्वरपीडित रोगीको घृत पिला देखिये, घृतके सेवनसे वह बलिष्ट
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८७]
[ साधारण धर्म होता है या दुर्वल । हाँ, मखा अन्न खाकर नो वह बलवान हो सकता है, रूखे अन्नसे बल प्राप्त करते करते वह फिर घृतको भी पचानायगा और उससे भी बल प्राप्त कर लेगा,परन्तु अपने अधिकारको स्थिर रखकर । जिस प्रकार बच्चा अपनी माताका स्तनपान करते-करते दाँत निकाल लेता है, फिर अन्न भी खाने लग पड़ता है और कच्चे चने भी चबा लेता है। ठीक, यही व्यवस्था धर्मसम्वन्धमें है। प्रत्येक प्राणी अपने चित्तके अधिकारानुसार धर्मको आचरणमें लाता हुआ 'यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम उस परम धामको प्राप्त कर जाता है, जिससे फिर लौटना नहीं पड़ता। यही स्वधर्मका व्यापक अर्थ है।
जहाँ संकीर्णता है वहाँ कृपणता है, जहाँ कृपणता है वहाँ जड़ता है और जहाँ जड़ता है वहाँ चोटोंका पड़ना स्वाभाविक ही है। तथा जहॉ विशालता है वहाँ उदारता है, जहाँ उदारता है वहाँ कोमलता है और जहाँ कोमलता व द्रवता है वहाँ चोटो से क्या सम्बन्ध ? सोना (धातु ) जब ठोस जड़ावस्थाको प्राप्त है तब अहरन व हथोड़की चोटसे बच नहीं सकता। परन्तु अग्निके संयोगसे जब वह द्रवीभूत होगया और अपने अमली स्वभावको प्राप्त होगया, फिर उसका चोटोंसे क्या सम्बन्ध ? वह तो अब सर्वरूप है, जैसे जैसे साँचकी उपाविको प्राप्त होगा, वही रूप धारण करनेको तैयार है । अग्निकं सम्बन्ध विना उसको एक रूपसे दूसरे रूपमे बदलना असम्भव था, अब उसको मनमाने रूपमें बदल सकते हैं। इसी प्रकार जीवके सम्बन्धमें जितनी-जितनी अहकारकी जड़ता है, उतनी-इतनी ही कृपणता है और उतनी-उतनी ही हृदयबेधी दुःखोंकी चोटो का सहना अनिवार्य है। इन चोटोंसे बचनेके लिये तथा जीव से शिवरूपमें बदलनेके लिये जरूरी है कि इसको धर्मरूपी अग्निके संयोगसे कोमल व द्रवीभूत किया जाय । इस उद्देश्य
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आत्मविलास ]
[८ की पूर्तिके लिये जितने साधन हो सकते हैं, उनको प्रवृत्तिप्रधान व निवृत्तिप्रधान दो ही भागों विभक्त कर सकते हैं। प्रवृत्तिप्रधान माधन वह है कि जिसके द्वारा व्यक्तिगत स्वार्थ व व्यक्तिगत अहंताका विस्तार करते हुए और कुटुम्ब, जाति व देशके स्वार्थ व अन्तासे जोडते हुए 'वसुधैव कुटुम्बकम(अर्थान् सव पृथ्वी ही हमारा कुटुम्ब है।) के रूपमे इस ग्वार्थ व श्रहन्ताकी पूर्णाहुति दे दी जाय । मंक्षेपसे जिसका निरूपण 'पुण्य-पापकी व्याख्या' में किया जा चुका है। इन सावनामे प्रवृत्तिका संकोच न होकर इसका विस्तार किया जाता है और विस्तारके साथ-साथ इसको पतला करते-करते इसका लय किया जाता है। निवृत्तिप्रधान साधनका संक्षेपसे नीचे निरूपण किया जाता है । इसमें प्रवृत्तिका विस्तार न होकर प्रवृत्तिको गलाया जाता है । जिस प्रकार सुवर्णकी डलीको फैलानेके दो ही साधन हो सकते हैं, एक इसको कूट-फूटकर फैलाया जाय, दूसरे इसको गलाकर । इसी प्रकार अहंकारकी जडताको फैलानेके लिये भी या तो इसे प्रवृत्तिद्वारा कूट-कूटकर फैलाया जा सकता है, अथवा निवृत्तिद्वारा गलाकर । अधिकारमेटसे प्रवृत्तिमुखीन व निवृत्तिमुखीन साधनोंकी प्रकृतिने रचना की है, इनके लक्ष्यका भेद नहीं है, लक्ष्य दोनोंका एक त्याग ही है।
१) पामर पुरुष संसारमें जितने भी मनुष्य हैं उनको चार प्रकारकी कोटि पामर पुरुषका र-1 में विभक्त किया जा सकता है, (१) पामर, क्षण और उसके (२) विपयी, (३) जिज्ञासु और (४) ज्ञानी । प्रति उपदेश इनमेंसे प्रथम पामर-पुरुपका वर्णन किया जाता है। पामर कोटिमें वे मनुष्य समझे जा सकते हैं, जिनके
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[ साधारण धर्म जीवनका उद्देश्य केवल विषयभोग हो है और जो केवल शिश्नोदरपरायण हैं। विषयभोगकी पूर्तिमे जिन्होंने पशुओंको भी पीछे छोड़ दिया है । जिन्होंने विषयोंकी धधकती हुई प्रचण्ड अग्निमे तन-मनकी आहुति देनेके लिये कुलकी मर्यादाको नमस्कार कर लिया है, जातिकी मर्यादाको ठुकरा दिया है, लोकमर्यादाको दूरसे ही हाथ जोड लिये हैं और धर्मकी नीतिको भी चुपकेसे ताकमे तह करके रख दिया है। सब प्रकारके वन्धनोंसे छुटकारा पा लिया है और मव मर्यादाओं से आजाद हो गये हैं। परन्तु:क्या यह आजादी हैं ? हाय ! यह तो आजादी नहीं । गोयेचोगों की परेशानी है, आजादी नहीं ॥ अस्प हो आज़ाद, सर पर कैद होता है सवार । अस्प हो मुलक-इनाँ हैरान , रोता है सवार ।। इन्द्रियोंके घोड़े छुटे वाग-डोरी तोड़ · कर । वो गिरा ! वो गिर पड़ा !! अस्वार सर-मुंह फोड़ कर ।।
मैया घोड़ेको आजाद करके आजाद होना चाहते हो, काँटेदार झाड़ियोंमें फंसोगे, गड्ढोंके अन्दर धसोगे, सिरमुँहकी खाओगे, जहाँ दॉत पीसना ही होगा। इस प्रकार मर्यादारूप बन्धनोंको तोड़कर वो उल्टा बन्धनोंमें फंसना पड़ेगा । यह गोरखधन्धा किसी ऐसे-वैसेका रचा हुआ नहीं, जो सहज ही निकल भागोगे । अपने-आप यह गोरखधन्धा नहीं सुलझने का।
१ मैदानका गेंद, अर्थात् फुटबाल । २ घोड़ा । ३ खुली लगामवाला।
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प्रात्यविलाम]
[६० वन्टरको भॉति थे तो उल्टा अपना हाय प्रोतके चांच में फंसा लोग किमी सद्गुनको शाम जानो, यह तुम्हारे गोरख बन्धेकी की मुलझानका गन्ना पतला देगा। फिरमें तख्तोके बीचमै पनर टोकर तुम्हाग दवा या हाय निकाल देगा, फिर तुम बाजाद ही आनाट हो। तुम तब शरीर से भी प्राजान, इन्द्रिय मे भी भागात, फिर तो नारे नंसारम तुम्हारा ही राम है। सूर्य-चन्द्रमा मन तुम्हारी मेवाके लिये हाजिर हैं. पृथ्वी-नक्षत्र नब तुम्हारी परिकामाके लिय उपस्थित है। परन्तु ननके नाय बंधे रहकर शरीर व इन्द्रियोंस आजाट होना चाहते हो, यह हो कने मकता ? गौका मा जिस प्रकार खटेसे बंधा रहकर रोते बाजाद होना चाहे तो वह कसे हो सकता है। वह तो उल्टा "अपने गले अधिकाधिक बन्धन पाता जायगा। इसी प्रकार मेरी जान ! प्राजाद होना
1. दो पदई एक पढ़े भारी लम्डी को चीरहे थे, पपई लोग अपने कार्यकी सुगमताके लिये धीरे हुए लकीके भागमैं एक पड़ी की मेल ठोक देते हैं, जिससे शेष चिगई शीव्रतासे दो चाय । जप घे लोग मध्याहरे समय भोजन करने को अपने घर गये तय पीपे एक पन्दर भाया । यन्दर स्वभावसे पचल होता ही है, उसने छकादरीके लटेपर घेठकर अपनी चञ्चलता के कारण उस मेखको जारसे ताशा महुत ज़ोरसे सींचनेपर मेख ल्व से निकल गई भार उसका हाथ धीरे हु। दोनों तातोके योचमें फंस गया। छाया फैसना था कि वह पड़ी व्याकुळतासे चिल्लाया, इतनेमें यदई आ गये उन्होंने फिरसे तोके योचमें मेला ठोंककर उसका दपा हुमा हाथ निकाश।
इसी प्रकार यह संसाररूपी भारी लकदीका ठोस कहा है, सदगुरु व अच्छास्त्ररूपी दो बढई इस ससाररूपी रटेको चीरनेके लिये उमर हुए है । इस विचारसे कि वह ससाररूपी हा शोनसे व सुगमद्वासे
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६१]
[साधारण धर्म चाहते हो तो मनरूपी टेको तोड़ो, इससे छटकारा पाओ, तब तुम शरीर व इन्द्रियोंसे भी अपने आप ही आजाद हो। अन्यथा तो अपने गलेको बछड़ेकी भॉति अधिकाधिक फंसाते जाओगे। और मनसे आजाद तभी होमकते हो, जब कि उपयुक्त मर्यादायोंके अधीन तुम्हारा व्यवहार हो । भयर्यादाओंके अधीन रहकर ही तुम मर्यादाओंसे छुटकारा पा सकते हो, और कोई उपाय है ही नहीं, चाहे कितना ही सिर पटक लो। जिम प्रकार नदीका जल किनारोंकी मर्यादामें चलकर ही बहरेवेकिनार तटविनिमुक्त-सागर बन सकता है, किनारे तोड़कर कदापि नहीं । इसी प्रकार धमक्ति सकल प्रवृत्तियाँ भी तुमको धीरा जाय उन्होंने इसमें मयांदारूपी मेख ठोक दी है। जब वे अपना कुछ कार्य करके विधाम करने लगे तो पोछेसे पामर सीवरूप मट भाता है, संसारमर्यादारूपी मेखकी अवहेलना करके उसको नोद देता है और संसाररूपी लह के पूर्णरूपसे चीरे जानेके पहले ही वह मर्यादारूपी मेलाको तोड़कर आज़ाद होनेके लिये उतावला हो रहा है। यद्यपि संसाररूपी रहा पूर्णरूपसे चीरा जाकर यह मर्यादारूपी मेख भी निकाल पालनेके लिये ही थी, परन्तु वह को पहले ही मर्यादा तोडकर आजाद हुमा चाहता है। इस प्रकार इस पामा-बीवरूपी सर्कटने झानरूपी रे से इस संसाररूपी लो को चीरनेसे पहले ही मोटारपी मेखो तोड़ शो दिया, परतु काँका कर्ता व भोक्ता बना रहने के कारण, उन दुष्ट कमाके प्रतिकाररूपमें अध्यात्मिक, अधिदैविक व अधिभौतिक विविधतापरूपी सांसारिक तरखाने चहुँ भारसे इसके हाथ-पाँवको जकर लिया लिया भानादीका मजा ? अच चिल्लाता है, सिर पीटता है !! परन्तु निकलनेका तो और कोई उपाय है ही नहीं । अन्ततः शे-पीटकर जब यह फिर उन सद्गुरु व सच्छास्त्ररूपी यदइयोंको शरणमें आम तव वे भी
और कोई उपाय न देख, फिर मर्यादाम्पो मेसो तलाके बीच में बेंककर ही इसके दये हुए शरीरको निकाल सकते हैं।
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[२
आत्मविलास] अन्तमे सकल बन्धनोंसे छुटकारा दिलानेके लिये ही जुम्मेवार वन रही हैं। परन्तु तुम तो वीचमे ही छुटकारा पानेके लिये उतावले हो रहे हो । अच्छा, किनारे तोड़कर नदी के जल के समान संसाररूपी गड्ढों में न गिरो और सड़मड़कर न सूवो तो कहना ! स्मरण रहे कि धर्म तुमको किसी भी विषयसे वञ्चित रखना नहीं चाहता,बल्कि समय-समय पर सभी विपय योग्य मात्रामें योग्यतानुसार भुगताकर और यहाँसे तृप्त कराके, जहाँसे यह सब सुख निकलते हैं उन सुखोंके घर सब आनन्दोंके उद्गम-स्थानकी ओर उठा ले जानेका भार इसने अपने ऊपर लिया हुआ है । परन्तु एक तुम हो कि इन्द्रकी भॉति सूकररूप धारण करके विष्टापर ऐसे गिरते हो कि मुँह ही नहीं उठाते । कॉसीके सिक्केकी महाराणीकी छापपर इतने लट्टू होगये हो कि मोहरकी याद ही नहीं आती । उस पवित्र धर्मकी यहॉतक तुम्हारे लिये भारी उदारता है कि संसारमें निन्दितसे निन्दित कार्य पशु-धर्मरूप व्यभिचार भी विवाहसंस्कारके द्वारा ऐसी पवित्र व उत्तम रीतिसे धर्मरूपसे रचा गया कि धर्मानुकूल मर्यादामें वर्तकर आप इसके द्वारा ईश्वरके प्रेमपात्र हो सकते हैं और भोग व मोक्ष दोनोंके अधिकारी धन सकते हैं।
१. एक पार इन्दने स्वामें सूकरका शरीर धारण किया और विष्ठा साने लगा यह देख देवताभोंको लाज आई और उन्होंने उसे जगाया इसी प्रकार यह इन्दपी जीव अज्ञान-निद्रामें मोगरूपी विष्ठापर गिर रहा है।
२. जिस प्रकार कोसीकी धातुपर महाराणी विक्टोरियानी छाप हो तो मूर्ख लोग मिथ्या धातुको उस डापके कारण सत्य जानकर ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार यह संसारिक भोग स्वयं काँसीके समान मिथ्या होते हुए भी उस अधिष्ठान सत्तारूपी महाराणीके सानिधान, के कारण मशानियोंद्वाग सत्यरूप ग्रहण किये जा रहे हैं।
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१३]
[ साधारण धर्म क्या धर्मसम्बन्धी विवाहका उद्देश्य केवल विषयवासनाकी धार्मिक विवाहका अधकती हुई अग्निमे भोगरूपी घृतकी उद्देश्य .... आहूति देते रहना ही हो सकता है नहीं, कदापि नहीं। ऐसा करके तो आप इस रमणीय संसारको श्मशानरूपमें बदल देंगे, नन्दनवनको रौरव-नरक बना लेगे, कुत्तोंकी भॉति मौक-भौककर मर जायेंगे, हथिनीके पीछे हाथीकी भॉति लगकर अपने आपको संसाररूपी गड्ढेम गिरा लेंगे । धार्मिकविवाहका उद्देश्य तो यह था कि जीवमे वह जडता, जो उद्धिजादि योनियोंसे प्रारम्भ होकर अनन्त कालसे चली आ रही है और जोधका मनुष्ययोनिमे विकास होनेपर भी चिरकालीन सम्बबसे जिसका रहना स्वभाविक ही है, उस जडताको अव धार्मिक विवाहसंस्कारके द्वारा पिघलाया जाय । अर्थात् जीवका श्रात्मभाव (मपन) जहाँ अपने माढ़े तीन हाथके टापूमे ही घिरा हुआ है और उसमें घर किये बैठा है, उससे आगे बढ़े और पिवलकर पवित्र धार्मिक प्रेमद्वारा अपनी वर्ग-पत्नीम पसर जाय । इम प्रकार सत्य व चढ़ प्रेमकी अग्निमें वह 'मैंपन' पिघल-पिघलकर क्रमशः जहाँसे यह प्रेमका स्रोत निकल रहा है, उस प्रेमस्वरूप,
आनन्दकन्द, मदनमोहनके चरणकमलोंसे सम्बन्ध पा जाय । परन्तु इसकी मिद्धि तभी हो सकेगी जबकि यह प्रवाह नदीके तटों के समान धार्मिक मर्यादामें चले । प्रेम ही भगवानका स्वरूप है, प्रेमसे भिन्न उसका और कोई रूप नहीं बनता । इमी लिये मनु आदिकोंने स्पष्ट रूपसे कह दिया है:
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । अर्थ:-जहाँ स्त्रियोंका आदर-सत्कार होता है वहीं देवता रमण करते हैं।
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व्याख्या
श्रामविलास ]
[६४ इस आशयकी पूर्ति एक पतित्रत व एक पलित्रत द्वारा ही हो सकती है, अन्यथ नहीं । इस प्रकार विषयथा नना भी, जिसका अपने समयपर जीवमें प्रकट होना आवश्यक है, धर्मानुकूल सदुपयोगद्वारा ईश्वरप्राप्तिका साधन बनाई जा सकती है। यही
आपके उदार धर्मकी पूर्ण उदारता है । इस प्रकार धार्मिक विषयप्रवृत्ति विपयनिवृत्ति के लिये ही है। निकटवर्ती कालके भक्तशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदानजी और सूरदासजी आदि इन सिद्धान्त की मत्यतामें ज्वलन्त दृष्टान्त हैं। धर्मशाबमें विवाहसम्बन्धमें जितनी आज्ञाएँ हैं, वे सामान् या परम्पराद्वारा इसी सिद्धान्तकी पूर्तिके लिये हैं।
अच्छा जी ! कुछ भी हो हमारा काम कहना है, कोई माने 'वैताल' शब्दकी तो भला, न मानेंगे तो प्रकृति, फुटवालकी
__भॉति चारों ओरसे ठोकर मार-मार श्राप भीवरसे फूक निकला लेगी। अखिर ब्रह्मासे लेकर चिउंटीपर्यन्त प्राणीमात्रके सिरपर जो यह वैताल सवार हो रहा है कि 'हम सुखी हों, और ऐसा मुख मिले जिसका कभी क्षय न हो यह केवल मखौलके लिये ही नहीं है, बल्कि सचमुच पूरा होनेके लिये है । यह वैताल कभी दम न लेने देगा और कभी चैनसे बैठने न देगा, जबतक सौलह आना इस उद्देश्यकी पूर्ति करा न ले, चाहे कोटि कल्प क्यों न बीत जाएँ। परन्तु मूढ़ पामरपुरुप इस उद्देश्यकी पूर्ति तथा वैतालकी इस पहेलीका उत्तर विषयमोगके द्वारा देकर इसको मखौलवाजी में उड़ाना चाहते हैं, इससे उसका (बैतालका) कमो सन्तोप नहीं होने का। इस विषयमें उनकी गति ठीक उस मदमस्त शराबीकी जैसी है, जो शरावके नशेसे चकनाचूर हो गली-कूचोंमे घूम रहा है और दीवारों व नालियोंसे टकर व चोटें खा-खाकर और सिर फुड़ाफुड़ाकर आखिर अपना नशा उतरवा लेता है। ठीक, इसी
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१५]
[ साधारण धर्म प्रकार जो मूढ पुरुष विषयोंके नशेमें मदमस्त हो आगा-पीछा न देखकर चल रहे हैं, उनको उम वैतालके डण्डेकी चोट सिर पर सहनी होगी, आखिर वे चोटें खा-याकर अपना नशा उतरवा लेंगे और सीधे मार्गपर चल पड़ेंगे। यह भूत किमी कच्चे-पक्केका चढ़ाया हुआ नहीं, जो यूं ही दनोंसे ही उतर जाय और वातोंसे ही पीछा छोड़ दे। इसको किसीका लिहाज नहीं है । इससे अच्छा तो यह है कि पहले ही सीधी राह चल पढ़ें, जिससे डण्डेको चोटसे तो वचं रहे । प्रकृतिके उपर्युक्त नियमको हम आगे 'वैताल' शब्दसे प्रयोग करेंगे।
यद्यपि पामर पुरुषों के सम्बन्ध विशेष चर्चा करना सभ्यता पामर पुरुद्वारा | के विरुद्ध है। प्रकृतिदेवीने स्वयं अपनी श्रॉखें किये जानेवाले | लाल-लाल करके अपने कठोर कुठारको परशुयज्ञ-दानादिका रामकी भॉति तीक्ष्ण बनाया हुआ है । हमको स्वरूप... किसी प्रकार हस्तक्षेपकी क्या जरूरत है ?
थाही कटाक्ष करके हमे अपनेको क्या कनुपित करना चाहिये ? तथापि जिज्ञासुओंको इससे निवृत्तिके अर्थ उन पुरुषोकी स्वाभाविक प्रकृतिका थोड़ा निरूपण कर देना आवश्यक है। ऐसे पुरुप केवल तमोगुणप्रधान होते है और केवल आसुरी मम्पत्तिके ही धनी होते हैं। निद्रा, श्रालस्य, क्रोध, द्वेष, काम, घमण्ड, कठोरता इत्यादि उनकी दास-दासियाँ हैं, जोकि हर ममय उनकी सेवामे हाजिर रहते हैं, योगिनीरूपसे उनके हृदयो को काट-काटकर भक्षण करते और रक्तपान करते रहते हैं । ये लोग अनन्त अपवित्र संकल्पोंके जालेमे धे रहते हैं, जिनका लक्षण गीता अध्याय १६ मे इस प्रकार किया गया है:
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । • इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥
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६
आत्मविलाम ] असौ मया हतः शत्रुहनिष्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं वलवान्सुखी ।। आट्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योस्ति महशो मया (पलो. १३. यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इन्यज्ञानविमोहिताः || ११.१५)
अर्थ:-उन पुरुषोंके संकल्प इस प्रकारकं होते है:-मैन अाज यह तो पाया है, इस मनोरथको और प्राप्त होऊँगा, मेरे पाम यह इवना धन तो है और उनना और भी हो जावेगा। मेरे द्वारा वह शत्रु मारा गया और दूसर शत्रु को भी मारूंगा, में ईश्वर हूँ, ऐश्वर्यका भोगनेवाला हूँ और में मत्र सिद्वियोंसे युक्त बलवान एवं सुखी हूँ। मैं वड़ा बनवाला और बड़े कुलवाला हूँ. मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूंगा, हर्षको प्राप्त होगा। इस प्रकारके अनानसे वे विमोहित हैं।
ऐसे पुरुषोंके द्वारा दान-यन्त्र, विवाह-यज्ञ, तप-यज्ञ इत्यादि अनेक प्रकारके बहुमूल्य आचारोंका व्यवहार तो होता है, परन्तु सब ही पाप-यज्ञ हैं। जिनका मुख्य उद्देश्य केवल अहंकार व वड़ाईको पुष्ट करना ही होता है, जोकि सब दुःखोंका मूल है। जिनका लक्षण तमोगुणी रूपसे गीता अध्याय १७ में इस प्रकार वर्णन किया गया है।
विधिहीनमसृष्टान्नं मंत्रहीनमदक्षिणम् । श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ (श्लोक १३)
अर्थः-शास्त्रविधिसे हीन, अन्नदानसे रहित एवं बिना मंत्रो, बिना दक्षिणा और विना श्रद्धाके किये हुए यज्ञको तामस यज्ञ कहते हैं।
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६७]
[ साधारण धर्म मूढयाहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः । परस्योत्सादनार्थ वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ (श्लोक १९) अर्थः-जो तप मूढतापूर्वक हठसे मन, वाणी और शरीर को पीड़ा पहुँचाकर अथवा दूसरेका अनिष्ट करनेके लिये किया जाता है, वह तामस कहा गया है।
प्रदेशकाले यदानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ।। (श्लोक २२) अर्थ:-जो दान विना सत्कार किये, तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देश-कालमे तथा कुपात्रोंके लिये अर्थात् मद्य-मांसादि अभक्ष्य वस्तुओंके खानेवालों एवं चोरी आदि नीच कर्म करनेवालोंके लिये दिया जाता है, वह तामसिक कहा गया है।
ऐसे पुरुषोंद्वारा विवाह आदिके अवसरपर प्रायः इसी प्रकारका दान किया जाता है तथा बड़े परिश्रमसे उपार्जन किये धनका ऐसे पवित्र समयमें श्रातिशबाजी, वारावहारी, वेश्यानृत्य,
आदिके द्वारा दुर्व्यय करके अनर्थ ही उपार्जन किया जाता है, जिसके फलस्वरूप यमयातना ही पल्ले पड़ती है । बजाय इसके कि ऐसे पवित्र विवाहसंस्कारको, जो दुल्हा-दुलहिन, सम्पूर्ण कुल
और भावी सन्तानके लिये एक प्रकारसे बुनयाद है, सत्त्वगुणी बनाया जाय,ऐसा तमोगुणी बनाया जाता है कि जिसका विवरण करते हुए लेखनी सकुचाती है। व्यभिचार दृष्टिसे क्या पिता, क्या पुत्र सभी कुटुम्बियोंकी समान दृष्टिका विषय इस समय एक ही वेश्या बनी रहती हैं, जिसके फलस्वरूप विवाहके उद्देश्यका (जिसका संक्षेपसे निरूपण कर पाए हैं) वीज ही, जिसके द्वारा ईश्वरप्राप्ति और चिरशान्तिरूपी फल पकाना इष्ट था,एकदम दुग्ध. हो जाता है । जो समतादृष्टि सारे संसारके प्रति स्थापन करना
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आत्मविलास J
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धर्मका लक्ष्य था, उसके स्थानपुर सव ओरसे खीचकर वह समareष्टि एक वेश्याको प्रदान की जाती है। इस समता दृष्टिको कोटिश. धिक्कार है, जिसके द्वारा सभी मर्यादाएँ भङ्ग हो जाती हैं और भविष्य ऐसा. भयङ्कररूप धारण करता है-किन पूछना और न कहना ही अच्छा है । सारांश, सब प्रकारसे ही इस पवित्र संस्कार की ऐसी मिट्टी पलीद की जाती है और अपने तमोगुणका पूर्णरूपसे ऐसा विकास किया जाता है कि, 'घर फूंक, तमाशा देखता' ठीक-ठीक दर्शाया जाता है | घर फॅक ही नहीं, 'शरीर फॅक, नहींनही इतना ही नहीं, बल्कि 'सम्पूर्ण जीवन फूंक तमाशा देखना' वन जाता है ! क्या इसको खोलनेकी जरूरत है धननाश,' शरीरनाश, कुलनाश मर्यागनाश, आधारनाश, विचारनाश, धर्मनाशः अर्थात् लोकनाशाय परलोकनाथ सभी नाश - अपनी डेरा जमा लेते हैं । फिर 'सम्पूर्ण जीवन फूँक तमाशा देखने में कमी ही क्या रह गई ?.
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चरणोंमें प्रथम भेट |
विच्छूके समान विना ही प्रयोजन डङ्कप्रहार ऐसे पुरुषोंका' पामर पुरुषों का प्राकृत | स्वाभाविक कर्तव्य है । सहस्र नेत्रोंसे स्वभाव तथा चैता के पराये छिद्रोंका देखना उनकी स्वभाविक त्यागकी - दृष्टि है, जिस प्रकार गृद्धपती सड़े मांसपर ही दृष्टि रखता है। वे विना हीं' काज दूसरों' काका करने के लिये दाहिनेम्याएं लगे रहते हैं, इतनी ही नहीं, बल्कि अपना अकात करके भी यदि दूसरोंका अहित 'साधन हो' तो उससे उन्हें परमानन्द प्राप्त होता है। उनके जीवनको उपल (श्रोला) की उपमा दी जा सकती हैं, जो श्राप गर्लकर भी खेतीको नाश कर देता है । अथवा मक्षिकाकी उपमा दी जा सकती है, जो धृतमें गिरकर अपने आपको नष्ट करके भी घृतको अपवित्र 'ही करती है । गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने रामायणके प्रारम्भ में ऐसे पुरुपोका लक्षण इस प्रकार किया है :
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[ साधारण धर्म परहितहानि लाभ जिन्हें केरे । उजरे हर्ष विषा, बसेरे ॥ हरिहर जस राकेस राहुसे । पर अकाज भट सहसवाहुसे।। जे परदोष लखेहि सहसोखो पिरहित घृत जिनके मनमाखी॥ तेज कृसानु रोपं महिपेसीं । अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥ उदयकेतुं समाहितं सेव हों के कुम्भकरन सम सोवत नीके ।। • पर अकाज लगि तनु परिहरहीं।जिमि हिम उपल कृषि दल गरहीं। गबंदउँ खल जैस सेष सरोषा' । सहस बदनं वरनइ परदोषा ॥
' 'अर्थ:-दूसरोंके हितकी हानि ही. जिचके लिये -लाभ है, दूसरोंके उजड़नेमे जिनको हर्ष और वसनेमे खेद है। विष्णु व शिवके यशरूपी पूर्णमासीके चन्द्रमाको पास करनेके लिये जी राहुके तुल्य हैं और दूसरोंका अकाज करने के लिये जो सहस्रवाह के समान बलवान् योधा है.। जो अपना दोष न देख-दूसरोंके दोषोंको हजार आँखोंसे,देखते हैं और दूसरों के हितरूप निर्मल घृतको अपवित्र करनेके लिये जिनके मन मक्खीके तुल्य हैं जोकि आप नष्ट होकर भी घृतको मलिन कर देती है। जिनका तेज अग्नि तुल्य हैं जोकि सबको भस्म कर देती है, क्रोध जिनका महिषासुरके तुल्य है तथा पाप व अवगुणरूपी धनके जो कुंवरके, समान भण्डोरी हैं। जो सबके हितको नष्ट करने के लिये उदयकेतु. तारके समान हैं, उनका तो कुम्भकरणके समान सोना ही मला.. है। जो दूसरोंका अकार्ज करने के लिये अपना शरीर भी त्यागकर... देते हैं, जिस प्रकार बर्फे व ओला औप गलकर भी कृषिको गला , देते हैं । अन्तमे श्रीगोस्वामीजी कहते हैं कि मैं तो सरोप, शेषजी ... के समान इनकों वन्दना ही करता हूं, क्योंकि जैसे शेतजी इजार ., जिहास भगवानकी गुणगान करते हैं, वैसेही यह भी हजार जिल्हा : से पराये दोषोंका वर्णन करते हैं, हजार जिह्वाकी समानताके
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आत्मविलास ]
[१०० कारण मेरे लिए तो ये शेप-भगवानके समान वन्दनयोग्य ही हैं । म हरिजीका कथन है:एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान्परित्यज्य थे। सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ॥ तेऽमी मानुषराक्षसाः परहित स्वार्थाय निघ्नन्ति ये । ये तु नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।।(भर्तृ,नीति,६४)
अर्थ:-एक ऐसे सत्पुरुष होते हैं, जो अपने स्वार्थीका परित्याग करके दूसरोंके अर्थसाधनमे तत्पर रहते हैं। सामान्य पुरुष के हैं, जो अपने स्वार्थोंके अविरोधके साथ-साथ दूसरो के अर्थसाधनमें उद्यमपरायण रहते हैं और वे ये रातस-मनुष्य - है, जो अपने स्वार्थके लिये दूसरोंके हितको कुचल डालते हैं। परन्तु जो बिना ही किसी अर्थके दूसरोंके हितको कुचलनेवाले है वे क्या कहे जा सकते हैं, यह हम नहीं जानते । अर्थात् जो अपना अहित विना दूसरोंके अहितपरायण हैं, उनके लिये क्या शब्द प्रयोग किया जाय, इस विषयमे शब्दकोप भी मौन है।
क्या इन पुरुषोंके लिये धर्मके राज्यमे कोई उपचार नहीं हो सकता ? क्या इनके लिये धर्मराज्यमें कोई अवकाश नहीं है ? नहीं,नहीं, ऐसा क्योंकर होसकता है । सर्वव्यापी, सर्वजीवहितकारी, करुणामय, उदार धर्मका चर-अचर जीवसृष्टिमें सवपर राज्य है। वह प्राणिमात्रके लिये श्रेयापथप्रदर्शक है और सबको अवकाश देनेवाला है। वह सङ्कचित कैसे किया जा सकता है ? इन पुरुपोंके लिये वह धर्म करुणामय सदाशिव रूप धारकर और उनके हृदयमे साक्षात् प्रवेश करके अपने त्रितापरूपी त्रिशूलसे इनके हृदयोंको विदीर्ण करता है तथा भाँति-भाँतिसे इनके हृदयों में क्रोधाग्नि प्रज्वलित करके कमसे कम उनको राक्षस-मनुष्यकी
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२०१]
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श्रेणीमें जा मिलाता है जहाँ यह निर्षियान दूसरोके हितको कुचलनेमें तत्पर रहते थे वहाँ वहन्धन अब इनको 'अपने हित के लिये परहितनाशक स्वभावमें बदल देता है । त्यागकी यह पहली भेट है जो उपर्युक्त 'सुखअभिलापी बैताल' वरवश अपने चरणोंमे रखा लेता है। अनेक प्राणी जो इस मार्गले निकले है इसकी सत्यतामे आपही दृष्टान्त है।
क्योंजी । त्यागकी पहली भेटसे वैतालको कुछ सन्तोप पतालके चरणों में स्याग | हुआ ? नहीं, बिल्कुल नहीं, इससे तो को द्वितीय भेट ___ उसके कानपर जूं भी न चली । यह भेट उसके पेटतक पहुँचना तो कहाँ ? टॉतभी न हिले, उसे तो बड़ी-बड़ी कुर्वानियाँ लेनी हैं। परन्तु हाँ! वैतालके सन्तोपके निमित्त सुईके अग्रभाग जितना जीव कुछ आगे तो हिला है।
आखिर इसे शनैः शनैः सब कुछ भेट चढ़वा लेना है। वैतालकी पहेली तो अभी ज्यूकी त्य खड़ी है । वैताल तो चाहता है सुख, और ऐसा सुख जिसका कभी क्षय न हो। सुनो तो ऐसे सुखका अधिकारी कौन है ? और आनन्दकन्द भगवानको प्रिय कौन है ? अपने श्रीमुखसे गीता अध्याय १२ मे मुक्तकण्ठसे वे क्या आना करते हैं ? वह भी तो सुन लो.___ अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ।। संतुष्टः सततं योगो यतात्मा दृढनिश्चयः । मव्यक्तिमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।। यस्मानोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः । होमर्पभयो
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आत्मविलास]
६.१०२ अनपेक्षः शुचिर्दच उदासीनो गतव्यथः ।। सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ यो न हृष्यति न दृष्टि न शोचति न झाङ्क्षति । शुभाशुभपरित्यगो भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ . समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदःखेषु संमः सङ्गविवर्जितः ॥ . तुल्यसिन्दास्तुतिमौनी संतुष्टो येन केनचिंच. . अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो. नरैः ।।
' (श्लो० १३ से १६ अर्थः-जो सब भूतोंमें कैपभावसे रहित, स्वार्थरहित सवका प्रेमी, हेतुरहित दयालु, ममता व, अहंकारसे रहित, सुख-दुःखमें समान और अपराध करनेवालोंको भी,अभय देनेवाला है, ऐसा क्षमावान् निरन्तर सन्तुष्ट तथा मन-इन्द्रियो को वशमें किये हुए जो मेरेमें दृढ़ निश्चयवाला है और जिसने मन-बुद्धि मेरेमें अर्पण कर दी हैं, ऐसा जो मेरा भक्त है-वह मुझे प्यारा है। जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो आप किसी भी जोक्से उद्वेगवान् नहीं होता तों जो हर्प, ईर्षा, भय एव, उद्धगसे रहित है, वह भक्त मेरा प्रिय है। जो पुरुप
आकाक्षारहित, पवित्र और चतुर है, उदासीन मावसे स्थित व दुःखोंसे छूटा हुआ है"और" कर्तव्यरूपसे "सव प्रारम्भोका त्यागी है, ऐसा जो मेरा भक्त है वह मेरा यारा हैगजोन हर्षवान होता है, न द्वेष करता है, न सोच करता है, न इच्छा करता है तथा जिसकी दृष्टिंस शुभ-अशुमकी भावना निवृत्त हो गई है. ऐमा भक्तिमान पुरुप मेरेको प्रिय है। जो शत्र-मित्रमे
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१०३ - ]
और मान-सम है, मरदी गरमी व सुख-दुःख में सम है, सर्व आसक्तियोंसे छूटा हुआ है, जो निन्दा स्तुतिमें समान, मननशील एवं जिस तिस तरह भी संतुष्ट है और स्थानादिकी ममता से रहित स्थिर बुद्धिवाला है, ऐसा भक्तिमान पुरुष मुक्कों, प्यारा है ।
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परन्तु यहाँ तो इसके विपरीत जोकके समान अपने स्वार्थ के लिये दूसरोंका रक्त चूसना है, अपने स्वार्थके' लिये दूसरों को पाँव तले कुचलना है और दूसरोंको पीछे धकेलकर श्रागे चढ़ना है ।
'मी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये '
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अर्थात् वे ये राक्षम मनुष्य है जो अपने स्वार्थके लिये दूसरोंके हितको नाश करते हैं । 'परन्तु स्मरण रहे प्रकृतिका यह अटल नियम है कि क्रियाकी प्रतिक्रियां तो फलं दिये बिना, कभी नष्ट हो ही नहीं सकती। जैसे भित्तिपर फेंककर मारा हुआ गैंद उलटकर मारनेवाले की ओर ही' आता है, ठीक इसी प्रकार रक्त घूसना तो रक्त चुसाये बिना, कुचलना तो कुचले जाने विना, धक्का देना तो धक्का खाये बिना पीछा कब 'छोड़ता है ? इन्द्रपुत्र जयन्तने भगवान् रामचन्द्रके प्रभावकी परीक्षाके लिये वनवास के समय सीताके 'चरणोंमे कांकरूप धारणकर चोंच मारी, जिससे कोमलाङ्गी - सीता के चरणोंसे रुधिरका प्रवाह चल पड़ा। भगवान् रामचन्द्रने उसके पीछे एक तृणका त्राण छोड़ा | चासे भयभीत होकर जयन्त दौड़ा, भगवान्के द्वारा फैंका हुआ वाएँ भी उसके पीछे चला । जयन्त "क्या श्रीकाश, क्या प्राताल, चौदह भुवनमे व्याकुल होकर घूम श्राया परन्तु उस बाणसे किसीने उसको अपनी शरणमें न लिया, पिता भी शरणमे न ले सका । अन्ततः वह लौटकर स्वयं भगवान्
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श्रामविलास ]
[१०४ की ही शरणमें गया और उन्होंने भी प्रतिक्रियारूपमें उसको एक ऑखसे विहीन करके ही अभय किया।
ओ। धक्का देकर आगे बढ़नेवाले ! देस, वह धर्मरूपी विष्णुका प्रतिक्रियारूप सुदर्शनचक तेरे पीछे-पीछे आ रहा है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमे इस सुदर्शनचक्रसे तेरी रक्षा करनेमें कोई समर्थ नहीं है । तुझको इसकी मार खानी ही पड़ेगी।
बद न बोले जेर गरदै गर कोई मेरी सुने ।
है यह गुम्बद की सदा जैसी कहे वैसी सुने । इस आकाशरूपी गुम्बदके नीचे जैसा चोलोगे लौटके येमा सुनना ही पडेगा । जिस प्रकारसे यह अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके पीछे पड़ा हुआ है, उस प्रकारसे तो आजतक किसीने भी स्वार्थ सिद्ध कर न पाया। परन्तु दुनिया है कि अन्धेवाली लकडी हॉकती ही नाती है, भेडकी चाल चले ही जाती है, एक भेड़ कूपमें गिरी कि सब उसके पीछे दनादन गिरती ही जाती हैं। ठीक, यही हाल इस दुनियाँका है। भाई। स्वार्थ पकड़े रहकर स्वार्थ वनानेके पीछे पड़े रहना, तो स्वार्थ बनानेका कोई मार्ग है ही नहीं। फिर तुम कैसे स्वार्थ सिद्ध कर जाओगे ? यह तो आकाशमे वगीचा लगानेके समान है। और तुम तो इससे भी आगे बढ़कर, दूसरोके स्वार्थको कुचलकर, अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके पीछे पड़े हुए हो। स्वार्थ वनानेका तो एकमात्र मार्ग यही है कि स्वार्थका परित्याग कर दो, स्वार्थ आप सिद्ध हो जायगा। जैसे जवतक तुम कमानको खीचे हुए हो, तीर कभी
को नहीं बेध सकेगा, बल्कि तुम्हारे पास ही रहेगा। लक्ष्य को भेदना चाहते हो तो कमानको ढीली छोड़ो, तभी तुम
बुग, खोटा। नीचे । ३ आकाश । ४ जो । ५मान्द ।
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[साधारण धर्म लक्ष्यको भेद सकोगे । ठीक, इसी प्रकार स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये भी स्वार्थकी तिलाञ्जलि देनी होगी, स्वार्थरूपी कमान ढीली छोड़नी पड़ेगी, तभी तुम सफलमनोरथ होगे । महाभारत के अन्तमें भगवान् वेदव्यासजीने कहा है:
ऊर्ध्ववाहविरौम्येष न च कश्चिच्छृणोत्ति माम् । धर्मादर्थश्वकामश्च स धर्मः किं न सेव्यते ।। अर्थात् 'मैं ऊँची भुजा उठाकर चिल्लाता हूँ, परन्तु मेरी कोई नहीं सुनता कि धर्मसे हो अर्थको तथा कामकी सिद्धि हो सकती है, ऐसा धर्म क्यों नहीं सेवन किया जाता ? परन्तु यहाँ तो मामला ही दूसराहो रहा है। यहाँ तो पिटने-पिटानेका बाजार गरम है, फिर वैतालके सन्तोपका क्या प्रश्न? मान लो, विजलीके चमत्कारके समान तुमने किसी क्षणके लिये स्वार्थ सिद्ध कर भी लिया, परन्तु दूसरोंके स्वार्थको कुचलकर जो स्वार्थ सिद्ध किया गया है, उसका प्रतिक्रियारूप विप तो तुमको चढ़े विना, रुलाये चिना, तपाये विना नहीं छोड़ने का । जरा सोचो तो सही, स्वार्थके लिये तो स्वार्थ नहीं चाहा जाता था, परन्तु स्वार्थके मूलमें जो धेय वस्तु थी (अर्थात सुख) वह तो उल्टा अगुली दिखाकर कोसों दूर जा छुपी, बल्कि सुखी होने के बजाय उल्टा दुःखका बीज बो लिया गया, रोगको बढ़ा लिया गया।
खैर जी! कुछ भी हो, वैवाल हाथ धोकर पीछे पड़ा है। हड़काये कुत्ते के समान इसने पीछा किया है और अपना भोजन लिये विना पीछा न छोड़ेगा। वैतालका भोजन है 'सच्चा सुख, 'शान्ति' । इसके बिना विषयसुखकी चटनीसे ही वातोंमें टालनेसे इसकी तृप्ति नहीं होने की। यदि तुम इसको इसका यह भोजन देनेकेलिये तैयार नहीं, तो कलेजेका रक्तपान करना तोकहीं
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आत्मविलास ]
[ १०६
गया ही नहीं । परन्तु स्मरण रहे कि इस रक्तपानसे भी इसकी भूख नहीं मिटने की, यह तो मुफ्तमे ही है। अपने भोजन की माँग' तो इसकी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही रहेगी। फिर मुफ्त में कलेजेका खन भी क्यों पिलाते हो? ऐसे अतिथिसत्कार के पीछे क्यों पडे हो ? 'बाँस भी खाए, मलाइ भी दी' वह हिसाब क्यों करते हो ।
लो जी ! वैतालको भोजन तो अभी क्या मिलना था ? परन्तु उसने तो कलेजेका खून जोकके समान चूस चूसकर बरवश त्यागकी दूसरी भेट अपने चरणोंमें रखवा हो ली । अर्थात् इसको पामर-कोटि से निकाल विषयी - कोटिमें और निषिद्धसकाम - कोटि से निकाल शुभ सकाम कोटि में प्रवेश कर ही दिया ! धन्य है । वैतालकी इस दयालुताको धन्य है ! इसको सच्ची पतित-पावनताको बारम्वार धन्य है ||
[२] विषयी-पुरुष
लक्षण
विपयी-पुरुष वे हैं जो संसारके भोगों तथा इन्द्रियों विपयी- पुरुषके के शब्द स्पर्शादि विषयोंमें रते हुए हैं। पार पुरुषोंसे भेद इतना ही है कि वे शास्त्रमर्यादा व लोकमर्यादाका उल्लघन करके भी विपयभोग भोगनेसे नहीं सकुचाते, परन्तु विपयी-पुरुषोंकी भोगप्रवृत्ति लोक व शास्त्रमर्यादा की हद्दमे रहकर होती है । यद्यपि भोग-कामनादृष्टिसे इनमे कोई विशेष अन्तर नहीं हुआ, बल्कि कामनामात्रको दृष्टिसे तो इनकी कामनाएँ अग्निमे घृतके समान कुछ वृद्धिको ही प्राप्त हुई है, ऐसा कहा जाय तो अनुचित नहीं । पामर पुरुषोंकी कामनाऍ इस लोकतक ही सीमित होती हैं, परन्तु इन्होंने तो इस लोकसे श्रागे चढ़कर आकाशव्यापी पारलौकिक स्वर्गादिकी कामनाओं पर भी हाथ मारना आरम्भ कर दिया है। इस प्रकार इस लोकके
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१०७ ]
[ साधारण धर्म
स्त्री, पुत्र, धन एवं मान, अर्थात् पुत्रैषणा, वित्तपणा, लोकपरणा व शास्त्रपणा इत्यादिका योगक्षेम ही इनके जीवनका लक्ष्य बन गया है तथा स्वर्गादिकी प्राप्ति ही इनकी अपनी दृष्टिसे परम पुरुपार्थका पर्यवसान है और यही मोक्ष है । यद्यपि इनकी कामनाएँ एक प्रकारसे लोक व शास्त्रकी मर्यादाके अन्तर्गत होती हैं, तथापि धनमद, मानमट व विद्यामद आदि का पिशाच इनकी
वाको दवाये ही रखता है और किसी प्रकार इनकी गर्दन उठने ही नही देता । सब एषणाओंके योगक्षेमके लिये अनेक साधन यज्ञ, दान, तपादिका संग्रह किया जाता है। भेद केवल इतना
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है कि पामर-पुरुषों की चेष्टाएँ जहाँ तमोगुणप्रधान होती हैं, वहॉ इनकी चेष्टाओं में रजोगुणकी प्रधानता होती है । जिनका लक्षण गीता श्र. १७ मे इस प्रकार किया गया है:
श्रभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् । इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञ विद्धि राजसम् ॥
(श्लो० १२)
अर्थ :- हे भरतश्रेष्ठ ! जो यज्ञ दम्भके लिये अथवा फल को उद्देश्य करके किया जाय, उस यज्ञको तू राजस जान ।
1
दम्मेन चैव यत् ।
सत्कारमान पूजार्थं तपो क्रियते तदिह प्रोक्तं गजसं चलमधु चम् ॥
(लोक० १८)
अर्थः- जो तप सत्कार, मान एवं पूजाके लिये और केवल
पाखण्डसे ही किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक फल
बालातप यहाँ राजस कहा गया है।
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आत्मविलास]
[ १०८ यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः। दोयते व परिक्लिष्टं तदानं राजसं स्मृतम् ।।
(लो. २१) अर्थ:-जो दान प्रत्युपकारके लिये अर्थात् बदलेमें सांसारिक कार्यसिद्ध करनेको आशासे, फलको उद्देश्य रखकर और लोशपूर्वक दिया जाता है वह राजस कहा गया है।
वर्तमानमे चन्दे-चिट्ट आदिका दान इसी कोटिमें समझना चाहिये। ऐसे पुरुषोंकी सव चेष्टाओं यज्ञ, दान, तपादि का फल केवल संसार ही है। इनमेसे जिन्होंने इस लोकसे आगे बढ़कर स्वर्गादि लोककी प्राप्ति अपना लक्ष्य बनाया है, वे इनकी अपेक्षा धन्य कहे जा सकते हैं। यद्यपि इन यज्ञ-दान-तपादिके द्वारा भावकी विलक्षणता करके अन्तःकरणकी निर्मलता सम्पादन की जा सकती थी, जिससे वास्तविक मोक्षका अधिकार प्राप्त हो सकता था। परन्तु सब कुछ करते हुए भो केवल भावकी हीनता करके वे इस अधिकारसे वञ्चित ही रह जाते हैं। भावका महत्व बड़ा आश्चर्यरूप है । शास्त्रैषणाकी पूर्तिके लिये इनमेंसे कई अपना तन, मन, धन तथा आयुका बड़ा भाग व्यय करते हैं, परन्तु उसका फल भी केवल संसार ही है। वैताल हसता है कि तम, मन, धन तथा जीवन सभी कुछ दिया गया, परन्तु मेरी पहेली तनिक भी न सुलझाई गई, किन्तु उल्टा पाण्डित्य-अहंकार को ही पुष्ट किया गया। विद्याका फल तो सच्ची शान्तिको प्राप्त करना ही था और अपने व सब भूतोंमे समान भावसे स्थित एक नित्य अविनाशी तत्त्वको ढूंढ निकालना ही था । यथा
सर्वभूतेषु येनेक भावमव्ययमीक्षते ।। अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि साविकम् ।।
(गी.अ.१८,२०,
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१०६ ]
[साधारण धर्म अर्थः-सब भिन्न-भिन्न भूतोंमें एक अभिन्न व अविनाशी भाव जिस ज्ञानके द्वारा इंढ निकाला जाय, वह ज्ञान सात्विक जानना चाहिये।
। परन्तु यहाँ तो इसके विपरीत इनके पाण्डित्याभिमानके सम्मुग्व कोई वस्तु ठहर ही नहीं सकती। मानो, वालाकि व श्वेतकेतुके समान मारे संसारको पराजय करनेका इन्होंने ठेका ही ले लिया है। इनमेसे कई संसारके उपदेशके लिये मैदानमें आते हैं, परन्तु अपने उपदेशके प्रभावसे सुख-शान्ति स्थापन करनेके स्थानपर अपने रजोगुणकी प्रबलतासे द्वेष व विरोध ही बढ़ाया जाता है और इस नन्दनकाननरूप संसारको श्मशानरूपमे ही बदल दिया जाता है। वर्तमानमे अनेक साम्प्रदायिक विरोध इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। ऐसे महाशय शाखोंके केवल भारवाही ही कहे जा सकते है। हॉ। पामर-पुरुषोंकी अशुभ कामनाओंका फल जहॉ नरकादि यमयातनाको भुगानेवाला था, वहाँ इनकी कामनाएँ अपेक्षाकृत शुभ है जिनका फल मृत्युलोक वा स्वर्गलोक की प्राप्ति है, परन्तु है अनित्य । पामर-पुरुष जहाँ अपने स्वार्थके लिये दूसरोंके स्वार्थको कुचलनेमें तत्पर रहते थे, वहाँ यह लोग जिस हद्दतक अपने स्वार्थका विरोध नहीं होता है, उस हहतक दूसरोंके स्वार्थसाधनमें भी उद्यमी रहते हैं । अर्थात् अपने स्वार्थ के लिये यद्यपि दूसरोंके स्वार्थको बो नहीं कुचला जाता है, तथापि दूसरोंके स्वार्थके सम्मुख अपने स्वार्थको मुख्य रखा जाता है। 'सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाऽविरोधेन ये।'
अर्थ यह कि सामान्य पुरुष वे हैं, जो अपने स्वार्थके अविरोधके साथ-साथ परार्थमे भी उद्यमी रहते हैं। प्राचार व व्यवहारकी दृष्टिसे भी इनमे अपेक्षाकृत पवित्रता दीख पड़ती है।
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[ ११०
श्रात्मविलाम]
प्यारे विपयप्रेमी ! वैतालकी पहेलीको सुलझानेके लिये विपी-पुरुषके साथ पर- | विषयमोगका सडकपर सरपट घोडा स्पर विचारोंका परिवर्तन | दौडानेवाले भोले महेश।। थोडा दम तया इहलौकिक पदार्थो | ले । आगे बढनेसे पहले तनिक लेग्यकसे में सुखका असम्भव भी तो परस्पर विचारोंका परिवर्तन करता जा । जिस सडकसे तुम तीन वेगसे ऑखें वन्द किये दौड़े जा रहे हो, जरा देखो तो सही, क्या वह तुमको तुम्हारे निर्दिष्ट स्थानकी ओर ले जा रही है वा नहीं ? तुमने अपनी दृष्टिसे सुख की जो अवधि मानी हुई है, वह नीचे लिग्य वचनांतक ही व्याप्त है ना। पहला सुख निरोगो काया, दूजा सुख घरमें हो माया। बोजा सुख पुत्र अधिकारी, चौथा सुख सुलक्षणो नारी॥ ___और अनेक प्रकारके सुख अर्थात् 'गोधन, गजधन, चाजिधन और रत्नधन ग्वानि' तो तुम्हारी इस मायासुखक अन्तर्गत ही आ जाते हैं।
अच्छा जी । अव यह बताओ कि इन चतुर्विध सुखों मेंसे तुम प्रत्येकको सुखरूप मानते हो? अथवा इनमेंसे किन्हीं दोके जोड़ेमें अथवा तीनमें वा चारोंके समुदाय में सुख मानते हो?
यदि किसी एकको सुखरूप माना जाय तो सबके अनुभव विरुद्ध है। क्योंकि इनमेंसे एक-एक सुख बहुतोंको प्राप्त है भी, परन्तु वे दुःखी ही देखनेमें आते हैं। यदि शरीरका सुख है और पुत्र, बो तथा मायाका सुख नहीं, तो भोगसाधन विना वह निरोग शरीर भी रोगरूप हो है। जिस प्रकार जठराग्नि तीव्र हो, परंतु अन्न न मिले तो वह उल्टा शरीरको ही भक्षण करती है । घर मै मायाका सुख है, किन्तु शरीर, पुत्र व स्त्रीका सुख नहीं, तो
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. १११]
[माधारण वर्म वह माया भी खानेको दौड़ती है, सुग्व नहीं देती। यदि पुत्रका सुख है, परन्तु शरीर, माया तथा स्त्रीका सुग्व नहीं, तब भी शेप पदार्थोकी इच्छा कलेजेको जलाती ही रहती है। और यदि स्त्रीका सुख है, परन्तु शरीर, धन व पुत्रका सुम्ब नही, तो वह प्राप्तमुख भी दुःखमे बदल जाता है। इस प्रकार चारोमेसे एक-एक पदार्थ तो कोई भी सुखरूप नहीं ठहरता।
लो जी ! एक-एक पदार्थ तो इनमें से कोई भी मुग्वरूप नहीं ठहरा दिखे, इनमेंसे किन्ही दोके जोड़ेमे ही सुख मिल जाय, परन्तु टोका जोड़ा भी सुख नही देता। अर्थात् शरीरसुख ब मायासुख है परन्तु स्त्री व पुत्रका मुख्य नहीं, तो शरीर व माया का सुख मुखाप नहीं रहता, बल्कि दुःखदाई हो जाता है क्योंकि भोगसाध्य-सामग्री विना साधन निष्फल है। शरीरसुख का भोग्य यदि स्त्रीसुख नहीं नो पुष्ट शरीरको देखकर जलना ही पड़ता है और मायासुखके भोगके लिये स्त्री-पुत्र नहीं तो वह माया भी पृथ्वीमें दवाये हुर मुरदेके समान है। यदि स्त्री व पुत्र का सुख है परन्तु शरीर व मायाका मुग्न नहीं, तो भोगके साधन शरीर व मायाके अभावसे वे भोग्यरूप स्त्री व पुत्र भी रोगरूप ठहरते हैं। यदि शरीर व स्त्रीका सुख है परन्तु माया व पुत्रका सुख नहीं, तो पति व पत्नी दोनों मिल-मिलकर रो-रोकर ही दिन निकालते हैं और आनेवाले बुढापे व मृत्युसे भयभीत होते हैं। यदि माया व पुत्रका सुख है परन्तु शरीर व स्त्रीका सुख नहीं, तब भी सुख कहॉ.? रोगी शरीर व कुटिला स्त्रीजन्य दुःख, मायासुख व पुत्रसुखको नीचे दवा देता है। सारांश, किसी प्रकार भी दो के जोड़ेमे सुख नहीं मिलता।
अच्छा जी! देखें,इनमेंसे किसी तीनके मेलमे ही सुख-शांति आ जाय । परन्तु हाय ! सुख-शान्ति तो फिर भी नहीं मिलती। शरीरसुख, मायासुख, पुत्रसुख, और स्त्रीसुख इनमेसे किसी
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[११२ ।
श्रामविलास ] एकका प्रभाव और उसकी प्राप्तिकी इच्छा ही शंप मय प्राम-सुखाको गॅदला व दुःखरूप बनानेमें पर्याम हे। अब यदि चारोंके समुदाय में ही सुख मानते हो, तो प्रथम चागे पदाथोंकी यथेच्छ प्राप्ति ईश्वरसृष्टिमे किसी एक-आध भाग्यवानको ही सुलभ हो सकती है। हर हर ॥ भूल होगई, भाग्यवान् नहीं, अभाग्यवान, हमारे मतमें तो विपयसुस भाग्यवानीके लनण ही नहीं बनते। जो मनुष्य अपना भव्य-भवन (आत्मस्वम्प) परित्याग करके उसके कूड़े-कचरे (भोग्य-विषय) पर ही अधिकार जमा पेठे, वह भाग्यवान् कहाँ ? जिनका कूड़े-कचरेपर ही अधिकार होता है वे तो कुछ और ही कहलाते हैं, हम तो स्वर्गपर्यन्त विषयसुखको भी नरकरूप ही जानते हैं। दूसरे, इन चारों प्रकारके सुखोंका कोई निश्चित परिमाण नहीं बन पड़ता। एक साधारण जमींदारको जो सुख प्राप्त है वह एक कृषीकारकी दृष्टिसे अलं रूप है, परन्तु उस जमींदारकी अपनी दृष्टिसे एक जागीरदारकी अपेक्षा वह अपना सुख तुच्छ ऊंचता है। जागीरदारके वरावरीके सुखोंकी इच्छा उसके मनको मसोसती रहती है और प्राप्त सुखोंको कटु बना देती है। इसी प्रकार राजाके सुखोंकी इच्छा, जागीरदारके प्राप्तसुखोंको दु खोंमें बदल देती है। महाराजाके सुखोंकी इच्छा, राजाके सुखोंको; महाराजाधिराजके सुखोंकी इच्छा, महाराजाके सुखों को, और इन्द्र के सुखोंकी इच्छा, महाराजाधिराजके सुखोंको दुःखरूप में बदल देनेके लिये काफी है। तीसरे, यदि इन्द्रके सुखों को ही अवधिरूप मान लिया जाय, फिर भी प्यारे! विषयजन्य सुखसे शान्ति कहाँ प्राप्त विपयोंसे हम प्यार उसी अवस्थामे कर सकते हैं, जब हम अपने प्रिय पदार्थोंमें सत्यत्व व स्थिरत्व बुद्धि जोड़ते हैं । अर्थात् जो पदाणे हमको प्राप्त हुआ था अब भी वह वही है, वही पुत्र, वही स्त्री और वही हम हैं इत्यादि । यदि इस प्रकार सत्य व स्थिरबुद्धि न हो, अर्थात्
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११३ ]
[ साधारण धर्म "देखत ही बिल लायगी ज्यू तारा प्रभात'
तव इस अस्थिरबुद्धि करके तो हम उन पदार्थोंमें आपा दे ही कैसे सकते हैं। परन्तु हाय ! पहले ही ठगे गये, यहाँ को मामला ही दूसरा है । तुम समझते हो हमारी प्रिय वस्तु वही है, परन्तु वस्तु वही रही नहीं। जिस क्षण तुमको प्राप्त हुई थी उससे दूसरे क्षणमे ही वह वो बदल गई, घोका दे गई, अर्थात नष्ट हो गई ! जिस प्रकार गंगाके जिस प्रवाहमें तुमने स्नान किया था, बाहर निकलकर तुम देखते हो कि प्रवाह वहा है। अरे ! यह तो तुम्हारा भ्रम है, वही प्रवाह कहाँ ? वह तो कोसों दूर निकल गया। अथवा सायंकालको तुम दीपक जलाकर सो जाते हो और प्रभात उठकर कहते हो कि 'दीपशिखा वही है । यह तो तुम्हारी भूल है, न वह तेल रहा, न वह वातीरही, फिर शिखा "वही - कहाँसे आई ? जिस क्षण तुमने दीपक जलाया था, उससे उत्तर प्रत्येक क्षणमे ही उस दीपशिखाके प्रवाह बदलते जा रहे हैं। ठीक, यही अवस्था तुम्हारे प्रिय पदार्थोंकी है। जिस पण तुम्हारा प्रिय पदार्थ तुमको प्राप्त हुआ था, उसी क्षण उसका प्रवाह तो मृत्युमुखकी ओर चल पड़ा, जिस प्रकार गंगाका प्रवाह चौत्र वेगसे समुद्रकी ओर दौड़ा जा रहा होता है । और इधर तुम उस पदार्थको वही समझके प्यार करते रहते हो। महान्
आश्चर्य ! कैसी भूल ! पदार्थोंको तुम भले ही प्यार करो, खूव भोगो, परन्तु बदलेमे तुम्हारा यह अज्ञान, यह भूल, यह भ्रम तुमको भोगे विना कब छोड़ सकता है ? हॅसीके बदले रुलाये बिना, शान्तिके बदले तपाये विना कैसे छुटकारा देगा ? बल्कि मच पूछो-दो हँसीके बदले रुलाये जाने और शान्तिके बदले सपाये जानेकी मात्रा कई गुणा अधिक है। मै अनाथ मारा गया'!'हाय ! मेरा सर्वस्व नष्ट हो गया !!' 'अरे मेरा कलेजा फट
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आत्मविलाम] गया परंतु तगर्न मिल्या नाम-मपनो में अपने प्रार फो उगा क्यों जाने दिया। नगं मत्वना पण गोपए की? एकमात्र मस्यता, जिमका परगागामपन्यथा, पा, माता तुमने मिथ्या माया पदाधम irgी? प्राधिर पा परमात्मा भी तो अपने निधारमा पठायो गन्न दान । नहीं देता। जिम पण मिया माधारी श्यामबन्नी गत्यना प्रदान की जाती है, उनी नगा या फलांगे पार-व्या भारम कर देता है और प्रापिर मानेनेने पिटी करीना इस विषयमे तो का याही गानम प्रकार गरि गयो "अपने प्रिय पदार्थ घोसने परें । तोरस, मार गि पढायाम तुमको छोड़ा तो दुपा दुप्चमे तो घटकारा फिी प्रकार की नहीं। यह तो सभी जानते है कि मुखी घडी एक पाया वरावर बीत जाती है और दुम्सी पी कार ममात लम्बी हो जाती है । मायाकी विचिन्न गति सिमफे प्रमावसे अमत्यमें सत्यबुद्धि, दुःपमें मुन्ननुद्धि या जाती है, अन्यथा विचारके सम्मुग्य तो किसी प्रकार भी यह विषय सुन्वरूप नहीं ठहरते । प्रथम तो इनका उपार्जन बड़ा नांगरूप, शरीर व मन को किसी प्रकार शान्ति नहीं देता, बल्कि जिन माधनांद्वारा यर उपार्जन किये जाते हैं ये तो उस लोक्मती क्या? परलोकम भी यमयातना मुगाये बिना नहीं छोड़ते। धनानि भूमौ परवश्व गोष्ठे मार्या गइद्वारि जनाः श्मशाने। देहश्चितायां परलोकमार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एकः॥
अर्थ. वन भूमिमे ही पड़ा रह जाता है, पशु पशुशालामें ही बंधे रह जाते हैं, स्त्री घरके द्वारपर ही साथ छोड़ देती है, वाँधव लोग श्मशानभूमितक ही साथ जाते हैं और शरीर चिता
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११५]
[साधारण धर्म तक ही साथ देता है, परन्तु कर्म के साथ बँधे हुए अकेले इस जीत्रको ही परलोकयात्रा करनी पड़ती है।
दूसरोंके स्वार्थको कुचलकर अपना स्वार्थ साधनेमें स्वभाविक ही चित कठोर हो जाता है और जैसा पीछे कहा जा चुका है, प्रकृतिका यह स्वभाविक नियम है कि जितनी-जितनी कठोरता होगी उतना-उतना लोहेके समान अग्निमें तपना और चोटोंका खाना जरूरी है। इस प्रकार इन विपयोंका उपार्जन तो दुःखरूप म्पष्ट ही है। दूसरे, इनके नाशमें तो दुःखकी सीमा ही क्या है ? तीमरे, इन पदार्थोंका मध्य रक्षाकाल भी नाशके भयसे दुःखसे असा हुआ है । प्रत्येक मनुष्य अपनी छातीपर हाथ रखकर अपने अनुभवसे इस विषयकी साक्षी देगा कि जितनी-जितनी वस्तु अधिक प्रय है उतना-उतना ही उससे अधिक भय है। जब कभी उसकी दृष्टि अपने प्रिय पदार्थ पर पड़ता है, अथवा उमका चिन्तन होता है उसी कालमें भयकी उत्पचि होती है। 'हाय ! यह मेरी प्यारी बत्तु मुझसे बिछड़ गई तो मैं क्या करूँगा, मेरी क्या गति होगी?' इत्यादि विचार उसके कलेजेको पकड़े ही रहते हैं। प्रकृतिका यह अटल नियम है कि 'अन्योऽसावन्योऽहमस्मि' अर्थात् वह और है मैं और हूँ, इस भेददृष्टिसे किसी भी पदार्थको ग्रहण करो, भयरूपी पिशाच तत्काल गर्दन दवा लेता है, चाहे उस पदार्थमे रागवुद्धि ही क्यों न हो। फिर द्वीपबुद्धिसे भय हो, इसमें तो आश्चर्य ही किया है.? जब, तुम अपनी परछाईमे ही भेदृष्टि करते हो तो वह तुम्हारी अपनी पारलॉई हो तुमको भयदायक हो जाती है तब इवर-पदार्थोसे मय हो, इसमे तो सन्देह ही क्या है ? सारांश, प्रकृतिको भेदष्टि किसी भी रूपसे स्वीकार है ही नहीं, द्वितीया भयं भवति' अर्थात् वैतभावमें भय निश्चय हैं। इस रीतिसे जहाँ द्वैतभावसे किसी प्रकार भी आसक्ति होती है, वहाँ भय अवश्य है, यथाः
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आत्मविलास ]
[ ११६
भोगे रोगभयं कुले च्युतिमयं वित्ते नृपालाद्भयम् । माने देन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाः भयम् ॥ शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम् । सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवामयम् ।। (भर्तृ शतक) अर्थ यह कि जहाँ पकड़ है, अधिकार है, कब्जा है, वहीं रगढ़-झगड है और भय ही भय है। भोगोंकी पकड़ में रोगका भय है। कुलकी पकड़ने च्युतिका भय है कि कुलकी मर्यादा भङ्ग न हो जाय । धनकी पकड़में राज्यका भय है। मानकी पकड़ में अर्थात् 'हमारा मान बना रहे' दीनतासे भय है कि हमको दीन न होना पड़े । वलकी पकड़में शत्रुसे भय है । रूप-सौन्दर्यमें बुढ़ापेसे भय है। शास्त्रकी पकड़में दूसरेसे वाद-विवादका भय है। गुणकी पकड़में दुष्टोंसे भय है कि वे हमारे गुणांको नष्ट न कर दें और शरीरकी पकड में मृत्युसे भय है । सारांश, पकड़से भय ही भय है, केवल छोड़, त्याग अर्थात् वैराग्य ही अभयरूप जो सब भयसे रहित है।
व तुमको अपने प्रिय पदार्थोंसे भय बना हुआ है, फिर उनके सम्बन्धसे सुख कहाँ ? भय व सुखका तो मेल कदापि वनता ही नहीं, जैसे रात व दिन कभी इकट्ठे नहीं रह सकते । इस प्रकार विषयोंका उपार्जन, रक्षा व नाश अर्थात् आदि, मध्य अन्य तीनों अवस्थाएँ ही सुखशून्य हैं और दुःखसे प्रसी हुई हैं।
धर्म अर्य अरु मोक्ष को, नारि विगार ऐन । सब अनर्थ को मूल लखि, तजे ताहि है चैन ॥१॥
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११७]
. [साधारण धर्म पुत्र मदा दुख देत , पिन प्राति दुख एक । गर्भ समय दुख, जन्म दुख, मेरे तो दुख अनेक ॥२१. तजि तिय पूत जो धन चहै, ताके मुख में धूर । धन जोरन, रक्षा करन, खरच, नास, दुख मूर ॥३॥
(विचारसागर ५ तरङ्ग) ___ यह तो तुम्हारे इस लोकसम्बन्धी विषयोंकी अवस्था स्वर्गसम्बन्धी भोग्य | निम्म्पण की गई । अव स्वर्गादि विषय विषयों में सुखका जिनको तुमने मोक्षरूप जाना हुआ है, उनकी असम्भव । अवस्था सुन लो। स्वर्गादि भोग्य पदार्थ भी परिच्छिन्न होनेसे अनित्य व नाशरूप तो अपने स्वभावसे ही हैं, इसलिये क्षय व अतिशय दोषोंसे प्रसे हुए हैं। जबकि अनित्य व क्षयरूप सिद्ध हुए तो जैसा अभी निरूपण हुआ है वे अपने आदि उपार्जनकालमें भी दुखरूप हैं और नाशकालमें तो दारुण दुःखरूप हैं ही। कर्मभोग की पूंजी समाप्त होते ही वहाँ एक क्षणके लिये भी ठहरनेका अवकाश नहीं मिलता, यथा:ते.तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशाल क्षीणे पुण्ये मत्यलोक विशन्ति । एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥
(गी. भ. ६ बलो. २१) अर्थः-वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं, इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मके शरण हुए और भोगों की कामनावाले मनुष्य बारम्बार आवागमनको प्राप्त होते हैं। __ अन्ततः वह स्वर्गसम्बन्धी भोग कालकी अवधिवाले हैं, फिर चाहे काल कितना ही दीर्घ क्यों न हो, नाशके भयसे
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आत्मविलास ]
[११८ वर्तमान भी भयसे खाली नहीं। साथ ही ये अतिशयटोपत भी दूपित हैं अर्थात् स्वर्गवामी जीवोंके भोग परस्पर समान नहीं, बल्कि न्यूनाधिक हैं। जिनके भोग अपनेसे न्यून है, उनको देखकर घमण्ड-भैरवके दर्शन होते हैं। जिनके भोग अपने वरापर हैं, उनको देखकर ईपी-भैरवी अपना रूप दिखाती है और जिनके भोग अपनेसे अधिक हैं, उनको देखकर हृदय जलता है। अरे । यहाँ तो घमण्ड, ईपी एवं ताप मभी सेवामें मौजूद हैं, फिर इस स्वर्गको नरक क्या न कहा जाय ? हर! हर !! ऐसे स्वर्गसुखको धिकार है।
यह बात तो स्पष्ट ही है कि जब जीव भोगकामना करके आतुर होता है, उस समय इन्द्रको इन्द्राणीसे, सूकरको सूकरीसे, इन्द्रको अमृतपानसे तथा सूकरको विष्ठासे समान सुख है, कोई विलक्षणता नहीं। बल्कि मूकरको तो पनी योनिरचित विष्ठा व सूकरी ही सुग्बी कर सकते हैं, अमृत घ इन्द्राणी कदापि सुखी नहीं कर सकते और वेग दूर होनेके पीछे न इन्द्राणी ही सुख देती है, न अमत ही। वास्तवमै यदि विचारदृष्टिसे देखा जाय तो विपयोमें कभी भी सुग्व नहीं, जैसा पीछे (पृ ७४ से २२पर) इस विपयको स्पष्ट किया जा चुका है, सुख केवल हृदयको इच्छासे खालो करनेमे है। इन विषयसुखों की ठीक अवस्था वही है जैसे जब तुमको मल-मूत्रत्यागकी शङ्का होती है, तब तुम अपने आपको उस शङ्काके वेगसे चन्चल पाते हो और उस वेगकी निवृत्तिसे अपने आपको स्वस्थ व शान्त अनुभव करते हो। ठीक, यही अवस्था विपयजन्य सुखोंकी है, चाहे वे इस लोकसम्बन्धी हो चाहे स्वर्गसम्बन्धी । विपयों ने वास्तवमें तुमको सुखी नहीं किया, सुख तुमको, मिला है केवल तुम्हारे वेगकी, निवृत्तिद्वारा तुम्हारे अन्तःकरणकी स्थिरता में विषयोंमे सुखबुद्धि केवल भ्रान्ति है। यदि विषयोंमें ही सुख
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११६]
[साधारण धर्म होता तो तुम्हारे चेगके प्रभावकालमें भी उनसे तुमको सुख मिलना चाहिये था, परन्तु ऐसा तो नहीं होता। जिस कालमें तुधा निवृत्त हो जाती है और उदर पूर्ण हो जाता है, उस समय नुमको यदि थोड़ा भी मधुर भोजन दिया जाय तो तुम अर्ववाहु होकर चिल्लाने हो "नहीं, अब एक प्रासका भी अवकाश नहीं चाहे अमृत भी क्यों न हो।" ___अच्छा अब यदि तुमको यह शंका हो कि वास्तवमें स्वर्ग-मुख ऐसे ही तुच्छ हैं तो वेदने उनकी इतनी प्रशंसा क्यों की ? इमका समाधान ग्रह कि वेद के वचन, जो स्वर्गादि मुखों की महिमा में हैं, अर्थवादरूप हैं। वास्तवमे वेद का तात्पर्य उनकी महिमा में नहीं, किन्तु 'गुड-जिहान्याय से उनके छुड़ानमें ही है। जैसे एक बालक प्रथम मदरसेमें पढ़ने जाता है, तब उस्ताद उसको श्रारम्भमें प्रथम अक्षर 'अलिफ' सिखाता है। परन्तु बालक अभ्यास न होनेके कारण 'अलिफ के स्थान पर 'अफल' वोलता है। दो-चार बार बोलकर जब उस्ताद देखता है कि इसकी जिहा नहीं खुलती है. तब उस्ताद भी उसके साथ-साथ 'अफल' ही बोलने लगता है और इस प्रकार 'असल' वोलतेबोलते उस बालकसे 'अलिफ' कहला लेता है। ठीक, इसी प्रकार वेदरूपी गुरु भी जब देखता है कि विषयी पुरुष जो विपयोंमें रमे हुए हैं भोगोंको छोड़नेमें असमर्थ है तो उनको स्वर्गके विपयांकी महिमा पुष्पिन-वाणीसे कहने लगता है। परन्तु वास्तवमें उसका आशय स्वर्गके विपयोंमें फंसाये रखनेके लिये नहीं है, किन्तु इस लोकके विषयोंसे उपराग करानेमें ही है। इस प्रकार स्वर्ग सुखोंको 'श्रफल' (फलरहित, निस्सार) कहकर 'लिक' (एक अद्वत) में लेजानेमें ही उसका मुख्य तात्पर्य है। इस विषयमें गीता अध्याय २ श्लोक ४२से. ४४ साक्षात् भगवान्के वचन ही लेखक साक्षीमें पेश करता है।
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आत्मविलास ]
[ १२० यामिमां पुप्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तोति वादिनः ॥ कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्नदाम् । क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ॥ भोगैश्वर्यप्रसक्तानां वयापहतचेतसाम् । व्यवसायात्मिका वुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।
अर्थ:-हे अर्जुन ! जो अज्ञानी फलश्रुतिम हो प्रीति रखनेवाले, कामनापरायण, 'इससे बढ़कर और कुछ है ही नहीं ऐमा कहनेवाले हैं। वे स्वर्गके भोगपरायण पुरुप जन्मरूप कर्मफलको देनेवाली और भोग ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुत-सी क्रियाओंके विस्तारवाली जिस दिसाऊ शोभायुक्त वाणी को कहते हैं, उस वाणीद्वारा हरे हुए चित्तवाले तथा भोगऐश्वर्यमे आसक्तिचाले उन पुरुपोके अन्तःकरणमे निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है । अर्थात् स्वर्ग-सुखोंकी महिमा वर्णन करनेवाली पुष्पित-वाणी वेदका अर्थवाद वचन है यथार्थ नहीं, वह अनानियोंका वचन है, ज्ञानियोंका नहीं और उसका फल जन्म व भोग है, मोक्ष नहीं।
पतिव्रता स्त्रीकी भॉति वह परमात्मदेव आपका प्रेम अपने सिवाय अन्य किसी पदार्थपर सौकनके समान सहन नहीं कर सकता। 'सह न सकदी मैं सौकन वरण झांजर ढा झंकार नी'
अर्थात् मैं ही एक अकेली उसकी प्यारी होना चाहती हूँ, उसकी दूसरी स्त्री (सौकन) देखना मैं स्वीकार नहीं कर सकती और न किसी सौकनके झॉजरोंकी झंकार सुनना सहन कर
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१२१] ।
[साधारण धर्म सकती हूँ। एक परमात्माके सिवाय किसी पदार्थमे चित्त दिया कि अग्निके स्पर्शके समान तत्काल छाला उठा देता है। सारांश, त्यागरूपी शिव-शम्भूने अपने हाथमें त्रितापरूपी त्रिशूल धारण किया हुआ है, अपनेसे विमुखी रागी-जीवोंके हृदयों को वह विदीर्ण किये बिना नहीं छोड़ता। तीन लोक, चौदह भुवन, सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें प्राणीमात्र पर इस महेशका अधिकार है और अपने अनुसारी जीवोंके लिये वह सब कुछ न्यौछावर करनेके लिये हाजिर है। यहॉतक कि साक्षात् अपनी शिवाशक्ति भी उनको सोंप देता है, जोकि उनके अधीन रहकर उनकी सेवा करती रहती है।
पीछे हटो ! अपने घोड़ेकी वागडोर मोड़ो। तुम प्रारम्भ में ही भूल कर आए हो। जिस सड़कसे तुम जा रहे हो, वह तुमको तुम्हारे निर्दिष्ट स्थान (सच्चे सुख) की ओर लेजानेवाली नहीं है। इस मार्गसे चलकर तुम वैतालकी पहेलीको नहीं सुलझा सकते । इससे हमारा यह आशय नहीं कि तुम अभी हमारी तरहसे सर्वत्यागी हो जाओ, परन्तु केवल विषयसुख ही जिसे तुमने अपने जीवनका धेय बनाया है और जिसकी पूर्विमें 'आसुप्तेरामृते' अर्थात् जागनेसे सोनेतक और जन्मसे मरणपर्यन्त तुम लगे हुए हो, यह तुम्हारी भारी भूल है, भोगरूपी कॉचके बदले मनुष्यजन्मरूप चिन्तामणिको हार चैठना है
और मोक्षद्वारमें प्रवेशकर गिर पड़ना है । इस प्रकार तुम' कमी सफलमनोरथ नहीं होने के, दुःखसे छूटने और सुख पानेका यह मार्ग नहीं। इसलिये कमसे कम अपने जीवनका लक्ष्य ठीक-ठीक निश्चित करो। जव तुम्हारा लक्ष्य निश्चितरूपसे कायम हो जायगा, तव अवश्य तुम्हारी गतिमे काफी परिवर्तन होगा।
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आत्मविलास ]
। १२२ युधिष्ठिरने राजसूय-यज्ञकी रचना की, जिसमे भगवान् श्रीकृष्ण सुखस्वरूपी वैताल ने अतिथियोंके पादप्रक्षालन और जूठन उठाने के चरणों में स्पा की सेवाका भार स्वयं अपने ऊपर लिया था। की तीसरी भेंट धन्य है । प्रभुके इस आतिथ्यको धन्य है ! फिर जो प्रेमीभक्त आत्मसमर्पण करके उनके द्वारपर अतिथि दनकर आयेगे, उनके लिये तो वे क्या कुछ नहीं करेंगे। अतिथिसेवामें वे प्रमाणपत्र तो प्राप्त कर ही चुके हैं, सनद्याफ्ता तो हैं ही। इधर ये मजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् अथोत् जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं वे मेरे में हैं और मैं उनमें हूँ, यह अपना प्रतिज्ञापत्र भी वे प्रकाशित कर चुके हैं, जो उस कालमें भी मिथ्या नहीं हो सकता जब अग्निकी ज्वाला नीचे की ओर और जलका प्रवाह परकी ओर बहने लग पड़े। कलियुग आदि तो इसको मिथ्या सिद्ध कर ही क्या सकते हैं ? कलियुगके भक्त पड़े कहा करें, आज-कल जमाना ऐसा है वैसा है इत्यादि । भले ही वे कलियुगके गीत गाया करे और अन्धकारमे पड़े घोर निद्रा में खराटे मारा करें, परन्तु भैया ! जिनके सिरपर सफर सवार है उनको निद्राये क्या प्रयोजन ? चलनेवाले तो अपना सफर पूरा कर ही जायेंगे और कलियुगको भी सत्युगमे बदल देंगे । युधिष्ठिरकी उस समाकी रचना ऐसी विचित्रतासे की गई थी कि जहाँ धर्मदृष्टिसे जल प्रतीत होता था, वास्तवमें वहाँ भीत होती थी और जहाँ चर्मचनुका विष्य भीत होती थी, वहाँ वास्तवमें जल होता था। दुर्योधन इस यज्ञशालाको देखने गया तो वह चर्मचक्षुका अभ्यासी होने के कारण, जहाँ भीत देखता था वहाँ धमसे पानीमे गिर पड़ता था और वन गीले हो जाते थे। जहाँ पानी देखकर कपड़े उठाकर चलता था, वहाँ पडाकसे भीतसे उसका सिर टकरा
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१२३ ]
[ साधारण धर्म जाता था। द्रौपदी और पाण्डव ऊपर बैठे देखकर हँसे कि अच्छा अन्धेके अन्धा पैदा हुआ। दुर्योधनको बड़ी लज्जा आई
और वह अपने घरको लौट गया। ठीक, यही अवस्था इस संसाररूपी यज्ञशालाकी है जो मायापतिने अपनी माया से अपने विनोदके लिये रची है। बहिर्मुखी जीवरूप-दुर्योधनः इसको सत्य जान, सुखमे दुःख और दुःखमें सुख-बुद्धिकी विपरीत भावनासे कहीं धमसे गिरता हुआ और कहीं पड़ाक से सिर फुड़ावा हुआ लज्जित होकर अन्ततः अपने घरको ओर लौटनेकी सोचता है। प्रकृतिका ऐसा ही कठोर नियम है, यह चोटें लगा-लगाकर अपने सीधे मागेपर लाये बिना किसीको नहीं छोड़ती। जो पदार्थ श्वेत माखनके पेड़ेके समान चिकने दिखलाई देते हैं, वास्तवमे कलई (चूने) के गोले निकलते हैं जो खानेवालेकी अंतड़ियोंको फाड़े विना नहीं रहते । हमारा विषयप्रेमी भी उपर्युक्त प्राकृतिक नियमके अनुसार प्यास बुझाने के लिये मृगतृष्णाके जलके पीछे दौड़-दौड़कर कमर तो तोड़ . ही चुका था, परन्तु प्यास तो उल्टी अधिकाधिक बढ़ती ही जाती थी । इधर उपर्युक्त परस्पर विचारोंके परिवर्तनने सोनेपर सुहागेका काम दिया, इन वचनोंसे उसे विश्राम मिला, सुखेच्छु वैतालने इसके घोड़ेकी बागडोर उल्टी मोड़ दी और उसने त्यागकी तीसरी भेट इस रूपमे अपने चरणोंपर रखवाली कि जहाँ वह अपने स्वार्थके अविरोधके साथ-साथ, अर्थात् जिंस हद्द तक उसके स्वार्थमें बाधा न हो उस हदतक, यानि अपने स्वार्थ को मुख्य रखकर दूसरोंके स्गर्थसाधनमे उद्यमी रहता था, उसकी बजाय अव दूसरोंके स्वार्थोंको उसी दृष्टिसे देखने लगा जिस दृष्टिसे वह अपने निजी स्वार्थोंको देखता था। साथ ही जहाँ उसके समी इहलौकिक व पारलौकिक कर्म कामनापूर्ण होते थे, वहाँ पारलौकिक नित्य नैमित्तक कर्म निष्कामभाव
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[१२४
आत्मविलास ] से आचरणमे आने लगे । यही वास्तवमें शुभ-सकाम-कर्मकी अवधि है और यही परमार्थरूपी वृक्षका बीज है। विचारसागरके रचियता भीस्वामी निश्चलदासजीने कारको नामम्प से उपासनाका प्रकार वर्णन करके कैना उत्तम कहा है ? -- जो यह निर्गुण ध्यान न है तो,
सगुण ईश कार मनको धाम ॥ । सगुण उपासन हूँ नहीं है तो
करि निष्काम कर्म भज राम ॥ जो निष्काम कर्म ह नहीं होते.
तो करिये शुभ कर्म सकाम ॥ जो सकाम कर्म हू नहीं होने,
तो शठ बार बार मरि जाम ॥ अर्थात् शुभ-सकाम-कर्मके प्रवाहमें पड़ा हुआ भी यह जीव क्रम-क्रमसे ऊँचा उठता हुआ ब्रह्मरूपी समुद्रमें मिल जाने का जुम्मेवार है। यदि कमसे कम इतना भी मनुष्य न कर सके तो जीवन निष्फल ही है।
'दूसरोंके स्वार्थको उसी दृष्टिसे देखना जिस दृष्टिसे त्यागकी तीसरी भेटका | अपने स्वार्थको देखा जाय' इसका भावार्थ और उसका तात्पर्य यह है कि अपने संसर्गमें आनेफल।
वालोंके स्वार्थोंका उतना ही ध्यान रखा जाय, जितना अपने निजी स्वार्थोंका रखा जाता है। अर्थात् यदि आप व्यापारी हैं तो अपने ग्राहकोंके स्वार्थीका, आप वैद्य हैं तो अपने रोगियोंके स्वार्थोंका, आप वकील हैं तो अपने मवकिलोंके स्वार्थोंका, आप दलाल है तो अपने दुकानदारोंके स्वार्थोंका, आप जागीरदार हैं तो अपने पिकारोंके स्वार्थोंका, आप
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१२५ ]
[ साधारण धर्म हाकिम हैं तो अपने महकमो स्वाथोंका, आप राजा हैं तो अपनी प्रजाके स्वार्थोका उतना ही ध्यान रखे, जितना आप अपने निजी स्वार्थीका ध्यान रखते हैं। परस्पर आपके और उन के स्वाकी एकता विना किसी भेदभाव स्थिर होनी चाहिये । Fष्टांत स्थलपर इस विषयको यूं समझा जा सकता है कि 'हाथ' यदि यह विचार करे कि 'अपने परिश्रमसे कमाई तो मैं कर और समन शरीर मेरी कमाईका भागी वन जाय, ऐसा क्यों हो? मैं तो अपनी कमाईसे अपने आपको ही पुष्ट करुंगा' तो ऐसी अवस्थामै 'हाथ' के लिये अपने विचारो को सिद्ध करनेका एकमात्र साधन यही होगा कि वह अपना भोजन पेटको न देकर और छरीसे चीरकर अपने भीतर प्रवेश करले । इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं बन पडता "जिससे उसका मनोरथ लिद्ध हो सके ! परन्तु क्या इस युक्तिसे हाथ पुष्ट हो जायगा ? हरगिज नहीं। यह तो मोटाई नहीं, सूजन है; यह तो पुष्टि नहीं, उल्टा रोग है। मोटा होनेके लिये एकमात्र साधन हाथके लिये यही है कि वह अपना भोजन पेट को दे और पेट उसको पचाकर उसका रस शरीरके सब अड्डोमे समान भागमे पहुँचा दे और सब अौकी पुष्टिके साथसाथ हाथ भी पुष्ट होजाय । इसके सिवाय और कोई उपाय उसके लिये अपने मनोरथको सिद्धिके निमित्त नहीं वन पड़ता। इसी प्रकार अपने संसर्गियोंके खार्थोंको बनाकर ही आप अपना स्वार्थ बना सकते हैं। इस टिपर पहुंचते हो जहाँ आप अपने संसर्गमें पानेवालोंका स्वार्थ सिद्ध करनेमें तत्पर हांगे, वहाँ आपका अपना स्वार्थ तो विना किसी बाधाके और * विना कष्टके अपने-बाप सिद्ध हो जायगा, । प्रकृतिका ऐसा ही सुन्दर नियम है। पामरपुरुष जहाँ दूसरोंके स्वार्थोकी कॉटलॉट करके, अपने तन-मनकी आहुति देकर एच इस लोक तथा
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श्रामविलास ]
[१२६ परलोकके सुखोंको वेचकर भी अपना स्वाव मिद्ध न कर पाते थे,वहाँ यह महाशय अनायास ही अपने स्वार्थोंको सिद्ध कर जाते हैं। साथ ही यह संसारके लिये सन्तोपम्प और अपने इस लोक व परलोकके लिये शान्तरूप ठहरते हैं। कैसा आश्चर्यरूप श्राकाश-पाताल जैसा अन्तर है।
जिस प्रकार कुटिला व इच्छाचारिणी ली जब अपने पति की आत्राविरुद्ध मनमानी चेष्टाओमे प्रवृत्त होती है, तब पति उसके लिये विकरालरूप धारकर उसके दारण दुःखका हेतु होता है और पतिद्वारा प्राप्त की हुई वेदनाको न सहकर जब यह अवला पतिके अनुकूल वर्तने लगती है, तब वही पति उसके लिये परम प्रेमका हेतु हो जाता है। ठीक, इसी प्रकार प्राकृतिक नीतिके साथ जीवका पति-पत्निके समान घनिष्ठ सम्बन्ध है । पामर जीव जो नीतिके विरुद्ध मनमुखी रहकर इच्छाचारी रहते हैं, उनके लिये प्रकृति भैरवरूप धारकर अपने त्रितापरूपी त्रिशूलसे उनके हृदयोंको विदीर्ण करती रहती है। उस समय वे चोटे ही जीवको नीचेसे ऊपर उठानेमें सहकारी होती हैं और जब जीव उन चोटोंको न सहकर कमसे उपर्युक्त नीतिके अनुसारी होता हुआ शुमसकाम-भावकी उपयुक्त अवस्था पर पहुँचकर नीति के अनुकूल बन जाता है तब वही नीति उस जीवके लिये भैरवरूप त्यागकर सुन्दर चित्त-चोर अपनी घॉकी छविसे मनको हरनेवाली कन्हैयाकी मॉकीके रूपमें दर्शन देती है, अर्थात् परम प्रेमका हेतु हो जाती है। नीचेकी अवस्थाओंमे हृदयकी दारुण वेदना ही जीवको क्रम-क्रमसे ऊँचा उठानेमें हेतु रही है और त्यागकी भेंट वैतालके चरणों पर रखवाती रही है, परन्तु उसको बजाय इस अवस्थापर पहुँचकर जीवके हृदयमे जो यत्किञ्चित आनन्दकी लहर उत्पन्न होने लगी वह आनन्दकी चटक ही अब इत्तको श्रेयपथ में
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१२७ ]
[ साधारण धर्म
अग्रसर करनेमे उतावली होने लगी। इस प्रकार आनन्दकी घटक व इस जीवको इम अवस्थापर भी बहुत काल टिकने न दिया और इसे शुभ सकाम भाव से निकालकर निष्काम भाव में तथा विपयी कोटिसे निकालकर जिज्ञासु कोटिमें इसका डेरा जा लगाया और त्यागकी चोथी भेट वैतालके चरणोंमें रखवादी । त्यागकी भेटे पूर्व अवस्थामे वरवश उसको रखनी पड़ती थीं, परन्तु अब वे वैतालपर न्यौछावर करके अपने उत्साह व प्रेमसे रखी जाने लगीं ।
[३] निष्काम कर्म जिज्ञासु
त्यागकी चतुर्थ भेटका आशय यह है कि जहाँ शुभ चतुर्थ भेट और निष्काम | सकामभावकी अवस्था में अपने और जिज्ञासुका स्वरूप 1 अपने संसर्गमे आनेवालोंके स्वार्थीको समान भाव से देखा जाता था, वहाँ इस व्यवस्थापर पहुॅचकर जिज्ञासुका अपना निजी व्यक्तिगत संसारसम्बन्धी कोई स्वार्थ ही शेष नहीं रहता । उसकी दृष्टि व्यापक होगई है अव वह घरबार, कुटुम्ब परिवार, शरीरतकको भी अपने व्यक्तिगत नावेसे महरा नहीं करना, किन्तु अपने संसर्ग में आनेवाले समस्व पदार्थों को केवल ईश्वरके नातेसे ग्रहण करता है । पूर्व अवस्थामें कुटुम्ब परिवार आदि समस्त पदार्थ 'यह मेरे शरीर के सम्बन्धी हैं और मेरे हैं। इस भाव से ग्रहण होते थे । अव वही पढार्थ 'यह सब मेरे ईश्वरके हैं और मैं भी उसीका हॅू क्योंकि यह मेरे ईश्वरके है इसलिये मेरे हैं। इस भावसे ग्रहण होते हैं। जिस प्रकार एक गोपाल अपने स्वामीकी गौवोंके प्रति ममत्वका सम्बन्ध जोड़ता है। जब वह जंगलमें गौवाको चराने जाता है, अपने अधिकार में पाई हुई गौवोंकी सेवाके निमित्त दूसरे गोपालोंसे झगड़ा भी ठानता है, 'तूने मेरी यौको लाठी क्यों
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'
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श्रात्मविलास ]
[ १२८
मारी १ तेरी गौने मेरी गौको मींग क्यों मार दिया ? इत्यादि शब्दों के व्यवहार का प्रयोग करते हुए भी चित्तसे वह उनसे अपना ममत्व नहीं मानता। उनके प्रति अपना काल्पनिक ममत्व जोड़ते हुए भी वास्तवमे चिनले प्रपने स्वामीका ही ममत्व स्थिर रखता है और इन प्रकार गोपालन व्यवहारके द्वारा भी वास्तवमे वह स्वामीकी सेवा ही करना होता है। ठीक यही भाव इस भावुकका 'ममत्व' शब्द से अपने अधिकार में पाये हुए पदार्थों के प्रति चित्तसे दृढ़ होता है । यद्यपि उसके द्वारा धनोपार्लन, कुटुम्न सेवा, जाति- सेवा, देश-सेवा उत्यादि अनेक चेष्टाएँ प्रकट होती हैं, परन्तु उन सब चेाश्रांद्वारा वास्तवने वह ईश्वरसेवा ही करता होता है । सकामी पुरुषोकी बुद्धि भिन्न-भिन्न चेष्टाश्रमे भिन्न-भिन्न लक्ष्यको धारण करनेवाली होती थी, कभी धनमे सुख दूँढने लगे तो कमी पुत्रमे, कभी खोमे सुख हूँ ढा तो कभी मानमे, कभी बाग वगीचे, घोड़े-गाड़ीमे मुख बटोरने लगे तो कभी राज्यसन्मानमें। इस प्रकार उनकी बुद्धि बहुशाखावाली बनकर 'तवेसे उतरे तो चूल्हेमे गिरे का मामला वन रहा था। परन्तु इस अवस्था पर पहुँचकर इस निष्कामीकी बुद्धिका लक्ष्य अपनी सब चेाचद्वारा एकमात्र ईश्वरसेवा व ईश्वरप्राप्ति ही घना रहता है और इपीको व्यवसायात्मिका बुद्धि कहते हैं:
यथाः
व्यवसायात्मिका
बहुशाखा धनन्ताश्च
बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥
गी, २ श्री ४१०
अर्थः- हे अर्जुन इस कल्याण मार्ग में निश्चयात्मिकाबुद्धि एक ही है और अनिश्चित सकामी-पुरुषोंकी बुद्धियाँ बहुत भेदोंवाली एवं अनन्त होती हैं।
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१२६ ]
[ साधारण धर्म
भावका महत्व
जहॉ क्रिया चेष्टा है वहाँ रजोगुणका होना स्वभाविक है, रजोगुणके बिना किसी प्रकारका हिलन चलन ही असम्भव है । यद्यपि इस अवस्थामें क्रिया व चेष्टाएँ किसी प्रकार घटाई नहीं जाती, बल्कि चेष्टाओं में वृद्धि ही देखने आती है; तथापि भात्रको विलक्षणताद्वारा वे सब रूप बन जाती हैं और रजोगुणकी अपेक्षा सत्त्वगुणप्रधान होती हैं तथा वन्धनका हेतु न रहकर मोक्षका हेतु होती हैं । भावका ऐसा ही रूप महत्व है। कर्म यद्यपि अपने स्वरूपसे सदोष है चाहे शुभ हो या अशुभ, क्योंकि वह पुण्यपापरूप संस्कारद्वारा अपना सुख-दुःख फल भुगाने के लिये कर्ता को वरवश शरीररूपो कारागारमें बन्धन करता है । ययाः
त्याज्यं दोपवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ॥ गी. . १८, २
अर्थात् कई एक विद्धान् ऐसा कहते हैं कि सभी कर्म सदोष हैं, इसलिये वे त्यागने योग्य हैं। तथापि कर्म अपने स्वरूप से जड़ है, जड़ वस्तु जीवको वन्धन करनेकी सामर्थ्य नहीं । साथ ही प्रकृतिका यह नियम है कि बाहरके कोई पदार्थ धन, पुत्र, स्त्री आदि अपने स्वरूपसे जीवको बन्धन नहीं कर सकते, केवल अपना आसक्ति व ममतारूप भाव ही अपने वन्धनका हेतु होता है। वास्तव मे धनादिक पदार्थ वन्धनरूप नहीं, बल्कि इन पदार्थोंके साथ अपना ममत्वभाव ही अपने को बन्धन करता है । जो वस्तु (अर्थात् जीव ) बन्धनके योग्य है उलका बन्धन के साथ संयोग सम्वन्ध आवश्यक है, इसलिये वन्धनका भी वहीं होना जरूरी है जहॉ बन्धनयोग्य वस्तु है । बन्धनयोग्य जीव अन्तर है पदार्थ व कर्म वाह्य हैं, जीव चेतन है पदार्थ व कर्म जड़ हैं । इसलिये जड़ तथा बाह्य पदार्थ चेतन तथा अन्त:स्थित जीवको किसी प्रकार बन्धनको सामर्थ्य नहीं रखते । '
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आत्मविलास]
[ १३० किन्तु अन्त स्थित जो काकी बुद्धिका भाष जिसके द्वारा कर्ताका कर्म व पदार्थसे सम्बन्ध है, उस अपने भावद्वारा ही जीवको वाह्य पदार्थोंसे वन्धन है। श्रासक्तिरूप व अनासक्तिरूप वह भाव ही जीवके वन्ध व मोक्षका हेतु होता है। अर्थात् जिन पुरुषोकी इन वाह्य पदार्थाम
आसक्ति है वे अपने भावद्वारा इन पदार्थोंसे बन्धायमान होते हैं, परन्तु जिन पुरुपोंकी इन पदार्थोंमें आसक्ति नहीं वे अपने अनासक्त भाषद्वारा इनसे वधायमान न होकर मोक्षके अधिकारी होते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि अपना भाव ही अपने बन्ध व मोक्षका हेतु है, बाह्य पदार्थ व जड़ कम वन्ध-मोक्षका हेतु नहीं। इसीलिये कहा गया है:'अात्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः' (गी. अ.६, ५) ___अर्थात् अपना-पापा ही अपना मित्र है और अपना-आपा ही अपना शत्रु । वाहरके कोई पदार्थ हमारे शत्रु वा मित्र नहीं हो सकते, अपने भावको परिवर्तन करके शत्रुको मित्र और मित्र को शत्रु बनाया जा सकता है। इतना ही नहीं, बल्कि यह अनहुआ अनादि-ब्रह्माण्ड केवल अपने कतत्व-भावके प्रभाव करके ही अपने सम्मुख खड़ा कर लिया गया है, जिसने 'मैं और हूँ वह और है' की भेद भावना करके नाकमे दम कर दिया है। परन्तु जब यह शिव-शम्भू अपना ज्ञानरूपी तृतीय नेत्र खोलकर 'सव मैं ही हूँ' की अभेद-भावना करके सब कामनाओंको भस्म कर देता है, तव यह दुःखरूप संसार भी नित्यानन्दरूपमे वदल दिया जाता है । भावराज्यका ऐसा ही विलक्षण महत्व है।
इससे सिद्ध हुआ कि कर्ताकी बुद्धिका भाव ही उसके बन्ध धन्ध व मोक्षहेतुक तथा मोक्षका हेतु होता है, जड़ कर्म बन्धभावका स्वरूप | मोक्षका हेतु नहीं। अब देखना यह है कि
भाव किस रूपसे कोके वन्ध वथा मोक्षका हेतु
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१३१]
[ साधारण धर्म वनता है। विचारसे जाना जाता है कि कामे कत्व-अहंकार तथा कर्म-फलकी इच्छा ही उसके वन्धनके हेतु हो सकते हैं, चाहे वे शुभ हों अथवा अशुम । 'मैं कर्मका कर्ता हूँ और इस कर्मके द्वारा मुझको अमुक फलकी प्राप्ति हो' यह भाव ही जीवके बन्धन का हेतु है। इस भावसे किये गये यज-दान-तपादि भी जीवके बन्धनके हेतु होते हैं और उसे पुण्य-संस्कारद्वारा सुखभोगके लिये शरीरके बन्धनमें लाये विना नहीं छोडते । इस प्रकार अपरिच्छिन्नको परिच्छिन-शरीरका बन्धन, चाहे वह सुखभोग के लिये ही हो, मूलमे.क्षय-अतिशयादि दोपोंसे प्रसा हुआ होनेके कारण जैसा पोछे स्पष्ट किया जा चुका है, दु.खरूप स्वतः ही बन जाता है। मैं कर्मका कर्ता नहीं, किन्तु प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सब चेष्टाएँ हो रही हैं। केवल यह भाव ही यथार्थ रूपसे अपने आचरणमें आया हुआ जीवके मोक्षका हेतु होता है। यथा:प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते । तत्त्ववित्त महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।
(गी. अ ३ लो. २७, २८) अर्थः-वास्तवमें सम्पूर्ण कर्म प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं तो भी अहंकारसे मोहित हुए अन्तःकरणवाला पुरुप 'मैं कर्ता हूँ ऐसा मान लेता है, यही बन्धन है। परन्तु हे महावाहो! गुण-विभाग व कर्म-विभागके तत्त्वको जाननेवाला ज्ञानी पुरुष सम्पूर्ण गुण ही अपने गुणोंमें वर्तते हैं (मैं कुछ नहीं करता), ऐसा मानकर आसक्त नहीं होता।
- इस प्रकार तत्त्व-दृष्टिद्वारा प्रकृतिके गुण व कर्मविभागसे अपने आत्माको सम्यक् प्रकार भिन्न कर लेना ही कर्तृत्व
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श्रमविलास 7
[ १३२
अहकार से पल्ला छुड़ा लेना है और यही मोजका हेतु है । यद्यपि यह परम उच्चभाव साधनचतुष्टय-सम्पन्न होकर जीव नालके भेट-साक्षात्कारद्वारा ही fast Hear है, तथापि इस निष्काम भाव के जिज्ञासुकी अवस्था यह वर्तुत्य प्रकार तथा कर्मफल जो पामर व विपयी इशाने पत्थरके ममान ठोस व ढ़ चना हुआ चला आ रहा था, भावके परिवर्तन करके व शिथिल किया जाता है। जिस प्रकार पीपलका वृद्ध, जिसकी जड़े चहुँ ओर पृथ्वी फैलकर होगई है, यदि इस वृक्षको ममूल निकाल फेंकना मजर है तो पहले यह जरूरी है कि इसके चारों तरफसे आसपास की मिट्टी खोदकर उसकी दबी हुई जड़े निकाल ली जाएँ, फिर ही उसकी जड़ों पर कुल्हाड़ा चलाकर उसको मूलसहित निकाला जा सकता है। ठीक इसी प्रकार अहंकाररूपी वृक्ष जो हृदय क्षेत्र मे हद हो रहा है और जिसकी जड़ें पाताल तक फैल गई हैं, यदि इसको समूल निकालना इष्ट है तो प्रथम निष्काम कर्मरूपी कुशलीसे इसकी जड़ोंको स्पष्ट कर लेना चाहिये, तदन्तर ही ज्ञानरूपी कुल्हाड़ेसे इसकी जड़े काटी जा सकती हैं, अन्यथा इसको निर्मूल नहीं किया जा सकता ।
उपर्युक्त आशय से इस जज्ञासुके सभी कर्म ईश्वर के नाते निष्काम कर्मका उपयोग | से होते हैं और अपने अधिकारके कर्मोंद्वारा वह ईश्वरकी ही पूजा करता होता
म स्वरूप
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। जैसा गीता
१८ श्लो ४५, ४६ मे कहा गया है.
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स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥
१- साधन-चतुष्टयके नाम - विवेक वैराग्य, शमादि पटूसम्पत्ति, मुमुक्षुता
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१३३.]
[साधारण धर्म , यतः ‘प्रवृत्तिर्भूतानां येन सवमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्थ्य सिद्धि विन्दति मानवः ।।
अर्थः-अपने-अपने स्वभाविक कर्ममे लगा हुआ मनुष्य अन्तःकरणकी निर्मलतारूप सिद्धिको प्राप्त होता है, परन्तु जिस प्रकार अपने स्वभाविक कर्ममें लगा हुआ मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हावा है उस विधिको तू सुन । जिस परमात्मासे सब भूतोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सब जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वभाविक कर्मद्वारा पूजकर ही मनुष्य उस सिद्धिको प्राप्त हो सकता है।
जिस प्रकार राजाके अनेक कर्मचारी उसकी प्रजाकी अपनेअपने अधिकारके अनुसार सेवा करते हुए भी राजाकी ही सेवा करते होते हैं। अर्थात् जैसे तहसीलदार प्रजाकी भूमिकी रक्षा करता है, . पुलिस कर्मचारी प्रजाके जानमालकी रक्षा करते है और मेडीकल-आफिसर प्रजाके स्वास्थ्य की रक्षा करता है, इत्यादि । अपने-अपने अधिकारके अनुसार प्रजाकी भूमि-रक्षा, जानमाल-रक्षा और स्वास्थ्य-रक्षा करते हुए भी वे अपने आपको राजाकी ही सेवा करनेवाले मानते हैं। यद्यपि उनको वेतन भी प्रजाके करद्वारा ही मिल रहा है, तथापि वे वेतन भी राजासे ही प्राप्त हुआ जानते हैं। इस प्रकार प्रजाको सेवा करके तथा प्रजासे वेतन पाकर भी वे अपना मीधा सम्बन्ध राजासे हो जोड़ते हैं। ठीक, इसी प्रकार यह निष्काम-जिज्ञासु भी कुटुम्ब-सेवा, जाति-सेवा देश-सेवा तथा अन्य प्रकारसे अन्न-वस्त्रादिका व्यवसाय करता हुआ भी उपयुक्त निष्काम-भावके प्रभावसे ईश्वरसेवा ही करता होता है तथा अन्तःकरणकी निर्मलताद्वारा अपने व्यक्तिगत ममत्वस छूटा हुआ ईश्वरीय कुटुम्ब, जाति व देशकी ही सेवा करता होता है। इस प्रकार अपने व्यवसायद्वारा भी कमसरेटके
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श्रात्मविलास]
[ १३४ गुमाश्तेकी भॉति ईश्वरीय प्रजाको ही अन्न-वस्त्रादिकी सप्लाई (Supply) करता होता है और अपनी सब चेष्टाओंद्वारा ईश्वरीय सेवा करते हुए जो कुछ अनिच्छित प्राप्त होता है, वह भगवान्के द्वारा ही आया हुआ जानकर ग्रहण करता है तथा केवल अन्न-वस्त्र ही अपना वेतन मानकर शेप द्न्य उसके कुटुम्ब के पोषणमें ही लगाता है। इस प्रकार किसी वस्तुपर ममता नहीं करता, यही गीतोक्त स्वकर्मद्वारा ईश्वरीय पूजा है।
एवं प्रवर्तितं चक्र नानुवर्तयतोह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जोवति ॥
(गी भ. ३, १६) अर्थ:-हे पार्थ । जो पुरुप इस लोकमें इस प्रकार चलाये हुए सृष्टिचक्रके अनुसार नहीं वर्तता, अर्थात् अपने स्वभाविक कर्माद्वारा ईश्वरसेवा नहीं करता वह केवल इन्द्रियोंके सुखको भोगनेवाला पाप-श्रायु-पुरूष व्यर्थ ही जीता है।
इस प्रकार निप्काम-भावसे ईश्वरीय आजा मानकर संसार-चक्रको चलानेके लिये जो चेष्टाएँ धारण की जाती हैं, वे ही वास्तवमै यज्ञार्थ कर्म होती हैं और वे ही अपने फलके बन्धनसे इस जीवको मुक्त करनेवाली होती हैं, यथा
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥
(गी. अ ३, श्लो. ८) अर्थः-ईश्वरनिमित्त कर्मके सिवाय अन्य कर्ममे लगा हुआ ही यह पुरुष कर्मद्वारा बॅधता है, इस लिये हे अर्जुन ! आसक्ति से रहित होकर तू ईश्वरनित्ति कर्मका भली प्रकार आचरण कर।
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१३५]
[ साधारण धर्म तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समावर । असतो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुपः ॥
(गो. १ ३, श्लो. 16) अर्थः- इसलिये तू अनासक्त हुआ कर्तव्य-कर्मका भली प्रकार आचरण कर, आसक्तिरहित कोके आचरण करनेसे पुरुष परमात्माको प्राप्त होता है।
इस प्रकार इन भावुक पुरुपोंके यज्ञ-दान-तपादिक सभी फर्म सत्त्वगुणप्रधान होते हैं, जिनको लक्षण गीता अ. १७ में इस प्रकार किया गया है।
अफलाकांनिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ (पलो :१)
अर्थः-फलकी इच्छारहित पुरुषोंद्वारा शास्त्रविधिक अनुसार जो 'यज्ञ करना मेरा कर्तव्य है। ऐसे मनके निश्चयपूर्वक किया जाय, वह सात्त्विक यज्ञ कहा जाता है।
श्रद्धया परया तप्त तपस्तत्रिविधं वरैः। अफलाकांक्षिभिर्युक्तः सात्विक परिचक्षते ॥ (श्लो १७) . अर्थः - शरीर, मन व वाणी, तोन प्रकारका तप जो परम श्रद्धासे और फलकी इच्छा न रखनेवाले पुरुपोंद्वारा किया जाय, वह सात्त्विक तप कहा गया है। दातव्यमिति यदानं दीयतेऽनुयकारिणे। देशे काले च पात्रे च तदान साविक स्मृतम् ॥ (पलो २०)
अर्थः जो दान देश, काल व पात्रके अनुसार बदले में उपकार ने चाहकर अनुपकारीके प्रति 'दान देना कर्तव्य है। इस दृष्टिने दिया जाय वह सात्त्विक दान है।
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[ १३६
जीवका कर्मके माथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । जो कुछ भी, जब कभी भी, जिस किसीको भी, जिस प्रकार
कर्मका महत्व | प्राप्त होता है उसके मूलमे अपना कर्म ही है । संसार में धन, पुत्र, स्त्री, मान, अपमान, सुख, दुःख, रोग, आरोग्य यावत् पदार्थोकी प्राप्ति तथा वियोग कर्मके अधीन हो सिद्ध होता है । अङ्ग-प्रत्यङ्गकी रचना भी कर्मानुकूल ही रची जाती है। इतना ही नहीं, बल्कि जो कुछ भी हम ऑखसे देते हैं, कानसे सुनते हैं, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधमय सम्पूर्ण संसार जीवके अपने कर्मसे ही रचा गया है । इहलोक, परलोक सम्पूर्ण ईश्वरसृष्टिके मूल में निमित्तरूप एकमात्र कर्मही है । ब्रह्मा कर्मसे वँधा हुआ संसारकी रचना करता है, विष्णु कर्म के अधीन पालन करता है, शिव कर्मके अधीन प्रलय करता है। जीवकी प्रकृति व प्रकृतिके तीनों गुणोंका हेरफेर भी कर्मके अधीन ही है। कर्म करके ही जीवको बन्धन है और कर्मके द्वारा ही मोक्ष है । कर्म ही प्रधान है, कर्मसे भिन्न और कोई सार वस्तु संसारमें है ही नहीं
श्रमविलास ]
कर्म प्रधान विश्व करि राखा ।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा ॥ (रामायण)
ऐसा जो मुख्य व सार वस्तु कर्म है, उसका स्वरूप जानना चाहिये । इसलिये इस विपयमे कुछ विचार किया जाता है ।
सामान्य रूपसे किसी प्रकारकी क्रिया, चेष्टा और हिलनचलन आदि स्पन्दरूप गति या परिणामका नाम कर्म है। न्यायमतमें गुण, कर्म, द्रव्य, समवाय, सामान्य, विशेष और प्रभाव, इन मुख्य सात पदार्थों
कर्मकी व्याख्या
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१३७]
[साधारण धर्म में कर्मको मी पदार्थ माना गया है और उसके १ उत्क्षेपण (उपर फैकना) २ अपक्षेपण (नीचे फेंकना)३ श्राकुञ्चन (सुकोड़ना) ४ प्रसारण (कैलाना) ५ गमन (चलना) ये पॉच भेद किये गये हैं, और जितनी भी क्रिया है इन पाँचोंके अन्तर्गत ही मानी गई हैं । परन्तु वेदान्त कर्मकी व्याख्या विलक्षण रीतिसे करता है। वेदान्तदृष्टिसे हिलन चलन आदि गति ही कर्मरूप नहीं, किन्तु शरीरके अन्दर-बाहर प्रत्येक क्षण ऐसी असंख्य चेष्टाएँ प्रकट होती हैं जो शरीरद्वारा प्रकट होते हुए भी वेदान्तष्टिसे वास्तविक रूपसे कर्मकी व्याख्या में सम्मिलित नहीं होती। उदाहरण रूपसे समझ सकते हैं कि भोजन खानेके पीछे पककर मल आदि विसर्जन होनेतक खाद्यको असंख्य नाडियोंमेंसे निकलना पड़ता है और वह असख्य परिणामोंको प्राप्त होता है। सम्पूर्ण नाड़ियोंमें प्रत्येक क्षण रक्त सञ्चार हो रहा है, शरीरके रोम-रोममें क्रिया हो रही है, चाल बढ़ रहे हैं, ऑखोंकी पलकें हिलती है, अङ्ग फड़कते हैं, उन सब चेष्टाओंको कौन गिनती कर सकता है । यद्यपि ये सब चेष्टाएँ शरीरमें वर्त रही हैं, परन्तु वेदान्तष्टिसे वे कर्मकी यथार्थ गणनामें नहीं आ सकतीं। वेदान्तदृष्टिसे उन्हीं शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक चेष्टाओं का नाम कर्म है जिनके साथ मनका सम्बन्ध है। गीताने इसी आशयसे कर्मकी व्याख्या एक ही पादमें इस प्रकार की है। 'भूतभावोद्भचकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥' (अ.८, ३)
अर्थात् भूतोंमें भावको उत्पन्न करनेवाले चेष्टारून व्यापार की 'कर्म' नामसे संज्ञा की गई है।
___ मन व बुद्धिमें जो सन्दरूप परिणाम होता है उसीका नाम 'भाव' है । इसलिये जो चेष्टाएँ मन-बुद्धिमें, अथवा मनवुद्धि की आदतमें होती हैं वे ही 'कर्म हैं। जिन चेष्टाओंमें मन-बुद्धि
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आत्मविलास ]
[१३८ की प्राढत नहीं होती अर्थात् जो मन-बुद्विकी जानकारीमें नहीं हो रही हैं वे करुम भी नहीं होती, क्योकि वे किमी भाव को उत्पन्न नहीं करती और न वासना तथा संस्कारकी ही जनक होती हैं। इसलिये न तो वर्तमानमें किसी सुग्य-दुःखके भोगकी हेतु होती हैं और न भविष्यमै पुण्य-पापरूप संस्कारोंको हो उत्पन्न करती है । शरीरके भीतर भोजन ग्यानके पश्चात् उम खाद्यके रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा व वीर्य आदि धातु बनने तक न जाने कितने असंख्य परिणाम होते होंगे, परन्तु वे मव परिणाम मनबुद्धिकी आढ़नमे नहीं होते इमलिये ने कर्मझी वास्तविक व्याख्यामे भी नहीं आते । परन्तु सोना-जागना कर्म है, चलना-फिरना कर्म है, बोलना-मौन रहना कर्म है, ग्रहण-त्याग कर्म है, मन्यास व भिना मॉगना कर्म है, विवेक, वैराग्य, सम, दम, श्रद्धा, समाधान, तितिक्षा, उपरति व मुमुक्षुता फर्म है, श्रवणमनन-निदिध्यासन कर्म है, विचार कर्म है तथा यम, नियम, श्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि कम है। सारांश, प्रत्येक प्रवृत्ति और प्रत्येक निवृत्ति कर्म है तथा गीतोक्त सांख्ययोग व कर्मयोग भी कर्म है। ऐसा क्यों ? इसीलिये कि वे सब चेष्टाएँ मन-बुद्धिके साक्षात् परिणाम हैं अथवा मन-बुद्धिकी आढ़तमें होता हैं, इसलिये वे भावको उत्पन्न करती है और अपना फल रखती हैं।
। कमेकी उपयुक्त व्याख्याको ध्यानमे रखकर कहना धर्मकी अनिवार्यता पड़ेगा कि कर्म सर्वथा अनिवार्य है।
जवकि कर्मका त्याग भी कर्म सिद्ध हुआ तव प्रकृतिके राज्यमें किसी प्रकार कर्मसे छुटकारा है ही नहीं। वास्तव में विचार करके देखिये तो अधिकारानुसार कर्मका आचरण करते-करते प्रकृतिके वन्धनसे छूटकारा भी कर्मके द्वारा ही हो सकता है। स्वकर्मके प्रवाहमे पड़ा हुआ ही यह जीव ब्रह्म
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१३]
[साधारण धर्म सी समुद्र में मिलकर ब्रह्मरूप हानेका जुम्मेवार है। यही कर्मका 'मल है, यहाँ पहुँचकर ही कर्म पर्यवसानको प्राप्त होते हैं और जीपको अपने बन्धनसे छुटकारा देते हैं । जबतक तत्त्वसाक्षात्कारद्वारा इन ज्ञानोके कर्न अकर्मता (नष्कयंता) को प्रात न हो जाए, कर्तव्यरूपी वैताल कि 'मैं दुखी हूँ और मुझको सुख मिले कदापि इसका पीछा नहीं छोड़ सकता और इस कर्तव्यसे मुक्त हो जाना यही स्वफर्मरूपी पनकी पूर्णाहुति है। इसके विपरीत अधिकारभिन्न कम ही इस जीवके बन्धनका हेतु है। अपने विपरीत आचरणद्वारा ही यह जी र कर्मवन्धनसे इसी प्रकार मटकता फिरता है और इसकी वही गति होती है जो श्रॉधीमें पड़े हुए एक सूत्रे तृणकी। इसलिये कर्मका प्रवाह यदि शुभ मार्गकी ओर खोल दिया जाय तो अशुभकी ओर इसका प्रवाह स्वतः रुक जायगा और यदि शुभकी ओर प्रवाह वन्द कर देंगे तो अशुभकी ओर इसका प्रवाह यरवश खुल जायगा,
आखिर यह प्रवाह रुकनेका तो है ही नहीं। जिस प्रकार जल का प्रवाह यदि सीधे मार्ग चलनेसे रोक दिया जाय तो वह अपने निकासना मार्ग ,किसी और तरफको वरवश अपने आप दीवारातोडकर भी निकाल लेगा, वह रुक नहीं सकता। इसी प्रकार जब कि प्रकृतिके राज्यमें कर्मका प्रवाह ऐसा बलवान
और अनिवार्य है तो इसको प्रकृति के अनुकूल सीधा मार्ग ही क्यो न दिया जाय ? जिससे यह अपनी गतिसे चलता हुआ ब्रह्म घ्पो समुद्र में मिलकर अपने-आप शान्त होजाय । इसी आशयको लक्ष्य करके गीता अ०३ श्लो० ४ से ८ में कहा गया है:
न कर्मणामनारम्भान्नष्कम्य पुरुषोऽश्नुते । न च. संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥
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आत्मविलास]
[ १४० न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य ास्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।। यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ नियतं कुरु कर्म व कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ।।
अर्थ:-किसी भी प्रकार कर्मका स्वरूपसे त्याग अशक्य है इसलिये भगवान् कहते हैं।-पुरुष कर्म न करनेसे न तो निष्कर्मताको प्राप्त होता है और न कर्म के त्यागसे ही उसे भगवत् साक्षात्काररूप सिद्धि मिलती है। तथा किसी क्षणके लिये कोई भी पुरुष विना कर्मके स्थित नहीं रह सकता, बल्कि प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणोंद्वारा वरवश यह जीव कर्म करता ही रहता है। (जब कर्म ऐसा बलवान् और अनिवार्य है तो) कर्म-इन्द्रियों को रोककर जो मनसे भोगोंका चिन्तन करता रहता है, वह तो मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी ही कहा जाता है । हे अर्जुन ! जो पुरुप मनसे इन्द्रियोंको वशमै करके अनासक्त हुश्रा कर्म-इन्द्रियों से कर्मयोग (अर्थात् फलाशारहित कर्म) का श्राचरण करता
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१ कर्म करके भी कर्मके बन्धनमें न आना, जैसे कमल जल में रहकर भी जलसे लेपायमान नहीं होता, ऐसी अवस्थाका नाम ' निर्मता' है।
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१४१]
[ साधारण धर्म है इससे वह श्रेष्ठ है । इसीलिये तू शास्त्रविधिसे (अपनी प्रकृतिक अनुसार) नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्मको कर, क्योंकि कर्म न करनेसे कर्म करना श्रेष्ठ है, यहॉतक कि कर्म विना तेरा शरीरनिर्वाह भी सिद्ध न होगा।
यद्यपि प्रकृतिके राजमें कर्म सर्वथा अनिवार्य है, तथापि कर्मद्वारा प्रकृतिकी | कर्मद्वारा प्रकृतिका स्वाभाविक स्रोत निवृत्तिमुखीनता निवृत्तिमुखीन ही है। प्राशय यह कि उद्भिज्जादि जड़ योनियोंसे लेकर, जो जीवभावके विकासका आरम्भिक स्थल है, स्वेदज, अण्डज, जरायुज योनियोंसे लंघकर मनुष्ययोनिकी प्रातिपर्यन्त जितनी भी चेष्टा व कर्म प्रकृतिद्वारा प्रकट होते है, उन सबके मूलमे वास्तव में त्याग ही विद्यमान है । जीवभावका मनुष्ययोनिमे विकास होने पर ब्रह्मभावको प्राप्तिपर्यन्त पामर, विषयी आदि कोटिमें भी यद्यपि स्थूलदृष्टिसे प्रतीत न होता हो तथापि प्रकृतिकी सर्व चेष्टाओं में केवल निवृत्तिरूप त्याग ही निहित है। ययाहि --- पापाण-उद्भिजादि जड़ योनियोंसे लेकर मनुष्य योनिकी प्राप्तिपर्यन्त क्रम-क्रमसे प्रत्येक योनिमें प्रकृतिद्वारा जड़ताको गला कर उनमे चेतना शक्ति सम्पादन की जाती है। पाषाणयोनि में जीवकी गाद-सुषुप्ति-अवस्था होतो है, उस जड़ताको पिघलाकर प्रकृविद्वारा उद्भिन्लयोनिमें क्षीण-सुपुमि-अवस्थाकी प्राप्ति की गई और प्रथम अन्नमयकोशका विकास किया गया । इस अवस्थासे जीवको ऊँचा उठाकर स्वेदज योनिमें गाद-स्वप्नअवस्थाका विकास हुआ और दूसरा प्राणमयकोशका प्रादुर्भाव हो आया । इससे आगे चलकर अएडजयोनिमें प्रकृतिद्वारा क्षीण-स्वप्न तथा तृतीय मनोमयकोशकी और जरायुज योनिमे केवल स्वप्न तथा चतुर्थ विज्ञानमय कोशको प्रकटता की गई। और मनुष्ययोनिमे जाग्रत-अवस्था तथा आनन्दमयकोशका
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श्रामविलास]
१४२ विकास करके चेतना शक्तिको पूर्णता सम्पादन कर दी गई। इस क्रमका विस्तृत विवरण 'पुण्य-पापकी व्याख्यामे (पृ०१८ में २४ पर किया जा चुका है। ___ इसप्रकार नीचे जड योनियोसे आरम्भ करके मनुष्ययोनि में पॉचों कोशीका विकास करते हुए जडताके त्यागद्वार प्रकृति की प्रत्येक चेष्टामे निवृत्तिरूप त्याग ही दशाया जा रहा है, जिससे प्रकृतिको निवृत्तिमुखीनता ही सिद्ध होती है। संसार मे जड़ व चेतन दो ही पदार्थ हैं, इनमेंसे चेतन तो निवृत्ति के योग्य हो ही नहीं सकता और न चेतनको निवृत्त करना प्रकृति का लक्ष्य हो है, केवल जड़को ही शनैः शनेः गलाकर निवृत्त कर देना प्रकृतिका मुख्य धेय है। मनुष्ययोनिमे पञ्चकोशोंके पूर्ण विकामके कारण यद्यपि उसमे सुख-दुःखके तारतम्यका ज्ञान, सुख-दुःखके साधनोंका ज्ञान, पुण्य-पापका ज्ञान, इहलोकपरलोकका ज्ञान, छल-कपट एवं भले-बुरेका ज्ञान, व्यवहारकी चतुराईका ज्ञान, विद्यत् भाप आदि पदार्थ विद्या और अनेक प्रकारकी विद्याका ज्ञान-विज्ञान उपार्जन करनेकी सामथ्र्य उत्पन्न हो पाई है। तथापि जो जड़ता आरम्भसे ही रद होती चली आ रही है, उस जड़ताका इस मनुष्ययोनिमें भी किसी न किसी रूपमें स्थिर रहना आवश्यक है। इसी कारण देहामिमान तथा स्वार्थमूलक रूपसे इस योनिमें भी जड़ता अधिक घर किये बैठी है, जिससे मनुष्य वन्दरकी भाँति देह व कुटुम्वादिके स्वार्थ की पकड़से मुट्ठी वॉध बैठा है। अब कर्म के द्वारा उस वढ़े चढे देहाभिमान तथा स्वार्थरूप जड़ताको धक्रम से पिघलाकर सर्वथा नष्ट कर देना ही प्रकृतिका निवृत्तिरूप लक्ष्य है। जैसा कि पामर व विषयी पुरुपोंके प्रसंगसे स्वार्थ की उन भिन्न-भिन्न कोटियोंका पीछे निरूपण किया जा चुका है और उसकी निवृत्तिका क्रम इस समय तक स्पष्ट किया जा रहा है।
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१४३]
[ साधारण धर्म ': शारीरिक चिकित्साकार इस विपयकी भली-भॉति साक्षी वैगे। शारीरिक प्रकृतिका यह स्वाभाविक नियम है कि मलमूत्रादि विकार तथा वात, पित्त व कफादि दोष जब शरीरमे प्रकृतिविरुद्ध चेष्टाओंद्वारा दूषित होजाते हैं, तब प्रकृति स्वभाव से ही उन बढ़े-चढ़े दोपोंको निकाल फेंकनेका प्रयत्न करती है। चर, अतिसार आदि अनेक रोग इसी नियमके अनुसार प्रकट होते हैं। पित्तको वृद्धि वर्षा-ऋतुमे होती है तब मलेरियाब्वरद्वारा उम पित्तका प्रकोप बाहर निकाला जाता है । अजीर्ण की वृद्धि होनेपर जव मल दूपित हो जाता है, तब उसके वेगको अतिमारद्वारा बाहर निकालनेका मार्ग खोला जाता है। रक्त दूषित होना है तो फोड़े-फुन्सी श्रादि चर्मरोगद्वारा उसके वेग को बाहर फैंका जाता है। ठीक, यही अवस्था मानसिक प्रकृति की है। पामर और विषयी पुरुषोंमें जब मनोविकारकी वृद्धि होती है तव प्रकृतिदेवी प्रथम तो अन्दरसे उस वढ़े चढ़े विकार को क्रमशः निषिद्ध प्रवृत्ति व सकाम प्रवृत्तिद्वारा निकाल फेंकने का यत्न करती है, दूसरे वाहरसे उन निषिद्ध कोंके फलस्व. रूप समस्त संसारको उनके विरुद्ध सशस्त्र खड़ा कर देती है
और तीसरे 'हमको सुख मिले' यह तीव्र इच्छाम्प वैताल उनके सिरपर चढ़कर उनकी गर्दन दवाता है । इस प्रकार अन्दर, वाहर और ऊपर सभी ओरसे प्रकृति उनके बढ़े-चढ़े मनोविकारोंको निवृत्त करनेके पीछे पड़ी हुई है। यही कर्मकी अनर्गल प्रवृत्तिद्वारा भी प्रकृतिकी निवृत्तिमुखीनताका स्पष्ट प्रमाण है।
कषायपक्तिः कर्माणि ज्ञान तु परमा गतिः । कपाये कर्भभि पक्वे ततो ज्ञान प्रवर्तते ।।
(सून भाष्य ३,४,२६)
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आत्मविलास ]
[१४४ अर्थः-कर्मका फल कपायों ( राग-द्वेपके संस्कारों) का पकाना ही है, जान ही परम गति है, कर्मसे कपाय पकनेपर फिर ज्ञानका श्राविर्भाव होता है। ___ कर्मद्वारा प्रकृतिकी निवृत्तिमुखीनता सिद्ध की गई। उपर्युक्त निष्काम कर्मका रहस्य | नीतिक अनुसार यह जिज्ञासु निपिद्ध
- सकाम व शुभ-सकामकी कक्षाओंसे उत्तीर्ण होकर श्रव निष्काम कर्मकी - कदामे प्रविष्ट हुआ है। फलाशारूप इच्छा हो कर्ममें विप मिला हुआ था, जो अहकाररूपी दुःखको घृद्धि कर रहा था। प्रकृतिकी सहायतासे अव इस विपको इसने अपने हृदयसे निकाल फेंका है। जैसा कि पोछे स्पष्ट किया जा चुका है, 'अहंकारसे इच्छाकी उत्पत्ति होती है और इच्छासे अहंकारकी पुष्टि होती है। यही दुःख है। संसारसम्बन्धी इच्छाओंसे पल्ला छुडाकर जिस प्रकार वरफ हिमालयसे पिघलकर गंगारूपमें समुद्रकी ओर दौड़ती है, इसी प्रकार अव इमने अहंकारकी जड़ताको पिघलाकर इस अहंकारका प्रवाह ब्रह्मरूपी-समुद्रकी ओर चला दिया है। जैसे कोई ज्येष्ठ मासके मध्याह्नके धूपमें तपा हुआ सिरपर पोट का भार उठाये हुए पोटको नीचे फैककर वृक्षकी छाया में विश्राम करके सुखी होता है, इसी प्रकार यह जिज्ञासु सांसारिक इच्छाके भारसे मुक्त होकर कर्म करता हुआ भी कर्मरूपी मध्याह्नके तापसे फलाशात्यागरूपी वृक्षकी छायामें विश्राम पा रहा है। आशय यह कि कर्म तो अपने स्वरूपसे प्रारम्भ व परिणाममें दुःखरूप है ही और अपने सम्वन्धसे तापका ही हेतु है। कर्मके साथ यदि कुछ विश्राम मिलता है वो फलाशात्यागद्वारा ही मिल सकता है, इसीलिये कर्मको मध्याह्नके ताप से उपमा देकर फलाशात्यागकी घृक्षकी छायासे तुलना की गई है। संसारसम्बन्धी स्वार्थ अब इसका कोई नहीं रह गया,
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[ साधारण धर्म बल्कि परमार्थको ही इमने स्वार्थ रूपसे अपना लिया है। अर्थात् ईश्वरप्राप्तिरूप परमार्थ ही इसका केवल स्वार्थ है और अब इसकी सम्पूर्ण दौड़धूप इसी निमित्त है। वास्तवमें वात वो है यू कि फलको इच्छा रजोगुणका परिणाम होनेके कारण कर्ताको फलसे विमुख ही करती है, क्योंकि रजोगुण चञ्चल रूप है इसलिये रजोगुणकी उपस्थितिमें फलकी प्राप्ति असम्भव है। फलकी प्राप्ति सदैव उसी अवस्था में होती है, जब कि हमारा चित्त रजोगुणसे निकलकर सत्त्वगुणको धार रहा हो । जब-जब जिस किसीको किसी फलकी प्राप्ति हुई है, यदि ठीक उस समयकी अपने चित्तकी अवस्थापर किसी पक्षपात के विना ध्यान दिया जाय तो प्रत्येक व्यक्ति स्वानुभवसे इस विषयको साक्षी देगा कि जब-जब चिच फलकी इच्छा करके चञ्चलवासे पूर्ण रहा है तब-तव खोया गया है और अब फलाशा से निराश होकर चलवासे छूटकर देव-इच्छापर निर्भर हुश्रा है तव-तव ही सफलता हुई है। दृष्टान्तरूप से समझा जा सकता है कि यदि कोई वरल पदार्थ किसी सॅकड़े मुंहके वरवन में डालना इष्ट है और पदार्थको उस बरतनमें उलटते समय यदि हमारे चित्तमें चञ्चलता व भय है तो अवश्य हाथ हिल जायगा और वह नीचे गिर जायगा । इसके विपरीत यदि हमारा चिच चञ्चलवासे रहित और निर्मय है तो एक बूंद भी बाहर नहीं गिर सकती। इसी प्रकार रजोगुणकी विद्यमानतामें असफलता और सत्त्वगुणकी विद्यमानतामें सफलता प्राप्त होती है। इसमें रहस्य यह है कि फलाशाद्वारा रजोगुण व चञ्चलता करके मनुष्य हलका व दीन हो जाता है, इसलिये सफलता निकट
आई हुई भी उसको पीठ दिखा जाती है, क्योंकि दीनताके कारण उसमें आकर्षण शक्ति लुप्त हो जाती है। फलाशा-त्यागद्वारा सत्त्वगुणकी उपस्थितिमें मनुष्य भारी भरकम रहता है और
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आत्मविलास]
[१४६ उसमे आकर्षण शक्तिका प्रादुर्भाव होता है। इसलिये नफलता को उसकी ओर आकर्पित होना पड़ता है। जैसे राग वेगरज होता है, इसलिये सब पदार्थ उसकी ओर अपने आप आर्पित होते है, परन्तु भिखारी गरजमन्द रहता है, इसीलिये उनको मॉगसे भी कोई वस्तु प्राप्त नहीं होती। ___ फलकी इच्छा हमारी कार्यशक्तिको घटाती है और चिन्ता व भयको बढ़ाती है। चिन्ता से उत्साह नष्ट हो जाता है तथा कायरताकी वृद्धि होती है । चिन्तासे ईश्वरमे विश्वाम निकल जाता है, बल्कि चिन्ता ईश्वरके अस्तित्व (मौजूदगी) को ही मिटा देती है। यदि हम ईश्वरके अस्तित्वको मानते होते तो चिन्ताका कोई असर नहीं हो सकता था । यदि हम यह यथार्थ खपसे जानते होते कि जो अन्तर्यामीदेव गर्भवासमें भी, जब कि जीव गर्भरूपी कारागारमे सर्वथा दीन-हीन दशा को प्राप्त था और अपने पुरुषार्थसे एक इश्च भी हिलने-चलनेमें समर्थ न था, यहॉतक कि खानपानके लिये द्वार भी न रखवा था, उस कालमे गर्भस्थ शिशुकी नाभिद्वारा नालरूपी पिच कारीके जरिये उस विचित्र सिविलसर्जन (Civil Surgeon) ने माता के पेटसे रस खींचकर उसका नियमित पाहार वहाँ पहुँचाया है और गर्भसे बाहर निकलते ही माताके स्तनों में दूध इसी प्रकार हाजिर कर दिया है जैसे कोई वादशाह दौरेमें निकलता है तब उसके लिये हाजिरो, लांच (Launch), टिफन (Tiffin), डिनर (Dinner) आदि समय-समयपर उसकी मेज़पर विना मांगे ही हाजिर कर दिये जाते हैं । तया जिस अन्तर्यामीदेवने इसी जीवकी अनन्त योनियोंमे जल, थल, श्राकाश व पाषाणमे भी पालना की है और समय-समयपर इसका पेटिया (रसद) हाजिर कर दिया है, वही देव अव भी सब प्रकार जुम्मेवारी धारे हुए है। तव ऐसे विचारोंकी
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१४७]
[साधारण धर्म परिपक्कतामें चिन्ताके लिये कोई अवसर नहीं रहना चाहिये था, इसलिये चिन्ताग्रस्त मनुष्यको परम नास्तिक कहना चाहिये। होय निर्चित करे मत चिंतहि, चोंच दई सोई चिन्त करेगी। पाँव पसार परयो किं न मोचन, पेट दियो सोइ पेट भरेगो। जीव जिते जलके थलके, पुनि पाहनमें पहुँचाय धरेगो । भूख हि भूख पुकारत है नर, सुन्दर तू कहाभूख मरेगो॥१॥ काहे को दौरत है दशहूँ दिशि, तू नर देख कियो हरिजू को । बैठ रहे दुरि कै मुख मदि, उधारत दाँत खवाइ है टूको । गर्भ थके प्रतिपाल करी जिन, होइ रह्यो तब ही जड़ मूको । सुन्दर क्यों विललात फिर अब, राख हुदै विश्वास प्रभुको ।।२।।
वास्तवमें यह नियम है कि जब हम फलके लिये चिन्तातुर रहते हैं तब वह देव निश्चिन्त हो बैठता है और जब हम फलके लिये निश्चिन्त रहते हैं तब उसकी धुकधुकी धड़कती है। फिर वृथा ही चिन्ता करके उसको निश्चिन्त क्यों कर दिया जाय १ क्योंकि उसको निश्चिन्त करके हम निश्चिन्त नहीं रह सकते। चिता चिन्ता समाप्युक्ता चिन्ता च विन्दुनाधिका। चिता दहति निर्जीव चिन्ता सा तु सनोविकाः ।।
अर्थः- 'चिता' और 'चिन्ता' वरावर कही गई हैं किन्तु चिन्तापर एक विन्दु अधिक है, (उसका यह फल है कि) चिता निर्जीवको जलाती है और चिन्ता जीवोंको ।
जव हम अपने हृदय-सिंहासनसे उस अन्तर्यामीदेवको नीचे गिरा देते हैं और 'मैं ही सब कुछ करता हूँ इस रूपसे
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आत्मविलास ]
[ १४८ अपने परिच्छिन्न-अहंकारको उस सिंहामनपर ग्रामद कर देते हैं, तभी निर्विवाद रूपसे चारों ओरसे चिन्तागे हमारा स्वागत करती हैं और हमारा वातावरण दुःख व शोकमय बन जाता है । यदि उस देवको फिरसे उसकी अपनी गद्दी (हृदय सिंहासन) पर विराजमान कर दिया जाय और अपने परिच्छिन्नअहंकारको नीचे उतारकर उस देवका श्रानाकारी 'जी हुजूर' बना दिया जाय यथाःकुन्दन के हम डले है, जब चाहे तू गला ले। वाचर न हो तो हमको, ले आज श्राजमा ले ॥ जैसी तेरी खुशी हो, सब नाच तू नचा ले । सब छानबीन करले, हर तौर दिल जमा ले !! राजी हैं हम उसीमें, जिसमें तेरी रजा है । यहाँ भी वाह वाह है, और भी वाह वाह है ॥
तब ऐसो अवस्था में चिन्ताएँ एकदम कुँच कर जाती हैं और हमारा वातावरण शान्ति आनन्दसे भर जाता है। ऐसी अवस्थामें ही इच्छित पदार्थ अपने-आप इसी प्रकार हमारे पास दौड़े आते हैं जैसे भूखे बालक माताके पास दौडे जाते हैं।
'यह क्षुधिता वाला मातारं पयुपासते'
जो पुरुष फलाशा धारण किये हुए हैं वे दरिद्री व दीन हैं, चाहे वे मायाद्वारा लनपति भी क्यो न हों । और जिस
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1. निश्चय । २. परीक्षा करले। ३. खुशी।
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१४६]
[साधारण धर्म पुरुपने विचारपूर्वक फलाशासे पल्ला छुड़ा लिया है वही घास्तवमें उदारान्मा और धनी है, चाहे उसे पेटभर रोटी भी न मिलती हो। फलाशा-त्यागसे शक्ति व उत्साह फूट निकलते हैं और हमारा कार्यक्षेत्र विशाल हो जाता है । इसमें तत्त्व यह है कि फलाशा बनाये रखकर अकारको दृढ़ता करके हम अपनी शकिको घटाकर अपने शरीरतक ही परिच्छिन्न बना लेते हैं, परन्तु स्वार्थ व फलाश त्यागद्वारा अहंकारसे ऊँचे उठकर हम ब्रह्माण्ड-शक्तिपर भी अपना अधिकार जमा लेते हैं । ऐसी अवस्थामें ईश्वरीय-शक्ति ही हमारी अपनी शक्ति होती है
और हमारा कार्य ईश्वरीय कार्य होता है तब शक्तिका स्रोत इसी प्रकार हमारे अन्दरसे फूट निकलता है जैसे किसी चश्मे से पानी उमल-उमलकर महानदके रूपमें वह निकलता है। वास्तवमे जो शक्ति हमारे हृदयमें विराजमान है वह अनन्त व असीम है, परन्तु परिच्छिन्न अहंकार व कर्मफलका ढक्कन दवाकर हम उस शक्तिको वह निकलनेसे रोक देते हैं। फत की इच्छा हमारे अन्दर थकान उत्पन्न कर देती है और फलाशा-त्यागद्वारा हमारी चेष्टाएँ अथक बन जाती हैं, प्रकृति का यही नियम है। दृष्टान्तरूपसे समझ सकते हैं कि चिउँटी च दीमक आदि योनियोंमे दिनरात, आठौं प्रहर, चौसठ घड़ी अविराम चेष्टाएँ देखने में आती हैं वे अपनी चेष्टाओं से कभी नहीं थकती और न कभी विश्राम लेती हैं। इसका कारण क्या है ? कारण यही है कि न उनमे कामाव जागृत है, न वे किसा फलकी इच्छा धारकर कर्म करती हैं, वल्कि किसी प्रकारको इच्छा विना कर्मके लिये ही कर्म कर रही हैं और भगवान्के इस वचनको यथार्थ रूपसे न्यवहारमे ला रही हैं:
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आत्मविलास]
[ १५० कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
(गी. अ. २, ४७) अर्थ. तेरा अधिकार कर्म करनेमें ही है, फलमें कभी नहीं (किन्तु फलमे तो मेरा ही अधिकार है) और तू कर्मफलको वासना (गवमात्र) रखनेवाला भी न हो। (इस विचारसे कि जव कर्मफलकी इच्छा ही न हो तो कमें करनेसे भी क्या प्रयोजन १) तेरी फर्म न करनेमें भी प्रीति न हो (किन्तु तुझे कर्म तो करना ही चाहिये।
इससे यह स्पष्ट हुआ कि कतत्व-अहंकार और कोफलकी इच्छा ही मनुष्यमे थकान पैदा करनेवाले हैं। इस प्रकार जब कर्मके लिये ही कर्म किया जाय, तव फल तो कहीं जा ही नहीं सकता। क्रियाको प्रतिक्रिया तो ईश्वरराज्यमें नष्ट हो ही नहीं सकती। कर्ममें फल तो इसी प्रकार छिपा हुआ है, जैसे नन्हेंसेवट-वीजमें महान वटवृक्ष घड़ी करके (तह करके ) रखा हुआ है। नन्हें से वट-बीजको भूमिमें दवानेकी ही जरूरत है फिर डाली, पत्ते, फूल, फल तो अपने-अपने समयपर आप हो उससे निकल आयेंगे, इसके लिये वो चिन्ता की कोई जरूरत ही नहीं। इसी प्रकार कर्मरूपी वीज हृदय-क्षेत्र में जमानेकी देरी है, फिर उससे सब अल-प्रत्यङ्ग अपने आप देवी-नियमके अनुमार निकल पड़ेंगे। इस प्रकार जब कर्मका फल निश्चित है, तब उसके लिये चिन्तारूपी वेदना क्यों सहो जाय । इत्त चिन्तारूपी यम-यातनासे क्या प्रयोजन ? उल्टा नन्हेंसे बीजपर चिन्तारूपी भारी पत्थर रखकर उसको फलने फूलनेसे क्यों रोक दिया जाय ?
वास्तवमे कर्म अपने स्वरूपसे रजोगुणी नहीं, किन्तु
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१५१]
[साधारण धर्म कर्म के साथ जो फलाशा वही रजोगुणकी मूर्ति है, जो कर्ताको अपनी जागीरमे अशान्ति प्रदान करती है और परमार्थसे भ्रष्ट करती है । इस विपके निकाल फेंकनेसे ऐसे सज्जनोंके हृदय व मस्तकपर शान्तिरूपी पूर्णमासीके चन्द्रमाकी कान्ति विराजमान होती है और वे लोक परलोक दोनोंके अधिकारी होते हैं। सारांश, कर्मका प्रयोजन इहलौकिक सुख, शान्ति व मान तथा पारलौकिक ईश्वरप्राप्ति ही है, निष्काम कर्मसे ये चारों ही प्राप्त होते हैं और सकामतासे चारों ही नहीं। यद्यपि इस जिज्ञासुने संसारसम्बन्धी इच्छा व कामना
रूप फलाशासे तो छुटकारा पा लिया
है, तथापि सर्वथा कामना व फलाशा से अभी इसफा छुटकारा नहीं कहा जा सकता। इस फलाशा का सर्वथा त्याग तो उन तत्त्ववेत्ता साक्षात्कारवान महापुरुष ज्ञानियोंके ही हिस्से में आया है, जिन्होंने संसारके तत्वको ज्योंका त्यों जाना है, ज्ञानाग्निसे कर्तृत्व अहंकारको सर्वथा भस्म कर दिया है और शरीर व इन्द्रियोंद्वारा सव कुछ करते हुए भी सव क्रियाओसे दूर खड़े हैं। इस जिज्ञासु के सम्बन्ध संसारसम्बन्धी फलाशा तो यद्यपि नहीं है, परन्तु कर्तृत्व-अहंकार व कर्तव्य-बुद्धि अभी खड़ी हुई है, जिसके फलस्वरूप अपने कर्मोद्वारा एकमात्र ईश्वर-प्राप्तिरूप इच्छा विद्यमान है, जो सांसारिक इच्छाओंकी अपेक्षा धन्य कही जा सकती है । वास्तव में सांसारिक इच्छाओंसे छटकारा भी इस पवित्र इच्छाके प्रबल हुए बिना असम्भव है। बल्कि सांसारिक इच्छाओंके निकाल फेंकनेका एकमात्र उपाय यही है कि ईश्वर प्राप्तिरूप इच्छा सर्वथा हृदयमे घर कर ले। जैसे किसी जलपूरित पात्रको. जलसे खाली करनेका उत्तम साधन
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आत्मविलास ]
[१५२ यही है कि उसमें जलसे भारी तरल पदार्थ अर्थात् पारा भरते जाएँ । ज्या-ज्यों पारा पात्रमें घर करता जायगा त्यों त्यों जल उसमेंसे निकलता जायगा, क्योंकि पान सर्वथा खाली नहीं रह सकता और कुछ नहीं तो वायु ही उसमें भर जायगी । ठीक, इसी प्रकार हृदयरूपी पात्रको सांसारिक इच्छात्रोंसे खाली करनेके लिये ईश्वर प्राप्तिरूप जिज्ञासा इसमें ठूस-ट्रेस कर भर देना जरूरी है । इस पवित्र जिज्ञासाकी बढ़ी चढ़ी अवस्था ही वैतालकी तृप्तिका एक मुख्य साधन है, जो ईश्वर कृपा, गुरुकृपा और शास्त्रकृपा आदि अन्य साधनोंको इसी प्रकार खींच लाती है तथा अन्य साधन अपने-आप इसी तरह खिंचे चले आते हैं, जैसे दीपक जब अपने प्रकाशमे जलने लगता है तव चारों ओरसे पतग अपने आप उसके साथ जलनेके लिये खिची चली आती हैं। इस प्रकार इस जिज्ञासुद्वारा सभी कर्म फलाशारहित कर्तव्य-बुद्धिसे ईश्वरार्पण तो कये जाते हैं परन्तु जहाँ-जहाँ कर्तव्य-बुद्धि होती है वहाँ-वहाँ कर्ता-बुद्धि भी अवश्य बनी रहती है । 'मैं फर्मका कता हूँ
और अमुक कर्म करना मेरा फर्ज है' यही कर्ता-बुद्धि व कर्तव्य बुद्धिका लक्षण है। इस प्रकार कर्ता-बुद्धि विना कर्तव्यबुद्धि आ ही नहीं सकती, पहले 'कर्ता' बनेगा तभी 'कर्तव्यगर्दनपर सवार होगा जो कि परिच्छिन्न-अहंकारके ही परिणाम हैं। इस लिये परिच्छिन्न-अहंकार द्वारा कर्तव्य-बुद्धिसे किये गिये कर्म चाहे फलकी इच्छारहित भी क्यों न हों परन्तु उनका फल होता अवश्य है। क्योंकि जैसा पीछे 'कर्म की व्याख्या' में (पृ. १३६ से १३८ पर) स्पष्ट किया जा चुका है, कर्तव्यबुद्धिस किये गये कर्मों में मन-बुद्धि की आढ़त कर्ता-बुद्धि की विद्यमानताके कारण अवश्य रहती है, इसलिये वे कर्म भाव की उत्पति अवश्य करते हैं, मावशून्य नहीं रह सकते।
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१५३ ]
[साधारण धर्म 'मैं अपने कर्मोका फल ईश्वरार्पण करता हूँ' इस जिज्ञासु का अपने काँके साथ यह भाव अवश्य रहना चाहिये । इस भावके विद्यमान रहनेके कारण वे कर्म फिर फलशून्य भी नहीं रह सकते, क्योंकि फल कर्ममे नहीं, फल केवल भाव में ही है। यद्यपि उन कोका फल संसार तो नहीं है, क्योंकि उनके साथ सांसारिक वासनारूप भाव सर्वथा नष्ट हो चुका है, तथापि ईश्वर-प्राप्तिरूप वासनाके सद्भावसे अन्तःकरण की निर्मलता तथा भक्तिके प्रादुर्भावद्वारा पारमार्थिक जिज्ञासा की दृढ़ता इन कर्मोका फल अवश्य रहना चाहिये।
परन्तु एक तत्त्ववेत्ता ज्ञानीके सम्बन्धमे ऐसा नहीं है, उसने तो अपने हृदयमें ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करके भेद दृष्टिको स्वरूपसे ही दग्ध कर दिया है, परिच्छिन्न-अहंकार
और उसके परिणाम कर्ता बुद्धि व कर्तव्यबुद्धिको भी भस्म कर दिया है तथा भाव और भावके उत्पादक मन व बुद्धि को भुने वीजके समान भर्जित कर दिया है एवं कर्म और कर्मके साधन निम्न लिखित छः कारकोंको ब्रह्मरूपसे निश्चय कर लिया है। कर्ता कर्म च करणं सम्प्रदानं तथैव च । अपादानमधिकरणमित्येतानि कारकाणि पट ।।
इसीसे उसके कर्मों में फल उपजानेकी शक्ति ही नष्ट हो गई है । चाहे स्थूल दृष्टिसे उसके द्वारा किये गये कर्मों में मन, बुद्धि और भावका सम्बन्ध देखनेमें आवा भी हो,
कर्म करनेवाला । २. जिसपर कर्म किया जाय । ३. जिसके द्वारा कर्म किया जाय | ४. जिसके लिये कर्म किया जाय । ५.जहाँसे कर्म किया , जाय । ६. जिसमें कर्म किया जाय । ज्याकरण शास्त्रमें कर्मके साधनभूत ये छ: कारक माने गये हैं।
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[१५४
श्रामविलास ] परन्तु वास्तवमे वे सव एक मुने बीज और जली रस्सीके समान हैं, जिनका यद्यपि आकार तो है परन्तु उनमे फल उपनाने और वन्धन करनेकी सामर्थ्य नहीं। कर्तव्य-बुद्धि ही अज्ञानका लक्षण है और वहीं वन्धनका मूल है, जिससे उसने वस्तुत' छुटकारा पा लिया है, यथाज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः । नवास्ति किञ्चित्कर्तव्यमस्ति चेन्न स तत्ववित् ।। (भष्टावक्र) यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः । ज्ञानामिदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥
(गो. म ४ श्लोक १९) अर्थः ज्ञानामृत करके तृप्त और वृतकृत्य योगीके लिये किश्चित् भी कर्तव्य नहीं है, क्योंकि वह अपने प्रात्मस्वरूपमें किसी भी प्रकारके कर्म अथवा जन्म-मृत्युका लेप नहीं देखता), यदि उसको कर्तव्य शेप है तो वह तत्त्वका जाननेवाला ही नहीं। जिसके सम्पूर्ण कर्म कामना व संकल्पसे रहित होते हैं और ज्ञानरूपी अग्निसे जिसने सम्पूर्ण कर्मोको दग्ध कर दिया है, उसको ही बुद्धिमान् पुरुप नत्त्वको जाननेवाला पण्डित कहते हैं। __ मारांश, इस जिज्ञासुमे कामना न दीखते हुए भी होती जरूर है और इस ज्ञानोमे कामनाकी झलक दिखाई देतो हुई भी स्वरूपमे होती नहीं है। इसलिये इस ज्ञानीद्वारा किये गये कर्म भी श्रम ही होकर रहते हैं; यही जिज्ञासु और ज्ञानीद्वारा किये गये कमि 'म' और 'अकर्म' का विलक्षण रहस्य है।
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्वकर्मकृत् ॥
(गी अ. ४ श्लो 16)
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[ साधारणधर्म अर्थ:- जो पुरुप (अहङ्काररहित की गई) सम्पूर्ण चेष्टाओं में अकर्म (अर्थात् वास्तवमे अपने स्वरूपमें सब प्रकार कर्मसे असङ्गता) देखे और अहङ्कारमाहित अज्ञानी पुरुपाद्वारा सम्पूर्ण क्रियाओंके त्यागमें भी कर्मको देखे (अर्थात् अहङ्कारसहित कर्मत्यागमें भी कर्मफलको देखे, श्राशय यह कि चाहे कर्मका त्याग भी किया गया, परन्तु अज्ञानके कारण त्यागका कर्ता होने से वह त्यागका अहङ्कार कर्ताको पलके बन्धनमें लानेवाला होता है), ऐसा तत्त्वसे जाननेवाला पुरुप मनुष्योंमे बुद्धिमान है और ऐसे तत्त्ववेचा योगीने सब कुछ कर लिया है।
प्रसगसे 'कर्मका महत्व' 'क्रर्मकी व्याख्या' 'कर्मक्री अनिनिष्काम कर्मका उप. । वार्यता' 'कर्मद्वारा प्रकृतिकी निवृत्तिसंहार और त्यागी । मुखीनता' 'निष्काम-कर्मका रहस्य पत्तम भेट।
तथा 'कर्म-अकर्मका रहस्य' स्पष्ट किया गया। भर्तृहरिजीके इस वचनके अनुसार
'एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान्परित्यज्य ये'
यही वह सत्पुरुष है जो अपने स्वार्थ की तिलाञ्जलि देकर दूसरोंके अर्थसाधनमें तत्पर है। यह निष्कामता ही वास्तवमें परमार्थरूपी वृक्षका सुदृढ़ मूल है, जिससे नित्यानन्दरूप फलकी आशा की जा सकती है। यही वह बुनियादी पत्थर है, जिसके नहारे' मानकी सप्त भूमिकाओंका सात मखिलवाला भव्य भवन निर्माण किया जा सकता है। अन्त:करणमे तीन दोप रहते हैं जो कि अपने आत्मस्वरूपके साक्षात्कारमे प्रतिबन्धक होते हैं। (१) मल-दोष, अर्थात् दुष्ट वासनाका हृदयमे उत्पन्न होना, (२) विक्षेप-दोष, अर्थात् मनका चश्चल रहना, (३) अवारण-दोप, अर्थात् आत्मस्वरूपका अजान । उपर्युक्त तीनों दोपोंमेसे पहिले मलदोपसे यह सर्वथा निर्दोष हो चुका है, परन्तु रजोगुणकी
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आत्मविलास ]
[१५६ विद्यमानताके कारण वितेप-दोष कौमें प्रवृत्त कर रहा है। यद्यपि वह रजोगुण फलाशारहित होनेके कारण सत्त्वगुण मिश्रित है, तथापि जैसा 'कर्मद्वारा प्रकृतिकी निवृत्तिमुखीनता' के प्रसन में कहा गया है, शनैः-शनैः वह रजोगुण भी हृदयसे निकलकर सत्त्वगुणको हृदयमें भरता जाता है। भक्ति के मुख्य चार सोपान हैं:-- (१) 'तस्यैवाहम्' मैं उसीका हूँ-परमात्मासे दूरी, यहाँ
पड़दा मोटा व दृढ़ है। (२) 'तवैवाहम्' मैं तेरा ही हूँ-परमात्माके निकट, पड़दा
पतला हुआ। (३) 'त्वमेवाहम्' मैं तू ही हूँ-परमात्मासे अत्यन्त निकट,
पड़दा मनमाना। (४) 'शिवोऽहम्' मैं शिव हूँ-परमात्मासे अमिन्नता। यह निष्कामी सत्त्वगुणकी वृद्धि होते-होते कर्मके वेगसे इसी प्रकार छूटता जाता है, जैसे कुलालके चक्रका वेग दण्ड निकल जानेपर घटता जाता है। अब यह भक्तिके उपयुक्त चारों सोपानों मेसे प्रथम सोपान 'तस्यैवाहम्' से दृढतासे आरूढ होगया है। यही त्यागकी पञ्चम भेट है जो कि खुशी-खुशी वैतालके चरणोंमे रख दी गई।
(४) उपासक-जिज्ञासु _ 'उपासना' शब्दकी व्युत्पत्ति उप+आमन- 'उपासन' से उपासना व भक्तिका | है। 'उप' नाम समीप, 'आसन' नाम अर्थ।
| वैठाना, अर्थात् इष्टदेवके समीप मनको बैठाना उपासना शब्दका अर्थ है । ईश्वरसम्बन्धी पवित्र प्रेमका नाम भक्ति है । सम्बन्धमेदसे प्रेमके भिन्न-भिन्न नाम हैं, यथाहि. अपनेसे कनिष्ट पुत्रादिकोंमें जो प्रेम है उसको 'स्लेह'
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१५७ ]
[साधारणधर्म कहते हैं और 'वात्सल्यता' भी कहते हैं। अपने समवयसवालों से प्रेमको 'प्रेम' अथवा 'मित्रता' कहा जाता है। अपने पूज्यों में प्रेमको 'श्रद्धा' कहते हैं। स्वार्थ-बुद्धिसे सांसारिक पदार्थों में प्रेमको 'राग' कहते हैं और ईश्वरमें पवित्र-निष्कामविसे प्रेमका नाम 'भक्ति है। । वास्तबमें प्रेमके समान कोई रसीला पदार्थ संसारमें प्रेमकी महिमा / 'न भूतो न भविष्यति' अर्थात् न हुआ है
और न होगा । सारा संसार ब्रह्मासे लेकर चिउँटीपर्यन्त प्रेमका ही मतवाला देखा जाता है। प्रत्येक ज्यक्तिकी दौड़-धूप वेचैनीके साथ प्रेमको ही आलिङ्गन करनेके लिये हो रही है। कोई सुन्दर रूपोंपर मोहित हो रहा है तो कोई रसीले शब्दोंमे अटका हुआ है। कोई कोमल स्पर्शोमे उलझा हुआ है तो कोई सुस्वादु रसोंपर लव हो रहा है। कोई रसभीनी सुगन्धोंपर वलिहार जा रहा है तो कोई मान-बड़ाईपर न्यौछावर किया जा रहा है। कहॉतक वर्णन किया जाय ? मनसहित छहों इन्द्रियोंने सारे संसारको नचा डाला और इस संसाररूपी नृत्यभुवनमे सम्पूर्ण भूतजातके नृत्यका जो विषय है, वह केवल प्रेम है। अरे अभागे प्रेम ! तू ऐसी क्या वस्तु है ? जिसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको अपने लिये 'फणि मणि बिनु जिमि जल विनु मीना' की भॉति तड़फा दिया है ! सत्य बता तू ऐसा क्या जादू भरा हुआ है, जिसने सभी चित्तोंको भरमाया हुआ है।
'जादु वह जो सर पर चढ़के वोले पाँच वर्षके बालक-ध्रुवको तूने राजमहलसे निकाल निर्जन वनमें जा धकेला । प्रह्लादको तूने तन खम्भसे बॉधा, अग्नि में डाला और पत्थरोंकी वर्षा की। गोपियोंने तेरे लिये सव धर्सकी मर्यादाओंको नमस्कार किया और ब्रह्मादि देवता जिसके
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आत्मविलास]
[१५८ भ्र कुटि-विलाससे कम्पायमान होते हैं, उस कृष्णको भो तूने चन्दर की भॉति नाच नचाया। 'ताहि ब्रजकी गोपनियों छछिया भर छाछ पै नाच नचावे" ___ राजा भ्रहरि और गोपीचन्द्र आदिने तेरे लिये राज-सिंहासनको तिलाञ्जलि देकर तनपर भस्म रमाई। वेचारे मजनूं को तूने वन-वनमें भटकाया, फरहाद जैसे दीनने तेरे लिये पहाड़ोंको मैदान बना दिया और अन्तत. अपने हाथों अपने ऊपर कुल्हाड़ा मार अपने आपकी ही तेरे ऊपर वलि चढ़ा दी। कोयल तेरे लिये कूक रही है, वुलवुल तेरे लिये रो रही है, फूल तेरे साथ मिलकर खिलखिला रहा है। हँसतेको रुलाना, रोते को हँसाना तेरा एक खेल है। ओ प्यारे । तू वडा रसीला है ! तेरे रसरूपकी थोडी भी चटक जिस किसीसे मिली वही अमृत बन गया । तेरे संयोगसे कुजाति भीलनीके झूठे बेर भी अमृतरूप सिद्ध हुए, दासीपुत्र विदुरके छिलकोंने सुध-बुध विसार दी, दरिद्री-सुदामाके सूखे तन्दुलाने वह मजा दिया कि उसके पाद-प्रक्षालनके लिये कन्हैया ने'पानी परातको हाथ छुवो नहीं, नैननके जलसे पगु धोये।"
'शेप गणेश महेश दिनेश सुरेशहु जाहि निरन्तर गावे, जाहि अनादि अनन्त भखण्ड अच्छेद अभेद सुवेद बता । जाहि हिय लखि आनन्द ह जद मूढ हिय रस खानि कहाधे, ताहि आजकी गोपनियाँ बछिया भर छाल पे नाच नचावे ।। नऐसे पिहाल विवायन सू भये कण्टक जाल लगे पुनि जो ये। हाय । महादुर पाये ससा तुम आये इतै न ति दिन नोये ।। देखि सुदामाको दोन दशा करणा करिके करुणानिधि गये । 'पानि पगतको हाय छुओ नहि नैननके जलसे पगु धाय' ।।
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.१५६ ]
[ साधारण धर्म सच कहा है-प्रेममें नियम नहीं सारांश, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मे ऐसा कौन प्राणी है, जिसको तूने बाजीगरके वन्दरकी भॉति न नचाया हो । मुर्दे भी तेरे नामपर फड़क उठते हैं, सचमुच तू एक ऐसा ही अद्भुत पदार्थ है, जिसपर तीनों लोक वारकर फैंक दिये जाएँ। 'किस किस अदासे तूने, जन्चो दिखाके मारा ।
आजाद हो चले थे, बन्दा बनाके मारा ॥१॥ खुद बोल उठा अनन्हक, खुद बनके शरह तूने। एक मर्दे हकको नाहक, सूली चढ़ाके मारा ॥२॥ क्यों कोहकन पे तूने, यह संगरेजिया की । ली उसकी जाने शीरीं, तेशा उठाके मारा ॥३॥ गर्दनमें कुमरियोंके, उल्फतका तोक डाला। बुलबुलको प्यारे! तूने,गुल बनके खुद ही मारा ॥४॥
आखोंमें तेरे जालिम ! छुरियाँ छुपी हुई हैं। देखा जिधरको तूने, पलकें उठाके मारा ॥५॥
गुञ्चेमें आके महका, बुलवुलमें जाके चहका । . . . इसको हँसाके मारा उसको रूलाके मारा ॥६॥
2. चमत्कार । २. शिवोऽहं, मैं ग्रह हूँ । ३. धार्मिक कानून । . सच्चा। ५. फाहाद, नाम है ६. पापाण-वृष्टि । ७. मीठी, फरहाद की प्रियाका नाम भी है। 6. कुल्हाड़ा । ९, पक्षो निशेष । १..प्रेम । ३१. बेड़ी । १९ पुष्पाली।
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[ १६०
श्रामविलास ]
'मेरे स्वामी तेरी यह वॉकी अदा है' । हाय ! तू वटा मतवाला है । जहाँ तुझसे ऑखें चार हुई कि झट लोक-वेदकी बेड़ियाँ इसी प्रकार कट जाती हैं, जैसे कसके कारागारमें वसुदेव-देवको की । सव वेद व धर्मका फल तू ही है । तुझको तेरी शपथ है ! सत्य बत्ता, तू क्या वला है । तेरा स्वरूप क्या है ? तू कहाँ रहता है ? और तेरा क्या प्रयोजन है। इसपर उसने जो उत्तर दिया यह विजनीके समान कडक गया और हृदय शीतल हो गया। न मैं कहीं सातवें आकाशपर हूँ न सात समुद्रों पार, न
मृगनयनोंके नयनोंमें मेरा निवास है न प्रेमका उत्तर शब्द-स्पर्शादि विपयोमे ही मैं अटका हुआ है। वल्कि मैं तो सर्व प्राणियोंके अपने-अपने हृदयोंमे ही घर किये बैठा हूँ, परन्तु कृपणचित्त मुझको वहाँ न पाकर वाह्य पदाथमि मेरी खोज करते हुए भटकते फिरते हैं। जिस प्रकार मृग अपनी नाभिमें स्थित कस्तूरीकी गन्धको अपने अन्दर न देख उस गन्धकी तलाशमे मतवाला हुआ वन-वन भटकता फिरता है, ठीक इसी प्रकार वे पशु जीव भी मुझको अपने भीतर न देख वाहर मेरे लिये भटकते फिरते हैं । परन्तु अन्त स्थित वस्तु तो बाह्य प्राप्त कैसे हो सकती है ? आखिर मुझसे वञ्चित रहकर दीनके दीन ही रहते हैं। फिरो हो रूये जमीं पे यारो ! तलाश मेरी में मारे मारे अमल करो तुम दिलों में देखो, मैं नहने अकरख सुना रहा हूँ
इस विषयमें उनकी अवस्था ठीक उस बुढ़ियाके समान है जिसने अन्धेरी रातमें अपनी एक सूई घरके भीवर गमा दी थी और उसकी खोज गहर सड़कपर लालटेनकी रोशनीमें
१. पृथ्वीतल । २ कण्ठमे मो अधिक समीप शब्द।
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१६१ ]
[ साधारण धर्म करती फिरती थी। बुढ़ियाको सड़ककी खाक छानते देख एक राहगीरने पूछा कि बुढ़िया ग्रह क्या करती है ? उत्तर दिया "वेदा ! सूई खो गई उसको ढूंढती हूँ"राहगीरने पूछा कहाँ खो गई ? उत्तर मिला, “घरमें"। राहगीर हँसकर वोला अन्दर खोई वस्तुको वाहर हूँढना कसी मूर्खता है ? बुढ़ियाने मह बनाके कहा "हाँ ! वेटा सच कहते हो, परन्तु घरमें दीपक जलानेकी सामग्री नहीं है। मैंने सोचा कुछ तो करना ही चाहिये, इसलिये सड़ककी खाक ही क्यों न छानी जाय" । ठीक, यही दशा उन पुरुषोंकी है जो अपने हृदयोंमें दीपक जलाकर मुझको वहाँ पानेकी सामर्थ्य नहीं रखते और वाहर चमकीलेचटकीले पदार्थामें मेरी खोजके लिये खाक छानते और भटकते फिरते हैं। जिस प्रकार भाप दवाई नहीं जा सकती, इसी प्रकार मेरा वेग व नहीं सकता, इसी लिये संसारमें कोई एक भी भूतप्राणी प्रेमशून्य नहीं पाया जाता, चाहे प्रेमका विषय अपना-अपना भिन्न-भिन्न क्यों न हो । प्रत्येक शरीरसे मेरा स्रोत किसी न किसी रूपमे इसी प्रकार फूट-फूटकर निकलता है, जैसे चश्मेसे पानी । वास्तवमें प्रेम तो स्वाभाविक रूपसे प्रत्येक जीवके अपने अन्दर ही दवा हुआ है, अन्दर हुए विना तो वह बाहर आये हो कैसे ? परन्तु वे मेरे पवित्रप्रेमका सदुपयोग नहीं जानते, इसी लिये कोई धनके लिये जान देता है वो कोई पुत्रके लिये, कोई खोके लिये मर रहा है तो कोई मानके लिये। मेरे इस असदुपयागके कारण ही वे मुझे न पाकर खेदको ही पाते हैं। वास्तवमें ये विपय अपने स्वरूपसे प्रेमरूप नहीं हो सकते,यद्यपि इनके द्वारा प्रेमका प्रकाश इसी प्रकार होता है जिस प्रकार दर्पणके द्वारा हमारे मुख का, परन्तु दर्पण प्यारा नहीं प्यारा मुख ही है। इसी प्रकार वाह्य पदार्थ प्रेमस्वरूप नहीं, किन्तु अपने वास्तविक
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आत्मविलाम]
[१६२ प्रेमस्वरूपका मुखडा दिखलानेके कारण ही ये प्रिय हैं अपने स्वरूपसे कदापि नहीं।
प्रेमियो । कैसा आश्चर्य है कि तुम आप ही अपने अन्तरीय वेगसे आतुर हुए अपनी प्रेमभरी दृष्टियोंसे वाह्य पदार्थीको सुन्दरता प्रदान करते हो और आप ही उनके पीछे दौड पड़ते . हो। वस्तुतः सुन्दरता पदार्थगत नहीं है, बल्कि तुम अपनी मनोहर दृष्टियोंसे ही वस्तुओंको मनोहर बनाते हो। उनको मनोहरता प्रदान करनेवाले तो तुम आप ही होते हो और फिर आप ही उनके लिये तड़प-तडपकर अपनेको व्याकुल कर लेते हो । यदि सुन्दरता पदार्थगत होती तो कोई एक पदार्थ सबके लिये सुन्दर ठहरना चाहिये था, अथवा जिस पदार्थको जिस व्यक्तिने सुन्दर जाना है वह उसके लिये सदैव सुन्दर बना रहना चाहिये था, परन्तु यहाँ तो इन दोनों नियमोंका ही व्यभिचार है।
एक वार एक राजाने लैला व मजनूं के प्रेमकी चर्चा सुन मजनूं को अपने दरवारमे बुलवाया और लैलाके प्रति उसका पूर्ण प्रेम पाकर उसे लैलाके देखने की इच्छा हुई। परन्तु जब उसने लैलाको बुलाकर देखा तो विल्कुल श्याम वर्ण पाया । राजाने अपने महलकी सुन्दर रानियोंको मजनके सम्मुख खडा करके कहा, इनमेसे किसी एकको पसन्द करलो । मजनूं ने पुकारकर कहा "अरे नृपति । अपनी मूर्खता क्यों प्रकट करता है १ तेरे वे ऑखें कहाँ हैं जिनसे तू मेरो लैलाका देख सके ? तु मेरी आँखों से मेरी लैलाको देख ।" __ठीक, यही अवस्था सारे संसारकी है। सम्पूर्ण सौन्दयोंका स्रोत प्राणियोंके अपने अपने हृदयोंसे ही निकलता है और प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी स्वर्णमयी दृष्टिसे ही अपनी-अपनी वस्तुओंको सुन्दरता प्रदान करनेवाला होता है । जिस प्रकार सूर्यको रश्मि पर्गत, पृथ्वी और वृक्षादि सम्पूर्ण जड पदार्थोंपर
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१६३ ]
[साधारण धर्म पड़कर उन्हें प्रकाशवान करती है, परन्तु वस्तुतः पर्वतादि स्वस्वरूपसे प्रकाशवान नहीं होते, स्वस्वरूपसे प्रकाशवान तो सूर्य ही होता है। इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी अपने अन्तःस्थ प्रेमस्वरूपकी रश्मियोंसे ही अपने प्रिय पदार्थोंको प्रेममय बनाते हैं, परन्तु चस्तुतः प्रेमस्वरूप तो उनका अपना आत्मा ही होता है। पुत्रके मित्रसे प्रेम उस मित्र के लिये नहीं किया जाता, बल्कि पुत्रके लिये ही किया जाता है, जब वह मित्र पुत्रके अनुकूल नहींरहता तो उससे वह अपना प्रेम भी कुँच कर जाता है। अपने शरीरसम्बन्धी खो-पुत्रादिसे प्रेम त्री-पुत्रादिके लिये नहीं किया जाता, बल्कि अपने शरीरके लिये ही किया जाता है । जब वही स्त्रीपुत्रादि अपने शरीरके अनुकूल नहीं रहते तो उनका त्याग कर दिया जाता है। शरीरके अङ्ग-प्रत्यङ्गसे भी प्रेम उन अङ्गप्रत्यङ्गोंके लिये नहीं किया जाता, बल्कि अपने जीवन के लिये ही किया जाता है । पॉव जब अपने जीवनके अनुकूल नहीं रहता तो उसको काट दिया जाता है, हाथ जब अपने जीवनके प्रतिकूल होता है तो उसको उड़ा दिया जाता है, आँख जव अपने लिये सुखरूप नहीं रहती तो निकाल फैकी जाती है। साथ ही जो अझ अपने जीवनके निकटतर होता है दूसरों की अपेक्षा उससे अधिक प्रेम किया जाता है। हाथके ऊपर पॉवको न्यौछावर किया जाता है और आँख व दिमागके पर हाथकी बलि दे दी जाती है। इसी लिये जब कोई शत्रु सिरपर चोट लगाने आता है तो हाथ विना किसी प्रेरणाके चोट सहारनेके लिये झट सिरके आगे आ जाते हैं और ढालका काम दे जाते हैं । ऐसा क्यों? क्या हाथ, दिमाग व श्रॉखके समान इसका अपना ही अङ्ग नहीं है ? अङ्ग तो है, परन्तु दिमारा व ऑख जीवनके निकटतर हैं, इसी लिये दिमाग व बाखके लिये उसकी बलि देनी पड़ती है। इसी तरह जीवनरूप प्राण भी जीवनके लिये प्यारे नहीं,
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[१६४
आत्मविलास ] वल्कि अपने आत्माके लिये ग्यारे हैं, जब वे जीवनरूप प्राण भी अपने अात्माके लिये सुखदाई नहीं रहते तो उनकी भी वलि चढ़ा दी जाती है। अनेक मती स्त्रियोंका जीवन इसका ज्वलन्त दृष्टान्त है । वर्तमानमे भी जलमें दृव मरना, अग्निमै जल जाना
और अपने-आप फॉसी लगा लेना आदि अकाल मृत्युकी चेष्टा इस वातके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि वर्तमानमे उनका जीवन उनके लिये सुखरूप नहीं रहा था। इसमें स्पष्ट हुआ कि सम्पूर्ण प्रिय पदार्थ अपने प्रात्माके लिये ही प्यारे हैं, वे अपने लिये प्यारे नहीं । जो-जो वस्तु जितनी-जितनी आत्माके निकटतर है, उतनाउतना ही उसमें अधिक प्रेम है । पुत्रके मित्रकी अपेक्षा पुत्र अधिक प्रीति है, पुत्रादि की अपेक्षा अपने स्थूल शरीरमे अधिक प्रीति है और अपने स्थूल शरीरकी अपेक्षा प्राणामे अधिक प्रीति है। प्राणोंमे प्रीति सूक्ष्म शरीरके सम्बन्धसे है और सूक्ष्म शरीर मै आत्माका आभास होने करके प्रीति है, अर्थात् सूक्ष्म शरीर अपने आत्माका मुंह दिखानेके लिये दर्पणस्थानीय है। इससे स्पष्ट है कि वास्तवमें प्रेमस्वरूप न कोई वाह्य पदार्थ है, न स्थूल शरीर है और न सूक्ष्म शरीर ही, किन्तु परमप्रेमका विषय केवल वास्तविक प्रेम, प्रेमस्वरूप अन्तस्थित आत्मा मैं ही हूँ । वाह्य पदार्थ वास्तवमें प्रेमस्वरूप नहीं, बल्कि मेरे वास्तविक प्रेमस्वरूपकी छाया हैं। जिस-जिस पदार्थपर मेरे वास्तविक प्रेमस्वरूपकी छाया पड़ती है, वही प्रेमका विषय बन जाता है। अर्थात् वाह्य पदार्थ तुम्हारे लिये प्रेमस्वरूप तभीतक ठहरते हैं 'जबतक तुम उनको आत्मष्टिसे ग्रहण करते हो, जिस क्षण उन पदार्थोमसे तुम्हारी आत्मभावना खिसकी, कि प्रेम भी तत्काल पीठ दिखाता होता है।
प्रेमियो । तुम यथार्थ रूपसे इस रहस्यको न जान मेरे लिये कष्ट सहते हुए भी मुझको नहीं पाते, अन्तत मेरी भूख
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१६५ ]
[साधारण धर्म से भूखे रहकर दरिद्री ही बने रहते हो और मेरे लिये सारा जीवन हारकर भी कुछ नहीं पाते । जैसे कोई अपने मुखके प्रतिविम्बको दर्पणमें पकड़नेके लिये दौड़े तो दर्पणमें सिर टकरानेके सिवाय और कुछ हाथ नहीं आता, इसी प्रकार तुम्हारे प्रिय पदार्थ प्रेमस्वरूप तुम्हारी आत्माका मुंह दिखलानेवाले दर्पण ही थे, परन्तु वहाँ अपनी छायाको ही मत्य जानकर जब तुम उन्हें आलिङ्गन करनेके लिये दौड़ते हो तय तुमको सिरमुंहको खाना ही पड़ती है। __ एक बुल्बुल एक पितरेके अन्दर वन्द थी जो नीचे-ऊपर चारों ओरसे भाँति-भौतिक दर्पणासे जड़ा हुआ था। उस पिञ्जरे के ठोक मध्यमें एक सुन्दर फूल लटक रहा था,जिसका प्रतिबिम्ब उन भिन्न-भिन्न दर्पणमें पड़ रहा था। वुल्वुल जिधरको ऑख उठाकर देखती उसी ओर उस फूलकी छवि उसके मनको हर लेती थी। उसने सामने निगाह की और दर्पणमें फूलको पकड़ने दौड़ी तो मट शीशेसे टकर लगी। पीछेको मुड़ो और उस फूलके लिये बेताब होकर चलो परन्तु मुंहकी खाई, दाहिनेको झपटी तो सिरकी खाई। इसी प्रकार नीचे ऊपर सब ओर सिर-मुंहकी खा-खाकर वहीं ढेर हो गई।
प्रेमियो ! ठीक, यही अवस्था तुम्हारी है । जिस प्रकार उपयुक्त वुल्वुल अव्यवहित पुष्पको न पाकर और उसके प्रतिविम्बोंसे टकराकर अपना जीवन खो बैठी, इसी प्रकार तुम बहर भाँति-भाँतिके भोग्य-पदार्थरूपी दर्पणोंमें अपने अन्तरीय प्रेमस्वरूप आत्माके प्रतिविम्वोंको सत्य जान पतङ्गको भॉति उन्हे चिमड़ने दौड़ते हो और अपने आपको भस्म कर डालते हो । हाँ ! इनको प्रतिविम्बरूप जान, यदि विम्बको ओर लौटकर उसका आलिङ्गन करते तो अवश्य छाती ठंडो होतो, परन्तु
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आत्मविलास]
[१६६ तुम तो उन कॉचके टुकड़ोंपर ऐसे लटु हुए कि वास्तविक चिन्तामणिसे ही हाथ धो बैठे।
प्र म सदैव अपने अनुकूल पदार्थों में ही होता है, प्रतिकूल पदार्थोंमें तो प्रेम ही कैसा? और यह अनुकूलता आत्मरूप फरके ही होती है, अर्थात् जो पदार्थ अपने प्रियरूप आत्माकी प्रेममयी रश्मियोंसे मढ़े जाते हैं वही अनुकूलताके विषय होते हैं। जवतक उनमें अनुकूल-बुद्धि रहती है तबतक मन उनको प्रेम करनेके लिये दौड़ता है और जिस क्षण उनमें आत्म प्रतिकूलबुद्धि हुई कि मन तत्काल उनसे खिच जाता है। यदि वे वस्तुएँ वस्तुत' प्रेमपात्र होतो तो अब भी उनमे प्रेम विद्यमान रहना चाहिये था । परन्तु वास्तवमें वे प्रेमपात्र नहीं थीं, वे तो केवल अपने आन्तरिक प्रेम पानेका एक साधनमात्र थीं, अपना ही मुंह देखनेके लिये दर्पणरूप थी। जबतक उनमें अपना मुंह दिखलाई पड़ा चे छातीसे चिपटाई रक्सी गई और जब वे अपना मुंह दिखलानेसे विमुख हो गई तव त्याग दी गई। इस प्रकार प्रेमियो । इन भोग्य पदार्थोके द्वारा भी अपना हृदयस्थ प्रेमस्वरूप आत्मा ही वस्तुतः परम प्रेमका चिपय है। जैसे दीवारसे फेंककर मारा हुआ गैंद फैंकनेवालेकी ओर ही लौट कर आता है, अथवा नेत्रद्वारा निकली हुई अपने अन्तःकरणकी वृत्ति दर्पणसे टकराकर अपने ही मुखको विपय करती है, टीवार तथा दर्पण उनको अपने ही ओर लौटानेके लिये साधनमात्र हैं, ठीक इसी प्रकार इन भोग्य-पदाथोंमें रागरूप वृत्ति भी इनसे टकराकर अपने अन्तरात्माको ही स्पर्श करती है, परन्तु उनका वह प्रेम अविधिपूर्वक है। येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।। (गी,भ. श्लो २३)
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१६७ ]
[ साधारण धर्म ____ अर्थ:-हे अर्जुन ! श्रद्धासे युक्त जो सफामी भक्त (अज्ञानी पुरुष ) दूसरे देवताओंकों ( भोग्य-पदार्थोंको) पूजते हैं, वे भी (वास्तवमें) मेरेको ( अपने अन्तरात्माको ) ही पूजते हैं। परन्तु उनका वह पूजन विधिपूर्वक है, अर्थात् अज्ञानसहित है और विपरीत है। - मुझ हृदयस्थ परम-प्रमको सीधा न भज इन भोग्य-पदार्थों को ही भजना यही अविधिपूर्वक मेरा भजना है, अर्थात् अपने नाकको सीधा न पकड़ उल्टा पकड़ना है। जिसका फल यह होता है कि मेरे लिये अपनी प्यास बुझानेकी इच्छासे मृगतृष्णाके जलके समान इन भोग्य-पदार्थोके पीछे दौड़-दौडकर आखिर अपनी कमर तोड़ बैठते हो और मुमसे वश्चित ही रहते हों। न मैं ही हाथ आता हूँ न यह भोग्य पदार्थ ही, और जब मैं पकड़ा जाता हूँ तब यह भोग्य-पदार्थ तो आप ही विना किसी यत्नके हाथ आ जाते हैं।
एक नादान यच्चा अपनी छायाको अपनेसे भिन्न अन्य बालक नि उसको प्यार करनेको दौड़ा। बच्चोंका अपने समान बच्चोंमे वाभाविक ही प्रेम होता है, यह आप जानते हैं। उसने उसके सिरको पकड़ना चाहा, परन्तु ज्यू ही आगे बढ़ा कि वह छाया भी आगे खिसकी। बालक उसके पीछे दौड़-दौड़कर थक गया परन्तु वह हाथ न आई । अन्तमे वह ठहर गया । बच्चा रुका तो वह छाया भी रुक गई। उस वालकको फिर अपनेसे निकट ही जान बच्चा फिर उसको पकड़नेको झपटा तो छाया फिर आगे टरखी। अन्वतः वालक हैरान होकर और उसको न पाकर विलाप करने लगा। माताको यह चरित्र देख दया आई और बालकका अपना सिर उसके अपने हाथोंमें पकड़ा दिया तब छायाका सिर भी अपने-आप ही पकड़ लिया गया।
ठीक, इसी प्रकार प्रोमियो ! तुम अपने अन्तःस्थ परमप्रेम
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श्रात्मविलास]
[ १६६ पर अधिकार पाकर संसारके यावत् पदार्थोंसे प्रेम पा सकते हो
और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तुम्हारे लिये प्रेमस्वरूप धन मकना है। इसके विना कोई पदार्थ तुमको सन्तुष्ट नहीं कर सकता, बल्कि तुम्हारी भूखको अधिकाधिक बढाता हो जाता है।
अबतक इस प्रसङ्गमें जो यह कहा गया है कि 'बाह्य पदार्थ प्रेमस्वरूप नहीं, बल्कि अपना हृदयस्थ-यात्मा ही परमप्रेमका विपय है। इसका अर्थ यह न समझ लेना कि यह कथन तो कोरा स्वार्थमूलक है। 'अपनेसे ही प्रेम करो' यह तो नारा संसार ही चिउंटीसे लेकर ब्रह्मापर्यन्त प्रत्येक प्राणी अपनी प्रत्येक चेठाम अपने स्वार्थके गीत गा रहा है, फिर तुम्हारे इस कथनसे क्या सिद्ध हुश्रा १ इस प्रकार अर्थका अनर्थ न कर डालना, परमप्रेम का गला न घोट डालना। यह आत्मप्रेम स्वार्थमूलक नहीं। किन्तु स्वार्थत्यागकी अवधि है, केवल ठोस समताभरा प्रेम है। इस श्रात्मप्रेमका अर्थ मन, इन्द्रिय व शरीरादिसे अथवा शरीरके स्वार्थियोंसे प्रेम करना नहीं है,किन्तु मन,इन्द्रिय और शरीरादिका सार व आधारभूत परमज्योति, जो मन आदिके विकारोंसे सर्वथा निर्विकार है, वही परम प्रेमका विषय है । शरीरादि विकारी वस्तु तो प्रेमयोग्य हो हो नहीं सकती, जो वस्तु प्रत्येक क्षण बदल रही हो उससे तो प्रेम सुखसाधन हो ही नहीं सकता। उससे तो प्रेम धोखेकी टट्टी है जो कि उल्टा फलेजेको विदीर्ण किये बिना नहीं छोडता । प्रेमके योग्य तो वह नित्य-निर्विकार परम सत्य ही है जो नित्य एकरस रहकर सम्पूर्ण पढाथोंमे इसी प्रकार परिपूर्ण हो रहा है जैसे कटक-कुण्डलादिमें स्वर्ण, घटशरावादिमें मृतिका, अथवा पटमे सूत्र एव तरङ्ग-फेन-बुदबुदोंमें एक ही जल तरझायमान रहता है । 'जो एक मेरे व्यष्टि शरीरमे
है. वही परमज्योति समष्टि शरीरोंमे तृण, मृत्तिका,पापाण, नदी, पर्वत, वृक्ष, पशु, पक्षी एवं चारों ग्वानियों और चारों
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१६६ ]
[ साधारण धर्म वाणियोंमे पसर रहा है । जो मेरेमे है वह सबसे है। इन नाना रूपोंमे मेरा ही आत्मा अपनी भाँति-भाँतिकी मॉकियोंमें दर्शन दे रहा है। इस प्रकार तरङ्गभाव दृष्टिसे गिर जाना, जलभाव घष्टिमें समा जाना और इस दृष्टिसे सब भूतजातमें उस एक अन्तयामी देवकों ही नमस्कार करना, इसी रूपसे प्रेम अमृतरूप हो सकता है।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये मजन्ति तु मां भक्त्यामयि । तेषु चाप्यहम् ।।
(गा. भ. ६ श्लो. २६). अर्थः-मैं सब भूतोंमें समभावसे व्याप रहा हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय, परन्तु (इस समताभावसे रहता हुश्रा भी) मुझे जो प्रेमी भक्तिपूर्वक भजते हैं वे मेरेमे हैं और मैं उनमे हूँ।
प्रेमियो! आशय यह है कि मैं तो सदा ही सब भूतजातमें समान भावसे व्यापक हूँ, परन्तु तुमने अभिमान और स्वार्थका पड़दा अपने मुंहपर डाल रक्खा है, इसलिये तुम मेरी समता भरी व्यापकताको नहीं देख सकते । परन्तु जिसने उपर्युक्त प्रेम-भक्तिद्वारा उस स्वार्थ व अभिमानके पड़देको अपने मुंहसे उतार कर फाड दिया है, वही मेरी समताभरी व्यापकताका यथार्थ रूपसे इसी प्रकार साक्षात्कार करता है, जैसे समुद्र नाना वरकोंमें समान रूपसे आनन्दकी मौजे मारता रहता है और सब वरगोंमें अपना ही रूप देखता है। देखो, इसमे तो स्वार्थकी गन्ध भी नहीं, बल्कि स्वार्थक हेतु शरीरादिसे ही आत्मभाव खो बैठना है । हाँ! इस अस्थि-मास चर्मादिरचित शरीर में ही श्रात्मबुद्धि धारकर जो वन्दरकी भॉति मुट्ठी भरके नाम
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आत्मविलास]
[१० रूपादिके पीछे भटकते फिरते नो, या, ग बाम्नया में स्वार्थमूलक है । यह प्रेम प्रेमपट-याच नाही, किन्नु म्याथमूलक कोरा राग है और द्वेपस प्रसा हुआ। यपि यह देगनेमे मधुर है परन्तु विपमे मिला हुआ है। जैसे विषमे मिला हुश्रा दुग्ध यद्यपि पान करनेमें मधुर होता है, परन्तु पानेवालेको अतडियोंको फाड़ डालता है। इस प्रकार यपि रागमूलक पदाथों में भी तुम अपना ही मुंह देखते हो, परन्तु वे पदार्थ वेपमे प्रमे हुए होने के कारण उनमें अपना मुँह. देवना ऐसा है उसे अपने मूत्रमें अपना मुंह देखना, जिममें अपना प्रतिविम्य स्पष्ट भान नहीं होता, साथ हो उसमे देग्या हुया अपना मुंह मी अपवित्र हो जाता है ओर ग्लानिका पात्र होता है । इसके विपरीत उपर्युक्त निःस्वार्थ प्रेम ही निर्मल दर्पणके समान है, जिमग देखा हुआ अपना मुंह ज्योंका त्यों स्पष्ट प्रतीत होता है और क्षण-क्षण उल्लासका कारण होता है।।
प्रेमियों ! इस प्रकार सब भेदभावनाको उदा अभेदरूप समतामरी एकता स्थापित करना, यही मेरा परम प्रयोजन है।
उपयुक्त समतामरी प्रेमको अवस्थामे स्थिति पानेके लिये उपयुक्त समतारूपी । सबसे पहले यह श्रावश्यक है कि सांसा. प्रेमका साधन । । रिक धन-पुत्र-स्त्रो पाटि दो-चार
- - वस्तुओंने जो हृदयगत प्रेमको बन्धन लगाकर सीमावद्ध कर रक्खा है और इसका स्वाभाविक प्रवाह रोककर इसको अपवित्र व गॅदला कर रखा है, उन बन्धनोंको तोड़ा जाय। जिस प्रकार तालनलेइवाका पानी रुके हुए रहने के कारण गन्दला हो जाता है और फिर सड़-सड़कर सूख जाता है किन्तु नदीका जल बहते रहने के कारण नित्य निर्मल रहता है।
'बहता पानी निर्मला, खड़ा सो गन्दा होय
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१७१ ]
[ साधारण धर्म इसी प्रकार हृदयगत प्रेम भी तुच्छ स्वार्थमयी सीमामें बद्ध रहने के कारण स्वार्थमूलक रागके रूपमे खड़ा रहकर पचपी सड़ॉद उपजाता हुआ सूख जावा है । इसलिये इस बन्धनका तोड़ना परम आवश्यक है जिससे इसका स्रोत चले और यह निर्मल हो। इसका मुख्य साधन यही हो सकता है कि निष्कामतासे इस प्रेमका नाता ईश्वरसे जोड़ा जाय जो सब प्रेमोंका उद्गम स्थान है । क्योंकि जबतक इस प्रेमका मेल ईश्वरसे न जुड़े तबतक इधरसे टूटना असम्भव है। यदि आप इधरसे तोड़नेकी ही चेष्ठामे लगे हुए हैं और उधर जोड़नेका ध्यान नहीं रखते तो श्रापका परिश्रम व्यर्थ है। यह हो कैसे सकता है ? इधरसे तोड़कर उधरको जोड़ना और उधरको जोड़कर इधरसे तोडना, दोनों क्रियाओंका साथ-साथ होना जरूरी है । मनका यह स्वभाव है कि वह प्रेमशून्य रह नहीं सकता, क्योकि इसके भीतर वास्तव में कोई वस्तु प्रेमस्वरूप विद्यमान है जो प्रेम विना रह नहीं सकती। अव चाहे आप इसका सदुपयोग करें चाहे दुरुपयोग, इसका स्रोत चाहे संसारकी ओर खोले चाहे ईश्वरकी ओर, यह आपकी खुशी है । ईश्वरकी ओर इसका स्रोत खोलकर आप अपने लिये मोक्षद्वार खुला पा सकते हैं और संसारकी ओर इसका स्रोत खोलकर नरकद्वार आपके लिये खुला पड़ा है। वह हृदयगत प्रेम ऐसा परिपूर्ण है कि ज्यू-ज्यूँ यथार्थ रूपसे उसके निकासका मार्ग खोला जायगा, वह कभी खाली नहीं होगा, बल्कि अधिकाधिक भरवा जायगा । जिस प्रकार चश्मेका पानी ज्यू-ज्यू प्रवाहके रूपमे चलता है त्यूँ-न्यूँ वह अन्दरसे उमल-उझलकर निकलता है और एक नदके रूपमें इसका प्रवाह चलने लग पड़ता है। यदि आप इस प्रेमके स्रोत को संसारकी ओर वन्द करनेमें लगे हुए हैं और परमार्थकी ओर इसको वह निकलने का मार्ग नहीं देते तो यह बरवश संसारकी
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आत्मविलास]
[१७२ ओर वह निकलेगा, क्योंकि यह रुका नहीं रह सकता । परन्तु यदि आप ईश्वरकी ओर इसका मार्ग खोल देते हैं तो यह ससारकी ओरसे अपने प्राप बन्द होता चला जायगा । दृष्टान्तस्थलपर समझ सकते हैं कि एक हौजमे, जिमका सम्बन्ध एक अटूट जलाशयसे है, निकासके लिये दो नालियों है, एक अपर है। एक नीचे । नोचेकी नालीको यदि हम बन्द करदे तो पानी ऊपर को नालीसे चालु हो जायगा और यदि हम नोचेकी नाली खोल दें तो चाहे ऊपरकी नालीको वन्द न करे, जलका निकास अपने
आप ऊपरकी नालीसे वन्द होता जायगा और केवल नीचेकी नालीसे इसका प्रवाह चल पड़ेगा। इसी प्रकार हृदयगत प्रेमरूपी हौजकी ईश्वरसम्बन्धी नीचेकी नालीको खोल दिया जाय तो संसारसम्बन्धी ऊपरकी नालीसे इसका प्रवाह स्वतः बन्द होता जायगा । वास्तवमें बात तो यूँ है कि इस स्रोतको जोरके साथ ईश्वरकी ओर खोलनेकी जरूरत है, संसारकी ओर चन्द करनेकी जरूरत है ही नहीं, क्योंकि सत्य सत्य ही है और झूठ भूठ ही । सत्यमे आकर्षण विद्यमान है उसके साथ थोडा सम्बन्ध जोड़नेकी जरूरत है, फिर वह अपने आप चित्तको इसी प्रकार अपनी ओर बैंचता चला जायगा जैसे चुम्बक सुई को । वास्तवमे मिथ्या नामरूप संसारमें अपना कोई आकर्षण नहीं है, बल्कि उनमें जो आकर्पण प्रतीत होता है वह सत्यके नातेसे ही है, जैसे भ्रमरूप रजतमें जो आकर्षण प्रतीत होता है वह सत्यस्वरूप शुक्तिके नातेसे हो है। दृश्यमान पदार्थों में चित्त तभी खिंचता है जबकि उनको सत्यरूपसे ग्रहण किया जाता है। अर्थात् जो सत्यता केवल परमात्मामें है वह सरसवा जब हम अपनी भूलसे इन मिथ्या नामरूपोंमें आरोपित करते हैं तभी हम ठगे जाते हैं और जब कभी उनमे सत्यताकी भ्रान्ति निवृत्त हो जाती है तव चित्तका श्राफर्पण भी अपने-आप छूट जाता है।
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१७३]
[साधारण धर्म मनमें जो रजोगुण, चलता अर्थात् विक्षेप-दोप है उसको सगुण भकिकी | निवृत्त करना, यही भक्तिका प्रयोजन है । इस
विश्यकता। | रजोगुणको निवृत्तिका उपाय यह नहीं है कि उमको दवा दिया जाय और उसको बाहर निकालनेका मार्ग न दिया जाय, यह तो एल्टा हानिकारक है। जिस प्रकार शरीरके अन्तर रक्तविकार करके उत्पन्न हुआ जो फोड़ा, उसको राजी करनेका उपाय यही है कि उसकी पीपको वाहर निकाल दिया जाय । पीप ज्यू ही बाहर निकली कि शान्ति तत्काल मिलती है। इसके विपरीत यदि इस पीपको निकालनेका मार्ग न दिया गया तो यह हड्डियोंको गलाकर अपने-आप निकासका कोई दूसरा मार्ग खोल लेगी । इसी प्राकृत नियमके अनुसार रजोगुणके वेग को दवा न रखकर उसको ईश्वरीय भक्तिके द्वारा निकाल देना जरूरी है । हाँ! कर्तव्य इतना ही है कि उस रजोगुणका प्रवाह बदल दिया जाय । जहाँ इसका प्रवाह संसारकी ओर चला हुआ था इसे उधरसे रोककर परमार्थकी ओर खोलना आवश्यक है। जहाँ 'घर मेरा वार मेरा, कुटुम्ब मेरा परिवार मेरा, शरीर मेरा प्राण मेरा' की कहानी पढ़ी जा रही थी, उसको 'घर तेरा वार तेरा, कुटुम्ब तेरा परिवार तेरा, शरीर तेरा प्राण तेरा' में बदल देना जरूरी है। यद्यपि भक्तिसम्बन्धी साधन-सामग्री भी रजोगुण सम्भूत हो है, तथापि जिस प्रकार लोहसे लोहा काटा जाता है, परन्तु गरम लोहसे गरम लोहा नहीं कट सकता किन्तु ठंडा लोहा ही गरम लोहेको काटनेमें समर्थ होता है, इसी प्रकार रजोगुणसे ही रजोगुण निवृत्त किया जा सकता है, परन्तु ठण्डे लोहेके ममान भक्तिप्रधान सत्त्वगुणमिश्रित रजोगुण से हो रजोगुणकी निवृत्ति सम्भव है। इसकी आवश्यकता इस लिये है कि संसारकी ओर चलाया हुआ इस रजोगुणका प्रवाह रजोगुणको शान्त नहीं कर सकता, वल्कि अग्नि में घृतके
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आत्मविलास]
[१७४ समान इसके वेगको अधिकाधिक उभारनेवाला ही होता है, क्योंकि संसार स्वयं रजोगुणका मूर्ति है जैसे प्रग्निसे ताप दूर नहीं हो सकता किन्तु जलसे हो तापकी निवृत्ति सम्भव है, इसी प्रकार ईश्वरकी अोर चलाया हुश्रा इम रजोगुणका प्रवाह ही एकमात्र सांसारिक रजोगुण के शान्त करने का उपाय है । ईश्वर क्योंकि ठोस सत्त्वगुणकी मूर्ति है, इसलिये जैसे जलके मम्बन्धसे अग्नि शान्त होती है इसी प्रकार उमसे सम्पन्ध जोड़कर ही यह रजोगुण निवृत्त किया जा सकता है। ___उपर्युक्त प्रयोजनको साधनेके लिये सबसे पहले तो सगुण भक्तिका प्रादुर्भाव आवश्यक है। क्योकि मन नामरूपका पुतला है, नामरूपमे ही फंसा हुआ है, नामरूपका हो मतवाला है, इस लिये एकाएक यह बेनाम रूपमें जा नहीं सकता, बल्कि नामरूपके सहारेसे ही यह नामरूपसे छूट सकता है। उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार और कोई उपाय इसके विना तामरूपसे छुटकारा पानेका है ही नहीं। इसी श्राशयको स्पष्ट करने के लिये शास्त्रकारोंका वचन है :
'तामेव भूमिमालम्व्य स्खलनं यत्र जायते' श्राशय यह है कि मनुष्य जिस भूमिपर गिर पड़ा है उसी भूमिका सहारा लेकर उस भूमिसे उठ सकता है, उसीका सहारा लिये विना उस भूमिसे उठना असम्भव है । इसी प्रान्त व सिद्धान्तके अनुसार मन नामरूपकी भूमिपर गिरा हुआ है, इस लिये ईश्वरसम्बन्धी नामरूपके सहारेसे हो यह सांसारिक नामरूपसे ऊँचा उठ सकता है। यदि विचारसे देखा जाय तो जहाँ उपास्य-उपासक भावरूप मेदृष्टि विद्यमान है,वहाँ वैखरी वाणीद्वारा जो कुछ भी कहा जायगा वह सव सगुणताके अन्तभूत ही होकर रहेगा। क्योंकि मन-वाणोद्वारा जो कुछ भी चिन्तन
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१७५
[साधारण धर्म किया नायगा अथवा बोला जायगा वह किसी न किसी विशेषण का ही सूचक होगा, निर्विशेष पदमे मन-वाणीको गम है ही नहीं। वाणी प्रतियोगी व व्यवच्छेदककी ही वाचक है और जहाँ विशेषण-विशेष्यरूप गुण-गुणीभाव विद्यमान है वहाँ निर्गुणता से क्या सम्बन्ध ? फिर चाहे हम सगुण भक्तिसे विद्वप करके निर्गुण भक्तिका आग्रह भले ही करे,किसी श्राकारसे घृण पड़े किया करे, परन्तु वास्तवमें अपने आचरणोंसे तो हम सगुण व
1. परस्पर विरोधीका नाम प्रतियोगी' है, जैसे घट अपने घटामायका प्रतियोगी है।
२. व्यवच्छेदक उस विशेषणको कहते हैं जो अन्य वस्तुओंसे अपने विशेष्यको मिश्च करके बोधन करा दे जैसे 'कुण्डली पुरुष' । यहाँ कुण्ठलने अन्य पुरुषोंसे कुण्डलचालेको भिन्न करके जितला दिया। इस प्रकार शब्दका स्वभाव है कि वह किसी न किसी विशेषणको लेकर परिच्छिन. वस्तुको ही बोधन करेगा, अपरिच्छिन-वस्तुके बोधन कराने में शब्द किसी प्रकार समर्थ नहीं है। भाशय यह है कि निर्गुण परमात्मा मनावाणीकी गम नहीं है। यदि निस्प, अज, अविनाशी शब्दोंसे उसका कथन-चिन्तन किया जायगा तो यह निस्य, भज भादि उसके विशेषण ही होंगे,ये उसका स्वरूप नहीं हो सकते, और जब यह विशेषण हुए सब अनिस्य, जन्म व नाशसे मिव ही उस परमात्माका बोध होगा |परन्तु वह परमात्मा अपनी व्यापकता करके किया विशेषणका विशेष्य नहीं हो सकता, यदि किसी विशेषणवाला माना जाय तो उसकी व्यापकता भग होती है और अनित्य,जन्म व नाशादि गुणक्रियाओंमें उसका अभाव सिद्ध क्षेता है,परन्तु घरात:किसी स्थल में उसका अभाव नहीं है और मन-धाणी किसी न किसी विशेषण बिना कपन-चिन्तनमें समर्थ हो नहीं सकते, क्योंकि वे स्वयं देश, काल व वस्तु-परिच्छेदपाले हैं। इसलिये वाणी व मनद्वारा जो कुछ भी कथन-चिन्तन होगा मह सगुणताके अन्तर्गतही रहेगा।
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आत्मविलास ]
[ १७६ साकार भक्तिको ही सिद्ध कर रहे होंगे और वह भी एक अप्सप से । वास्तव में जहाँ सगुणसे विद्वप है वहाँ तो निर्गुण भक्तिसे सम्बध ही क्या ? निर्गुण भक्ति तो तभी उत्पन्न हो सकती है जब समस्त रागद्व पोंसे हृदय निमल हो गयाहो,सम्पूर्ण संसार ही अपने पाचरणोंसे देवमन्दिर हो गया हो और प्रत्येक चेष्ठाऍही भगवान् की पूजास्वरूप वन गई हो।
जेता चले तेती प्रदक्षणा, जो कुछ करूँ सो पूजा । गृह उद्यान एक सम जान्यो, भाव मिटायो दूना ।।
इसके विपरीत किसी प्रकार द्वेष मनमें रखकर अथवा किसी मत-मतान्तरका आग्रह बनाये रखकर निर्गुण-भक्तिका हठ करना तो एक प्रकारसे उसका उपहास करना है। निगुणभक्तिका प्रादुर्भाव तो तभी हो सकता है जब कि कोई चित्तचोर अपनी विचित्र विचित्र छवियोंद्वारा चित्तको चुरा लेजाय और चित्तपरसे अपना अधिकार ही निकल जाय । चित्तपर अधिकार बनाये रखकर निर्गुण-भक्तिका श्राग्रह रखना तो कोरी भूल है। इसीलिये भगवानने कहा है :
क्लेशोविकतरस्तेपामव्यक्तासक्तचेतसाम् । अव्यक्ता हि गतिदुखं देहवद्भिवाप्यते ॥
(गीता अ. १२ पलो. ५) अर्थ:-उन अव्यक्तस्वरूपमे आसक्तचित्तवालोंको लश अधिक होता है, क्योंकि राज्यक्तरून गति देहधारीद्वारा दुःखसे प्राप्त हाती है।
अर्थात् जिनका देहमें अहं-अभिमान है वे इस अव्यक्त गति (निर्गुण-भक्ति ) के अधिकारी नहीं हो सकते । सगुण भक्ति द्वारा ही यह अधिकारी अपने सुन्दर भावोंका उद्गार
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१७७ ] .
[साधारणधर्म निकाल सकता है और पवित्र भावोद्गारद्वारा ही सत्त्वगुण हृदयमें भरपूर होकर रजोगुणको बाहर निकाल फैकवा है, शान्तिकी लहरें हृदयमें उमड़ती हैं और ऑखें भी उसका जवाब देती हैं । वास्तवमें मनकी जड़ताको पिघलानेका साधन सच पूछिये तो सगुणभक्ति ही है, इमीके द्वारा मन व शरीरसे अपना अधिकार तृणके समान टूट जाता है । इस अवस्थामें ही वह वंशीधर शरीर व मनरूपी बाँसुरीको अपने हाथमें ले लेता है और इस बॉसुरीसे मनोहर स्वर निकालता है । इसीलिये भगवान्ने श्रीमुखसे सगुणभक्तिकी महिमा गीतामे इस प्रकार कथन की है :
मध्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेतास्ते से युक्ततमा मताः॥
अ. १२ श्लो. २) अर्थः-(अर्जनके प्रश्नपर कि सगुण व निर्गुण भक्तिमें श्रेष्ठ कौनसी है, भगवान् कहते हैं कि) मेरे सगुणरूपमे मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरेमें जुड़े हुए जो भक्त अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त हुए मुझे भजते हैं वे मुझे अति उत्तम योगी मान्य हैं। प्रवासात । श्रद्धाका सामान्य अर्थ विश्वास है और
गुरू व शास्त्रके वचनोंमे विश्वास श्रद्धा का मुख्य अर्थ है । मानसिक प्रकृतिका यह नियम है कि जैसा-जैसा इस जीवका विश्वास होगा वैसी-वैसीही इसकी भावना होगी, वैसी-वैसी ही इसकी गति व चेष्टा होगी और फिर वैसा ही इसका स्वरूप हो जायगा । पुनर्जन्मके मूलमे यही रहस्य है कि जैसीजैसी इस जीवकी श्रद्धा होती है वैसी-वैसी इसकी भावना होती है, उस भावनाके अनुसार ही इसका कर्म होता है और फिर उन
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श्रामविलास ]
[१७८ कर्मों के अनुसार ही इस जीवको वैसी-वैली योनिकी प्राप्ति होती है। इससे स्पष्ट हुआ कि इहलौकिक व पारलौकिक सब प्रकारकी वृद्धि-क्षतिके भूलमे एकमात्र श्रद्धाका ही राज्य है। कहना पड़ेगा कि वर्तमानमे जिस-जिस जीवको जिस-जिस योनि और भोगोंकी प्रामि हो रही है वे उसकी किसी न किसी श्रद्धाके ही परिणाम हैं, अर्थात् श्रद्धारूपी मूलके ही वे फल हैं। इसी लिये भगवानका वचन है :श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ' (गी, १७.३)
सत, रज व तमभेदसे त्रिविध श्रद्धा निरूपण करके भगवान् कहते हैं कि 'जैसी जिसकी श्रद्धा होती है वैसा ही उसका स्वरूप होता है, क्योंकि यह पुरुप श्रद्धामय ही है।
इस तत्वके अनुसार श्रद्धाद्वारा दानी पुरुपोंके श्रवण, कीर्तन व स्मरणसे कृपण मी उदार हो सकता है, वीर पुरुषोंके श्रद्धाद्वारा श्रवण-कीर्तनादिसे कायर मी वीर हो जाता है और दयालु पुरुपोंके श्रद्धाद्वारा श्रवणादिसे कठोर भी दयालु हो जाता है। विपरीत इसके कृपणोंमें श्रद्धा करके उदार भी कृपण, कायरों में श्रद्धा करके वीर भो कायर और कठोरमें श्रद्धा करके कोमल भी कठोर वन सकता है । संसारमे जिस-किसी पुरुषको सांसारिक विद्या अथवा व्यवसायकी प्राप्ति हुई है, वह उसकी श्रद्धाका ही फल है। श्रद्धा विना जब कि तुच्छ सांसारिक कला-कौशलादि की प्राप्ति ही असम्भव है, तब उस अगम्य वस्तुकी प्राप्ति, जो कि मन-इन्द्रियोंसे अतीत है श्रद्धा विना कैसे सम्भव हो सकती है ? इसी लिये भगवान्ने स्थल-स्थलपर गीतामें श्रद्धाकी महिमा वर्णन की है:'श्रद्धावाल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । (४-३६) 'अज्ञवाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । (१-४०)
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१७ ]
[साधारणधर्म अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्प परन्तप । अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ।। (९-३)
अर्थात् श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुप ही ज्ञानको प्राप्त करता है। श्रद्धाहीन, अज्ञानी व संशयात्मा पुरुष नष्ट हो जाता है। हे परन्तप ! जो इस धर्ममें श्रद्धाशून्य हैं वे मुझे न पाकर जन्म-मरणरूप संसारमें ही पुनरावृत्तिको प्राप्त होते हैं।
उक्त वचनोंके अनुसार निष्काम-जिज्ञासु जिसका अन्तःकरण गुरु-शास्त्रके वचनोंमें शुद्ध सात्त्विकी श्रद्धासे पूर्ण है, भगवान्के अलौकिक अवतारोंकी अलौकिक लीलाओंके श्रवण-कीर्तनादि नवधा भक्तिके सहारेसे अन्तिम आत्म-निवेदन भक्तिको प्राप्त कर सकता है और उपासकमावसे ऊँचा उठकर उपास्यरूप बन कर ही उपास्यदेवकी उपासना कर सकता है तथा साधकसे सिद्ध वन जाता है :'कृष्ण-कृष्ण कहते कहते मैं ही कृष्ण होगई।' ,मी(बाई) . यही वास्तव में निर्गुण उपासना है जो कि इस सगुण उपासनाद्वारा ही प्राप्त की जा सकती है, जिसके द्वारा देहेन्द्रियादिपर से अनायास साधकका अधिकार छूट जाता है और तब वह वंशीधर इनको अपने हाथमें उठाकर इनसे मधुर मधुर शब्द निकालने लगता है। इसके विपरीव इस सगुण उपासनाका परित्याग- करके निर्गुण उपासनाफा मिथ्या हठ करना वो 'प्रलापमात्र है।
. सगुण उपासनाकी आवश्यकता स्पष्ट की गई, परन्तु कपणसगुण उपासनाका | चित्त इस उपासनाका अधिकारी नहीं हो साधन, प्रथम श्रेणी।। सकता। जिसने सांसारिक तुच्छ पदार्थों
, पर ही अपना अधिकार जमाया हुआ है,
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आत्मविलास ]
[१८० 'घर मेरा है,कुटुम्ब मेरा है'इत्यादि रूपसे तुच्छ पदार्थोंको पकड़से ही निसका हृदय कठोर है उसका इस पथपर क्या काम ? क्योकि यह नियम है कि जितनी-जितनी पदार्थोकी पकड होगो उतनी. उतनी ही हृदयकी कठोरता होगी और कठोरताका भक्तिके साथ विद्वप है। भक्तिके लिये तो कोमलताकी आवश्यकता है, हृदय कोमल हो तो उससे गङ्गाके प्रवाहकी नगई प्रेममा प्रवाह चले। इस लिय पदार्थोंका ममत्व परित्याग करके जिसकी संसार में निष्कामभावसे (जिसका निरूपण 'निष्काम-कर्म के प्रसनम पीछे किया गया है) प्रवृत्ति है, उदारता करके जिसकी उपष्टि नष्ट होगई है, कोमलतासे हृदय पूर्या हुआ है तथा खान-पान, पहरान व भाषासम्बन्धी व्यवहारमे सरलभान जिसके अन्तर प्रवेश कर गया है वही उपासनाका अधिकारी है। प्रथम माता, पिता तथा आचार्यमें देवबुद्धिसे श्रद्धा करके ही इस उपासनाका श्रीगणेश होता है, इसी अभिप्रायसे शास्त्रने भाज्ञा दी है:
'मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, श्राचार्यदेवो भव'
अर्थात् माता, पिता तथा आचार्यको देवरूपसे ग्रहण करो। इस प्रकार जब इन शरीरोंमें भक्तिभाव उत्पन्न होता है और अपनेसे वयोवृद्ध, वर्णवृद्ध, पाश्रमवृद्ध, विद्यावृद्ध तथा ज्ञानवृद्ध शरीरोंमे प्रणाम, वन्दना एवं उत्थानादिद्वारा श्रद्धाभाव प्रकट होने लगता है,तभी यह अधिकारी ईश्वरभक्तिका पात्र हो सकता है। चित्तको कोमलताद्वारा सोपान क्रमसे अभावको गलित कर-करके सर्वत्र ईश्वरदर्शन करा देना ही उपासनाका मुख्य प्रयोजन है । परन्तु जब उन उपर्युक्त जीते-जागते पूज्य शरीरोंमे ही चित्त न झुके, बल्कि उनके प्रति स्तब्धता ही बनी रहे, तव एकाएक प्रतिमामें ईश्वरबुद्धि कैसे उत्पन्न हो सकती है ? इसी लिये प्रथम उपर्युक्त शरीरोंमे श्रद्धा-भक्तिभाव उत्पन्न होना परमाघश्यक है, और यही उपासनाकी प्रथम श्रेणी है।
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१८१
[साधारण धर्म . , अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि सम्प्रवर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।। . .अर्थः-अभिवादन (अर्थात् प्रणाम-वन्दना) करनेके स्वभाव वाले और नित्य ही वृद्धोंकी सेवा करनेवाले पुरुषको चार बातोंकी वृद्धि होती है (१) आयु (२) विद्या (३) यश और (४) बल, अर्थात् मनोवल । यह नियम है कि वृद्धोंकी सेवा आदिके द्वारा हृदय कोमल होकर सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है । सत्त्वगुणकी वृद्धिसे आयुवृद्धि, विद्यावृद्धि, यशवृद्धि होती है और सत्त्वगुणसे ही वलकी वृद्धि होती है। रजोगुणी अभिमानरूप घमण्ड अथवा शारीरिक पुष्टिरूप वल,बल नहीं यह तो उन्टा विपरूप हैं । किन्तु सत्यता, आस्तिकता, दृढ़ निश्चय व सत्यप्रतिज्ञतारूप बुद्धिबल ही वास्तव वल है और उपर्युक्त बलवृद्धि ही उपासनाकी सहायक है।
उपासनाकी प्रथम श्रेणीकी उपयुक्त सामग्री सम्पादन द्वितीय श्रेणी, श्रवण-1 करते हुए भी जिस पुरुपका आहारभक्ति ।
व्यवहार अनियमित है, तो वह भक्तिके
... मार्ग अग्रसर नहीं हो सकता,वल्कि यह उपासनामें विघ्न है । इस लिये आहार-व्यवहारका नियमित रखना तथा दिनचर्याका शुद्ध करना परम आवश्यक है । कोल्हू के वैलकी तरह गृहस्थ अथवा मान-बढ़ाईका जूवा जिसकी ग्रीवा को खाली नहीं छोड़ता, ऐसे पुरुष इस पवित्र मार्गके योग्य नहीं हो सकते । इसीलिये भगवान्ने आज्ञा दी है :
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य यांगो भवति दुःखहा।।
(गी. १ ६ श्लो )
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श्रात्मविलास]
[ १८२ अर्थ.-जिसका आहार-विहार नियमित है, कर्मोंमें चेष्टा नियमित है तथा जिसका सोना-जागनारूप क्रिया नियमित है, उसीको यह दुःखनाशक योग प्राप्त होता है। योग शब्दका अर्थ जुड़ना है, जिन चेष्टाओं द्वारा मन भगवानसे जुड़े वही 'योग' शब्दवाच्य हैं । कर्म-योग, भक्ति-योग, ज्ञान-योग भेदसे इसका भेद किया गया है।
इस प्रकार आहार-विहार नियमित रखकर ऐसे सद्ग्रन्थों का अभ्यास करना जिनमे भगवद्गुणानुवाद अथवा भगवद्भक्तोंके चरित्रोंका निरूपण किया गया हो तथा ऐसे सत्पुरुषों का मग करना जो सत्यप्रिय हो, किसी प्रकार मत-मतान्तर तथा पन्थ-पन्थाईका आग्रह न रखते हो, स्वयं जीवनकी उपयुक्त श्रेणियोंमेसे उल्लङ्घन किये हुए हों और स्वानुभवसे अधिकारीके अधिकारानुसार निरूपण कर सकते हों। यही उपासनाकी श्रवणरूप द्वितीय श्रेणी है। जिस प्रकार शरीरकी पुष्टिके लिये प्रतिदिन अन्नाटिका सेवन जरूरी है, इसी प्रकार भक्तिकी पुष्टिके लिये मनको नित्य ही शुद्ध भाचोका भोजन मिलना जरूरी है, जोकि भावुक पुरुपोंके सत्सङ्ग और शास्त्रश्रवणद्वारा ही प्राप्त हो सकता है।
भक्ति स्वतन्त्र सकल सुख खानी । विनु सत्सङ्ग न पाहिं प्राणी ॥ पुण्य पुञ्ज विनु मिलहिं न सन्ता । सत्संगति संसृति करि अन्ता ॥ जलवर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ।।
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१८३]
[ साधारण धर्म मति कीरति गति भूति मलाई । जे जेहि जतन जहाँ जब पाई ॥ सो जानहु सत्सङ्ग प्रमाऊ ।
लोकहु वेद न आन उपाऊ ॥ सच्छास्त्र व सत्सङ्गका फल यह है कि इनके सम्बन्धसे विरोधी संस्कार जो जन्मान्तरसे हृदयमें भरते चले आये हैं, बाहर निकलकर असम्भावना दोषकी निवृत्ति हो जाय, भगवत्सम्बन्धी संस्कार हृदयम ठस जाएँ और सांसारिक वस्तुओंमेसे सुख-साधनता-बुद्धि निकलकर 'भगवान ही एकमात्र सुखस्वरूप हैं। यह निश्चय हद हो जाय, क्योंकि संस्कार ही जीवके लिये एक मुख्य वस्तु हैं। जैसे-जैसे संस्कार होंगे वैसी वैसी ही जीवकी चेष्टा, गति तथा दृष्टि होगी। जैसा अन्दर भरेगे वैसा ही वाहर निकलेगा। सेनिमाके खेलमे जैसा-सा रूप अन्दर फिल्मपर सूक्ष्म रूपसे होता है वैसा ही वाहर पड़देपर स्थूल रूपमे दिखलाई पड़ता है। इसी प्रकार जैसे संस्कार इसके अन्दर सूक्ष्म रूपसे होते हैं वैसा ही यह संसारको स्थूल रूपसे वाहर देखता है ।
ज्यासनाकी तृतीय श्रेणी है 'कीर्तन भक्ति' । जो कुछ तृतीय श्रेणी, कीर्तन- | सत्सङ्ग व सच्छास्त्रसे श्रवण किया गया भक्ति।
| है, परस्पर मिलकर उसीका कथन व ---------- चचो करना तथा वारम्बार भगवत् व भगवद्भक्तोका गुणानुवाद गायन करना 'कीर्तन-भक्ति' कहलाती है। जो संस्कार उपयुक्त सत्सङ्ग व सच्छास्त्रद्वारा मृदुरूपसे हृदयमे प्रविष्ट किये गये हैं वे दृढमूल होकर फलने-फूलनेके योग्य हो जाएँ, यही कीर्तन-भक्तिका प्रयोजन है । यह कीर्तन-भक्ति उन संस्कारोंमे जलसिञ्चनरूप है। कीर्तनद्वारा चित्तपर वड़ा प्रभाव
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आत्मविलास]
[१८४ पड़ता है । श्रद्धा व भावनायुक्त भस्तके चिनको कीर्तन स्तब्ध कर देता है। भगवानका वचन है :
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः । नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपायते ॥
(गी भ., ११) मचित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।
(गी. भ...) अर्थः-दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम च गुणों का कीर्तन करते हुए, मेरी प्रामिके लिये यन करते हुए, मेरेको भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हुए प्रौर मेरे ध्यानमे जुड़े हुए मुझे पूजते हैं। जिनके चित्त व प्राणोंको चेधा मेरेमें है, ऐसे भक्तजन परस्पर एक दूसरेको वोधन करते हुए,मेरे ही गुण-प्रभावका कथन करते हुए नित्य सन्तुष्ट होते हैं और मेरेमे ही रमण करते हैं।
उपासनाको चतुर्थ श्रेणी 'स्मरण भस्ति है । अर्थात् भगवान् चतुर्थ श्रेणी, स्मरण-1 के नामको बारम्बार व्यवधानरहित प्रेमभक्ति व नामहिमा। पूर्णक उच्चारण करना, इसीको जप भी
- कहते हैं । भगवान्ने गीतामें जपको यज्ञरूपसे अपनी विभूतियोंमे अपना ही रूप वर्णन किया है और सव यज्ञोंमें जप-यज्ञको महत्त्व दिया है । यथा:
'यज्ञानां जपयज्ञोस्मि' (म. १. प्लो. २५) सव शास्त्रों, मतों और पन्थोंने मुक्तकण्ठसे नामकी महिमा गायन की है। आधुनिक कालके भिन्न-भिन्न पन्थोंके सञ्चालक अवतारस्वरूप महापुरुष श्रीकवीरजी, श्रीगुरु नानकदेवजी,
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१८५]
[ साधारण धर्म श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी, श्रीदादूदयालजी, श्रीरामदासजी और श्रीरामचरणजी आदि ने अपने-अपने अनुभवके उद्गार नाम की महिमा चित्ताकर्षक रूपसे प्रकट किये हैं और ग्रन्थ के ग्रन्थ नामके गुणानुवादमे भर दिये हैं। संसारमें 'नाम' और 'रूप' अर्थात् 'शब्द' और 'अर्थ' दो ही पदार्थ हैं। 'नाम' तथा 'शब्द' पर्याय हैं और 'रूप' तथा 'अर्थ' एक ही वस्तुके द्योतक हैं। यावन् प्रपश्वरूप संसार 'नाम' और 'रूप'के अन्दर ही समा जाता है। 'घट' यह दो अक्षरोंवाला शब्द 'नाम' है और 'घट शब्दका अर्थ जो मृत्तिका-पात्रविशेष वह उसका 'रूप' है। इसी प्रकार सफल प्रपञ्च नाम-रूपके भीतर ही है,नाम-पके बाहर कुछ भी नहीं । विचारसे देखिये तो 'रूप से 'नाम की महिमा अधिक है:- . (१) घटरूपका सम्बन्ध एक घटव्यक्तिसे हो है और घटनामका सम्बन्ध समष्टि घटोंसे है, इस लिये 'रूप से 'नाम' व्यापक है।
(२) 'रूप' स्थूल है 'नाम' सूक्ष्म है । अर्थात् 'रूप' विषय है व प्रकाश्य है, 'नाम' विषयी है व प्रकाशक है, इस लिये 'रूप' से 'नाम' सूक्ष्म है। यह नियम है कि स्थूलसे सूक्ष्ममें शक्ति अधिक होती है, जैसे वफसे जलमें और जलसे भापमें वल अधिक होता है। इसी लिये रूपजगत्से नामजगत् अधिक प्रभावशाली है।
(३) नाम के विना 'रूप' की सिद्धि हो नहीं सकती, अर्थात् नामके विना हाथमे आई हुई वस्तुके रूपका भी वोध हो नहीं सकता। रूप विशेष. नाम विनु जाने। करतलगत न परहि पहिचाने।
किसी व्यक्तिविशेषके मिलनेकी हमको अभिलाषा है और वह हमारे सम्मुख उपस्थित हो भी गया, परन्तु नाम
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आत्मविलास ]
[१८६ के विना उसका वोध हो नहीं सकता । जब उसके नामका परिचय मिलता है तब एकाएक प्रेमप्रवाह उमड़ आता है। यह 'नाम' की ही महिमा है।
(४) 'नाम'के विना संसारमें कोई क्रिया चेष्टा हो नहीं सकती। नाम न रहे तो सारा संसार नरूपसे स्थित हो जाय । अर्थात् शब्दप्रयोग विना न किसीपर अपना भाव प्रकट किया जा सकता है और न किसीसे कोई चेष्टा ही कराई जा सकती है, यहॉतक कि सिरहाने रक्खी वस्तु भी 'नाम के बिना हमारे हाथमे नहीं पहुंचाई जा सकती।
५) नामरूपी विद्युत इस संसाररूपी स्थूल विद्यु तस, जो वायुयान आदिमें काम कर रही है, अधिक प्रभावशाली है। नामके प्रभावस कोमलको कठोर और कठोरको कोमल बनाया जा सकता है। प्रेमोद्गारपूर्ण नामद्वारा पत्थरको भी पिघलाकर पानीके रूपमें वहाया जा सकता है और क्रोधावेशपूर्ण नामद्वारा पानीमे भी आग उपजाई जा सकती है, जब कि स्थूलविद्यु तसे यह कार्य नहीं हो सकता । उद्धव जव मथुरासे कृष्णसंदेश लेकर व्रजमे गोपियोंको योगका उपदेश देनेको पाए तव गोपियोंके प्रेमविरहरूपी वचनोंने उद्धवपर वह प्रभाव डाला कि अापेकी सुद्ध न रही और सब ज्ञान-ध्यान चल वसा । गोपियाँ कहती हैं " है उद्धव । प्यारेके विना प्यारेकी पातीको हम कहाँ रक्खे १ छातीसे लगाएँ तो जल जायगी, आखोंसे लगाएँ तो गल जायगी” । अव भी उस विरहका फोटो प्रोमियोंफी मण्डलीको कीर्तनद्वारा विह्वल कर देने में समर्थ है। पाठक ! जरा ध्यानसे सुनिये। ज्ञानके अभिमानी उद्धवके सम्मुख गोपियाँ किन मधुर व्यङ्ग वचनोंमे कपटीकृष्णकी तुलना मधुकरके साथ लगा रही हैं और जिन-जिन पदार्थोंमे श्यामवर्ण वस रहा है उन सबमें कपट व कृतघ्नताका अारोप करके
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[साधारण धर्म ' अन्ततः उस कृष्णवर्णका ही किन विचित्र रसिकभावोंमें विर
स्कार कर रही है! यह सुनि कहो और इक ग्वाली । कहत कहा मधुकर सो पाली ॥ उन्हींको संगी यह जोऊ । चञ्चल चित्त श्याम तनु दोऊ ।। वे मुरलि अनि जगि जगमोहन। इनकी गुञ्ज सुमनदल जोहन । वै निशि अनत प्रात कहुँ आने । ये घसि कमल अनत रुचि मान। वे द्वै चरण सुभग भुज चारी ये पट पद दोउ विपिन विहारी॥ वे पट पीत मञ्जु तनु काछे । इनके पीत पंख दोउ आछे ॥ वे माधव ये मधुप कहावत । काहुभाँति भेद नहीं आवत ।। वे ठाकुर ये सेवक उनके । दोऊ मिले एक ही गुनके ।। कहा प्रतीति कीजिये इनकी । परी प्रकृति ऐसी है जिनकी । निरस जानि माजत पल माहों। दया धरम इनके कछु नाहीं॥ मन दे सरवस प्रथम चुरावें । बहुरौ ताके काम न आवै । इनकी प्रीति किये यो माई । ज्यों भुसपरकी भीति उठाई । दो०-कह्यो एक तिय सुन सखी, कारे सब इक सार । __इनसों प्रीति न कीजिये, कपटिनकी चटसार ।। सो०-देखो करि अनुमान, कारे अहि कारे जलद ।
कविजन करत बखान, भ्रमर काग कोयल कपट ।। १. श्रीकृष्ण । २. भवरा । ३. फूल की पाँखड़ी । ४. वन ! ५, कोमल । ६. पाठशाला।
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[१८
आत्मविलास ] राखि पिटारे जो अहि कारो पय पियाय अनि हित प्रतिपागे। कुल स्वभाव सोडसि भजि जाहो। यद्यपि तिन्हें लाभ कछु नाहीं । जलद सलिल वरपत चहुँ पाहीं । मरत सकल सर मरिता माहौ।। निशि दिन ताहि पपाहा ध्याचे । भाँवरि दे दे प्रीति बढावे ॥ एक बूंद को त्यहि तरसाचे । भ्रमर मालती सौ मन लावे॥ जब रस हीन होत वा माहीं । निरमोहो ताल जाहि पराहीं॥ सुनियत कथा काग पिक केरी । अण्डन सेव करावत हेरी ।। बड़े होत निज कुल उडि जाहीं । वैठत निज माता पितु पाहीं । यह सब कारे हरि पर पारे । सबहिनमें अतिहि अनियारे । सवकी उपमा अरु गुण योगु । न्याय देत पटतर कवि लोगु॥ अलिकुल अलक कोकिला बानी। भुज भुजंग तनु जलद वखानी॥ समुझी बात आज यह सारी। खानि कपटको कुजविहारी॥ मैं अब अपने मन यह ठानी। उनके पन्थ न पीऊँ पानी ॥ कबहुँ नयन न अञ्जन लाऊँ। मृगमद भूलि न अङ्ग चढ़ाऊँ ।। इस्त बले पट नील न घारौं । नयनन कारे धन न निहारौं । सुनौं न श्रवणन अलि पिक वानी। नोले तनु परसों नहीं पानी।।
कहिये। जब और अव स्थूल विद्यु तसे यह कार्य कैसे होता था १ यह नामका ही प्रभाव है कि सृष्टिके आदिसे अनन्त
१.सर्प । २. बादल । ३ फाग के भय से कोयल अपने भण्डों को उसके भण्डों में रला देती है घडे होने पर वे अपने कुल में चले जाते हैं। यही घटना कृष्ण ने कर दिखाई । ४ निगले । ५ हाथ ।
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१८६ 1
[ साधारण धर्म ऋषि-महर्षियोंके सुन्दर भाव व विचार नामके फोटोरुप पदोंद्वारा श्रुति-स्मृति आदिके रूपमे हमारेतक पहुँचाये जा रहे हैं
और पहुँचते रहेंगे। भगवानका सन्देश भगवती-गीता नामके द्वारा ही सम्पूर्ण वायुमण्डलको व्याप्त करके स्थित है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमे अपनी गूज गुञ्जा रही है। इस शब्दब्रह्मको 'मेरा हार्दिक नमस्कार है।
(६) नामी ( रूप, अर्थ) के नष्ट होनेपर भी नाम शेष रहता है तथा नामी एक देशमें स्थित रहकर भी नाम देशदेशान्तरमें व्याप्त होकर रहता है। इस लिये नामीसे नाम अधिक देश तथा अधिक कालव्यापी है।
(७) जिस रूपके श्रवणजन्य अथवा नेत्रजन्य संस्कार हृदयमें हो, नामका यह अद्भुत प्रभाव है कि अपने उच्चारणके समकाल ही वह उस रूप तथा उसके गुण, कर्म और स्वभावके संस्कार हृदयमे उद्बुद्ध करके उस रूप, गुण, कर्म और स्वभावका फोटी नेत्रोंके सम्मुख खड़ा कर देता है । इससे तुरन्त ही तत्सम्बन्धी विचित्र भावॉका सञ्चार होने लगता है । नामके उच्चारणसे संस्कारका उद्बोध होता है, संस्कारके उद्बोधसे पदार्थकी स्मृति होती है, स्मृतिसे रूपगुणादिका दृश्य सम्मुख खड़ा होता है और दृश्यको उपस्थिति से भावोंका उद्गार होता है। इन सबके मूलमे एकमात्र 'नाम' ही है। इस सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर तथा उसके भिन्न-भिन्न अवतारोंके नामस्मरणसे उनके विचित्र रूप तथा उनके भिन्नभिन्न गुण, कर्म, स्वभाव'और लीलाओंका दृश्य सम्मुख खड़ा हो जाता है और प्रेमियोंके हृदयोंमे समुद्रके समान प्रेमकी हिलोरें उठने लगती हैं । 'कृष्ण' नामका उच्चारण कृष्णप्रेमी के हृदयमें कृष्णके रूप, गण, कर्म और स्वभावका फोटो सम्मुख खड़ा कर ही देता है, जिसके प्रभाबसे उसका हृदय
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प्रामविलास]
[१० नृत्य करने लगता है। यह अभी सिद्धान्त किया जा चुका है कि वह जीव श्रद्धाका ही पुतला है, जैसी इसकी श्रद्धा होतो है वैसा ही भृङ्गोकोटके समान इसका रुप हो जाता है । यह सव नाम का ही माहात्म्य है जोकि रूपसे कई गुणा अधिक है। ध्रुव, प्रह्लाद और नामदेवादि इसके प्रत्यक्ष यान्त हैं, जिन्होंने नाम के प्रभावसे रूपको पकड़ बुलाया और अपने सम्मुख हुजूरी चना लिया। इस स्थलपर कई पुरुप शङ्का कर बैठते हैं कि 'देखी हुई वस्तुमे ही प्रीति होती है, विना देखी वस्तुमें किसीकी प्रीति होती नहीं । ईश्वरको किसीने देखा नहीं, इसलिये उसमे प्रीति भी नहीं हो सकती। यह शङ्का
आस्तिकताशून्य है, देखी हुई वस्तु में ही प्रीति हो यह नियम नहीं, किन्तु सुनी हुई वस्तुमे भी प्रीति सम्भव है । सुने हुए पारलौकिक स्वर्गादिमें श्रद्धावान् पुरुपकी प्रीति होती है तथा इहलौकिक पैरिस आदि अन्य विलायतके भोगोंमें कामी पुरुषोंको प्रीति श्रवणद्वारा देखनेमें आती है । इसी प्रकार शुद्धान्तःकरण पुरुषोंकी प्रीति श्रवणद्वारा ईश्वरमें होना निश्चित है । नामको महिमा भक्तशिरोमणि गोस्वामी तुलसी • दासजीने क्या ही सुन्दर कथन किया है:
समुमत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परस्पर प्रभु अनुगामी ॥ नाम रूप दोउ ईश उपाधी ।
अकथ अनादि सुसामुझि साधो ॥१॥ नाम और नामी समझनेमें एक जैसे हैं, किन्तु दोनोंमें प्रीति परस्पर स्वामी सेवक जैसी है। अर्थात् जिस प्रकार सेवक स्वग्मोके पीछे-पीछे चलता है इमी प्रकार 'प' 'नाम'के अधीन रहता है और नामी नामके पोछे-पोछे चलता है। जहाँ नाम
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१६१]
[साधारण धर्म कीर्तन होता है वहाँ नामी भी आ जाता है । 'नाम' वरूप दोनों उस ईश्वरकी उपाधि हैं जोकि अनिर्वचनीय व अनादि है। अर्थात् ईश्वरके स्वरूपको जोकि वेनाम व वेरूप है, बोधन करके 'नाम' व 'रूप' उससे भिन्न रहते हैं, इसीसे ये ईश्वरकी उपाधि हैं। इस प्रकार अनिवचनीय ईश्वर नाम व रूपके द्वारा ही सुन्दर बुद्धिसे जाननेमे आता है ॥१॥
यो बड़ लोट कहत अपराधू । सुनि गुणभेद समुझहहिं साधू || देखिये रूप नाम आधीना ।
रूप ज्ञान नहीं नाम विहीना ॥२॥ 'नाम' और 'रूप' इन दोनोंमे बड़ा और छोटा कौन है ? ऐसा कहना अपराध है । गुणोंके भेद को सुनकर साधुजन श्राप ही इनकी वड़ाई-छुटाईको समझ लेंगे। रूप नामके अधान देखने में आता है, क्योंकि नाम बिना रूपका ज्ञान नहीं हो सकता ॥२॥ . रूप विशेष नाम विनु जाने ।
करतलगत न परहिं पहिचाने ।। सुमिरिये नाम रूप विनु देखे ।
आवत हृदय सनेह विशेपे ॥३॥ ' नाम जाने विना विशेषरूप हथेलीमे भी श्रा जाय तो भी 'पहिचाना नहीं जाता और रूप देखे बिना ही यदि नामका स्मरण किया जाय तो हृदयमे विशेष प्रेम उत्पन्न होता है ।शा
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आत्मविलास ]
[१९२ नाम रूप अति अकथ कहानी । समुमत सुखद न परत बखानी ॥ अगुण सगुण विच नाम सुसाखी ।
उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी ॥४॥ वस्तुतः 'नाम' व 'रूप' एक अति ही अकथ कहानी हैं, जो कहनेमें नहीं आती। जिनको समझ लेनेसे तो बड़ा सुख मिलता है, परन्तु कथन नहीं किया जा सकता । निर्गुण व सगुण भगवानके वीचमे नाम ही एक सुन्दर साक्षी है । जो आप अलग रहकर दोनोंके स्वरूपका बोध करा देता है, इसलिये नाम एक चतुर दुभापिया है अर्थात् अपनी सैनसे अपने साक्ष्योंके स्वरूपको बतला देता है ॥४॥
राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार । तुलसी भीतर बाहिरै, जो चाहत उजियार ॥शा यदि तुम भीतर-वाहर उजाला चाहते हो तो राम-नामका मणिमय दीपक ( जो मणिके समान नित्य प्रकाशरूप है) अपनी जिह्वारूपी देहलीके द्वारपर रखो। देहलीपर घरा हुआ दीपक घरके भीतर व बाहर प्रकाश कर देता है, इसी प्रकार नामरूपी दीपक जिह्वारूपी देहलीपर रखनेसे शरीरके भीतर व वाहर प्रकाश ही प्रकाश कर देता है ।।५।।
१. जहाँ दो पुरुष परस्पर एक दूसरेकी भाषा न जानते हों, वहाँ तीसरा पुरुप जो टोनॉकी माण जाननेवाला हो और भापसमें उन-उनकी मापामें एक दूसरेके आशयको समझाने, 'दुभाषिया' कहलाता है।
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[साधारण धर्म नाम जीह जपि जागहिं योगी । चिरति विरचि प्रपञ्च वियोगी ॥ ब्रह्म सुखहि अनुभवहि अनूपा ।
अकथ अनामय नाम न रूपा ॥६॥ नामको ही जीभसे जपकर वे योगी, जो ब्रह्माके रचे हुए प्रपञ्चसे वैराग्यवान हैं, अपने आत्मस्वरूपमें जागते हैं और उस अनुपम ब्रह्मसुखका अनुभव करते हैं, जो अकथनीय निर्विकार और नामरूपसे रहित है ।
जाना चहहिं गूढ गति जेऊ । नाम जीह जपि जानहिं तेऊ ॥ साधक नाम जपहिं लव लाये । होहिं सिद्ध अणिमादिक पाये ७॥
जो इस गूढ गतिको जानना चाहें वे जीमसे नाम जप कर जान सकते हैं। जो साधकपुरुष लव लगाकर नामजाप करते हैं, वे अणिमादि सिद्धियोंको पाकर सिद्ध हो जाते हैं ।।७।।
जहि नाम जन भारत भारो । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ॥ राम भक्त । जग चारि प्रकारा ।
सुकृति चारित अनघ उदारा।। ८॥
जो आतभक्त नामका जाप करते हैं वे भारी संकटसे छूट कर सुखी हो जाते हैं। इस प्रकार रामके भक्त संसारमे चार
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श्रात्मविलास ]
[१६४ प्रकारके हैं और चारों हो पुण्यात्मा, निष्याप और उदार हैं। ॥॥ ये ये हैं:-(१) आर्त, (२) अर्थार्थी (३) जिज्ञासु और (8) ज्ञानी । (गीता अ. ७ श्लो. १६)
चहुँ चतुरनको नाम अधारा । ज्ञानी प्रभुहिं विशेष पियारा ॥ चहुँ युग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ । कलि विशेष नहीं पान उपाऊ ॥ ९ ॥
चारो ही चतुर भक्तोको एक नाम ही आधार है, फिर भी जानी तो प्रभुको बहुत ही प्यारा है। चारों युगोंमे चारों वेदोंमें नामका प्रभाव प्रकट है और कलियुगमे तो नामके सिवाय कोई और उपाय है ही नहीं ॥६॥
सकल कामना हीन जे, रामभक्ति रसलीन । नाम सुप्रेम पियूष हृद, तिनहुँ किये मन मीन।
जो ज्ञानी पुरुष सकल कामनाओंसे मुक्त हैं और रामभक्तिरूपी रसमे लीन हो रहे हैं, उन्होंने तो नामरूपी सुन्दर प्रेमामृवके कुण्डमें अपने मनको मछली ही बना दिया है।
अगुण सगुण दोउ ब्रह्म स्वरूपा । अकथ अनादि अगाधि अनूपा ।। मोरे मन बड़ नाम दुहूँ ते । किये जे युग निज वश निज बूते ॥ १० ॥
निगुण और सगुण दोनों ही उस ब्रह्मके स्वरूप हैं जो अकथनीय, अनादि, अगाध और उपमारहित है। मेरे मनमें तो
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१६५]
[साधारण धर्म निगुण और सगुण दोनों रूपोंसे 'नाम' वड़ा है, जिसने दोनोंको अपने वलसे अपने वश कर रक्खा है ॥१०॥
प्रौदि सुजन जनि जानहिं जनकी । कहहुँ प्रतोति प्रीति रुचि मन की ॥ पावक युग सम ब्रह्म विवेकू । एक दारु गत देखिये एकू ॥ ११ ॥
सज्जन पुरुप मेरी यह अतिशयोक्ति न समझे। मैं अपने मनकी प्रीति, रुचि और विश्वास कथन करता हूँ। ब्रह्मविवेक उन दोनों प्रकारकी अग्निके समान है जिनमें एक लकड़ीके भीतर है पर दिखवी नहीं और दूसरी वाहर दीखती है ॥११॥
उभय अगम युग सुगम नामते । कहहुँ नाम बड़ ब्रह्म रामते ।। व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी ।
सत चेतन धन आनन्द राशी ॥ १२॥ इस प्रकार यद्यपि निर्गुण व सगुण दोनों ही अगम है,तथापि नामसे दोनों सुगम हो जाते हैं । अतः निगुण व सगुण दोनों रूपोंसे मैं तो'नाम'को ही बड़ा कहता हूँ ब्रिह्म एक है और व्यापक, अविनाशी है तथा सत्,चेतनधन और आनन्दकी राशी ही है॥१२॥
अस प्रभु हृदय अछत अविकारी । . सफल जीव जग दीन दुखारी ॥ नाम निरूपण नाम' यतन ते । सो प्रगटत जिमि मोल रखन ते ॥१३॥
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आत्मविलास ]
[ १६६ यद्यपि ऐसा प्रभु सबके हृदयमें ही निर्विकार रुपये स्थित है, तथापि सकल संसारी जीव दीन व दुखारी ही रहते है। परन्तु 'तत्वमस्यादि' नामके कथन व अभ्याससे वह प्रभु इसी प्रकार नकद प्राप्त हो जाता है, जैसे रलसे रत्नका मूल्य नकद मिल जाता है ।।१।।
निर्गुण ते इहि भाँति बड, नाम प्रभाव अपार । कहऊँ नाम बड़ राम ते,निज विचार अनुसार ।।
इस प्रकार निर्गुणब्रह्मसे तो 'नाम'का प्रभाव बड़ा और अपार है ही, अव सगुणरामसे भी 'नाम'को अपने विचारके अनुसार वड़ा कहता हूँ।
राम भक्त हित नर तनु धारी । सहि संकट किये साधु मुखारी।। नाम सप्रेम जपत अनयासा । भक्त होहिं मुद मंगल रासा ॥१४॥
रामने भक्तोंके लिये नरशरीर धारण किया और संकट सह-सहकर साधुओंको सुखी किया। परन्तु प्रेमसहित 'नाम' जपनेसे अनायास ही भक्त आनन्द व मङ्गलके घर हो जाते हैं ।।१४॥ . .. राम एक तापस तिय तारी ।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी ।। ऋषि हित राम सुकेतु सुताकी । सहित सैन सुत कीन बेवाकी ॥१५॥
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* १९७]
[साधारण धर्म रामने तो एक तपस्वीकी स्त्री (अहिल्या) का ही उद्धार किया परन्तु 'नाम'ने करोड़ों दुष्टोंकी कुबुद्धियोंका सुधार कर डाला । रामने ऋपि (विश्वामित्र )के लिये ताड़काकी सेनासहित और उसके पुत्र सुवासहित समाप्ति की ॥१५॥
सहित दोष दुःख दास दुराशा । दलई नाम जिमि रवि निशि नाशा ! भञ्जउ राम आप शिव पापू ।
भव भय मञ्जन नाम प्रतापू ॥१६॥
परन्तुः-'नाम' तो भक्तोंके दोप, दुःख, दासभाव अर्थात् दीनता और दुराशाओंको सहज ऐसे ही नष्ट कर देता है जैसे मूर्य रात्रिको। रामने स्वयं एक शिवधनुपको हो तोड़ा, परन्तु 'नाम'का प्रभाव ऐसा है कि संसारके जन्ममरणरूपी भयको ही काट डालता है ।।१६|
दण्डक . वन प्रभु कीन सुहावन जन मन अमित नाम किये पावन ॥ निशिचर निकर दले रघुनन्दन ।
नाम सकल कलि कलुष निकन्दन ॥१७॥
प्रमुने स्वयं वास करके एक दण्डक वनको ही सुहावना किया, परन्तु 'नाम'ने तो भक्तोंके अनन्त मनरूपी दण्डकोंको पवित्र कर दिया । श्रीरघुनाथजीने कुछ राक्षसोंकी सेनाको ही चूणे किया, परन्तु नाम तो कलियुगके सब पापरूपी राक्षसोंको जड़से ही उखाड़ ढालनेवाला है।॥१७॥
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आत्मविलास]
[१८ शबरी गीध सुसेवकन सुगति दीन रघुनाथ । नाम उधारे अमित खल वेद विदित गुण गाथ ।।
रघुनाथजीने शवरी व गीध नीच जातिके भक्तोंको हो सुन्दर गति दी, परन्तु 'नाम'ने तो अनन्त दुष्टोंका उद्धार कर दिया, जैसा वेदोंमे गुणगाथा प्रकट है।
राम सुकण्ठ विभीषण दोऊ । शखे शरण जान सब कोऊ ॥ नाम अनेक गरोष निवाजे । लोक वेद वर विरद विराजे ॥१८॥
रामने केवल सुग्रीव व विभीपण दोको ही शरणमें रक्खा ऐसा सब कोई जानते हैं, परन्तु 'नाम'ने तो अनेक दीनों की पालना की । 'नाम'का यह सुन्दर विरद लोकवेदमें विख्यात है ॥१८॥
राम भालु कपि कटक बटोरा । सेतु हेतु श्रम कीन न थोरा ॥ नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं । करहु विचार सुजन मन माहों ॥१९॥
रामने रीच व चन्दरोंकी सेना इकट्ठी की और सेतुके लिये कुछ कम परिश्रम नहीं किया । परन्तु 'नाम के लेतेही संसारसमुद्र सूख जाता है, सन्नन पुरुष मनमे इसका स्वयं विचार करें ॥१६॥
राम सक्कुल रण रावण मारा । सीय सहित निज पुर पगु धारा ।।
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, १६
[ साधारण धर्म ___ राजा राम अवध रजधानी !
गावत गुण सुर मुनि वर वानी ।२०॥
रामने रावणको उसके कुलसहिन नष्ट किया और सीतासहित अपने पुरमें पधारे, राम राजा और अयोध्या उनकी राजधानी हुई, जिनके गुणोंको देव और मुनि सुन्दर वाणीसे गाते हैं, ॥२०॥
सेवक सुमिरत नाम सप्रीति । विनु श्रम प्रबल मोह दल जोति ॥ फिरत सनेह मगन सुख अपने ।
नाम प्रसाद शोच नहीं सपने ॥२१॥
परन्तु: भक्त प्रेमसहित नामस्मरण करनेसे ही विना अमके मोहरूपी चलवान् रावणकी सेना (काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार) को जीत कर, प्रेममें मग्न हुए अपने निजघर आत्मस्वरूपमै प्रवेश करते हैं और 'नाम'के प्रसादसे उनको स्वप्न में भी दुःख नहीं होता ॥२शा
ब्रह्म राम ते नाम बड़, वरदायक वरदानि । " राम चरित शत कोटिमें, लिये महेश जिय जानि ।।
इसप्रकार निगुण व सगुण दोनों रूपोंसे 'नाम' बड़ा है और बरके देनेवालोंको भी वरदायक है। इसी लिये सौ करोड़ रामायणों से शिवजीने 'रामनाम' को चुनकर निकाल लिया। जप तीन प्रकारका है:
(प्रथम) वह जो पञ्चवारणीसे किया जाय, जो दूसरे को भी सुनाई दे।
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आत्मविलास ]
[२०० (द्वितीय) वह जो अन्य व्यक्तिको सुनाई न दे और ओष्ठ व जिहा हिलते रहे।
(तृतीय) वह जिसमें पोष्ट व जिहाका हिलना भी बन्द हो जाय और केवल कण्ठसे ही होता रहे।
प्रथम प्रकारका जप कनिष्ठ, दूसरे प्रकारका मध्यम पीर तीसरे प्रकारका उत्तम है। कनिष्ठ प्रकारके जपके अभ्याससे मध्यमकी सिद्धि होती है और मध्यमके अभ्याससे उत्तमकी। अपका सम्बन्ध हृदयसे है, अन्तमें अभ्यासकी प्रौढ़तासे कण्ठ भो रुक जाता है और हृदयसे ही जप होता रहता है। कनिष्ठ जपसे शक्ति वाहर निकल जाती है हृदयपर प्रभाव नहीं पड़ता, मन उपके साथ नहीं जुड़ता। इसके रढ़ अभ्यासद्वारा मध्यम जपसे हृदयपर सापेक्ष अधिक प्रभाव पड़ता है, मन कुछ-कुछ जुड़ने लगता है और उत्तमसे हृदयपर और अधिक प्रभाव पड़ता है। जपका उद्देश्य यह है कि कीर्तनद्वारा श्रवणजन्य सस्कारोंमें जो जलसिञ्चन हुआ था, जपके द्वारा के हृदयमें हढमूल हो जाएँ और उपास्यदेवके प्रति भक्तिका स्रोत उमड़ आएं। ___ उपासनाकी पञ्चम श्रेणी प्रतिमापूजन है, अर्थात् दासमाव पञ्चमत्रेणी' प्रतिमा- से इष्टदेवकी मूर्तिको इष्टदेव रूपसे पूजन पूजन, अर्थात् पाद सेवन करना । 'प्रतिमा' शब्दका अर्थ वह अर्वन व वन्दन-मकि ।। साधन है जिसके द्वारा प्रमाण किया जाय, मापा जाय, तोला जाय । जैसे एक सेर लोहे का वट्टा जिसके द्वारा सेरभर वस्तु तोली जाय, अथवा दो हाथ लम्बा एक गज जिसके द्वारा गजमर वन मापा जाय, प्रतिमा कहे जा सकते हैं । इसी प्रकार इष्टदेवकी मूर्ति जिसके द्वारा इष्टदेवका प्रमाण किया जासके, प्रतिमा कही जा सकती है। परन्तु जिस प्रकार लोहे का वट्टा अपने वरावर भारी वस्तुको
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२०१]
[साधारण धर्म तोल देता है, अथवा गज अपने समान लम्बे वस्त्रको माप देता है, उसी प्रकार मूर्तिके समान भारी और मूर्ति जैसा लम्बाचौड़ा यदि इष्टदेवका प्रमाण किया जाय तो भारी भूल होगी। इस प्रमाणकी विधि उपयुक्त माप-तोलसे विलक्षण है। इसके प्रमाणकी रीति यह है कि शास्त्रकी विधि, गुरुके वचन
और अपने हृदयके आस्तिकतापूर्ण श्रद्धायुक्त भावद्वारा मूर्तिम ईश्वरका अस्तित्व निश्चय किया जाय । ध्यानमें विधि, विश्वास और इच्छा तीनों ही मुख्य हैं और प्रतिमापूजन ध्यानरूप ही है । गुरु-शाखके आज्ञारूप व कर्तव्यतासूचक वचनोंको 'विधि' कहते हैं, अपने आस्तिकता व श्रद्धापूर्ण भावका नाम 'विश्वास' है और अन्तःकरणकी कामनारुप रजोगुणी-वृत्तीको 'इच्छा' कहा जाता है। अर्थात् गुरु-शास्त्रका विधिरूप वचन भी हो, उन रचनोंमें अपना आस्तिकतापूर्ण विश्वास भी हो और अन्तःकरणमें यह कामना भी हो कि हमारा चित्त ध्यानमें जुड़े। इस प्रकार ध्यानके लिये इन तीनोंका होना आवश्यक है । यदि विधि व विश्वास है परन्तु इच्छा नहीं, तब भी ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती, विश्वास व इच्छा है परन्तु विधि नहीं तथा विधि व इच्छा है परन्तु विश्वास नहीं, तब भी कार्यसिद्धि नहीं हो सकती। इन तीनोंमेंसे एक भी न हो तो ध्यानकी सिद्धि नहीं होती, ध्यानके लिये तीनों ही चाहिये। इस प्रकार अभ्यासके बलसे जवकि भूविदेशमें ईश्वर का अस्तित्व निश्चय किया गया तो इन प्रमाणसे 'जो इसमें है वह सबमें है' सत्र ही ईश्वरदर्शन किया जाय और पञ्चतत्त्वरचित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही भिन्न-भिन्न रूपोंमे ईश्वरकी झाँकी करा सके, यही इस प्रमाणकी विधि और लक्ष्य है। न यह कि सर्वत्र ईश्वरका अभाव करके केवल प्रतिमादेशमें ही उसे सङ्कुचित कर दिया जाय । नन्हेले गोलमटोल शालिग्राममें
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आत्मविलास ]
[२०२ ईश्वरबुद्धि, ईश्वरको तुच्छ बनानेके लिये नहीं थी, बल्कि इसी लिये थी कि जब नन्हेसे शालिग्राममें ही ईश्वरका रूप पाया तो इस प्रमाणसे पर्वत, वृक्ष, नदी, पशु, पक्षी सभी ईश्वरका स्वरूप हुए चाहिये और सब देश, सब काल, सब वस्तुमे उसीकी सत्ताका दर्शन करना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत जो लोग इस सङ्कीर्ण दृष्टिसे प्रतिमापूजनपरायण होते हैं कि 'यही ईश्वर है और कहीं भी नहीं और इस प्रकार केवल प्रतिमामें ही ईश्वरको वॉध देते हैं, वे तो अपने हृदयोंको कोमल करनेके स्थानपर पापाण ही बना लेते हैं, वे तो हुए पत्थरके कीड़े ! जिस प्रकार बच्चा जब पाठशालामें जाता है तो गुरु उसको प्रारम्भमें पाटीपर अक्षर लिखना सिखाता है, जब पाटीपर उसका हाथ जम गया और वह पदोंको लिखना सीख गया तो फिर कापी भी लिख लेता है रजिस्टर, वही आदि सभी कुछ लिख लेता है, परन्तु पाटीपर हाथ जमाकर ही वह ऐसा कर सकता है, इसके विना नहीं। ठीक, इसी प्रकार प्रतिमा पूजन भी पाटीपर हाथ जमानेके समान है । जव प्रतिमाम दृष्टि जम गई तो सर्वत्र ही ईश्वरदर्शनका आनन्द लूटने लगे, परन्तु प्रतिमापूजनद्वारा ही ऐसा हो सकता है, अन्यथा नहीं। प्रतिमा मनको टिकानेका एक आलम्बन है कि सब ओरसे मनोवृत्तियोको खींचकर उन्हें इष्टदेवके रूपमें जोड़ा जाय । इसकी तीन अवस्थाएँ निरूपण की गई हैं।
(प्रथम) जैसे पत्थरकी शिलाका गङ्गामे शीतल हो जाना।
( दूसरी) कपड़ेकी गुड़ियाका अन्दर-बाहर पानी में निचुड़ने लगना ।
(तोसरी) मिश्रीको डलीका पानीमे गल जाना। पति (१) मनका परमात्माके स्वरूपचिन्तनसे शीतल
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२०३ ]
[साधारण धर्म हो जाना, (२) मनके अन्दर भी भक्तिरूपी रस भर जाना
और ३) मनका परमात्माके स्वरूपमें गलित हो जाना। ___ उपर्युक्त रीतिसे प्रतिमाका वास्तविक रहस्य कथन किया गया। शेषमें प्रतिमापूजन ध्यानरूप है और ध्यान सगुण व निर्गुण भेदसे दो प्रकारका है । पञ्चदेव मूर्तियोंमें निर्गुणभाव क्या है ? यह तो आगे चलकर स्पष्ट करेंगे, उसपर मनन करने से निर्गुणध्यानका स्वरूप विदित होगा। परन्तु जो पुरुष अभी सगुणके ही अधिकारी हैं, जिनकी सगुणमें ही प्रीति है और जिन सगुण-भगवान्के श्रवण, कीर्वन व स्मरणद्वारा पहले जिस रूपमे मनका प्रेम हुआ है तथा मन अपने टिकाक्के लिये उसी रूपका आलम्बन चाहता है, उन पुरुपोंके निमित्त सगुणध्यानके लिये उस इष्टदेवकी मूर्ति ही इष्टदेवरूप है । इसका फल यह है कि स्मरणद्वारा जो रूप हृदयमे धारण किया गया था, वह यहाँतक अर्चन, पूजन व ध्यानद्वारा हृदयमें दृढ हो जाय और नेत्रोंमें वस जाय कि प्रत्येक पदार्थमें वही रूप दृष्टि आने लगे। क्योंकि दृष्टिमय ही संसार है, जैसी जिसकी दृष्टि परिपक होती है वैसा ही दृश्य उसे सम्मुख भान होने लगता है । जिस प्रकार शरदपूर्णिमाको रासलीलाके समय जव भगवान् गोपियोंकी ऑखोंसे ओझल हो गये, तव वही रूप ऑखोंमें बस जानेके कारण गोपियाँ प्रत्येक पदार्थको कृष्णरूपसे ग्रहण करने लगीं। यही सगुण रूपसे प्रतिमापूजनका मुख्य उद्देश्य है, जिसके द्वारा तन-मनसे अपना अधिकार दूर हो जाता है और रजोगुणके गलित हो जानेके कारण निर्गुण-ध्यानका वास्तविक अधिकार प्राप्त होता है।
1, पत्रदेव नाम:-विष्णु, शिव, गणेश, शक्ति और सूर्य ।
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श्रात्मविलास]
[२०४ प्रकृतिके राज्यमे ईश्वरसृष्टिम प्रतिमापूजन अनिवार्य है। प्रतिमा-पूजनकी मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, समाजी भले मनिवार्यताही प्रतिमापूजनका खण्डन किया करें बुतपरस्त आदि शब्दोंसे भले ही अपमान किया करे, परन्तु ईश्वरसृष्टिमें इसका लोप हो नहीं सकता, क्योंकि यह मानसिकप्रकृतिके अनुकूल है। मनका स्वभाष है कि यह प्रेम चाहता है, प्रेमशून्य रह नहीं सकता । यह वात दूसरी है कि प्रेमका विषय चाहे भिन्न-भिन्न हो। किसीका ईसामें प्रेम है तो किसीका भूसाम। किसीका गुरुनानकदेवम प्रेम है तो किसीका स्वामी दयानन्दजीमे । किसीका मन धनुपधारीका शिकार हुआ तो किसी का छैलछवीलेकी वॉकी छविमे उलझ पड़ा ! जिस-जिसको जिसजिसके चरित्र मन भाये उसोमें उसका मन अटक गया। 'रुचीनां वैचित्र्यात् । प्रकृतिके अनुसार रुचिका भिन्न-मिन्नहोना स्वभाविक है। मन कि परिच्छिन्न और विषमदृष्टिवाला है, इसी लिये किसीमे उत्कृष्ट रूपसे पूज्यबुद्धि और किसीमें अपकृष्ट रूपसे अपड्यवद्धिका होना जरूरी है। अस्तु, जिसका मन जिसमे अटके प्रयोजन अटकानेसे है। देवबुद्धिसे जिम-तिस रूपमे मनको अटकानेका प्रयोजन यही है कि वह सांसारिक अटकसे निकल जाय और यह तो पुण्यरूप ही कार्य है। सभीके मूलमे अन्ततः वस्त एक ही है और ये सभी मूलमे किसी एक ही वस्तके लक्षण रूप हैं। जैसे किसीने पूछा, “देवदत्तका घर कौनसा
र वो बतलानेवालेने अङ्गुलीके इशारेसे बतला दिया कि "जिस घरपर काक वैठा है वह देवदत्तका घर है"। अब चाहे का घरपर बैठा रहे या उड़जाय, घरका पता काकने दे दिया। जिस प्रकार काक घरके किसी एक देशमे है अन्य देशमे नहीं
और किसी एक कालम है अन्य कालम नहीं, परन्तु अन्य घरोसे देवदत्तके घरको भिन्न जना देता है। जिस रूपसे काक देवदत्तके
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वा निकाल सपना देनेवाले हैं तो एक ही वस्त्र विभूतियाँ ईसा,
२०५]
[साधारण धर्म घरका उपलक्षण है, ठीक उसी प्रकार उपर्युक्त विभूतियाँ ईसा, मूसा, राम, कृष्णादि भी किसी एक ही वस्तु के उपलक्षण हैं
और 'घर'का पता देनेवाले हैं तथा जिज्ञासुका प्रयोजन भी घरका पता निकाल लेनेसे ही है । परन्तु मन्दबुद्धियोंद्वारा दूधमें खटाई डाल दी जाती है तो होता यह है कि उपलक्षणोंपर ही मन खट्टे कर लिये जाते हैं और लक्ष्य वस्तुको छोड़ ही दिया जाता है। देवदत्तके घरका पत्ता किसीने काकको इशारा करके बतलाया, किसीने विल्लीको संकेत करके और किसीने कुत्ते को, परन्तु कुत्त-विल्लीके ऊपर, मगड़नेसे क्या मतलब ? हमारा प्रयोजन तो घरका पता लगानेसे ही है। परन्तु शोक कि मुख्य आशयको छोड़ इसके विपरीत शैव वैष्णवके साथ लड़ता है तो शिया सुन्नीसे, सनातनी समाजियोंसे भगड़ रहे हैं तो ईसाई मुसाइयोंसे, कहीं रोमनकैथोलिक और प्रोटेस्टेएटका झगड़ा चल रहा है तो कहीं जैन और बौद्धोंका। वास्तवमे सब धर्मोके भूलमें एक 'प्रेम' ही है और द्वेष किसीका भो मूल नहीं, परन्तु अपनी नासमझीके कारण God को Dog में बदल दिया जाता है। महर्षि याज्ञवल्क्यने हाथ ऊँचा उठाकर क्या ही सुन्दर ललकार दिया है !
धर्म यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत् । अविरोधी तु यो धर्मः स धर्मों मुनिपुङ्गवः ।। अर्थ:-जो धर्म किसी दूसरे धर्मको बाधा देता है वह
१. अरेजी भाषामें God (गोव) शब्दका अर्थ परमात्मा है और Dogg (ढोग) शब्दका अर्थ कुत्ता है। दोनों शब्दों में अक्षर एक ही है, परन्तु अक्षरोंको उलट-पलट करनेसे अर्थका इतना भारी मन्तर हो जाता है।
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प्रात्मविलास ]
[२०६ धर्म नहीं किन्तु अधर्म है। हे मुनिश्रेष्ठ ! धर्म वही है जो सबके प्रति अवरोधी हो।
जिस प्रकार दर्पण सव प्रकारके प्रतिविम्बोंको धारण करता हुआ भी आप किसीसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो न किसीको बाधा देता है और न किसीकी बाधाको ग्रहण करता है, वही धर्म कहा जा सकता है। भला बाधा देना भी कभी कोई धर्म हुआ है । परन्तु शोक । कि धर्मके नामपर खूनकी नदियाँ बहाई जाती हैं और धर्मको अधर्ममें बदल दिया जाता है। हमको क्या अधिकार है कि किसी दूसरेकी प्रकृतिपर अाक्रमण करें ? अकबरने अपने दरबारियोंकी परीक्षाके निमित्त अपने दरबारमे एक मीधी रेखा खींचकर उनसे कहा, "इसको छोटा कर दो" । दरवारियोंमेंसे किसीने उसको दाहिनेसे किसीने वाग्ले काटना प्रारम्भ किया। अकवरने कहा, "यू नहीं, ये नहीं; विना काटे छोटा कर दो।" बीरवलने एक दूसरी रेखा उसके नीचे उससे लम्बी खींचकर कहा, "यह लो! आपकी रेखा छोटी हो गई ।" ठीक, इसी प्रकार प्यारे मतावलम्बियो । दूसरोंकी रेखाओंके काटने-पीटनेका व्यवहार प्रशस्त नहीं, दूसरोकी रेखाको काटे विना तुम अपनी रेखाको लम्बी कर दो, प्रेमकी घुड़दौडमें तुम अपनेको आगे बढा ले जाओ, दूसरे आप पीछे रह जायेंगे। 'ढाई अक्षर प्रेमके पढ़े सो पण्डित होय'। 'प्रेम' शब्द के अन्दर ढाई अक्षर हैं जिसने इनको यथार्थ रूपसे पढ़ा अर्थात् ठीक-ठीक व्यवहारमें लाया वही पण्डित हुआ।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्रामणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके व पण्डिताः समदर्शिनः ।।
(गी. ५ श्लो. १८)
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२०७
[ साधारण धर्म अर्थः-विद्या व विनयसे युक्त ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्त' और चाण्डालमे भी पण्डितजन समभावसे देखनेवाले होते हैं। __ प्रेमशून्य विपमदृष्टि रखकर दूसरोंको धकेलनेसे क्या प्रयोजन ? इस धक्कापेलीमें तो तुम्हारा मैदान रुक गया। तुम श्राप पिछड़ गये। यह लो! तुम तो धक्कापेलीमें ही रहे और प्याला (Cup) दूसरोंने ही जीत लिया। वास्तवमे बात तो है यूँ कि यह मतमतान्तर तो एक प्यालेके रूपमें हैं, जिनके द्वारा प्रेम-भक्तिरूपी अमृत पीना ही लक्ष्य था। 'प्रेमामृत' न सही, 'प्रेमसुरा' हो सही; प्रेमप्याला होटोंसे लगा कि मस्ती आ गई
और प्याला हाथोंसे छूट गया । अव प्याला चाहे सोनेका हो चाहे मिट्टीका, रहे या फूटे। परन्तु शोक ! तुम तो असली मधुको ही भुला वैठे और प्यालोंपर ही झगड़ने लगे। तुमको क्या जरूरत कि तुम धर्मके नामपर दूसरोंसे मन खट्टे करते रहो! तुम्हारा सम्बन्ध तुम्हारी अपनी प्रकृतिके साथमे है, दूसरोंका उनकी अपनी प्रकृतिके साथ। यदि दूसरा कोई गलत मार्गसे जाता है तो ईश्वरीय नाति आप डंडेकी चोटसे उसे सीधे मार्गपर ले आयेगी, उसकी आँखोंमे कोई नमक नहीं डाल सकता। प्रकृति का काम अपने हाथमें लेकर तुम अपने-आपको पथभ्रष्ट क्यों करते हो १ तुम अपने सत्य पर डटे रहो, फिर दूसरे अपने आप तुम्हारे पीछे दौड़ेगे। दीपक अपने प्रकाशमे जलने लगेगा तो पतग अपने-आप उसपर न्यौछावर होनेके लिये दौड़े आएँगे। विचारसे देखा जाय तो अपना सुधार न करके दूसरोंके सुधारने की चेष्टा ही इसका मूल है। वास्तवमें सुधार हमेशा प्रापेका ही होता है । जब हम अपना सुधार कर लेते हैं तब दूसरोंका सुधार विना ही किसी चेष्टाके हो जाता है। परन्तु जब हम पहले ही दूसरोंका सुधार करने दौड़ते हैं तो न अपना ही सुधार होता है न दूसरोंका, बल्कि सुधारके स्थानपर दोनोंका विगाड़ कर बैठते
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आत्मविलास]
[२०० हैं और लोक-परलोक दोनों ही खो बैठते हैं। यह नियम है कि किली स्थानकी वायु सूर्यतापसे हलकी होकर जब ऊपर उठ जाती ह तव चारों ओरसे वायु उस खाली स्थानका घेरनेके लिये दौडती है। इसी प्रकार तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम श्राप ऊँचे उठो, अपना स्थान खाली करो, आप दृष्टान्तरूप बनो, फिर दूसरे अपने आप तुम्हारी खाली जगह घेरनेके लिये दौडेंगे, अपने-आप तुन्हारा अनुसरण करेंगे। परन्तु शोक । कि तुम स्थान तो घेरे वैठे हो और अपना स्थान खाली करनेसे पहले ही दूसरोंको उठाना चाहते हो, दूसरे उठे तो कैसे ?
खैर ती हमको तो जाना था कहीं और चले गये कही और, पाठक जमा करे। श्राशय यह था कि जिसके मनको जिसके चरित्र भाये उसी रूपमें उसका मन अटक गया, वही छवि हृदयमें घर कर गई। अब उस प्यारेकी स्मारक रूपसे कोई वस्तु सम्मुख आई कि मन फूट पड़ा, हदय वह निकला। प्यारेका पत्र आया, प्यारेकी झॉकी खिॉमे समा गई, ऑखें टिमटिमाने लगी, अब पत्र कौन पढ़े ! वे धार्मिकग्रन्थ, जिनमें इष्टदेवके गुणानुवादोंका वर्णन होता है, उसके पत्र ही हैं, जिनके द्वारा उसका प्रेमसन्देश मिलता है। जाना आखिर न यह कि फोड़ की तरह फट बहे। हम भरे बैठे थे क्यों आपने छेड़ा हमको ।
किसी प्रेमीका फोटो, जिसने हमारा चित्त चुरा रक्खा हो और जो सदाके लिये हमसे मुंह छुपा बैठा हो, हमारी आँखोंके सामने आ गया, झट हृदय उसके रूप, गुण व स्वभाव से भरपर हो गया। यह लो। प्रमका दरिया किनारे तोडकर वहने लगा, अव चाहे कोई इसको बुतपरत्ती कहे, चाहे काल परस्ती। इस परस्तीको कोई लाख दवानेका यत्ल करे, यह दव
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२०६]
[ साधारण धर्म कैसे सकती है ? इस प्राकृतिक नियमपर किसका इसारा है ? वास्तवमें जब ऐसा है तव प्रतिमापूजन सर्वथा अनिवार्य है, क्योकि यह अपने इष्टदेवके रूप, गुण, स्वभाव व लीलाओंका फोटो सम्मुख खड़ा कर देनेवाला है।
वास्तवमें सत्य ही हमारा धर्म है और सत्य ही ईमान, जो कुछ कहा जायगा सत्य ही कहा जायगा, चाहे कोई भला माने चाहे बुरा ! जो लोग इस बुतपरस्तीका खण्डन करते हैं वे भी किसी न किसी रूपमें मनको मारकर चोरीसे ही इस परस्ती में लगे हुए हैं। ईसाई महाशय गिरजाके द्वारपर ही पहुंचे थे कि ऊपर सूलीका निशान दीख पड़ा, झट ईसाकी सूली याद आई और टोप सिरसे उतर पड़ा। मुस्लिमभाई मसजिदमें गया काबे का चिह्न देखा, विना कहे अपने-आप मन सिजदा कर बैठा। सिक्खलोग दरवारसाहिवमें गये, ग्रन्थसाहिवको तत्काल मत्था टेक दिया, चाहे अन्थसाहिवके प्राणरूप जो वचन हैं उनके आगे सिर न मुका हो, परन्तु स्थूल शरीररूप ग्रन्थसाहिबको तो अवश्य ही मत्था टेका जायगा। अपनी काश्मीरकी यात्रामें लेखक एक ग्राममें सिक्खोंकी धर्मशालामें ठहरा । चौकीपर जहाँ ग्रन्थी बैठकर पाठ किया करता है, लेखक वैठा हुआ था। ग्रन्थसाहिब सन्तोपकर अलमारीमें विराजमान कर दिये गये थे। एक सिक्ख प्रेमी आया चौकाके आगे मत्था टेका और लेखकसे कहा, "श्रापको प्रत्थसाहिवकी चौकीपर बैठने का कोई अधिकार नहीं, आप नीचे बैठो।" लेखक तत्काल नीचे बैठ गया और कहा, "प्यारे ! शरीररूप अन्थसाहिबका
आपने अवश्य आदर किया, परन्तु उनके प्राणरूप वचनोंका जिनकी प्रत्येक पंक्तिमें संतोंकी महिमा गाई गई है, अवश्य अपमान किया है। समाजीमहाशय भी इसी प्रकार चाहे प्रतिमापूजन न करते हों, परन्तु जब उन महर्षिका फोटो उनके
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आत्मविलास ]
[२१० राष्टिपात होगा, अवश्य मन मुक जायगा, चाहे शरीर झुके या न झुके। यदि मन भी न मुके तो वह उनका प्रेमपात्र ही नहीं और फिर उनके वचनोंका अधिकारी भी नहीं। यदि मन झुका है, परन्तु शरीर न मुके तो यह एक प्रकारकी कठोरता कही जा सकती है या मनकी चोरी, जोकि उसके उद्धारमे वडा प्रति. बन्धक है । सारांश, कोई चौकी या पुस्तकको मत्था टेकता है तो कोई सूलीको, कोई पत्थरके कावेको चुम्वन करता है तो कोई कागजके ॐको, आखिर यह बुतपरस्ती जा नहीं सकती।
और सव बातें जाने दीजिये, गरमीका मौसम है ठण्डे पहाड़ों में सैर करने निकले । किसी पर्वतीय सुन्दर दृश्यपर आँख पड़ी, तत्काल फोटो उतार लिया। घर आए जब कभी उस दृश्य का फोटो ऑखोंके सामने आया हृदय उसकी स्मृतिसे ठण्डा हो गया । लो जी | जब जड़ पहाडोंके फोटोमे हृदयको ठण्डा कर देनेका सामर्थ्य है, तब उन चैतन्य जगदाधार विभूतियोंके फोटो ही इतने निस्सार हैं कि भावुकोंके हृदयोंको वहा न देंगे और उन जड़ पहाडों जितना भी काम न देगे? यह तो हृदय की जड़ताका ही चिह्न कहा जायगा। चाहे कोई लाख यत्ल करे यह प्रतिमापूजन तो जा नहीं सकता। और जाय भी कैसे ? स्वभाव सिद्ध वस्तका लोप कैसे हो सकता है ? प्रकृतिका गला कैसे घोटा जा सकता है जैसे अन्नके आलम्बन विना शरीरकी स्थिति रह नहीं सकती, इसी प्रकार मन भी किसी न किसी भाव मयी मर्तियोंके आलम्बन बिना रह नहीं सकता। और जबकि यह इतना स्वाभाविक है तो क्यों न इसको (Directly)साक्षात्
से सेवन किया जाय और दिल खोलकर अपने भावोदगार निकालनेका अवसर दिया जाय ? किसी मन्दिरमें ही जाकर ऐसा करना आवश्यक नहीं, अपने घरोंको ही मन्दिर क्यों न बना लिया जाय ? खाली घरोंको ही मन्दिर नहीं
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२११ ]
[साधारण धर्म हृदयोंको ही मन्दिररूपसे क्यों न जीर्णोद्धार कर लिया जाय ?
सीतापति की कोठरी चन्दन जड़े किवाड़ । तालो लागे प्रेम की खोलें कृष्ण मुरार ॥
अर्थः-मायापति भगवान् इस हृदयरूपी कोठरीमें ही विराजमान हैं । दैवी-सम्पदरूप शुभ गुण ही इस कोठरीके चन्दनजड़ित किवाड़ हैं । अनन्य प्रेम अर्थात् अपने-आपको भगवान्के चरणोंमें खो बैठना, यही इसकी ताली है। और जब अपने-आपेको हार बैठे तब स्वयं कृष्ण-मुरारि ही इसके खोलनेवाले होते हैं।
पूर्वपक्ष-मूर्ति भगवानका फोटो है, यह तो हम भी मान लेंगे, परन्तु सर्वव्यापी भगवानको मूर्तिरूप ही मानकर उसकी पूजा करना तो पापाणपूजा ही होगी।
समाधान- यदि आपका फोटो सामने रखकर आपका प्रेमी आपके गुणानुवाद गायन करे और आपको फोटोके पीछे छुपा दिया जाय तो क्या अपने प्रेमीके सुन्दर भावोंसे द्रवीभूत हो आप प्रकट न हो पाएँगे और उसको आलिङ्गन न करेंगे ? इसी प्रकार जब भगवानको आप सर्वव्यापी मानते हैं, तब क्या भूर्तिदेशमें उसका अभाव हो सकता है ? यदि मूर्तिमें उसका अभाव है तो उसकी सर्वव्यापकता भङ्ग होगी। यदि वह वहाँ है तो जब भगवद्भक्त अपने श्रद्धापूर्ण आस्तिक भाषसे उस सर्वव्यापीको लक्ष्य करके निम्न भावोद्गारद्वारा परमेश्वरकी आराधना करता है.(१) नमोस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये सहस्रपादाक्षशिरोरुवाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुपाय शाश्वते सहस्रकोटियुगधारणे नमः ।।
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आत्मविलास]
[२१२ (२) यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः । अर्हनित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः सोऽयं नो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥
अर्थः-(१) उस अनन्तके लिये हमारा नमस्कार हो, जिसकी सहस्रों मूर्तियाँ, सहस्रो पाद, नेत्र, शिर, उरु और भुनाएँ हैं तथा उस सहस्रों कोटि युगको धारण करनेवाले शाश्वत-पुरुप के लिये हमारा नमस्कार हो, जिसके सहस्रों ही नाम हैं। .
(२) शैव जिस देवकी 'शिव' रूपसे उपासना करते है, वेदान्ती लोग जिसको 'ब्रह्म रूपसे, वुद्धमतावलम्बी 'बुद्ध' रूपसे, प्रमाणकुशल नैयायिक संसारके 'कर्ता' रूपसे , जैनमतके शासन में रत हुए पुरुप 'अर्हत' (ऋपभदेव) रूपसे और मीमांसक जिसे
रूपसे पूजते हैं। वहीं ये त्रैलोक्याधिपति श्रीहरि हमको वाञ्छित मोक्षफल प्रदान करे।
तव च्या उपासकका हृदय द्रवीभूत न होगा ? उसके भाव सर्वव्यापी भगवानको जोकि मूर्तिमें और हृदयमें दोनों ही जगह विद्यमान है, द्रवीभूत न करेंग १ और उसे सम्मुख खड़ा न कर लेंगे १ इस रीतिसे मूर्तिको भगवानका फोटो मानकर भी तुन्हारी शङ्का निमूल ही रहती है। नामदेवादि वालक जिन्होंने अपने सरल भावोंसे मूर्तिदेशमें भगवानको प्रत्यक्ष कर लिया था, इसके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं। उपासना किस देवकी की जाय ? इसके समाधानमें शा.
कारोंने प्रकृतिके तत्त्वपर भली-भाँति ध्यान उपास्यदव | देकर प्रकृतिजन्य पञ्च तत्त्व आकाश, वाय, तेज, जल और पृथ्वीके सञ्चालक पञ्चदेव विला
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२१३ ]
[साधारण धर्म सुर्य, गणेश और शिवरूप पञ्च अधिदैव शक्तियोंकी उपासना · को ही मुख्य रूपसे वर्णन किया है। इन पञ्चदेवोंमें भी कौन देव उपास्य है ? इसका निर्णय इस प्रकार किया गया है कि उपासकका चित्त स्वाभाविक जिस देवमें अटक्ता हो, उसके लिये वही उपास्यदेव है। शासकारोंका आशय इन पञ्च देवोंमें किसी एकको बड़ा और दूसरोंको छोटा वनानेमे नहीं है । यद्यपि महर्षि वेदव्यासद्वारा रचित अष्टादश पुराणों के अन्तगंत विष्णुपुराण, पद्मपुराण, देवीपुराण, शिवपुराण, सौरपुराण व गणेशपुराण हैं और इन प्रत्येक पुराणोंमें अपने-अपने देवको कारणाप तथा दूसरे देवोंको कार्यरूपसे वर्णन किया गया है। तथापि महर्षि व्यासका तात्पर्य दूसरे देवों की निन्दामें नहीं है, किन्तु भावुक्की प्रवृत्तिके अर्थ अपने-अपने पुराणप्रतिपादित देवकी महिमामे ही महर्पिका तात्पर्य है। यदि दूसरे देवोंकी निन्दामें ही तात्पर्य लिया जाय तो उपर्युक्त पञ्चदेवोंसे कोई भी महिमायोग्य उपास्यदेव न रहे
और सभी निन्दित सिद्ध हो जाएँ । यथा पद्मपुराणप्रतिपादित . विष्णुदेवके सिवाय अन्य सभी देव निन्दित हो गये और अन्य
पुराणोंद्वारा विष्णु निन्दित हो गया। तथा शिवपुराणद्वारा शिवसे भिन्न अन्य देव निन्दित हो गये और अन्य पुराणोंद्वारा शिव निन्दित हो गया इत्यादि, जब कि इन सब पुराणों का रचयिता एक ही है। परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है, किसी भी देवकी निन्दामे महर्पिव्यासका तात्पर्य नहीं हो सकता। ऋषि व शास्त्र उदार हैं और वे सब प्रकारके अधिकारियोंके लिये श्रेयपथप्रदर्शक है। प्रकृतिके राज्यमें रुचि व अधिकारकी विलक्षणता तो स्वाभाविक ही है। इसीलिये जिस-जिस अधिकारी की जिस-जिस देवमें स्वाभाविक रुचि हो,उसके कल्याणके लिये उस-उसदेवकी महिमामें भिन्न-भिन्न पुराणोंकी रचना उनके द्वारा
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अात्मविलास]
[२१४ सुन्दर भावपूर्ण मापामें रची गई है। जिसका व्याह उसीके गीत वाला हिसाव है। आशय यही है कि जिसकी जिस देवमें रुचि व प्रीति हो वह उसी देवको कारणब्रह्म, अर्थात् सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति व लयका रूपसे चिन्तन करे और अन्य देवोंको कार्यब्रह्मरूपसे उसका अंश जानकर चिन्तन करे । एकमात्र कारणब्रह्मकी महिमा और कारणब्रह्मको ध्येय निश्चित कराने में ही महर्षिका तात्पर्य है। वास्तवमें तो इन पाँचोंको लक्ष्य करके तत्तत् अनुगत एक सर्वाधिष्ठान,सर्वाधार,सर्वसाक्षी निरञ्जनदेव ही उपास्य है । वही देव भावुकोंकी रुचिके अनुसार भिन्न-भिन्न रूपोंमे उनको दर्शन देता है, स्वरूपसे इन पाँचोंके भेदमें कोई तात्पर्य नहीं जैसा स्वय गीताने इम विपयकी साक्षी इस प्रकार दी है:यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यम् ॥ स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधान मीहते । लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥
(अ.७. श्लो २१.२२) अर्थ-जो-जो भक्त जिस-जिम देवताके स्वरूपको श्रद्धासे पूजना चाहता है, मैं ही उत्त भक्तकी उस देवके प्रति अचल श्रद्धको स्थिर करता हूँ। वह पुरुप (मेरी दी हुई ) उस श्रद्वासे युक्त हुआ उस देवताके पूजनकी चेष्टा करता है और (उनयताके रूपमे) मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इन्धित भोगोंको निस्सन्देह प्राप्त करता है।
इससे स्पष्ट है कि इन सर्व देवोंके मूलमें वस्तुतः एक ही चेतनदेव विराजमान है और यह भिन्न-भिन्न रूप तो जैसा पं. निरुपण किया गया, उम एक ही परमदेवके उपलक्षण
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२१५ ]
[ साधारण धर्म स्वरूप हैं। परन्तु मन्दबुद्धि लोग वास्तविक रहस्यको न जान 'श्याल-सारमेय' न्यायसे परस्पर वैमनस्य उपजाकर अपने दुरुपयोगसे धर्मको अधर्ममें व अमृतको विपमें पलट लेते हैं और चन्दनसे भी अग्नि उत्पन्न कर लेते हैं।
स्त्रीके भाईको 'श्याल' कहते हैं, 'सारमेय' नाम श्या सारमेय न्याय कुत्ते का है और 'न्याय' शब्दका अर्थ
दृष्टान्त है । किसीके घरमे कुत्ते का नाम धावक था और उसके पड़ोसीके कुत्ते का नाम उत्फालक । उसी मनुष्यके श्याले (साले का नाम उत्फालक और उस स्यालेके शत्रुका नाम धावक था। जव इसके घरका कुत्ता धावक (जो कि श्यालेके शत्रुका नाम भी था) और पड़ोसीका कुत्ता उत्फालक (स्थालेका नाम भी यही था) परस्पर लड़ें, तव इसके घरवाले अपने धावककी प्रशंसा करें और पड़ोसीके उत्कालकको गालियाँ दें। इस मनुष्यको स्त्री जव विवाहकर घरमे आई तव वास्तविक रहस्यको न जान अपने भाईको निन्दा और भाईके शत्रुकी प्रशंसा सुनकर अपने पतिसे झगड़ा करे । इसीका नाम 'श्याल-सारमेय न्याय' है। । इसी प्रकार वास्तव तत्वको न जानकर मन्दबुद्धि अपनेअपने उपास्यदेवकी महिमा और अन्य देवोकी निन्दापरायण हो जाते हैं । परन्तु वास्तवमें महर्षिव्यासका तात्पर्य इन पञ्च देवोंमे किसी एकको उत्कृष्ट और दूसरोंको अपकृष्ट बनानेमें 'कदापि नहीं है, किन्तु कारणब्रह्मको ध्येय ठहरानेमे ही महर्षिका मुख्य प्रयोजन है । अर्थात् जिसकी जिस देवमे रुचि हो उसको वह कारणब्रह्म (सृष्टि-उत्पादक, जगन्नियन्ता तथा संहारकर्ता) रूपसे ध्यान करे और दूसरे देवोंको उसकी विभूति रूपसे चिन्तन करे। विचारसागरके सप्तम वरनमें इसी विषयको विस्तारसे स्पष्ट किया गया है।
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आत्मविलास]
[२१६ यदि विचारशक्तिको थोड़ा आगे बढ़ाये तो स्पष्ट होगा कि वास्तवमें इन पाँचों देवोंकी मूर्तियाँ सुन्दर भावपूर्ण हैं और प्रत्येक मूर्तिके मूलमें गम्भीर भाव भरे हुए हैं, जिनके द्वारा प्रत्येक मूर्ति उस एक ही परमदेव कारणब्रह्मके स्वरूपकी घोतक है, जिसका संक्षेपसे नीचे निरूपण किया जाता है:
विष्णुदेव अनन्तनागकी शैय्यापर क्षीर-समुद्रमे सोये विष्णु-मूर्तिमें कारण हुए हैं । नील वर्ण हैं और चतुर्भुज शह, ब्रह्मरूप निर्गुणभाव। चक्र, गदा व पद्मको धारण किए हुए हैं। उनके नाभिकमलसे रक्तवर्ण चतुर्मुख ब्रह्माकी उत्पत्ति हुई है। लक्ष्मी उनके चरण चाप रही है इत्यादि । ऐसा विष्णुका रूप वर्णन किया गया है। अब इसका रहस्य निरूपण किया जाता है। राम व कृष्णादि तो विष्णुके ही अवतार हैं इस लिये इसी रूपसे ध्येय हैं । विष्णुनाम व्यापकका है जोकि उस एक ही चेतनम्वरूपको सिद्ध करता है । अनन्तनागका भाव अनन्त-आकाश है। अनन्त-आकाशसे भी अधिक सूक्ष्म तथा अधिक व्यापक होनेके कारण उस अनन्तनागम्प आकाशको भगवान्की शय्यारूप से निरूपण किया गया अर्थात् उसमें उनकी व्यापकता जितलाई गई, जिसके ऊपर उनका शयन हो रहा है। जिसप्रकार जड़ शय्या पर चेतनपुरुपका शयन योग ही है, इसी प्रकार जड़ आकाश पर चेतनस्वरूप भगवानका शयन युक्तियुक्त ही है, क्योंकि चेतनके विना जड़की स्थिति असम्भव है। और जबकि वे आकाशके अन्तर तथा श्राकाशके ऊपर भी विराजमान हैं तो आकाशका कार्य वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी और इन पञ्चतत्त्वरचित स्थूल ब्रह्माण्ड सबमें ही वे विराजमान हैं,इसमें तो सन्देह ही क्या है ? जीव अनादि है और प्रत्येक जीवके प्रत्येक जन्मके कर्मसंस्कार अनन्त हैं और उसके जन्म भी अनन्त ही हैं। इस लिये उसके अनन्त जन्मोंके कर्मसंस्कारोंका तो अन्त ही
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२१७ ]
[ साधारणधर्म क्या हो सकता है ? जब प्रत्येक नीवके कर्मसंस्कार इतने अनन्त हैं तो अनन्त जीवोंके अनन्त जन्मोंके अनन्त संस्कारों का समुद्र के समान अपारावार होना आश्चर्यरूप ही क्या है ? जिस प्रकार क्षीरसे मक्खनरूप फलकी उत्पत्ति होती है और क्षीरके प्रत्येक अशमें वह छुपा हुआ है,इसी प्रकार प्रत्येक संस्कार मुख-दुःखरूप फलका हेतु है, इस लिये उन समष्टि संस्कारोंको 'क्षीरसमुद्र' मपसे वर्णन किया गया । उन समष्टि कर्मसंस्काररूप क्षीरसमुद्र में भी वह देव विराजमान है, जिससे उसकी सर्वव्यापकता व परात्परता सिद्ध की गई । उस क्षीरसमुद्रमें वह देव सोये हुए हैं, सोनेका क्या प्राशय ? सोनेका भाव यह है कि उन कर्मसंस्कारोंको भगवान् उदासीनरूपसे अपनी सत्ता-स्फूर्तिमान से फलोन्मुख कर रहे हैं, अपनी ओरसे किसीको सुख-दुःख भोगानेवाले नहीं है, बल्कि जैसे-जैसे जीवोंके कर्म होते हैं उनके अनुसार ही भगवानको सत्ता-स्फूर्तिद्वारा उनको सुख-दुःखका भोग मिलता है। जिस प्रकार एक ही भूमिमे डाले हुए गेहूँ, जौ, बाजरा, मक्का आदि अनेक बीजोंको भूमि अपने अपने समयपर, अपनी सत्ता-स्कृतिसे फलोन्मुख कर देती है और फल भी वीजके अनुसार ही निकलता है। यही कर्म-संस्काररूप क्षीरसमुद्र में भगवानके शयन करनेका भाव है । नीलवर्ण का भाव निरूपसे है। जिस प्रकार आकाशं नीलवर्ण दीखता हुआ भी निरूप है, उसी प्रकार भगवान्का भी कोई रूप नहीं हैं। अथवा नीलवणसे सत्त्वगुणकी पराकाष्टा सिद्ध होती है कि भगवान सत्त्वगुणकी मूति ही हैं। चतुर्मुजसे भाव अनन्त शक्ति का है। शरीरके सब अगोंमें वलका आधारभूत मुंजा ही मानी 'गई है. इस लिये वाहुवल ही प्रसिद्ध है। इस प्रकार चतुर्भुज उस परमात्माकी अनन्तशक्तिको ही. सूचित करते हैं। उसकी चार भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा व पद्म हैं। इनमेसे शङ्क व पट्न
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[२२०
श्रामविलास] तृतीय नेत्रका स्थान मस्तकमै इन दोनों नेत्रोंके ऊपर है । ऊपर होनेका तात्पर्य यह कि इन दोनों नेत्रोंमे जो प्रकाश है वह इनका अपना नहीं, किन्तु इनके ऊपर जो तीसरा ज्ञाननेत्र है उसीकी ज्योतिसे ये धन्य हुए हैं। इस शिवस्त्ररूपने अपने इसी ज्ञाननेत्र से कामदेवको भस्म किया है।
आत्मा ब्रह्मति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ। निष्कामः किं विजानाति किं व्रते च करोति किम् ॥
( अष्टावा) अर्थ. श्रात्माको ब्रह्मस्प और सम्पूर्ण भाव-अभाव पदार्थों को कल्पितरूप निश्चय करके ऐसा जो निष्काम-ज्ञानी है, वह क्या कुछ जाने, क्या कहे और क्या करे ?
अर्थात् जिसने सबको अपना-आपा करके जाना, उसके लिये न कुछ जानना ही शेष रहता है, न कुछ कहना और न करना ही। जब फ्रिसी वस्तुको अपनेसे भिन्न करके जानते हैं तभी कामना उत्पन्न होती है, परन्तु इस शिवस्वरूपने तो अपने ज्ञान प्रकाशद्वारा मवको ही अपना आत्मा निश्चय करके सम्पूर्ण कामनाओको भस्म कर दिया है। इस शिवस्वरूपके मस्तकपर शान्तिरूपी द्वितीयाका चद्रमा शोभायमान है जिसकी कलाएँ नित्य पृद्धिको प्राप्त होती हैं। दुखरूप गरलको यह पान कर गया है। समुद्रमथनके समय और सव रत्नोंके तो ग्राहक खड़े हो गये, परन्तु इस गरलका कोई भी ग्राहक नहीं हुआ। यही वह जानमूर्ति या जो सम्पूर्ण दुखरूपी गरलको हड़प कर गया। जब इसके लिये अपनेसे भिन्न कोई पदार्थ ही शेप नहीं रहता तो दुसमे इसको क्या कायरता ? यह तो इसका अपना आत्मा हो या।
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२२१]
[ साधारण धर्म तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।।
(ईशावास्य) अर्थात् एकत्व देखनेवालके लिये क्या मोह और कैसा शोक ? दुःख सदैव किसी न किसी इच्छा करके ही होता है और इच्छा तय होती है जव इच्छित वस्तुको अपनेसे भिन्न जाना जाय । परन्तु इस शिवस्वरूपने तो एकत्व-दृष्टि (अभेद-दृष्टि) से सवको अपना आत्मा ही जाना है, इसलिये इसको कोई इच्छा नहीं और जब कुछ इच्छा ही नहीं तव दु.ख किस बातका ? यह शिवस्वरूप दिगम्बर है, सव दिशाएँ ही इसके वस्त्र हैं। अर्थात् यह किसी दिशाकी हदमें नहीं आ मकता, सब दिशाओसे परे हैं, इसलिये यह सर्वव्यापी देशपरिच्छेदसे रहित है। इस देव का वैराग्य ही भूपण है, जिसने नागेन्द्रका हार गले में पहना हुआ है। नागेन्द्र साक्षात् मृत्युस्वरूप है जिसको इसने अपने कांठसे लगाया हुआ है, अर्थात इसने काल को अपने अधीन कर लिया है और कालसे इसको कोई भय नहीं है। यह कालातीत है, इस लिये कालपरिच्छेदसे भी रहित है। इसने शवमस्मका विलेपन किया है, रुएडोको माला धारण किये हुऐ हैं और श्मसाननिवासी है। यह सब तोत्र वैराग्यके सूचक हैं। प्राशय यह कि जिसने संसारसम्बन्धी रागको तीव्रतर वैराग्यद्वारा भस्म किया है और उस भस्मको अपने शरीरके साथ लेपन किया है अर्थात् उसे अपनाया है, वही इस शिवस्वरूपके दर्शनका अधिकारी हो सकता है। इसके चार हाथ हैं, जो उसकी अनन्त शक्तिके सूचक हैं। पार्वती इमके वामागमे विराजमान है, अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति व लयकारणी महामाया उसके वामागमें विराज रही हैं। वामाझमें विराजनेका भाव यह है कि उसके कटाक्षमात्रसे ही माया सब चेट कर रही है अर्थात् यह सब उसके बाएँ हाथका खेल है। इसके हाथोंमे त्रिशूल,
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आत्मविलास]
[ २२२ डमरु श्रादिक हैं जो वही वर व शापके परिचायक हैं। अर्थात् यह शिवस्वरूप अपनेसे विमुखी जीवोंको अध्यात्म, अधिव य अधिभूत त्रितापरूपो त्रिशूलसे छेदन किये बिना नहीं छोड़ता, उनपर इसका वार अचूक है। इसीलिये त्रिशूल इमके दाहिने हाथमे है। तथा अपने अनुसारी जीके लिये लोक-परलोक न्यौछावर कर देना इसके लिये विलाममात्र है, अर्थान् योग हाथका खेल है । इसी लिये मङ्गलम्प डमा बाम हम्तमें विराजता है। इसका गोरवणं होना इमकी शान्त मूर्तिका चिह्न है। इप्त देवका बाहुन धर्मरूपी नॉदिया है, धर्म विना जान असम्भव है, अर्थात् जब हमारी मब चेष्टाएँ धर्ममूलक होगी तब वे धर्ममूलक चेटाही वैराग्यको उत्पन्न करके ज्ञान का प्राप्ति करा सकेंगी। इसी लिये यह ज्ञानमूर्ति धमरूपी नॉदिये पर आरुढ है। इस प्रकार उस धर्मरूप वाहनको सन्तुष्ट करके ही इस शिवस्वरूपको प्राप्ति सम्भव हो सकती है। उस धर्मरूप नॉदियेके सींगपर पृथ्वी टिकी हुई है, अर्थात् धर्मके आधार ही संसारकी स्थिति है और जब धर्मका ह्रास होता है तभी पृथ्वी (अर्थात् समष्टी जीव) शोकातुर होती है। ज्ञानरूपी गङ्गा इस शिवस्वरूपकी जटाओं से निकली है, जिसकी तीन धाराएँ तीनों लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं, अर्थात् जो सर्व देश और सर्व कालमे सुलभ है। जिस प्रकार गङ्गास्नानका फल तीर्थ-पुरोहितों को सङ्कल्प देकर सन्तुष्ट किये बिना नहीं मिलता, इसी प्रकार ज्ञानवान् अनुभवी महापुरुप इस ज्ञान-गहाके तीर्थ-पुरोहित हैं। संसारसम्बन्धी अहंता-ममताके सङ्कल्पद्वारा इन पुरोहितोंको सन्तुष्ट करके ही इस ज्ञान-गङ्गाके स्नानका यथार्थ फल पाया जा सकता है । इस प्रकार जिन्होंने जात-पॉतके विचार विना उपयुक्त विधिसे इस गङ्गामें मन्जन किया है, उनको नकद फल तत्काल मिल जाता है और चितापसे मुक्त हो इसी प्रकार उनका हृदय
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२२३ ]
[ साधारण धर्म शीतल हो जाता है जैसे सोया हुआ स्वप्नसे जागकर और स्वप्न की व्यथाओंसे छटकर शान्तिको प्राप्त हो जाता है। मज्जन फल देखिये तत्काला । काक होहिं पिक बकहु मराला ॥ यही शिव-मूर्तिमें कारण-ब्रह्मरूप अध्यात्मभाव निहित है ।
सूर्य प्रत्यक्ष प्रकाशमान तेजस्वरूप देव है और संसारके सूर्य-मूर्तिमें कारण- यावत् अधिभौतिक तेजोंका उद्गमप्रारूप निगुणमाव । स्थान है । स्थूल दृष्टि से यह सम्पूर्ण स्थूल पदार्थोका कारण है । दिन-रात और घड़ी-प्रहरादि कालकी सम्पूर्ण व्यवस्था सूर्यद्वारा ही सिद्ध होती है तथा ग्रीष्म, वर्षा, शरंद, शिशिर, हेमन्त और बसन्त इन पट ऋतुओंका परिवर्तन भी सूर्य के अधीन ही सिद्ध होता है। सारांश जायते, 'अस्ति, पद्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति इन छ: विकारोंवाला ही सम्पूर्ण प्रपञ्च है और यह सब उत्पत्ति स्थिति व लय कालके अधीन है, जिसका कारण सूर्य ही है। गमन-आगमन, आकुञ्चन-प्रसारण, उत्क्षेपण-अपक्षेपण आदि ब्रह्माण्डवर्ती सम्पूर्ण क्रिया व चेष्टाएँ भी सूर्यद्वारा ही सिद्ध होती हैं। यदि सूर्य न रहे तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ठिठुरकर जड़ होजाय
और सम्पूर्ण क्रियाओंका सङ्कोच हो जाय। इतना ही नहीं, बल्कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध इन पाँच विपयों और गुणोंवाला ही है और इन पाँचोंकी सिद्धि में सूर्य
१. कोयल २. बगुला ३. गजहंस । • ४. उत्पन्न होता है । ५. विद्यमान, है । ६. बढ़ता है । ७ विकारी होता है। 6. क्षय होता है। ९. नाश होता है।
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श्रात्मविलास]
[ २२४ की ही सहायता है, सूर्य विना किसी एककी भी सिद्धि असम्भव है। सूर्य न हो तो वायु जड़ता करके निश्चेष्ट हो जाय और शब्द एक स्थानसे दूसरे स्थाननक वायुके द्वारा ही पहुँचता है, अतः वायुके निश्चेष्ट होनेपर शब्द-क्रिया ही वन्द हो जाय। वायुको क्रियासे ही स्पर्शगुणकी सिद्धि होती है, अतः इसके निश्चेष्ट होने पर स्पर्श-गुणकी सिद्धी तो बने ही कैसे ? सम्पूर्ण रूप तो स्वयं सूर्यका ही गुण है। जल का रसगुण भी सूर्यके बिना जड़ता आ जानेसे सिद्ध नहीं हो सकता और गन्धगुणकी सिद्धी तो जल करके ही होती है । संसारमें पांचों गुणोंमें रूपगुण ही प्रधान है और यावत् संसारके रूपोंका उद्गमस्थान सूर्य ही है। जितने भी संसारमे रूप हैं वे सात रनोंके ओतप्रोतसे ही सिद्ध होने है ओर वे सातो सूर्यसे ही निकलते हैं। जितने भी पदाथोंमे रूपरङ्ग दृष्टिगोचर होते हैं वे सव रूपरङ्ग पदार्थगत अपने नहीं, किन्तु गव सूर्यके ही हैं। सव पदार्थ स्वगत रङ्गोंको सूर्य से ही प्राप्त करते हैं, वर्तमान साइन्स (विज्ञान) ने अनुभवप्रमाणसे हमको भली-भॉति सिद्ध कर दिया है। सारांश, गुण क्रिया व इन्यमय ही यह ससार है और सम्पूर्ण गुण-क्रियादव्यांके प्रति सूर्यको कारणता प्रसिद्ध है, इसीसे यह कारण-ब्रह्मरूपसे उपास्य है। सूर्य-भगवानका वाहन शास्त्रोंमे सप्त अश्वजड़ित रथ वर्णन किया गया है । यह स्थल गोलाकार जड सूर्य हो, जो उपर्युक्त मात रङ्गोंवाला है, मप्ते अश्वतड़ित . रथ है
और वह चेतन साक्षी जिसकी मत्तासे यह सब प्रकाश, रूपरङ्ग व क्रिया प्रकाशित हो रहे हैं, वही इस रथका रथी है ।
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तचेजो विद्धि मामकम ॥
(गीता १.१५,१२)
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२२५
[साधारण धमे अर्थ ..जो तेन सूर्यमे स्थित हुआ अखिल ब्रह्माण्डको प्रकाशित कर रही है और चन्द्रमा तथा अग्निमें जो तेज है, वह तेज तू मेरा ही जान । .
यही सूर्यमूर्तिमें कारण-ब्रह्मम्प सामग्री है।
गणानां ईश: गणेशः । गणानां पति गणपति । अर्थात् गणेशमूर्तिमें कारण- गणोंका ईश्वर, गणोंका स्वामी, गणेश प्रशासनिर्गणभाव | गणपत्ति' शब्दका अर्थ है । गण नाम .. .-समूहका है। यहाँ शिवगण ही केवल गणरूपसे ग्रहण करनेयोग्य नहीं, किन्तु समष्टि मन-इन्द्रियादि अध्यात्मगण, उन मन-इन्द्रियोंके सञ्चालक देवतारूप अधिदैवगण और श्रीकाशादि पञ्चतत्त्वरूप अधिभूतगण भी 'गण' शब्दः का अर्थ ग्रहण करनेयोग्य है । इन समष्टि अध्यात्म, अधिदेव व अधिभूत गणोका स्वामी ही 'गणेश' शब्दका भावार्थ है। ऐसा सब गणोंका स्वामी 'एकमेवाद्वितीयम्' सत्त्वगुणकी मूर्ति
और केवल ठोस सत्त्वगुण ही गणेशरूपसे उपास्य है । गणेशमूर्तिमें सव अङ्ग सत्त्वगुणके ही परिचायक हैं । यह अटल सिद्धान्त है कि जहॉ रजोगुण उत्पन्न होता है वहीं सव विघ्न
आन उपस्थित होते हैं । जब-जब अहंकर्तृत्व-अभिमान आता है तव-तव ही चञ्चलता, मत्सरता, दर्प, राग, द्वीप और विफलतादि सब विनसामग्री अपने-अपने स्थानपर आ विराजती हैं
और जब उनका नाशक सत्वगुणरूप गणेश था जाता है तव सव विनोंका अभाव हो जाता है। अर्थात् जब ये भाव हृदयमें समा जाते हैं कि 'सर्व कर्ता-धर्ता वह अन्तर्यामीदेव ही है, बुद्धिमें, वैठकर वही निश्चय कर रहा है, मनमें विराजकर वही. सङ्कल्प कर रहा है, फिर ज्ञान-इन्द्रियोंके साथ मिलकर कर्मेन्द्रियोंको गति वहीं दे रहा है, यहॉतक कि प्रत्येक नाड़ीको वही चला रहा है, हमारा अपना कर्तृत्व तो आटेमें नमकके मान भी नहीं।
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[ २२६
आत्मविलास] छष्टान्तरूपसे समझ सकते है कि यदि अग्निमे उप्णता और जलमें कद (गलाना) धर्म न रहे तो हमारा चाहे कितना भी पुरुषार्थ क्यों न हो, हमारे अपने पुरुषार्थसे ही हमको रोटी नसीव नहीं हो सकती। साधारण रूपसे किसी पदार्थके नेत्रद्वारा देखनेमें अनेक नाडियोंमें क्रिया उत्पन्न होती है,तव ऑख किसी पदार्थको देखनेमे समर्थ होती है । यदि नेत्रकी उन नाड़ियोंमे क्रिया न रहे तो वे स्वय किसी पदार्थको देखनेमे समर्थ न हो। सारांश, समग्र स्थूल-सूक्ष्म शरीर जिसको हम कर्ता मान रहे हैं, वह केवल एक कठपूतलीके समान ही है और वह सूत्रधारी ही इसको हिलावला रहा है । वस्तुत.सब कर्तृत्व उसीका है रञ्चकमात्र भी हमारा नहीं। इस प्रकार जब सत्त्वगुण हृदयमे भरपूर होता है, तब कर्तृत्व-अभिमानका अभाव हो जाता है और शान्ति, सन्तोष, सरलता, कोमलता, प्रेम, सफलता आदि गणेशजीके अनुचर आ विराजते हैं और उपर्युक्त सभी विनोंको मार भगाते हैं।
अहंकर्तेत्यहमानो महाकृष्णादिशितः । नाहंकतेति विश्वासामृत पीत्वा सुखी भव ।।
(अष्टावक्र ) अर्थ-हे जनक | 'मैं कर्ता हूँ! इस अहङ्काररूपी काले सर्पसे डसा हुआ तू 'मैं कुछ नहीं कर्ता इस विश्वासरूपी अमृतको पीकर सुखी हो।
इसी लिये सब कमोंके आरम्भमें इस 'विघ्नहरण मङ्गलकरण' की स्तुति की जाती है । परन्तु केवल वाणीसे कथनमात्र ही लाभदायक न होगा, किन्तु इसको हृदयमें विराजमान करक हृदयसे कथन करना आवश्यक है। केवल रोली-मोली चढ़ानेसे इसकी तृमि न होगी, किन्तु मन-बुद्धिकी भेटसे ही इसको सन्तोष मिलेगा!
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२०७7
[साधारण धर्म गणानान्त्वा गणपति " हवामहे प्रियाणान्त्वा प्रियपति * हवामहे निधीनान्त्वा निधिपति - हवामहे वसो मम आहमजानि गर्भधमात्मजासि गर्भधम् ।।
भावार्थ:-गोंमे गणपति अर्थान् गणोंका आत्मा आप ही हैं. हम अापका आह्वान करते हैं। प्रियाओं में प्रियपति अर्थात् प्रियाओंकी जान आप ही हैं, हम आपका आह्वान करते हैं । सब निधियों में निधिपति आप ही हैं, हम आपका आह्वान करते हैं। . हे मेरे सर्वस्व गणपति ! आप सर्वाधारको हम सब ओरसे प्राप्त करें, आप सबके बीजरूपको हम सव पोरसे ग्रहण करे।
जहाँ सत्त्वगुण है वही सब मङ्गल आ विराजते हैं और जहाँ रजोगुण है वहीं सव लेश, विघ्न । इसी लिये यह सर्गविनविनाशकारी मइलदाता सब देव-मनुष्यादिद्वारा बन्दन करनेयोग्य है । गाथा है कि एक समय देवताओंने दैत्योंपर चढ़ाई की, परन्तु अपने रजोगुणी अभिमानके कारण इस गणेश की पूजा करना भूल गये,इसलिये उनको सफलता न मिली। फिर लौटकर जब उन्होंने इस मूर्तिमान् सत्त्वगुणरूप गणेशकी पूजा की, इसको अपने हृदयसिंहासनपर विराजमान किया तब उनकी जय हुई। इस मूर्तिमान् सत्त्वगुणरूप गणेशकी कृपासे ही बान, कर्म, व्यवहार तथा परमार्थकी सब सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, इसी लिये इसकी शक्तिका नाम 'सिद्धि' है, जिसको इसने अपने वामागमें विराजमान किया हुआ है।
'सत्त्वात्संजायते ज्ञान' (गीता 11-10) अर्थात् सत्वगुणमे ही सब ज्ञान उत्पन्न होते हैं । तथा रजोगुणरूप भूपकको दबाकर ये गणेश उसपर आरूढ हों रहे हैं, यथा:- .
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आत्मविलास ]
[२२८ , रजस्तमश्वामिभूय सत्वं भवति भारत (गीता १४-१०), ..अर्थात् रजोगुण व तमोगुणको दवाकर सत्वगुण वृद्धिको प्राप्त होता है।
इस गणेशके एक हस्तमें अङ्कश, एकमे मोदक, एकमे कमण्डलु और एकमें माला है। अङ्कुश विघ्ननाशक चिह्न है, अथवा अपनेसे विरोधियोंके लिये दुःखरूप शापकी सूचना देता है। मोदक अपने अनुसारियोंके लिये मगलरूप वरकी सूचना देता है । कमण्डलु और माला इसके स्वरूपप्राप्तिके लिये साधन के सूचक हैं । कमण्डलु त्यागको दर्शाता है और माला ईश्वर परायणता को। प्राशय यह है कि इस सत्त्वगणरूप गणेशकी प्राप्तिके लिये त्याग ही एकमात्र साधन है । पदार्थीको पकड़से उसकी प्राप्ति असम्भव है, बल्कि पदार्थोंकी पकड़से तो रजोगुण ही मिलता है, एकमात्र पदार्थोंकी छोड़से हो उसको पाया जा सकता है। परन्तु यदि त्याग हुआ और ईश्वरपरायणता न हुई तब भी उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं, इस लिये त्यागके साथ-साथ ईश्वरपरायणता भी आवश्यक है। ___ इस गणेशके गएडस्थलसे शान्तिरूपो मधु सवित हो रहा है, जिसकी गंधपर शुद्धान्तःकरण भावुकरूपी मॅवरे लोभायमान होकर गुझार कर रहे हैं। 'प्रस्पन्दन् मधुगंधलुब्धमधुप व्यालोल गण्डस्थलम्'
अर्थात् सत्वगुणसे ही शान्ति उपजती है, इसलिये सत्त्वगुणी है अन्तःकरण जिन्होंका और तज्जन्य शान्ति-सुखको अनुभव किया है जिन्होंने, वे ही भंवरेके समान इस गणेशके गण्डस्थलसे संवित मधुगन्धपर लोभायमान होकर गुजार कर रहे हैं और निवारण करनेसे भी निवृत्त नहीं होते।
यही गणेशमूर्णिमें कारण-ब्रह्मरूप अध्यात्म-भाव है।
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२२६ ]
[ साधारण धर्म जिसकी विद्यमानतासे पदार्थका अस्तित्व रहे और जिसकी शक्तिमूर्तिमें कारण- | अविद्यमानतासे उसका अस्तित्व लुप्त हो प्रारूप निगुणभाव।। जोय, वही उस पदार्थकी शक्ति है । जैसे जलमें रस, अग्निमें तेज, पृथ्वीमे गन्ध ।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । प्रणावः सर्ववेदेषु शन्दा खे पौरुष नृषु ।।
- (गी. भ. ७ लो ८) अर्थ:-हे कौन्तेय ! जलमें रस, सूर्य-चन्द्रमामें प्रभा, सब वेदोंमें उकार, आकाशमै शब्द और पुरुषोंमे बलरूपसे मैं ही हूँ।
प्राशय यह है कि संव पंढाथोंमे शक्तिरूपसे वह परमात्मदेव ही विराजमान है, उपाधिभेदसे, उसी शक्तिके भिन्न-भिन्न नाम हो गये हैं। जिस प्रकार एक ही जल भिन्न-भिन्न पात्रोंकी उपाधि करके पानके अनुरूप भिन्न-भिन्न रूपोंको धारण कर लेता है, परन्तु उपाधिको छोड़कर केवल जलदृष्टिसे उन रूपोंमे कोई भेद नहीं रहता, इसी प्रकार एक ही 'अचिन्त्य-चिन्मान-शक्ति, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें नाना नामरूपात्मक प्रपञ्च में ज्याप्त होकर स्थित है, भिन्न-भिन्न नामरूपकी उपाधि करके यद्यपि भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है, परन्तु उन सम्पूर्ण नाम व सम्पूर्ण रूपोंके नीचे अपने वास्तव स्वरूपसे वह एक ही है । दुर्गा सप्तशती अ. ५ श्लोक १४ से ७४में उस देवीका रूप इसी प्रकार वर्णन किया गया है, यथा :
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ।। या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥
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आत्मविलास]
[२३० या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु वधारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु छायारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता । । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु लजारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥
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२३१ ]
[ साधारण धर्म या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेष लक्ष्मीरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ था देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ।। या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ अर्थः-जो देवी सब भूतोंमे,माया,चेतना,बुद्धि,निद्रा,नुघा,छाया, सृष्णा,लन्ना,शान्ति आदिर पसे स्थित है उसे वारंवार नमस्कारहै।
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[२३२
श्रामविलाम]
अर्थात् सबमें सब रूपसे वह एक ही शक्ति अपना खेल खेल रही है । वही शक्ति सबके द्वारा उपास्य है । विष्णुकी उपाधि करके उसी शक्तिका नाम 'वैष्णवी' (लक्ष्मी), शिवकी उपाधि करके उमी शक्तिका नाम 'शिवा' (भवानी), गणेशकी उपाधि करके उसीका नाम 'गाणेशी' (सिद्धि) और सूर्यकी उपाधि करके उसीका नाम 'सौरी है। उपाधिभेदसे उसके नामोंका भेद है परन्तु रूपका भेद नहीं । विष्णवादि देवताओंकी मूर्तियोंमें उनको शक्तिको उनके वामाङ्गपर विराजमान किया गया है और उनकी शक्तिकी सव चेष्टाएँ उन देवोंकी कृपाकटाक्षके अधीन वर्णन की गई हैं। परन्तु इसके विपरीत शक्तिकी मूर्तिमें वे सव देव उस देवीके अधीन ओर उसकी उपासना करते हुए दशोये गये हैं। मन्दबुद्धि इसके आशयको न जान भ्रममे पड़ जाते हैं, परन्तु वास्तवमे इसके मूलमे किसी प्रकार विरोधकी आशङ्का नहीं है। इसका रहस्य नीचे स्पष्ट किया जाता है। ___ संसारमै शक्ति व शक्तिमान् दो ही पदार्थ हैं और दोनों को परम्पर एक-दूसरेकी अपेक्षा है । शक्तिसे भिन्न शक्तिमानका फाई स्वरूप नहीं रहता, जैसे रमके विना जलका कोई स्वरूप नहीं रहता। तथा किसी शक्तिमानरूप आधारके विना केवल शक्ति कोई कार्य नहीं कर सकती, जैसे विजुलो या भाप वाधारके बिना कोई कार्य नहीं कर सकते और आधारभेदसे इनके द्वारा भिन्न-भिन्न कार्य होते हैं। आधारभेदसे वही विजुली ग्लोबमें रोशनीका काम देती है, पद्धों में पताकुलीका ,और टेली फोनद्वारा मन्देश पहुँचाकर कासिदका काम देती है इत्यादि। यद्यपि विचारष्टिसे तो जैसे अग्नि व उष्णता परस्पर अभिन्न है वैने ही शक्ति व शक्तिमान् टोनोंका कोई भेद नहीं है, तथापि जिन मनम इनका भेद है और उस भेदको सम्मुख रखते हुए जिनके मतमे शक्तिमानकी मुख्यता है, उनके लिये विष्णु, शिव,
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२३३ ]
[साधारण धर्म गणेश और सूर्यको यथारुचि कारणब्रह्मरूपसे निरूपण किया गया और उनकी भिन्न-भिन्न शक्तियोंको उनकी कृपाकटाक्षके अधीन दर्शाया गया। परन्तु जिनके मनमें शक्तिकी मुख्यता (विशेषता ) है, उनके लिये देवीको कारण-ब्रह्मरूपसे निरूपण किया गया और विष्णु-शिवादिकोंको उस शक्तिदेवीके अधीन उसकी उपासना करते हुए और उससे शक्ति प्राप्त करते हुए दर्शाया गया। जिसकी जिसमें रुचि हो वह उसको कारण-ब्रह्म, अर्थान् उत्पत्ति-स्थिति-लयकर्ता रूपसे और अन्य देवोंको उसके अंशरूप कार्यब्रह्म पसे चिन्तन करे, मूलमें कोई भेद नहीं। सबके मूलमें एक ही अचिन्त्य-चिन्मात्र-शक्ति है और ये सव रूप उसी की भिन्न-भिन्न झाँकियाँ हैं, जिसका मन जिस झाँकी पर रीम गया वह उसीपर लट्ट होगया। हाँ ! यह तो ठीक, मनको रिमाना तो उद्देश्य है ही, परन्तु अन्य मॉकियोंसे ग्लानि करना यह तो बड़ा पाप है। वास्तवमें इन सब झाँकियोंके नीचे एक ही विहारीजी अपना विहार कर रहे हैं, इसलिये उनकी किसी एक झाँकीसे प्रेम करके अन्यसे द्वेप करना तो उन विहारीजीसे ही द्वेष करना है। जैसे एक ही महाराजाधिराज काल भेदसे और कार्यभेदसे, अर्थात् दरबार, शिकार, सैर, जीनसवारी तथा रथसवारीके भेदसे समय-समयपर भिन्न-भिन्न पोशाके धारण करता है। यदि उसके सेवक उसकी किसी एक रूपकी पोशाकसे प्रेम करके अन्य पोशाकोंसे द्वेप करने लगे तो वह द्वेष उस महाराजाधिराजको ही स्पर्श करता है। ठीक, इसी प्रकार अपनी अन्य झॉकियोंके प्रति द्वेष देखकर बिहारीजी अपने इन मन्दबुद्धि प्रेमियोंपर हँसते हैं और क्रोध भी करते हैं, कि मेरी मॉकियों पर ही लड़-मंगड़कर इन मूल्ने मुझ वास्तव मॉकीवालेको तो मुला ही दिया।
सत्त्व, रज और तमभेदसं उस शक्तिके तीन भेद हो सकते
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[२३४
आत्मविलास] है। विश्वसहारकारिणी तमोगुणी शक्ति है जो कि 'काली' रूपस वर्णन की गई है और उसके सब म्प भयङ्कर है। विश्वोत्पादक रजोगुणी शक्ति है जो कि 'लक्ष्मी' आदि रूपसे निरूपण की गई है और स्थितिकारिणी सत्त्वगुणी शक्ति है जो 'गौरी' 'पात'
आदि रूपमे सौम्यरूपसे निरूपण की गई है । चतुर्भुज और कहीं-कहीं अष्टभुज रूप जो दर्शाये गये हैं वे उसकी अनन्न शक्तिताके सूचक हैं। सिंहवाहन भी इसी श्राशयको सूचना देता है, चररूप प्राणियोंमे सिंह अद्वितीय शक्तिधारी है, वह शक्ति उस सिंहकी अपनी नहीं, किन्तु उसपर अधिकार उस देवीका ही है। सरस्वती, गायत्री आदिको हंसवाहन रूपसे दिखाया गया है, यह उसकी ज्ञानभूतिकी सूचना है । अथात जिस प्रकार हंस क्षीर-नीर मिले हुएमेसे सार वस्तु दूधको पान कर जाता है, वैसे ही उस ज्ञानमूर्तिने जड़-चेतनरूप संसारके मिश्रणमेंसे तत्त्व वस्तुको निकाल लिया है।
सारांश, इन भावमयी मूर्तियोंमे कोई अङ्ग उस परमदेवकी विचित्र शक्तिकी सूचना देते हैं, कोई उसके विचित्र नीतियुक्त कार्यको, कोई उसकी प्राप्तिके साधनोंको और कोई उसके वास्तव स्वरूपको दशाते हैं। पञ्चदेवोंकी मूर्तियोंमे जो गम्भीर भाव है उसका दिग्दर्शनमात्र कराया गया, शेपमे तो भावराज्य के विस्तारका कोई अन्त ही नहीं है । भावुक अपनी बुद्धिके अनुसार सार ग्रहण कर सकते हैं । 'नास्त्यन्तो विस्तरस्य में'
उपयुक्त पञ्चदेवोंको मुख्यरूपसे उपास्यदेव निरूपण किया पूजाका रहस्य ।। गया । वास्तवमें तो अखिल ब्रह्माण्ड ही
भगवान्का मन्दिर और सम्पूर्ण चराचर भूतजात उस एक ही परमात्माकी भिन्न-भिन्न विभूतिरूपसे चिन्तन करनेयोग्य हैं। इसी आशयसे नागपूजा, पीपलपूजा, गोपूजा आदिका शास्त्रकारोंने विधान भी किया है और सकामी लोग
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२३५
[साधारण धर्म अपनी अपनी रुचिके अनुसार लेखनी, तलवार, कुदाल, रासभ श्रादिकी पूजा भी करते हैं । परन्तु कामनाओं करके उनके चित्त हरे हुए रहने के कारण वे इसके रहस्यको नहीं जानते और वास्तविक फलसे वञ्चित रह जाते हैं । वस्तुतः उपर्युक्त सब पदार्थ उस एक ही सादी चेतनकी भिन्न-भिन्न उपाधि हैं । उन भिन्न-भिन्न उपाधियोंके मूलमे भेदसे रहित वह एक ही साक्षीचेतन विद्यमान है और उन सकामिगेंके भिन्न-भिन्न भावोंके अनुसार फल भी उस एक निरूपाधि साक्षी चेतनसे ही प्राप्त होता है, परन्तु उम तत्व वस्तुको न जान वे उन जड़ उपाधियोंसे ही फलकी सिद्धि मानते हैं। श्राशय यह है कि यथार्थमें उन भिन्न भिन्न उपाधियोंको पूजकर भो वास्तव में वे तद्गत्-चेतनको ही पूजते हैं और उनकी मनोरथसिद्धि भी वास्तवमे उन उपाधियों स न होकर तद्गत चेवनसे ही होती है 1 परन्तु वे जड़मति अपनी जड़ताके कारण उन जड़ उपाधियोंसे ही मनोरथसिद्धि जानते हैं और अपनेको उन उपाधियोंकी ही पूजा करनेवाला मान लेते हैं । इस प्रकार बुद्धिकी जड़ताके कारण वे वास्तव फल से वश्चित ही रह जाते हैं। यथार्थमें तो निष्काम भावुक-भक्तोंके लिये उपयुक्त पूजाएँ निकटसे निकट और दूरसे दूर भिन्न-भिन्न विभूतियोंमें भगवानका रूप निहार-निहार प्रेममें मग्न होनेके लिये ही थीं। सियाराममय सब जग जानी, करुं प्रणाम जोरि युग पानी।
गीता अध्याय १०में अर्जुनके प्रश्नपर,कि 'केपु केषु च भावेषु चिन्त्योऽमि भगवन्मया' अर्थात् 'हे भगवन् ! आप किन-किन भावोंमें मेरे द्वारा चिन्तन करनेयोग्य हैं ?' उत्तरमैं भगवान्ने श्लोक २० से ३८ तक सम्पूर्ण चराचरमें अपनी विभूतियोंका संक्षेपसे निरूपण किया है । जैसे
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आत्मविलास ]
[२३६ 'मेरुः शिखरिणामहम्' 'स्थावगणां हिमालय.' 'स्रोतमामस्मि जाह्नवी' अश्वत्थः मर्ग वृत्ताणाम' बननेयश्च पक्षिणाम' 'अनन्तश्चास्मि नागानाम्' 'साणामस्मि वासुकि.' 'मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहम्' 'धेनुनामस्मि कामधुक' 'ऐरावतं गजेन्द्राणाम' 'इन्द्रियाणां मनचास्मि' 'भूतानामरिम चेतना' 'प्णिनां वासु. देवोऽस्मि' 'पाण्डवानां धनञ्जय' इत्यादि और अन्तमे स्पष्ट कर दिया है।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भृतं चराचरम् ।। नान्तोऽस्ति मम दिव्याना विभृतीनां परन्तप । एप तूद्देशतः प्रोक्तो विभूनेविस्तरो मया ॥ यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदर्जितमेव वा । तत्तदेवावगच्छ वं मम तेजोशसम्भवम् ॥
(गी अ. १० श्लो, ३९.४०-४१) अर्थ :-हे अर्जुन जो कुछ भी सब भूतजात हैं उनका बीज मैं ही हूँ,चराचर भूतोंमें ऐसा कोई नहीं जो मेरे विना सिद्ध हो। हे परन्तप ! मेरी दिव्य विभूतियोंका कोई अन्त नहीं है, यह अपनी विभूतिका विस्तार मैंने सङ्केतमात्र कथन किया है। (सारांश यह है कि) जो-जो विभूतियुक्त, कान्तियुक्त अथवा शक्तियुक्त वस्तु है, वह वह. सव मेरे तेजके अंशसे ही उपजी जानी
भावराज्यका यह विलक्षण महत्त्व है कि इस प्रकार शुद्ध भावके अनुसार मूर्तिपूजा मूर्तिको स्पर्श न करके मूर्तिमानको
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२३७ ]
। साधारण धर्म और विभूतिपूजा विभूतिको स्पर्श न करके विभूतिमान्को हो स्पर्श करती है। जो लोग इसको जड़पूजा कहते हैं उनकी बुद्धि जड़ है और वे प्रकृतिके रहस्यको नहीं जानते।
'न काठे विद्यते देवो न पापाणे न मृण्मये । भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम् ॥ अर्थ यह कि देव न काष्ठमें ही है, न पाषाणमें और न मृत्तिकामें ही स्थित है, किन्तु देव तो केवल अपने शुद्ध भावमे हो विराजमान है। अन्ध मिन्न-भिन्न प्रतिमाएँ तो अपने भावोद्गारके लिये आधारभूत हैं, इसलिये देवार्चनमें केवल अपना भाव ही मुख्य कारण है । अर्थात् यह सम्पूर्ण संसार देवमय हुआ भी अपने भावके अभावसे पापाण-मृत्तिकादि रूप प्रतीत हो रहा है और अपने शुद्धभावके प्रभावसे चमेचतुके विषय पाषाण-मृत्तिकादि भी देवमयरूपसे ग्रहण हो सकते हैं। __ प्रतिमापूजनका उद्देश्य यह है कि वारम्वार ध्यान, 'पूजन, उपासनाकी छठी श्रेणी / अचेन व वन्दनद्वारा भगवान्का स्वरूप मानसिक पूजा। हृदयमें ठहर जाय । उपासनाकी छठी -
श्रेणी मानसिक-पूजा है । अर्थात् जिस देवका प्रतिमापूजनके पालम्बनसे ध्यानादिक किया गया है, जब उसका स्वरूप हृदयमे, स्थिर हो जाय, तव प्रतिमाके आलम्बन विना मनसे ही मानतिक-सामग्रीद्वारा ह्रदयमें उसका पूजन किया जाय । इसकी विधि यह है कि प्रथम इष्टदेवका कुंछ स्तुतिपाठ किया जाय, तदनन्तर नेत्र बन्दकरके किसी पवित्र तीर्थस्थानपर जो स्वाभाविक अपने चित्तको रुचिकर हो, मनको स्थित किया जाय । अर्थात् उस पवित्र स्थानकी मनमे कल्पना करके अपने आपको उस स्थानपर ही स्थित देखा जाय और इष्टदेवका शुद्धमावसे अपने हृदयमें ही आह्वान किया जाय । फिर
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आत्मविलास ]
[ २३८ ऐसी भावना की जाय कि हमारा इष्टदेव हमारे आह्वान करने पर अपने वाहनपर श्रारूह होकर हमारे हृदयमें पधार रहे हैं। ऐसा जान मनसे ही उनके स्वागतके लिये उत्थान किया जाय और प्रेमपूर्वक मनसे ही उनको वाहनसहित प्रदक्षिणा की,जाय। अपने हृदयको ही, जो कि खिले हुए अष्ट-कमलदलके समान है, इष्टदेवके लिये उचित आसन जान मनसे ही उसपर विराजनेके लिये उनसे प्रार्थना की जाय । इसके उपरान्त मनसे ही उत्तमउत्तम तीर्थजलकी भावना करके उनके पादप्रक्षालन किये जाय
और इस चरणामृतका मनसे ही प्रेमपूर्वक पान किया जाय। मनसे ही उत्तम-उत्तम सामग्री कल्पना करके पवित्र केशरकस्तूरीमिश्रित गड्डोटकसे उनको स्नान, धूप, दीप, चन्दन, वन
और अलङ्कार आदिसे तुटकर नैवेद्य, मेवा आदि उत्तम-उत्तम पढार्थ जो अपने चित्तको रुचिकर हॉ, उनसे उनको भोग लगाया जाय । तदनन्तर विधिपूर्वक मनसे ही आरतो की जाय । फिर बारम्बार नमस्कार प्रदक्षिणा करके गद्गद् हो मनको उनके चरणोंमे गिरा दिया जाय और निष्काम भावसे उनमें तन्मय होने के लिये प्रार्थना की जाय।
बाह्य स्थूल सामग्रीसे वाह्य देवपूजाकी अपेक्षा आन्तर मानसिक सामग्रीद्वारा श्रान्तर देवपूजा, सूक्ष्म होनेके कारण तथा मननरूप होनेसे अधिक प्रभावशाली है । जुगाली करनेवाले पशु जिसप्रकार प्रथम खाधको अपने पेटमें विना चवाये डाल लेते हैं
और जब उदर पूर्ण हो जाता है, तब उस खाद्यको थोड़ा-थोड़ा उगलकर और भली-भॉति चबा-चबाकर पचा लेते हैं, तभी वह खाद्य पचकर उनके शरीरका भाग बनता है। इसी प्रकार उपासक भी प्रथम बाह्य मूर्तिपूजनद्वारा जब पवित्र भावोंसे अपने मनको पूर्ण कर लेता है, तब जुगालीके रूपमें इस मानसिक पूजाद्वारा उन भावोंको भली प्रकार चा-चबाकर उनको पचानेके योग्य
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२३६]
[साधारण धर्म बना लेता है और तभी वह मनको पुष्ट कर सकता है । वास्तवमें मनोमय व इष्टिमय ही यह संसार है, वाह्य पदार्थ मन व दृष्टिके ही परिणाम हैं। जो कुछ अन्दर भरा हुआ होता है वही बाहर निकलता है। इस प्रकार जब मन व दृष्टि, उस वास्तव इष्टदेवके रूपसे भरपूर हुई तो बाहर पात-पातमें वही रूप दीख पड़ने लगा। यही उपासनाका फल है और वही अवधि । इस रीतिसे भावकी परिपकता करके चराचर भूतजातमे भगवानकी विचित्र-विचित्र छवियोंका दर्शन करना, यही विषमतानाशक समताभरा प्रेम है। यद्यपि पूर्ण और वास्तविक समताकी नकद उपलब्धि तो जानद्वारा जीव व ब्रह्मके अभेदसाक्षात्कारपर ही निर्भर है, तथापि भावोद्वारा यह उस मच्ची समताकी ओर अग्रसर हो रहा है और शीघ्र ही उसको प्राप्त करेगा। ., इस प्रकार हमारा उपासक-जिज्ञासु उपयुक्त भक्तिकी छः श्रेणियोंसे उत्तीर्ण होकर 'तस्यैवाहम्' (मैं उसका ही हूँ) भावसे ऊँचा उठकर तवैवाहम्' ( मैं तेरा ही हूँ) मे स्थत होगया और रजोगुणसे निकलकर सत्त्व रजमें जा टिका । यही परामार्थरूपी वृक्षकी लहलहाती हुई हरी-भरी टहनियॉ व पत्ते हैं, जो देखनेवालोंके चित्तोको अपनी ओर आकर्षण करते हैं। संसार सम्बन्धी पदार्थोंने अपने प्रेमके लिय जो अवकाश हृदयमें धारण किया हुआ था और जो विषमताके हेतु बने हुए थे, भक्तिके उपर्युक्त पवित्र भावोंने अव वह स्थान उनसे छीन लिया और सुखसाधनंतावुद्धि अव उन पढार्थोमेंसे कॅच कर गई । यही त्याग की छटी भेट है जो वैतालके चरणोंमें समर्पण की गई और वह वैतालकी प्रसन्नता व तृप्तिकी हेतु बन रही है । यद्यपि उन पदार्थोकी सत्ता अभी विद्यमान है और दग्ध नहीं हुई, तथापि अब वह दग्ध होने के सम्मुख हो रही है।
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आत्मविलास]
[२४० (५) वैराग्यवान (अर्थात् तत्व-जिज्ञासु)
'वैराग्य' शब्दका अर्थ है विगत + राग-वैराग्य । अर्थात् वैशम्यका हेत व स्वरूप संसारसम्बन्धी भोग्यपदार्थोमें सत्यबुधि
रखकर चित जो चहुँट रहा था, आसक्त हो रहा था, रागवान् हो रहा था उससे इस रागका अभाव हो जाना ही 'वैराग्य है। अपने शरीरमें आसक्ति करके वाह्य विषयोंमें जो स्वार्थमूलक प्रेम लेता है वह 'राग' कहा जाता है। जीवकी दौड़-धूप सुखके निमित्त किसी क्षणके लिये भी नहीं रुकती, यह प्रकृतिका अटल नियम है ! वाह रे सुखम्वरूप । तू वन्य है, तेरे ऊपर वजिहार जाऊ! बारम्बार तेरी वलयाँ लें। तीन लोक चौदह भवन तेरे ऊपर न्यौछावर कर दूँ ! न जाने तू कैसा रसभरा होगा, जिसने ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त अनन्त ब्रह्माण्डवर्ति अनन्त जीवोंको अपने लिये व्याकुल कर रक्खा है। सौ मेंसे सौ ( cent per cent ) हो तेरे लिये सन्तम हैं, कोई एक भी तो ऐसा दृष्टि नहीं आता जिसके सिरपर तेरा हाथ न रक्खा गया हो।
उपर्युक्त नियमके अनुसार सुखकी प्यास बुझानेके लिये जव जीव संसाररूपी भूल-भुलैयॉके पदार्थोंके पीछे भटक-मटककर थकित हो जाता है और किसी भी रूपसे प्यास बुझनेकी आशा नहीं रहती तो वरवश उसको अपने मनरूपी घोड़ेकी बागडोर मोड़नी पड़ती है, जिसकी चर्चा विपयी पुरुषोंके प्रसङ्गमें की जा चुकी है। उधरसे मुँह मोड जव त्यागकी सड़कक इसन पकड़ा और शुभसकाम निष्कामकी मलिलोंको लॉघकर जब उपयुक्त भक्तिको बढी चढ़ी अवस्थामें विश्राम पाया तो वैतालने संतोप प्रकट किया। इधर सुखशान्तिकी चटनी जो रस देने लगी और तमोगुण व रजोगुणके निकलनेपर सत्त्वगुणने जो सारासार
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२४१ ]
[साधारण धर्म विवेकको सम्मुख धान खड़ा किया तो चुप-चाप भीतर ही भीतर सारासार-निर्णय हृदयमें घर कर गया। सांसारिक भाग्य-विषय हमारे सुखके साधन नहीं हैं। इस सम्बन्धमें जो विचारोंका परिवर्तन विपयो पुरुपोंके प्रसङ्गमे पीछे पृष्ट ११०से १२१ तक इससे हुआ था, उस समय तो ये विचार इसके कण्ठचक ही रहे; परन्तु अव इस सारासार-विवेकने बुद्धिरूपी कुठालोमे उन विचारों कोभली-भाँति पकाकर और उनकी सत्यताका प्रवाह रक्तके साथ मिलाकर इसकी नाड़ी-नाड़ोमे प्रवेश कर दिया और इन्द्रियोंके विषयभूत चमकीले चटकीले पदार्थोंसे सर्वथा मन हा गया । इस प्रकार भक्तिको उपयुक्त अवस्थासे वैराग्य इसी प्रकार प्रसवित हो पाया, जिस प्रकार हरी-भरी सजल टहनी-पत्तियोंसे अपने समयपर फूल निकल पड़ता है । रज्जुके ज्ञानसे जिस प्रकार सर्पकी सत्ताका अभाव हो जाता है, उसी प्रकार यद्यपि इन भोग्य पदार्थों की सत्ताको अभाव तो अभी नहीं हुआ, तथापि अब इनमें सुखसाधनती-बुद्धि नहीं रही। अव ये भोग्य-विषय इस वैराग्यवानके लिये इधर तो इन्द्रियप्रतीतिके विषय बने हुए है
और उधर दुःखके हेतु, इस लिये सर्पके समान भयदायक हो रहे हैं। क्योंकि वस्तुत विषयोंके लिये तो विषयोंकी पकड़ नहीं थी, किन्तु सुखके लिये ही इनमे प्रवृत्ति होती थी। परन्तु जब इनसे थोड़ा किनारा कर भक्तिके प्रभावसे निर्विषयक सुखकी चटनी मिलने लगी और इनके उपार्जन, रक्षा व नाशजन्य क्लेशोंका फोटो ऑखोंके सामने आने लगा,तव स्वाभाविक हीमन इनसे इसी प्रकार हरा गया, जैसे बाल्यावस्थामे सर्पके कोमल स्पर्शकी आसंक्ति रहनेपर भी यौवन अवस्थामे उसके स्पर्शसे मृत्युजन्य क्लेशका प्रत्यक्ष अनुभव होनेके कारण उससे खाभाविक ही मन हरा जाता है। यही वास्तव में सात्त्विक त्याग है कि विपये प्रवृत्ति अपने-आप पकती-पकती इसी प्रकार निवृत्त हो जाय, 'जैसे
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श्रामविलास]
[ २४२ आम्रफल पककर अपने आप डालीसे छूट जाता है और मिठास दे जाता है । यद्यपि विषयप्रवृत्ति तो विपयी पुरुपोंकी भी कालप्रभाव से भोग-सामर्थ्य न रहने के कारण स्वाभाविक ही निवृत्त हो जाती है, परन्तु उनका विपयोंमे राग निवृत्त नहीं होता, किन्तु - 'भोगान भुक्ता वयमेव भुत्ता तृष्णाननीयो वयमेय जी।'
'भोगोंका भोग पूरा नहीं हुआ बल्कि हमारा ही भोग हो गया, तृष्णा जीर्ण नहीं हुई परन्तु हम ही जीर्ण होगए'का हिसाव बना रहता है। इसके विपरीत इस वैराग्यवान् महात्माका तो राग भी निवृत्त होकर विपयोंके प्रति दोपदृष्टि उपस्थित हो गई है और इस दोपदृष्टिके सद्भावसे इसकी वाहरके शत्रु-मित्रकी भावना दूर होकर इसने अपने भीतर अपनेको ही अपना शत्रुमित्र जाना है और इन वचनोंको भली-भाँति सार्थक किया है :
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। वन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मनाजितः। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रु वत् ।। (गी.६५,६) अर्थः मनुष्यको चाहिये कि अपने-आपे करके आपेका उद्धार करे और अपने प्रापेको गिरने न दे, क्योंकि अपना आपा (मन ही अपना मित्र है और आपा (मन)ही अपना शत्रु । उसका
आपा तो अपना बन्धु है जिसने आपे करके श्रापा जीत लिया, (अर्थात् अपने मन-इन्द्रियोंको अपने अधीन कर लिया) और (जिसने इनको मूर्खताके कारण नहीं जीता ) उसका वह आपा ही शत्रुके सदृश शत्रुतामे वर्तता है।
वाय विषयोंमें रागवुद्धिके कारण ही वाह्य शत्रु-मित्रकी भावना होनी स्वाभाविक है, यथा:
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२४३ ]
[साधारण धर्म ध्यायतो विषयांनपुंसः सङ्गस्तेपपजायते । सङ्गात्सञ्जायते कामः कामाक्रोधोऽभिजायते । (गी.२,५६) अर्थात् रागवुद्धिद्वारा विपयोंका चिन्तन करनेसे ही उनमें आसक्ति होती है, विषयासक्तिसे कामना उपजती है और कामनामें भङ्ग पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है। तब कामनाभगमें निमित्तम्प जो वाह्य व्यक्ति हैं,उनके प्रति शत्रुबुद्धि और कामनासाधनमे सहायक व्यक्तियोंके प्रति मित्रवुद्धि स्वाभाविक ही उत्पन्न होती है। इन सब झंझटोंके मूलमे रागवुद्धि ही हेतु थी, परन्तु एक रागवुद्धिरूप कण्टकके निकल जानेके कारण सारी वेदनाएँ निवृत्त हो जाती हैं।
इस प्रकार यद्यपि विपयोंमें रागबुद्धिका प्रभाव तो हुआ और वाह्य शत्रु-मित्रकी भावना भी निवृत्त हुई, तथापि विषयोंकी सत्ता विद्यमान रहनेके कारण मन-इन्द्रियोंकी विषयोंके प्रति रसवुद्धि अभी शेष रहती ही है। जिस प्रकार रोगीको खट्टे-मीठे पदार्थोंमें कुपध्यरूप निश्चय करके रागवुद्धि तो नहीं रहती, परन्तु पदार्थोकी सत्ता भास होते रहनेसे रसवुद्धि शेष रहती है। अर्थात् रोगीको जब यह यथार्थ निश्चय हो जाता है कि यह खट्टेमीठे पदार्थ मेरे रोगकी वृद्धि करनेवाले हैं और इनके सेवन करने से मैं मर जाऊँगा, तब उन पदार्थोमे उसका राग तो नहीं रहता बल्कि उनको देखकर भय होता है, तथापि पूर्वानुभूत रसकी स्मृति करके उसकी उनमें रसबुद्धि अवश्य बनी रहती है कि इनमें ऐसा रस है और मैं रोगमुक्त हो जाऊँ तो इनका सेवन करूँ। यथा:
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्या निवर्तते ॥ (गी.२.५९)
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आत्मविलास]
[२४४ अर्थात् विपयोंका भोग न करनेवालं जीया भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं परन्तु ( त्रिपयांकी मत्ता विनमान रहने के 'झारण) उनमें रसबुद्धि बनी रहती है। वह मधुद्धि भी धिटानरूप परमात्माके साक्षात्कारद्वारा रमजित प्रोत रमरहित हो जाती है।
रसवुद्धि तो विपयाके प्राश्रय ही रहनी है, परन्तु ज्ञानीकी दृष्टिमें तो तत्त्व-साक्षात्कारद्वारा जब विषयमी मत्ता ही लुप्त होगई तो रसधुद्धि स्वतः ही लोप हो जाती है, जैसे शुक्तिक ज्ञानसे रजत व रजतजन्य लोभादि टोनी ही निवृत्त हो जाते है। परन्तु विपयसत्ताके अभाव विना रमवृद्धिका प्रभाष असम्भव है। इस प्रकार विषयसत्ताको विद्यमानताके कारण विषयोंके प्रति
आकर्पण शेप रहनेसे अब यह शमन्द्रमादिद्वारा मन-इन्दिग्राफी दमन करनेमे तत्पर है जोकि इस श्राफर्पणके अधिकरण है, इन्हींको इसने अपना शत्रु चीन्हा है और अपने प्रात्मधनको चुरानेवाले इन चोरोंको अपने भीतर ही पका है।
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ (गी.२६०) अर्थात् यह इन्द्रियों ऐसी प्रमथन स्वभाववाली हैं कि यल करते हुए विवेकीपुरुपके भी मनको बलात्कारसे हर लेती हैं।
इस प्रकार इच्छा न रहते हुए भी अब यह मन-इन्द्रियोंकी पैराग्यवानके चित्तका | विषयप्रवृत्तिसे सन्तप्त हुआ है और जन्म
मरणरूप संसारके क्षयीरोगसे पीड़ित
- हुआ है । अतः अपने मनमे ही अपने अन्तर्यामीदेवके प्रति ऐसी कूक कर रहा है :
अवस्था
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२४५7
[साधारण धर्म मैं परदेशी दुःखरिया, दुःखसागर देखत डरिया । तुझ वाझ न साथी कोई, सब निज मतलब दे होई ॥१॥ मैं जिस दर जाय खलोयाँ, सब दीन दुःखो ही जोवाँ । मेरे घर विच चोर उचक्के, केई दुश्मन लागे पक्के ॥ २॥ घर चोर न फड़िया जाई, मेरी तेरे पास दुहाई। नित नैन रुप बल धा, उठ कान धनि घिर जावें ॥३॥
घ्राण गंधमें धस रह्यो, चित चेते परनार । , मन दलाल होय सपनको, अह निशि करे विकार ।। रसना रस गीधी मोरी, त्वचा नीच स्पर्श घसोरी। मोहे काम क्रोध दुःख दीना, मेरो सर्वस्व हर लीना ॥१॥ मैं मोह की फाँसी फाथा, मेरे निकसत पैर न होथा। मोहि मोह लियादिल मेरा, अहं अहङ्कार भया अंधेरा ॥२॥ लोभने कियो पखेरो, तृष्णाने पायो धेरो । मैं दीन दुःखी तव टेका, तुझ वाम न सहुरा पेका । ३॥
१. मेग निजालय जो आत्म-स्वरूप है उससे बिछुड़कर मैं इस संसारमें परदेशी हूँ। २. संसार । ३. बिना । १, खड़ा होता हूँ। (५) इन्द्रियाँ, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इत्यादि । (६) फंसा हुआ। ७ सुसगल । ८.पीहर भाषार्थ यह है कि जैसे चोरोंकी पार्टी धनीके हाथपाँव बाँधकर मधेग करके और चारों ओरसे घेरकर उसके धनको हरलेता है, इसी प्रकार मोहने मुझे बाँध दिया है, अहंकारने अंधेरा कर दिया है जिससे मुझे कुछ दोस्त नहीं पड़ता, लोमने खलबली मचा दी है जिससे मैं किसीको सहायताके लिये बुला नहीं सकता और तष्णाने चारों
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श्रामविलाम]
[२४६ यद्यपि रोगी तो पहले भी था, तथापि रोग इस पढ़ी-बढ़ी अवस्थाको प्राप्त हो रहा था कि रोगी रहते हुए भी अपनेको रोगी न समझता था और इस अवधिरूप रोगमे ही उसकी स्वास्थ्यबुद्धि हो रही थी। जैसे किसी मशीनका पहिया गतिके वेगसे स्थिर प्रतीत होता है, अथवाजैसे कोई मद्यप्रेमी मधके आवेशसे इतना प्रभावित हो जाय कि उसको अपना मधपान ही विस्मृत हो नाय और वह नशीली अवस्था उसकी स्वभावमिद्ध बन जाय । परन्तु धर्भप पिताकी शरणमें आकर सोपान-क्रमसे ज.वनकी उपर्युक्त कोटियोंसे उत्तीर्ण हो जब यह इस वैराग्यको समतल भूमिमें पहुंचा और अखे खुली, तब अपनेको ठगा हुआ पाया
और अपने आत्मधनको गुमाकर इसी प्रकार सन्तप्त होने लगा, जिस प्रकार सुमन्त भगवान रामचन्द्रको सुरसरी-तीरपर छोड़ कर अयोग्याको लौटता हुआ दारुण दुःखसे दुःखी हो रहा थामीजि हाथ सिर धुनि पछिताई । मनहु कृपण धन राशि गंवाई।। लेइ,उसाँस शोच इहि भॉति । सुरपुर ते जनु खसेउ ययाति ।।
विन विवेकी वेदवित्, संमत साधु सुजाति । जिमि धोखे मदपान करि, सचिव शोच इहि माँति ॥ उस आत्मधनकी जिज्ञासाने संसारसम्बन्धी अखिल रागको भस्मकर अब यह माव हृदयमें ढूंस-ठूसकर भर दिया है। पुत्र कलत्र सुमित्र चरित्र, धरा धन धाम हैं बन्धन जी को पारहिं बार विपय फल खात, अघात न जात सुधारस फोको ।
ओर से घेर लिया है जिससे मैं माग नहीं सकता। इस प्रकार इन्होंने मेरे भारमधनको चुरा लिया है इसलिये मैं तेरे बिना और कोई सहारा नहीं देता।
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२४७]
[ জামায এক आन औसान तजी अभिमान, सुनो धर कान मजो सिय पी को, पायं परंपद हाथ सँ जात, गई सो गई अब राख रही को ।।
एक श्वास खाली नहीं खोइये खलक बीच, कीच रूप कलङ्क अङ्क धोयले तो धोयले । उर अंधियार पाप पूर से भरयो है, ता में ज्ञान को चिराग चित्त जोयले तो जोयले । मानस जन्म बार बार ना मिलेगो मृढ़, परम प्रभुसे प्यारो होयले तो होयले। क्षणभङ्गर देह तामें जन्म सुधारियो है, बिजली के झमके मोती पोयले तो पोयले ॥
अपके बाजी चौपड़का, पौमें अटकी आय । , जो अबके पौ ना पड़े, तो फिर चौरासी जाय ।।
भावार्थ:-चौपड़के खेलमें ८४ खाने होते हैं । जव सब नरद ८४ खानों से होकर अन्दर चली जाती हैं और एक ही नरद अन्तके ८४वें खानेमें अटक जाती है,तव यदि पौ पड़ जाय तो बाजी समाप्त हो गई और जीती गई । परन्तु यदि पौ न पड़े तो वह नरद फिर पोटी जाती है और उसको मरकर फिर ८४ खानों की परिक्रमा करनी पड़ती है । यही हाल इस संसाररूपी चौपड़ का है, जिसमें ८४ लाख योनिरूप खाने हैं। जोवरूपी नरद इन खानोंमें भ्रमण करके अन्तके म४वे खाने (मनुष्य-योनि) मे अटक
, 'सो' शब्दका इस सवैये में देहली-दीपक न्यायसे 'मोसान' और 'अभिमान' दोनोंसे सम्बन्ध है, अर्थात् अन्य औसान छोड़ो और ' अभिमानका त्याग करो।
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आत्मविलास ]
[२४८ गई है और ज्ञानरूपी पौके लिये रुकी हुई है। यदि यह पौ पड़ गई तो वाजी समाप्त हुई और जीतो गई, नहीं तो सूकर-कूकर आदि ८४ लाख योनियोंका भ्रमण फिर कहीं गया ही नहीं। इसी प्रकार अब यह मनुष्यजन्मके महत्त्वको भली-भाँति समझ नानरूपी पी के लिये व्याकुल हो रहा है और एकमात्र ईश्वरप्राप्तिरूप जिज्ञासा ही उसके हृदयमे भरपूर हो गई है । यथा :या तन को दिवला कसे वाती मेलॅ जीव । स्त जो सीधैं तेल ज्यू तब मुख देखें पीव ॥
और उस सत्यप्रेमके विरहमे अव उसमें यह अवस्था बरतने लगी है :विरहिनि देइ संदेशरा, सुनो हमारे पोव । जल बिनु मच्छो क्यों जिये, पानी में का जीव ॥१॥ विरह तेज तन में तपे, अङ्ग सबै अकुलाय । घटे सूना जिव 'पीव में, मौत ट्रॅढि फिर जाय ॥२॥ अंखियन तो झॉई परी, पंथ निहार निहार .! जिस्या तो छाला परा; नाम पुकार पुकार ||३|| नैनन तो झरि लाइयाँ, रहट बहै निसु वास । पपिहा ज्यों पिउ पिउ स्टै, पिया मिलन की आस ॥४॥
1. जिस प्रकार मछली जलविना जीवित नहीं रह सकती, इसी प्रकार मैं भी भाप सागरकी मीन हूँ, मापके बिना कैसे .जी..!
शरीररूपी घट जीवके विना शून्य हो रहा है, जीव शरीरमें न रहकर अपने पीव परमारमा घस रहा है। इस लिये मौत भी शून्य घटको देखकर लौट जाती है, क्योंकि जीवके विना शून्य व मृत शरीरको मृत्यु क्या मारे
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२४६ ]
[साधारण धर्म चिरह बड़ो बैरो भयो, हिरदा धरे न धीर । सुरत सनेही ना मिले, तब लगि मिटे न पीर ॥५॥ विरहनि ऊमी पंथ सिर, पंथिनि पूछे धाय।। एक शब्द कहु पीवका, कब रे मिलेंगे प्राय ॥६॥ विरह भुजङ्गम तन डस्यो, मंत्र न लागे कोय । नाम वियोगी ना जिये, जिये तो चाउर होय ॥७॥ विरह भुजङ्गम पैठ के कियो कलेजे घाव । विरहनि अङ्ग न मोड़ि है, ज्यों भावे त्यों खाव ।।८।। के विरहनि को मीच दे, के आपा दिखलाय ।
आठ पहर का दामना, मोपे सहा न जाय ॥९॥ विरहं कमण्डल कर लियो, वैरागी दो नैन । माँगें दरश मधूकरी, छके रहें दिन रैन ॥१०॥ कबोर हँसना दूर कर, रोने से कर चीत ।। विन रोये क्यों पाइये, प्रेम पियारा मीत ॥११॥ हसू वो दु:ख ना बोसरे, रोउँ चल घट जाय । मन ही माँहि बिसरना, ज्यू धुन काठहिं खाय ॥१२॥ कोड़े काठ जो खाइया, खात किनहुँ नहीं दोठ । छाल उपारि जो देखिया, भीतर जमिया चीठ ॥१३॥ हँस हँस कंत न पाइया, जिन पाया तिन रोय । हँस खेले पिया मिले, तो कौन. दुहागिन होय ॥१४॥ १. खड़ी । २. मौत । ३. जलना।
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'आत्मविलास ]
[२५० सुखिया सब संसार है, खावे और सोवे । दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे ॥१५॥ नाम वियोगी विकल तन, ताहि न चीन्हे कोय ।। तम्बोली का पान ज्यू, दिन दिन पीला होय ॥१६॥ माँस गया पिञ्जर रहा, ताकन लागे काग । साहिब अजहुँ न पाइया, मन्द हमारे भाग ॥१७॥ विरहा सेती मत लड़े, रे मन मोर सुजान । हाड मास सब खात है, जीवत करे मसान . विरह जलन्ती मैं फिरूँ, मो विरहनि को दुःख ।। छाँह न बैहुँ डरपती, मति जलि उठै रूख ॥१९॥ चूड़ी पट पलंग से, चोली लाऊँ श्राग । जा कारन यह तन धरा, ना सूती गल लागि ॥२०॥ अम्वर कुञ्जा कर लिया, गरजि भरे सब वाल | जिनते प्रीतम बीछुरा, तिनका कौन हवाल ॥२१॥ रक्त माँस सब मखि गया, नेक न कीन्हो कान । अब बिरहा कूकर भया, लागा हाड चबान ॥२२॥ यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहि । शीश उतारे मुहे घरे, तब पेठे घर माहि ॥२३ । शीश उतारे भुई धरे ता पर राखे पाँव । दास कबीरा यों कहे, ऐसा होय तो श्राव ॥२४॥ १ वृक्ष ।२ मृत्तिका पात्र विशेष, शोरा।
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२५१ ]
[साधारण धर्म प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट विकाय । . राजा परजा जेहि रुचे, शीश देह ले जाय ॥२५॥ प्रेम पियाला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । लोमो शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥२६॥
हे वैराग्यमूर्ति, कल्याणस्वरूप, शिव-शम्भो ! बारम्बार वैराग्यको शुभागमन | तुझको मेरा हार्दिक नमस्कार है। तेरा और चतुर्विध वैराग्य , दर्शन अनेक जन्मोंके पुण्योंका फल है निरूपण। और हमारे कल्याणके लिये है । तुहृदयमें उतरा कि जन्म-मरणके सब वन्धन ढीले पड़े। जन्म-जन्मान्तरके सम्पूर्ण यज्ञ, दान, जप, तप, व्रत और तीथांदिकोंका फल तू ही है। जब सम्पूर्ण यज्ञादि अपना पुण्यफल देनेके लिये इक हो जाते है और पुण्यफलके भारसे, भुककर वृक्षकी नाई पृथ्वीसे लग जाते हैं,तब तेरा दर्शन होता है। तू आया कि सम्पूर्ण यज्ञादि अपने फलसे मुक्त हुए । यावत् संसारी भोगकामनाएँ जो डाकिनी के समान हमारे हृदयोंको नोच-नोचकर खा रही थीं, उनको भक्षण करनेके लिये तू पिशाच है । राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ
और मोहादि विकाररूपी गृद्ध जो अपनी पञ्चायत हृदयमें लगाये बैठे थे, वाजके समान तेरे दर्शनमात्रसे सभी भाग गये। तृष्णारूपी मण्डूकको पास करनेके लिये तू सर्प है, मोहरूपी सर्पको भक्षण करनेके लिये तू गरुड़ है, क्रोधरूपी सिंहको जीतनेके लिये तू शरभ है । दुराशा दीनतारूपी शृगालोंको मार भगाने के लिये तू सिंह है। तेरा दर्शन हुआ कि ये सब पीठ दिखाते हुए। दम्भरूपी लोमड़ीके लिये तू भेड़िया है, लोमम्पी कूकर को विजय करनेके लिये तू चोता है, मानरूपा भेड़ियेको दमन करने के लिये तू केसरी सिंह है । तेरी जय हो! तेरी जय हो !! सभी मनोविकार जो जन्म-जन्मान्तरसे अग्निके समान हृदयको तपा
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आत्मविलास]
। २५२ रहे थे और कॉटेके समान वेदना कर रहे थे, हे निर्मल-स्वरूप! तेरे आगमनसे ये सभी शान्त हो गये । हम हृदयसे तेरा स्वागत करते हैं, खुले दिलसे तुमको शुभागमन देते हैं और सभी द्वार तुझ प्रिय अतिथिके लिये खोलते हैं। हमारे हृदयोंमें तेरा स्वराज्य हो, ऑखोंमें तेरा प्रकाश हो, हाथ-पाँव पर तेरा शासन हो और रक्तमें तेरा सञ्चार हो । उदारता, निर्भयता, शम और सन्तोप का तू भण्डार है, शान्तिकी तू मधुर बेलि है, जिससे मैत्री, करुणा, मुदिता व उपेक्षा श्रादि शुभगुण फलते-फूलते हैं।
वैराग्य चार प्रकार का है:
(1) यतमानसज्ञा वेगग्य राग-द्वेपादि मल जो चित्तमें रहते हैं उन्हींसे इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति विपयोंमें होती है। अर्थात् इन्द्रियोंको विषयोंमे प्रवृत्त करनेवाले वे चितस्थ राग-द्वपादि विकार ही हेतु हैं। 'वे रागउपादि मेरी इन्द्रियोको विपयोमे प्रवृत्त न करें ऐसा विचार उन राग-द्वेषादि मलको धोनेके लिये प्रारम्भ करना 'यतमानसंज्ञा' वैराग्य कहा जाता है।
(२) न्यतिरेकसज्ञा वैराग्य 'राग-द्वेषादि मल धोनेका प्रयत्न करने पर मेरे कितने मल पक गये हैं और कितने शेष रहते हैं। ऐसा विवेक 'व्यतिरेकसंज्ञा' वैराग्य कहलाता है।
(३) एकेन्द्रीयसंज्ञा वैराग्य 'अव राग-द्वेप मेरी इन्द्रियोंको विषयों में प्रवृत्त नहीं करते, ऐसे उत्सुकतामात्रसे अर्थात् ऐसे चावसे मनमें किश्चित् राग-द्वेष
1. सुखको देखकर चित्त प्रसव होना। २. दुखीको देख हृदय द्रवीभूत होना । ३. पुण्यारमाको देख मनमें प्रफुल्लित होना । ४ तथा पापारमाके प्रति दगुजर करना । उसम जिज्ञासुके ये स्वामाविक लक्षण
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२५३ ]
[साधारण धर्म स्थित रखना 'एकेन्द्रियसंना' वैराग्य कहलाता है।
.. (६) शोकारसंज्ञा वैराग्य ! उत्साहमात्रका भी अभाव, अर्थात् दिव्यादिज्य विषयोंकी प्राप्ति होनेपर भी उपेक्षावुद्धि और मनका चलायमान न होना, अर्थात् चित्तमे क्षोभ न होना वशीकारसंज्ञा वैराग्य कहलाता है।
इस प्रकार इस महापुरुषका अन्तःकरण गंग-द्वेपादि मलसे निर्मल होनेके कारण श्वेत-चिट्टे ववके समान शोभायमान हुश्रा है, जोकि ज्ञानरूपी केशरका रंग धारणेके योग्य है । अव देवी सम्पत्ति अपने आप इसके हृदयमें पूर्ण रूपसे विराजमान हो गई है और दासीकी भॉति सेवा में उपस्थित है। पुत्रपणा,वितषणा व लौकैपणा इन त्रिविध एपणाओंको वेड़ियाँ जो सम्पूर्ण जन्म-मरणादि दुःखोंकी मूल और ज्ञानमे भारी प्रतिवन्धक होती हैं तथा जिनकी विद्यमानतामें ज्ञान असम्भव है, इस अवस्था पर पहुँचकर इस महापुरुषकी कट चुकी हैं और अब वह खराखरा जानका अधिकारी हुआ है। इस प्रकार यह शुम-गुणरूपी रत्नोंका भण्डार हो गया है, जिनका लक्षण गीता अ १३ मे इस भॉति किया गया है।
अमानित्वमदम्मित्वमहिंसा चान्तिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥७॥ इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोपानुदर्शनम् ॥८॥ असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥९॥ १. पुत्रकी. इच्छाको 'पुत्रैपणा',धनकी इच्छाको 'विशेपणा' और 'संसार मुझे मला कहे' इस इच्छाको लोकेपणा' कहते हैं। यह तीनों ही परमार्थमें भारी प्रतिषधक है।
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आत्मविलास ]
[ २५४ मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥१०॥ अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥११॥ अर्थ:-अपनी श्रेष्ठताके अभिमानका अभाव, दम्माचरण का अभाव, प्राणिमात्रको किसी प्रकार भी शरीर-मन-वाणीसे न सताना, क्षमा (अथात् किसीके अवगुणोंको देखकर उसके प्रति दोषदृष्टि न करना तथा अपने प्रति किप्तीने अपराध किया हो तो उसको अपने चित्तमें धारण न करना और चित्तसे तत्काल इसी प्रकार बहा देना जिस प्रकार गङ्गा हणोंको वहा ले जानेमें विलम्ब नहीं करती), मन-वाणी व खान-पानादि में पूरो सरलता, श्रद्वा-मतिसहित गुरुको सेवा, आन्तर-वाह शौच, अन्तःकरणको स्थिरता, मन-इन्द्रियादिका दमन, इन्द्रियोंके सम्पूर्ण भोगोंमें,चाहे वे इस लोकके हो वा परलोकके, आसक्तिका अभाव, 'मैंपन' का त्याग, जन्म-मृत्यु और बुढ़ापारूपी रोगोमें दुःख व दोपोंका वारम्बार विचार करना और इनके रोगसे रोगी होना; धन, पुत्र, खीव घर आदिमें आसक्ति और ममताका न होना, प्रियअप्रियकी प्राप्तिमे सदा ही समचित्त अर्थात् क्षोभरहित रहना, मुझ परमेश्वरमें अनन्ययोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्त व शुद्ध देशमें रहनेका स्वभाव, जनसमुदायमें टिकनेसे अरुचि होना, अध्यात्म-ज्ञान थोत वेदान्त-शास्त्रमे नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सर्वत्र देखना, यह सब तो ज्ञानका साधन होनेसे ज्ञानरूप है और जो इससे विपरीत है वह अज्ञान है, ऐसा कहा गया है।
ऐसा रंगादिल, त्रिविध एषणाओंसे छूटा हुआ, शमदमादिसम्पन्न, वैराग्यवान् तत्त्वजिज्ञासु ही वेदान्तश्रवणका अधिकारी
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२५५ ]
[साधारण धर्म है, चाहे उसने वख नारा हो। इस साधनसामग्रीके बिना चाहे वख भी रह लिये गये हों, तथापि वेदान्तश्रवण अपना रङ्ग नहीं जमाता और न यथार्थ फलका हेतु ही होता है । मोक्षके चार द्वारपाल शम, सन्तोप, विचार और सत्सङ्गने इसने गाढ़ मित्रता की है। इस अवस्थापर पहुँचकर ही वास्तव में वेदान्त श्रवण अपना रङ्ग दिखलाता है और सभी शान्तिका जुन्मेवार बनता है। जिम प्रकार सुवर्णकी डलोसे कोई भूपण बनाना इष्ट है तो आवश्यक है कि पहले उसको अग्निमे तपाकर पानीके समान पतला कर लिया जाय, केवल तभी उसको मनमाने रूपमें वदल सकते हैं, इसके विना नहीं । उनी प्रकार इस जीवको शिवम्पमें बदलना इष्ट है तो इस वातकी अत्यन्त आवश्यकता है कि अन्तःकरणको वैराग्यकी उपयुक्त अग्निमे गला कर बिल्कुल पतला बना लें, तभी हम सच्ची शान्तिके भागी हो सकेंगे। वैताल, जोकि पूर्व अवस्थाओंमें सिरमे डण्डे मार मारकर त्यागकी भेटें ले रहा था, इस अवस्थापर पहुंचकर इस सच्चे आशिकके चरणों में नतमस्तक होता है । "हे प्रिय जिज्ञासु ! हे वीरपुरुप तेरी जय हो, मैं हृदयसे तेरे चरणों में नमस्कार करता हूँ, तू ही इस संसाररूप संग्रामका सच्चा विजेता है।" - जिस प्रकार सिंहनीका दूध धारण करनेके लिये सुवर्ण का वैराग्यशून्य पुरुषको ही पात्र चाहिये, यदि अन्य किसी वेदान्तप्रवृत्तिमें दोष । पात्रमे दूध रखा गया वो यह पात्रको फाड देगा, इसी प्रकार इस वेदांतश्रवणरूपी दूधको धारण करनेके लिये केवल हमारे इस मतवाले जिज्ञासुका हृदय ही पात्र हो सकता है। जो लोग नीचेकी किसी अवस्थामे ही रहकर इस दूधको पान करनेमें प्रवृत्त हुए हैं, वे कदापि इस दूधसे बल प्राप्त न कर सकेंगे! यदि पान करनेवाला ( श्रोता) नीची कोटिका है तो इस दूध ,
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आत्मविलास ]
[२५६ को सहार ही न सकेगा, बल्कि पात्रके फटजानेके कारण विरोचनके समान देहात्मवादी बनकर निकलेगा और अपने
आचरणोंसे संसारको श्मसान बना देगा। यदि श्रोता कुछ ऊँची कोटिका है तो पात्र फटनेकी तो यद्यपि सम्भावना नहीं है, तथापि वह इस दुधको ठीक-ठीक पचा न सकेगा और उसे मानसिक अजीर्ण : Mental Dyspepsia)का रोग निकल पड़ेगा। इस प्रकार वह अपने मार्गका निरोध कर घेठेगा, न भोगका ही अधिकारी होगा और न मोक्षका ही। ऐसे पात्र में दी हुई इस ब्रह्मविद्याकी वही गति होगी जो पोडशवर्षकी यौवनवती कन्याकी एक नपुसकके हाथमें होती है, जिसको न भोगे ही बनता है न छोडे ही सरता है। इसी प्रकार वहन आगे ही बढ़ सकेगा और न पोछे ही हट सकेगा। आगे तो बढ़े कैस १ आगे तो तभी बढ़ सकता था जब कि हमारे इस मतवाले वीर पुरुपके समान हथेलीपर सिर रखकर मैदान में उतर पड़ता।
यह तो घर है प्रेमका, खालाका घर नाहिं ।
शीश उतारे भुई धरे, तब पैठे घर माहिं ।। ' शीश उतारे मई धरे, ता पर राखे पॉच । '
दास कबोरा यों कहे, ऐसा होय तो श्राव ।। , और पीछे भी हटे कैसे ? भला उपासना आदिमे प्रवृत्त कैसे हो? वेदान्तके श्रवणमानसे ईश्वरको ही कल्पित सिद्ध कर बैठे। अजी | साकार-निराकारका तो झगड़ा ही नहीं रहा, साकार निराकारका झगड़ा तो तब होता जब कि ईश्वरकी हस्तो मानी होती । यहाँ तो ईश्वरपर ही हाथ साफ किये बैठे हैं। यह तो सॉप-छळू दरवाली गति हो गई, न खाये ही वनता है न छोड़े ही सरता है । अरे वाया ! आखिर कोई रास्ता तो खुलना
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THEHERITERATE
[साधारण धर्म चाहिये । एक स्थानपर बैठे ही सरेगा कैसे ? हॉ, ठीक एक स्थानपर बैठने कौन देगा ? यह तो प्रकृतिका अटल कानून है और हम 'पुण्य - पापकी व्याख्या में प्र० ख० पृ. ४०-४३ पर विस्तारसे इमका सिद्धान्त कर आये हैं कि ईश्वरकी नीति नहीं चाहती कि अपने अन्तिम साध्यको प्राप्त किये विना ही हम किसी एक स्थलको रोके बैठे रहें, यदि हम आगे बढ़नेसे इन्कार करते हैं तब हमको अवश्य धक्का खाकर पीछे हटना पड़ेगा। जैसे एक घोड़ा अपने वेगसे दौड़ा जा रहा है, यदि हम उसको एकदम रोके तो उसको अपने वेगको सहारने के लिये अवश्य पीछे हटना पड़ेगा वह उसी स्थलपर खड़ा नहीं रह सकता। इसी सिद्धान्त के अनुसार इन महाशयोंको भी धक्का खाकर':पोछे हटना पड़ता है, जिसका फल यह होता है कि दोप-दृष्टि उनमें घर कर बैठती है। चाहिये. तो था अपने दोष देखन, परन्तु अपने दोप तो तभी देखे जा सकते थे जब वैराग्यकी अग्नि अपने भीतर प्रज्वलित होती और अन्तर दृष्टि खुलती । इसके विपरीत बाह्य दृष्टि होनेके कारण उन महापुरुपोंके जिनके साथ सत्संग होता है, दोष-दर्शन किये जाते हैं। इस प्रकार ज्ञानीको अज्ञानी व अज्ञानीको ज्ञानी बनाया जाता है, और शरीरके लक्षणों करके ही उस अलक्ष्यके लक्षण किये जाते हैं | गये तो थे अपना भवन बुहारनेके लिये, परन्तु उल्टा दूसरोंका कचरा अपने अन्दर भरने लगे । हे परमात्मा! यह कैसा रोग लगा ? वैरीको भी नसीव न हो । कच्चे फोड़े में चीरा देनेसे भरिया-फूटीके समान यह तो उल्टा रोग बढ़ गया। 'गये थे नुमाज बख्शवानेको, उल्टे रोजे गले. पड़े। जिस प्रकार चिड़िया बाजके भयसे अपने धौंसलेमें दौड़ती है, परन्तु विक्षेपके कारण उसको वहाँ अन्धकार ही. प्रतीत होता है, ठहर नहीं सकती, तत्काल बाहर निकल आती है और बाज़
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श्रामविलास ] के द्वारा ग्रसी आती है । यही अवस्था इन महाशयोंकी होती है कि संसाररूपी पाजके भयसे अन्तर्मुख होनेके लिये जाते हैं, परन्तु वैराग्यके प्रभाव और विक्षेपके सद्भावसे उनको भीतर अन्धकार ही प्रतीत होता है, ठहर नहीं सकते और तत्काल बाहर निकल कर संसाररूपी वाजद्वारा फिर पास कर लिये जाते हैं। मन का स्वभाव है कि निरालम्ब तो यह रह नहीं सकता, अव विक्षेप और आवरण हृदयमे भरपूर रहने के कारण इसका अन्तर्मुखी होना तो असम्भव है, उधर तो इसका
आकर्षण हो नहीं सकता, लाचार कुटुम्बकी आसक्ति व घरेलुप्रवृत्ति जिससे थोड़ा बहुत छुटकारा मिला था, वह फिर दृढ़ हो जाती है। अब इससे निवृत्त होना दुर्लभ है, क्योंकि आगे बढ़नेका मार्ग बन्द हो चुका है और हृदयरूपी लोहा ठण्डा पड़ चुका है, इसलिये शब्दरूपी चोटोंको भी नहीं सहार सकता। सारांश, अनधिकार चर्चामें दुःख ही दुःख है। 'इतो नष्टस्ततो भ्रष्ट' का लेखा पूरा होकर ही रहता है।
पूर्वपक्षीः वाहजी वाह ! यह वो तुमने विचित्र जाल पूर्वपक्षीकी पका और | फैलाया है इसका तो कहीं अन्त ही उसका समाधान नहीं आता। प्रथम तो कलियुगमें जीवन ही अल्प है, दैवयोगसे पूरा जीवन भी मिल जाय तो भी सारे जीवनमें तुम्हारे वैतालकी ये सव भेटे तो पूरी होना असम्भव ही है। किसीको भी यह आशा नहीं हो सकती कि वह अपना यह सब काम इसी जीवनमें पूरा कर जायगा और जब यह आशा ही नहीं तब इस मार्गमे कदम उठाना ही कठिन होगा। 'न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। मायाका राज्य विलक्षण है, जीवके कर्म-संस्कार अनन्त जन्मोंके अनन्त हैं। फिर यह भी कोई विश्वास नहीं किया जा सकता कि भावीजन्ममें मनुष्ययोनिकी ही प्राप्ति होगी और जितना कुछ अब
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२५६ ]
[ साधारण धर्म कर चुके हैं इससे आगे ही बढ़ना होगा। ऐसी अवस्थामें वर्तमान मनुष्य-जन्म तो अकारथ ही गया। 'न दीनके रहे न दुनियाकेइस प्रकार तुम्हारे वचनोंके अनुसार तो दुनियाके. दुख-दर्द मिटनेसे रहे फिर तो मोक्ष खपुष्पके समान कथनमात्र ही रह जायगा । दूसरे, तुम्हारे यह वचन ज्यों-के-त्यों अनुमवमें भी नहीं आते, क्योंकि बहुत-से महापुरुष नानक, कवीरं आदि और वर्तमानमें भी बहुतसे सन्त-महात्मा तुम्हारी इन झंझटोंमें पड़नेके बिना ही एकदम छलॉगें' मारकर संसार के पार जाते दीख पड़ते हैं। फिर तुम्हारी इस दन्तकथा में फंसने का कौन बुद्धिमान् माहम करेगा? ___ समाधानः-सुनो प्यारे आपत्तिकारक ! दिलके कान खोल कर सुन लो । कहावत है कि 'रोग हाथीके मुंहसे आवा है और चिउँटीके मुंहसे जाता है । अर्थात् रोगकी उत्पत्ति तो अकस्मात एकदम हो जाती है परन्तु निवृत्ति वो क्रमसे शनैः-शनैः ही होगी। जब शारीरिक रोगोंकी यह अवस्था है तव यह तो जन्म-मरणका विशुचिकारूप भारी रोग है, जो यावत् शारी रिक प मानसिक रोगोंका मूल है और असंख्य जन्मोंसे दृढ़ होता चला आया है। इसकी निवृत्ति यों ही बातों में पूरी-पूरी भेट दिये विना कैसे कर जाओगे? देखें, एकदम इस रोगसे निकल भागो तो सही, सन्निपातके रोगीके ममान उल्टान भड़क जाओ तो कहना ! 'मक्खीका मधुमें फंसना तो सहज है, परन्तु उसी तरह सहज ही एकदम निकल भागना चाहे तो छूटनेके स्थानपर उल्टा अधिक लिसड़ जायगी। हॉ, शनैःशनै क्रम-क्रमसे अपने हाथ-पैरोंको धीरजसे निकालनेका प्रयत्न करेगी तो अवश्य मधुसे छुटकारा पा जायगी। जब सामान्य रोग सहज ही काटे नहीं कटते तब यह संसाररूपी वृक्ष सहज ही कैसे काट सकोगे कि जिसकी अहंकाररूपी सुदृढ़ मूल है,
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आत्मविलास]
[२६० मनुष्ययोनिमें कोके अनुसार वॉधनेवाली जिमकी वासनारूप जड़ें पावालपर्यन्त चली गई हैं और तीनों गुणरूप जलसे पुष्ट हुई जिसकी शाखाएँ विषयभोग रूपसे तीनों लोकमें सर्वत्र फैल गई हैं, जैसा गीता अध्याय १५ श्लोक २ मे कहा गया हैअधोवं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रबद्धा विषयप्रवालाः। अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबंधीनि मनुष्यलोके ॥
हॉ, यह तो हम भी मानते हैं कि जीवन अल्प है, परन्तु अपने आचरणोंसे तो तुम यह सिद्ध नहीं कर रहे, बल्कि इसके विपरीत यही सिद्ध कर रहे हो कि कभी मरना होगा ही नहीं
और सदा अमर रहेंगे । व्यवहारमे भी निर्भय होकर ऐसे उच्छल रूपसे वर्त रहे हो, मानो तुम सर्वथा स्वतन्त्र हो हो, तुमको कोई कहने-सुननेवाला है ही नहीं और तुम्हारे ऊपर किसीका भी दण्ड नहीं । हाँ यह वात तो हम सिर-गॉखोंसे स्वीकार करते , चाहे जहाँ हमसे कस्मे दिलाकर कहला लो कि वास्तवमें तो तुम अमर ही हो और पूर्ण स्वतन्त्र । तुम्हारे ऊपर कोई विधि नहीं, बल्कि तुम तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके शासक हो। मला, तुम्हारे ऊपर किसका दण्ड ? परन्तु अपने-आपको शुद्ध स्वरूप ठाने भी रहो । मन, इन्द्रिय और देहमे बॅधे रहकर इनका अभिमान करना और वनके दिखाना निद्व! 'चुपड़ी
और दो दो' यह कैसे निमेगी रहना नो रोगी और आचरण करने निरोगी । यही तो रोगको बढ़ा लेना है । बंधा हुआ मुक्त के आचरण करने लगे तो उल्टा अधिक बंध जाता है। जोवन अल्प जाना होता तो सुखकी नींद न सोते । जैसे किसीको विदेश जाना होता है तो रात्रिको सुखसे नहीं सोता ज्योंत्यों अपने सब काम करके गाड़ीसे १ घंटे पहले स्टेशनपर पहुँचनेका ध्यान रखता है और कोई काम अधूरा छोड़ना नहीं
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२६१ ]
[ साधारण धर्म चाहता । परन्तु तुम तो ऐसे सुखसे सोते हो मानो कुछ करना है ही नहीं। यदि तुम्हारी उपयुक्त सब भेटें इसी जन्ममें पूरी नहीं हो सकतीं तो भी तुम्हारा पुरुषार्थ निष्फल नहीं, क्योंकि उसके मूलमें सत्यस्वरूप-साक्षी विद्यमान है। फिर वह निष्फल कैसे हो सकता है ? दूसरे, अधिकारानुसार चेष्टामें एक प्रकार से शान्ति रहती है जो हमारे कदम को आगे उठाती रहती है। स्वयं भगवानका वचन है
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः समिति स महात्मा सुदुर्लभः (गी....) अर्थः-बहुत जन्मोंके पुरुषार्थसे अन्तके जन्ममें तत्व
MAIT नानको प्राप्त हुआ ज्ञानी 'सर्व वासुदेवरूप ही है। इस प्रकार
HI मुझको प्राप्त कर जाता है, ऐसा महात्मा दुर्लभ है।
अनेक जन्मोंका रोग एक जन्ममें ही कैसे निवृत्त हो सकता है ? परन्तु हाँ, यह हम छाती ठोंककर हाथपर हाथ रखकर तुमसे वचन करते हैं कि यदि तुम उपयुक्त रीतिसे ठीक-ठीक रोगकी ओषधि करने लग पड़ो तो शनैः-शनैः तुम्हारे रोगकी निवृत्ति होनी निश्चित है। इसकी जुम्मेवारी हम अपने सिर पर लेते हैं यदि इस जन्ममें ही तुमने ठीक-ठीक पुरुपार्थ किया तो अधोगतिका मार्ग तो तुम्हारे लिये अभी बन्द हो जायगा और भावी जन्ममें तुमको वरवंश आगे ही बढ़ना होगा। दृष्टान्त 'रूपसे समझ सकते हैं कि दिल्लीसे काशी जानेवाला कोई मुसाफिर दिनभर चलकर रात्रिको यदि कानपुरमें सो रहे तो प्रभात जागकर उसको कानपुरसे ही तो चलना होगा। ऐसा तो नहीं हो सकता कि जागनेपर उसको फिर दिल्लीसे ही अपना सफर आरम्भ करना पड़े। इसी प्रकार मोक्षरूप उद्दिष्ट स्थानके लिये भी मजिलें हैं जो तुमको वतलाई गई।
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श्रामविलास ]
[२६२ यदि तुम कमर कमकर इस मार्गपर चल पड़ो तो जितना कुछ मार्ग तुम इस सन्ममें पूरा कर लोगे, शपथ लेकर कहते हैं कि मायाजन्सगं तुमको उससेागे ही वदना होगा,इसमे सन्देह ही न जानो । याद तुमको हमारे वचनोंपर विश्वास न हो तो यह लो, हम ग्वय भगवान्को ही आपके मामने साक्षीमें खड़ा कर देते हैं । इससे अधिक साक्षी तो हम लाएँ कहाँसे ? अर्जुन को भी इसी प्रकार भारी सन्देह हुआ था । अर्जुन कहता है:
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाचलितमानसः । अप्राप्य योगसंसिद्धि कां गति कृष्ण गच्छति ॥ कचिनोमयविभ्रदरिबन्नाभ्रमित्र नश्यति अप्रतिष्ठो महाबाहो निमूढो ब्रह्माणः पथि ।। एतन्मे संशयं कृष्ण छेतुमर्हस्यशेषतः । त्वदन्यःसंशयस्यास्य वेत्ता न पपद्यते ॥(गी,१३७-३६) अर्थः हे कृष्ण ! जिसका मन योग (ईश्वर-प्राप्तिरूप मार्ग) मे चलायमान हो गया है, ऐमा शिथिल थलवाला परन्तु श्रद्धाथुक्त पुरुप योगमिद्धि (भगवन्-साक्षात्कार) को न पाकर. किस गतिको मान होता है ? हे महाबाहो! वह भगवत् प्राप्तिके मार्गगे मोहिन हुआ आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बाढलोंकी भॉति दोनों ओरसे (अर्थात् भगवत-प्राप्ति और सांसारिक भोगांस) भ्रष्ट हुया क्या नष्ट तो नहीं हो जाता है ? हे कृष्ण मेरे इम मशयको अगंप ( पूर्णता) से छेदन करनेके लिये प्राप ही योग्य है, क्योकि आपके मिवाय इस सशयका छेदन फरनेवाला मिलना सम्भव नहीं है। ( अर्जुनने इस संशयको पूर्ण महत्त्व दिया है और यह ठीक भी है, प्रारम्भ में जिज्ञासु को यह मार्ग सुरस्य धारावत् तीक्ष्ण प्रतीत होता है, इसलिये
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२६३]
[ साधारण धर्म इस विषयमें जबतक उसको आश्वासन न मिल जाय कि जो कुछ मैं करूँगा निष्फल नहीं होगा, उसका कदम उठना कठिन होता है। इसलिये वह भगवानसे ही इस विषयमे आश्वासन चाहता है और कहता है कि आपके सिवाय इस संशयका छेदन करनेवाला मैं नहीं पाता)। इसके समाधानमे भगवान्
आज्ञा करते हैं:____ पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । - न हि कल्याणकृत्कश्चिदुर्गति तात गच्छति ।। • प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽमिजायते ।। अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥ , तत्र तं बुद्धिसंयोग लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ।। पूर्वाभ्यासेन तेनैव हियते धनशोऽपि सः। जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ।। प्रयत्नाद्यत्मानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः । 'अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति पर गतिम् ।।
(६.१०.१५) अर्थ:-हे पार्थ ! ऐसे पुरुषका न तो इस लोकमे और न परलोकमे ही नाश होता है, क्योंकि प्यारे । मंगवदर्थ शुभकर्म करनेवाला कोई भी पुरुष दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता है। किन्तु वह योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानोंके लोकोंको प्राप्त होकर और चिरकालतक उनमे वास करके फिर पवित्र श्रीमानोंके
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श्रामविलास]
[२६४ घरमे जन्म लेता है । अथवा यदि वैराग्यवान है तो) ज्ञानवान् योगियोंके कुलमे जन्म लेता है, अवश्यही संसारमे ऐसा जन्म अति दुर्लभ है। वह पुरुष इस प्रकार जन्म लेकर पूर्व जन्ममे साधन किये हुए वुद्धिसंयोगको प्राप्त करता है। जैसे कोई लिखता-लिखता सो गया तो जागकर उससे आगे लिखने लग जाता है। हे कुरुनंदन । तदनन्तर वह भगवत-प्राप्तिके लिये फिर यत्न करता है । वह उस पूर्वाभ्यासके वलसे ही बरवश भगवत्की ओर खेंचा जाता है (जैसे पक्षी पेटीसे बंधा हुश्रा खिंचता है । तथा योगका जिज्ञासु भी वेदके विधि-निषेधरूप बन्धनसे उल्लञ्चिन्त वर्तता है। इस प्रकार अनेक जन्मसे शुद्धान्तकरण योगी प्रयत्नसे अभ्यास करता हुआ सम्पूर्ण पापोंसे निर्मल होकर, परम गतिको प्राप्त हो जाता है ।
अवरही तुम्हारी यह शङ्का कि बहुत-से महापुरुष इसी जन्ममे पार जाते दीख पड़ते हैं, यह किसी प्रकार अनुभवानुमारी नहीं। इससे यह नहीं सिद्ध होता कि उनका सब कुछ कृत्य उमी जन्मका है। आम्रवृक्ष यदि इस फसलमें फल. रहा है तो यह तो नहीं कह सकते कि इसो फसलमें वह वीजसे फलको प्राप्त हो गया। नहीं, बल्कि अनेक फसलोंमें सींचा जाकर और शीतोष्ण सहकर वह इस योग्य हुआ है, ऐसा मानना पड़ेगा।
पूर्वपक्षी:-लोकमान्य भगवान् तिलक कह गये हैं कि गृहस्थ में ही रहो और कर्म करो, कमसे ही मोक्ष हो जायगा, त्याग
आवश्यक नहीं । फिर तुम्हारी इन झमटोंमें कौन फंसे ? हमको तो यही अच्छा लगता है, जिससे भोग और मोक्ष दोनों ही मिल जाग।
(नोट:- उक्त पूर्वपक्षका समाधान द्वितीय स्खण्ड में देखिये)।
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प्रात्म-विलास
(द्वितीय खण्ड) प्रवृत्तिपक्षमें तिलकमत-निराकरण
दिलक महोदयन अपने अन्य गीता-रहस्यके संन्यास-कर्म योग तिलकमत-निरूपण नामक एकादश प्रकरणमें प्रवृत्ति-मार्गको
| मुख्य रखकर निवृत्ति-मार का खण्डन किया है। इस स्थल पर उस मतका कुछ विचार कर्तव्य है। उस मतका सार संक्षेप में नीचे अकवार दिखाया जाता है। फिर प्रत्येक अङ्कपर सारमाही दृष्टिमे सूक्ष्म विचार किया जायगा। इस प्रसंगमें तिलकमतके अनुसार निष्काम-बुद्धिसे कम करने को 'योग' और स्वरूपसे कम त्यागको 'सांख्य' (संन्यास) शन्दोमे प्रयोग किया गया है। उनका मत यह है:
(१) मोक्ष 'सांख्य' (ज्ञान) से ही नहीं होता, किन्तु 'योग' (निष्काम-कम) से भी होता है। अर्थात् मोक्षप्राप्तिमे 'ज्ञान' तथा 'कर्म' दोनों विकल्पसे स्वतन्त्र साधन हैं, ऐकको दूसरेकी अपेक्षा नहीं है। (गीता-रहस्य पू. ३०५, ३०६) १ श्राशय यह कि 'ज्ञान' व 'कम' का सम-समुच्चय है, क्रम-समुच्चय ४ नहीं।
झान व कर्म दोनों मोक्षप्राप्तिमें स्वतन्त्र साधन है, इस मतको सम-समुच्चय कहते हैं। .
x पहले कर्म पीछे शान, दोनों क्रमसे मोक्षमें उपयोगी है, इसको क्रम-समुच्चय कहा जाता है।
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[आत्मविलास
(२) ज्ञानीके लिये ज्ञानोत्तर मृत्युपर्यन्त लोकसंग्रहके निमित्त निष्काम-बुद्धिसे कर्म करते रहना कर्तव्य है, क्योंकि ज्ञानोत्तर निष्काम-कर्म बन्धक नहीं रहता। जो मोक्ष 'संन्यास' (साल्य) से मिलता है वही 'कम' (योग) से भी प्राम होता है । इतना ही नहीं कि ज्ञानोत्तर दोनो मार्ग स्वतन्त्र हैं चाहे जिसको अङ्गीकार करें, किंतु भगवान्के मतसे 'संन्यास' (सांख्य) की अपेक्षा 'कर्म' (योग) श्रेष्ठ है । (गो. र. पू. ३०७, ३०८, ३०६)x
(३) यद्यपि प्रवृत्ति व निवृत्ति दोनों मार्ग प्राचीन समयसे प्रचलित चले आये हैं तथापि प्रवृत्ति-मार्ग अर्थात् 'कर्म' ही
आदिसे है और स्थिर रहनेके लिये है। निवृत्ति-मार्ग (स्मातेसंन्यास) पीछेसे धीरे-धीरे उसमें प्रवेश होने लगा। (गी. र. पृ.३४६)
(४) फुटकल संन्यास-मार्गियोंकी इस उक्तिको उद्देश्य करके कि 'गीतामें अर्जुनको चित्तशुद्धिके लिये कर्मका उपदेश किया गया है क्योंकि उसका अधिकार कर्मका ही था, परन्तु सिद्धावस्था में फर्मत्याग ही भगवानका मत है तिलक महोदयका कथन है कि “इसका भाव यह दीख पड़ता है कि यदि भगवान कह देते- अर्जुन! तू अज्ञानी है तो वह नचिकेवा के समान पूणे झानका आग्रह करता, युद्ध न करता और उनका उपदेश विफल जाता । अर्थात् अपने प्रिय भक्तको धोका देनेके लिये गीताका उपदेश किया गया ।" (गी. र. ३११)
(1) 'योग' के विपयमें गीतामें कहा है कि जब संसारमें रहना है तो कर्म छूटेंगे कैसे ? जबकि क्षणभर जीवित रहना भी xदेसो गीतारहस्य पूनाको छपी हुई सन् १९१७ द्वितीयावृत्ति ।
नचिकेता एक पिकुमारका नाम है, जिसने अपनी बाल्यावस्था में ही यमलोकमें जाकर यमराजसे ब्रहमान पाया। (कठोपनिपत्)
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[३
साधारण धर्म कर्म है। देवस्थितिपर्यन्त जैसे भूखप्यास विकार नहीं छूटते
और उनके लिये भिक्षा माँगने जैसे लज्जितकर्म करने के लिये भी 'संन्यास' में जब स्वतन्त्रता है, तब अनासक्त व्यवहारिक शास्त्रोक्त कर्म करनेमें कौन प्रत्यवाय है ? (गी. र. पृ. ३१८)
(६) ज्ञानीका अहंकार छूटनेसे 'मैं-मेरा भाषा नहीं रहती, इसलिये ज्ञानी निर्मम होता है। उसके बदले 'जगत् ध जगत्का' अथवा भनि-पक्षमे 'ईश्वर व ईश्वरका' ऐसे शब्द ज्ञानीद्वारा प्रयुक्त होते हैं। घासना छूटनेसे ज्ञानीका यह भाव रहता है कि 'संसारके सब व्यवहार ईश्वरके हैं और ईश्वरने उनको करनेके लिये ही हमें उत्पन्न किया है। (गी. र. पृ. ३२४) ।
(७) 'लोकसंग्रहका अर्थ कोई ढकोसला नहीं, बल्कि लोकों को खोटी प्रवृत्तिले बचा कर शुभ प्रवृत्तिमे लगाना है तथा 'ज्ञानियोंके गृहस्थमें रहनेसे लोकसंग्रह अधिक सम्पादन होता है, इसलिये ज्ञानियोंको गृहस्थमें ही रहना चाहिये । (गी. र. पृ० ३२६ से ३३१)
(८) जब 'योग' ही मुख्य है तब प्रश्न होता है कि स्मृतिप्रन्यों में वर्णित संन्यास-आश्रमको क्या दशा होगी ? जब कि मनु आदि सभी स्मृत्तिकार यज्ञ-यागादिका परित्याग करके धीरेधीरे संन्यास आश्रम धारण कर मोक्षप्राप्तिकी ताकीद करते हैं। इसका समाधान तिलकमतमें यह है कि मनुके ध्यानमें अच्छी तरह यह बात आगई थी कि संन्यासकी ओर लोगोंकी फिजूल प्रवृत्ति होनेसे संसारका कर्तव्य नष्ट हो जायगा और समाज पंगु होजायगा । इसीलिये मनुने तीनों ऋणों (देव, पिध पितर) की मर्यादा बाँध दी है कि इन ऋणोंसे उऋण होकर फिर सैन्यास ले । इससे यह सिद्ध होता है कि पाश्रम-धर्म का मूल
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[आत्मविलास यह था कि यथाशास्त्र गृहस्थ चलानयोग्य लडको सियान हो जानेपर बुढ़ापेकी निरर्थक आशाओंसे लड़कोकी उमङ्गोंके आड़े न श्रा, निरा मोक्षपरायण हो मनुष्य स्वयं अानन्दपूर्वक संसारस निवृत्त हो जाय । (गी. र. पृ. ३३६, ३३७, ३३८)
(E) गीताके प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिमे 'श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र' ऐसा सकल्प है । इसका अर्थ यह है कि 'संन्यास और योग' दो मागोंमें 'योग' श्रेष्ठ है और यही गीताका प्रतिपाद्य विषय है। (गी. र. पृ. ३५१)
उक्त मतका निराकरण अब सक्षेपसे उपयुक्त मत पर अलग-अलग विचार किया। तिलकमतके प्रथम | जाता है। बुद्धिमान् पाठक स्वयं सार-असार अकका निराकरण का विचार कर लेंगे । किमी कविका कथन है कि सचाई एक मेसी सुन्दरी है कि उसको आलिगन करनक लिये उसे जान लेना ही काफी है।
शाखोंका श्राशय जानने के लिये युक्ति में प्रमाण दोनोकी संगतिका होना जरूरी है। अर्थात् शाखप्रमाण व युक्ति दोनोको संगतिसे जो आशय निर्धारित हो, वही शास्त्रोका निर्दोष प्राशय जानना चाहिये । परन्तु जो श्राशय केवल प्रमाणके आधार पर निर्धारित किया गया है और युक्सिको नही सहार सकता, वह
आशय यथार्थ नहीं किन्नु भ्रममूलक है। योगवाशिष्ठके मुमुनु प्रकरणमें भगवान वसिष्ठ भगवान रामचन्द्रके प्रति कहते है, "हे राम! युक्तिसहित वचन चाहे बालकका भी हो उसे अंगीफार करना चाहिये और युक्तिविरुद्ध वचन चाहे ब्रह्माका भी हो उसे अंगीकार न करके सूखे तृणके समान परित्याग कर
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साधारण धम]
देना चाहिये" (योग. वा. मुमुनुप्रकरण मर्ग १८) तिलक महोदयने अपने इस निश्चयमे कि 'जान' तथा 'कम' मोक्षप्रासिम दोनो विकल्पसं स्वतन्त्र माधन है, चाहे ज्ञानसे मोक्ष प्राप्त कर ले चाहे कम मे, कोई प्रवल युक्ति नही टी, किन्तु गीताके कुछ श्लोकोक
आधार पर उनका यथार्थ मर्म न जान, अपने मतकी पुष्टि की है। इसके विपरीत पंढ चेदान्तके अन्य अनेकों प्रबल प्रमाण, जो उनके मतके विरोधी हैं और ऊँची भुजा उठाकर पुकार रहे है-- 'ऋते नानान्न मुक्ति', 'ज्ञानादेवतु कैवल्यम्' इत्यादि, उन प्रमाणोके विरोधका परिहार उन्होंने अपनी किसी युक्तिसे नहीं किया। इसके साथ ही यह किमी प्रकार भी नहीं कहा जा सकता
और न तिलक महोदय जैसे श्रान्तिक पुरुपको ही स्वीकार हो सकता है कि गीता प्रकृतिविरुद्ध अथवा वंदविरुद्ध उपदेश देनेके लिये प्रवृत्त हुई है । वदान्तके अनेक नैष्कयसिद्धि आदि संस्कृत अन्य तथा विचारसागरादि भाषा ग्रन्थोंमें अनेक प्रबल युक्तियोंसे यह विपय प्रतिपादन किया गया है कि मोन केवल ज्ञानसे ही सम्भव है, कम से नहीं; जिनके सम्मुख तिलक महोदय की कोमल युक्तियाँ क्षणभरके लिये भी स्थिर नही रह सकती । इस स्थल पर उनका पूर्ण रूपसे उल्लेख न कर केवल दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है।
२
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यह वार्ता तो एक बालककी बुद्धिमे भी आरूढ हो सकती है कि मोक्षप्राप्तिरूप साध्य तो एक, और उसके साधन दो, वे भी . परस्पर विरोधी, दोनो समकानीन, स्वतन्त्र और विकल्पसे । अर्थान् एक ही अवस्थामे चाहे ज्ञानसं मोक्ष प्राप्त करले चाहे कम से, यह बात साधककी रुचि पर छोड़ दी गई है कि वह इन दोनों मे मे कोई एक मार्ग पसन्द करले और स्वतन्त्र वही मार्ग उस मोक्ष प्राप्त करानेमें समर्थ होगा। यह हो कैसे सकता है ? कर्म
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[ श्रात्मविलास का स्वरूप प्रवृत्ति और ज्ञानका स्वरूप कमत्यागरूप निवृत्ति, दोनोंका परस्पर विरोध है। तिलक महोदयका यह वचन ठीक उम वैद्यके ममान है. को सन्निपात-रोगपीडित अपने रोगीको यह नुमखा देता है कि रोगनिवृत्ति के लिये चाहे यह एक रेचक
ओषधि लो, चाहे वह दूसरी पाचक । रोगी हैरान है कि वैद्यका दिमाग फिर गया है। हाँ, यह पान तो सम्भव हो सकती थी कि प्रथम रेचक श्रोपधिसे पेट साफ करके अन्य कालमें पाचक श्रोषधि तजयीज की जाती, अथवा प्रथम पाचक श्रोपधिसे दोषों को पका कर फिर पेट साफ करने के लिये रेचक दी जाती । परन्तु दोनों श्रोपधि परस्पर विरोधि । दोनों विकल्पसे और समकालीन! इस प्रकार यह वैद्य किमी प्रकार भी रोगीका विश्वासपात्र नहीं हो सकता। ठीक, यही अवस्था तिलकमतकी है । हाँ, पहले ज्ञान पीछे कर्म, अथवा पहले कर्म पीछे ज्ञान, अवस्था भेदमे और कालभेदमं तज्वीज़ किये जाते तो अवश्य नुसखा प्रदायोग्य हो सकता था, परन्तु यहाँ तो आव देखा न ताव तत्काल दोनों घातें विकल्पसे लिख डाली गई।
मोक्षप्राप्तिका विपय जो ब्रह्म है, यदि वह स्वर्गलोक और कुष्ठ लोकादिकोंके समान देशकालपरिच्छेदवर्ती माना जाता, तो अवश्य उसकी प्रापिके निमित्त कर्मको साधनता बन सकती यो । परन्तु गेमा देशकालवी ब्रह्मका स्वरूप तिलक महोदय ने फिनी स्थल पर स्वीकार नहीं किया और अतिभगवती तो मुक्त. पठनं उस परमका स्वरूप निरमण करते हुए स्पष्ट कथन फरती है
य एष: हयन्तन्योतिः पुरुषः यो मनसि तिष्ठन् मनसोऽन्तरी यस्य मना शरीरं यं मनो न वेद यो मनसोऽन्तरो
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[७
साधारण धर्म ]
यमयति एप त आत्मा अंन्तर्याम्पमृतः। (वृहदारण्यकोपनिपत अ. ३. ना. ७)
अर्थः-यह जो हृदयके अन्दर ही ज्योतिरूप पुरुष विद्यमान है, 'यही तेरा आत्मा है। जो मनमें बैठा हुआ भी (अपनी व्यापकता करके) मनसे याच देशमें भी है, मन जिस परमात्मा का शरीर है, जिस परमात्माको मन नहीं जान सकता, जो मन के अन्दर स्थित हुआ प्रेरणा कर रहा है, यही अन्तर्यामी अमृतरूप तेरा श्रात्मा है। ___ इस प्रकार श्रुति उस ब्रह्मको अपरोक्षरूपसे सबका अपनापाप कह कर प्रात्मरूपसे बोध करती है । ऐसा जो सबका अपना-आप और सबके हृदयमें ही विराजमान अन्तर्यामीदेव है, नहीं कहा जा सकता कि उसको कर्मद्वारा कैसे प्राप्त किया जाय ? बल्कि सच पूछिये तो कर्मके द्वारा तो उल्टा उसको सला देना है, खो देना है। एक छोटेसे रटान्तसे इसको स्पष्ट किया जाता है:
दस मनुष्य, जो परस्परमें मित्र थे, मिलकर देशाटनको निकले । मार्गमें उनको एक भारी नदी आई जिसको उन्हें तैर कर पार-जाना पड़ा। नदीपार होकर उन्होने विचार किया कि अपने दसों मित्रोंको संभाल लें हममेंसे कोई नदीमें डूब न गया हो । निदान वे गिनती करने लगे। उनमसे एकने अपनी मित्रमण्डलीकी गिनती की। वह अपनेको गिनना भूलकर शेप नौ को गिन गया और हैरान हो कहने लगा, "एक मित्र डूब गया !" इस पर दूसरे मित्रने कहा, "ठहरो, घबरानो नहीं, मैं गिनती करता हूँ।" उसने गिनती श्रारंभ की और वह भी पूर्ववत् अपनेको गिनना छोड़ शेष नौ को गिन गया। इससे एक मित्र को डूया जान उनकी
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[ आत्मविलास
८] ईरानी और भी बढी। सारांश, इसी प्रकार दसोंमेस प्रत्येकने गिनती की, प्रत्येक ही अपनेको न गिन शेप नो की गिनती करता गया और उनकी हैरानी अधिकाधिक बढती गई । जव दसों गिनती कर चुके, तब सचमुच एक मित्रको डूबा जान सबके सब उच स्वरसे विलाप करने लगे। एक महापुरुषको, जो एकान्त बैठा हुआ यह सब कौतुक देख रहा था, इस विचित्र कथासे बड़ा अानन्द मिला । अन्तत उनको दया आई. वह उठ कर उनके पास प्राया और उनसे उनके रुदनका कारण पूछा । उन्होंने अपना सब वृत्तान्त ज्यूँका त्यू उस महापुरुषको कह सुनाया और रुदन करने लगे। सब कथा सुनकर महापुरुषने उनको फिर गिनती करने को कहा। इस पर उनमसे एकने फिर गिनती की और पूर्ववन् नौ की गिनती करके मूर्तियन् अचल खडा होगया । इस पर महापुरुष ने कहा "घबराओ मत, दसयाँ है।" महापुरुषके इस बचनसे उन्हें कुछ शान्ति मिली और गिनती करनेवालेने बेचैनीसे फिर पूछा, "दसवाँ कहाँ है ?” महापुरुपने तत्काल गिनती करने वालेका हाथ पकड कर कहा "दसवाँ तू है।" महापुरुषके इस बचन पर सबको बडा हर्ष हुआ और सब दुःख-शोक दूर हो गये।
__इस वार्ताको सुनकर पाठकगण हँसेंगे। परन्तु हंसिये नहीं, यही वेदान्तका सिद्धान्त है । यही पूर्ण सत्य है ! जिस प्रकार 'दसवाँ' जो उनका अपना-आप ही था, उसकी प्राप्तिके लिये केवल ज्ञान ही एकमात्र साधन हो सकता था, अन्य कोई उपाय नहीं ! अन्य कुछ नहीं ! ज्ञानका साधन छोड़ 'दशम' की प्राप्ति के लिये यदि वे स्वयं सबके सब नदी में खूब गोता लगाते तथा देश-देशान्तरसे अच्छे-अच्छे चतुर तैराकोंका आह्वान करते तो'दशम' की प्राप्ति कठिनसे कठिनतर होती जाती और अन्ततः
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साधारण धर्म ] क्लेशकी वृद्धि ही उसका फल हो सकता था, ठीक, इसी प्रकार श्रुति भगवती कहती है कि आत्मरूप ब्रह्म जो निकटसे निकट है, मन इन्द्रिय प्रादिसे भी जो निकटतर है, जो मनका भी मन, आँखकी भी आँख और श्रोत्रका भी श्रोत्र है, अर्थात् जिसके बिना न मनका मननभाव रहता है, न आँख देख सकती है, न श्रोत्र श्रवण कर सकता है और जो मन-ख-श्रोत्र सबमें विद्यमान
और सबका साक्षी है, उसको किस क्रिया और किस कर्मसे जाना जाय या प्राप्त किया जाय ? यथाः- 'येनेदं सर्वे विजानाति तं केन विजानीयाद् विज्ञातारमरे केन विजानीयाद ?' (इ. उप. २-४-१४). ___ अर्थ:-जिसके द्वारा यह सब कुछ जाना जाता है, वह
आप किसके द्वारा जाना जाय ? अरे। सबके जाननेवालेको किस शक्तिमे जान सकते हैं ?
:: - इसी लिये अति भगवती सर्वाधिष्ठान उस सूक्ष्म वस्तुकी प्राप्ति के लिये किसी कर्मको साधन न बता 'ज्ञानादेव तु कैवल्यम्। केवल ज्ञानको ही साधन निरूपणं करती है। मलिन - दर्पणमें अपना मुंह देखनेके लिये मार्जनद्वारा मलनिवृत्तिमें तो यद्यपि कर्गकी अपेक्षा है, परन्तु मलनिवृत्त हो जाने पर मुंह देखनेके लिये तो फिर कोई कर्म अपेक्षित नहीं। इसी प्रकार स्वार्थ, श्रासक्ति, कामना एवं वासनादि मल हृदयरूपी दुर्पणसे दूर करनेके लिये तो यद्यपि कर्म, अपेक्षित है, परन्तु इन दोषोके निवृत्त होजाने पर हृदयदेशमें ही स्थित वस्तुके प्राप्त करने के लिये तो केवल ज्ञान ही अपेक्षित है। इसी लिये कहा गया है
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[आत्मविलास
मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति ग्रामान्तरमेव वा ।
अज्ञानहृदयग्रन्थिश्छेदो मोक्ष इति स्मृतः ॥ 'अर्थः- मोक्ष किसी स्थानविशेपमे नहीं बसता है, न किमी अन्य प्राममें ही उसका निवास है, केवल हृदयको अज्ञानरूप प्रन्थिका छेदन हो जाना ही मोक्ष कहा गया है।
जिस प्रकार रज्जुमें रज्जुके अज्ञान करके जो सर्पकी प्रतीति, वह न तो यज्ञादिको अथवा मत्रादिकोसे ही निवृत्त हो सकती है और न लप्टका प्रहारादिकोंसे । उस. सर्पको निवृत्त करनेके लिये तो केवल दीपक ही चाहिये । दीपकका प्रयोजन भी इतना ही है कि वह रज्जुके आश्रय जो अज्ञान, अज्ञान का कार्य जो सर्प और तत्प्रतीतिजन्य जो भय-कम्पनादि, इन सब अज्ञान-सामग्रीको दूर कर देता है। रज्जुकी प्रामि दीपक का प्रयोजन नहीं, यह तो पहले भी प्राप्त ही थी, केवल अज्ञानरूप भ्रम करके अप्राप्तके समान भान होची थी। ठीक, इसी प्रकार आत्मामें आत्माके अज्ञानसे जो प्रतीत हुश्रा जगत्, तज्जन्य जन्म-मरण तथा भय-शोकादि त्रिविधताप, उनकी निवृत्ति में यज्ञ-दान-तपादिझी अपेक्षा नहीं, केवल दीपकरूप ज्ञान ही अपेक्षित है। ज्ञानको प्रयोजनं भी श्रात्माकी प्राप्ति नहीं, क्योंकि यह तो नित्य ही प्राप्त है। ज्ञानका प्रयोजन भी इतना ही है कि वह दीपकके समान आत्माके श्राश्रय जो अज्ञान, उस अज्ञानका कार्य जगत् और तत्सम्बन्धी भय-शोकादि, उनको दूर कर दे। ।
भ्रान्त्या प्रतीतः संसारो विवेकान्नतु कर्मभिः । न हि रज्जूरंगारोपो घण्टाघोषानिवर्तते ।।
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वसिष्ठ प्रथम हो सकता है. श्रीकृष्ण-उद्धव
साधारण धर्म] । अर्थ.--अज्ञानरूप भ्रान्ति करके प्रतीयमान संसार ज्ञानसे ही निवृत्त हो सकता है, कर्मसे कदापि नही । जैसे रज्जुमें प्रान्तिजन्य सर्प घण्टा-घोषसे निवृत्त होना असम्भव है। ।
ऐसा जो सूक्ष्म पदार्थ, जहाँ ज्ञानके भी पर जलते हैं, उसको स्थूल कमद्वारा प्राप्त करनेकी चेष्टा करना तो कोरा प्रमाद ही है। विषय गहन है इस लिये रीतिमात्र जनाई गई है। अनेक वेदान्त-प्रन्थ इस सिद्धान्तको सत्यतामें प्रमाण हैं, परन्तु तिलक महोदयने अपने अन्थमे योगवाशिष्ठके अनेक स्थलोंमें प्रमाण दिये हैं। इसलिये योगवाशिष्ठ उत्पन्ति-प्रकरण प्रथम सर्ग ही देखिये, जहाँ अपने उपदेशका प्रारम्भ करते ही भगवान वसिष्ठ प्रथम इसी विषयको स्पष्ट करते हैं कि मोक्ष,फेवल ज्ञान से ही प्राप्त हो सकता है, फर्मसे, कदापि नहीं। यही बात श्रीमद्भागवत एकादश-स्कन्धमें श्रीकृष्ण-उद्धव सम्वादके प्रसंग में अध्याय ५,८,९,१०,११,१२,१३ में कही गई है। यह धाओं तो तिलक महोदयको भी स्वीकृत ही होगी कि गीताके कृष्ण और भागवतके कृष्ण दो नहीं, एक ही हैं। स्वयं गीतामें भगवान् अजुनके प्रति ज्ञानकी महिमा मुक्तकण्ठसे यूं वर्णन करत हैं:--'सब यजोंसे ज्ञान-यन श्रेष्ठ है, 'ज्ञानमें अखिल कर्म ममाप्त हो जाते हैं। (गीता. अ.-४ श्लो. ३३) । 'यदि तू महापापी भी है तो भी ज्ञानरूप नौकाद्वारा उन सब पापोंसे भली प्रकार तर जायगा (गी: अ. ४ श्लो: ३६) । 'सव कोंको ज्ञानामिं इसी प्रकार भस्म कर देती है. जैसे स्थूल अनि इधनको जलाकर भस्मीभूत कर देती है. (गी. ४. ३७)। 'ज्ञानके समान कोई वस्तु मंसारमें पवित्र नहीं है। (गी. ४.३८)। यदि,भगवानके मतसे कम मोक्षाप्राप्तिमें, स्वतंत्र साधन होता तो भगवानको इस स्थल पर स्पष्ट कहना चाहिये था, 'कर्मके समान कोई वस्तु पवित्र
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[आत्मविलास नहीं है। 'कर्मरूपी नौकाद्वारा तू सब पापोसे भली प्रकार तर जायगा चाहे तु पापीसे पापी भी क्यों न हो', 'कर्मरूप अमि सब कोको जलाकर भस्म कर देती है, 'सत्र यज्ञोंसे कर्म-यज्ञ श्रेष्ठ है' इत्यादि । परन्तु कर्मकै माथ ऐसा कहीं भी प्रयोग गीतामे नहीं किया गया, इससे स्पष्ट है कि भगवान्को कर्मकी अपेक्षा ज्ञान ही महत्त्वरूप मन्तव्य है।
तिलक-मतमें कर्म ओर ज्ञानको मोक्षप्राप्तिम वैकल्पिक स्वतंत्र साधन माना है। इस मतके अनुसार कर्मद्वारा मोक्षप्राप्तिम जो प्रवृत्त हुए हैं, उनके लिये ज्ञान सर्वथा निरर्थक व निरुपयोगी सिद्ध होता है। उनकी दृष्टिसे तो मानो एक नपुसकके समान संसारमें ज्ञानका जन्म निष्फल ही है। परन्तु वेदान्त मोक्षके लिये कर्मको निरुपयोगी नही मानता, किंतु वह तो सभी साधनों का अधिकारानुसार सदुपयोग करता है और कर्मको भी मोक्षप्राप्ति की साधन-सामग्रीमें उपयोगी ठहराता है। जिस प्रकार तुधातकी सुधा-निवृत्तिमे यद्यपि रोटी ही साक्षात् उपयोगी है, तथापि आटा, जल, अग्नि आदिक भी परम्परा करके सुधानिवृत्तिमें सहायक हैं ही। आटा, अग्नि, जलादिका उपयोग रोटीकी तैयारीमें, और रोटीका उपयोग नुधानिवृत्तिमें है। ठीक, इसी प्रकार फलाशा व स्वार्थरहित कर्मप्रवृत्ति, जो ईश्वरार्पण-बुद्धिसे कर्तव्य जान लोकसेवादिके उद्देश्यसे की जाय, जिसकी चर्चा पीछे निष्कामजिज्ञासुके प्रसगमें की जा चुकी है, उसका फल अन्तःकरणको निर्मलता है और निर्मल अन्तःकरणमे ही ज्ञानरूप 'बीज
आरोपणं करके मोक्षरूप फल पकाया जा सकता है। जिस प्रकार मलिन वस्त्रमें दिया हुआ केशरका रंग, अथवा ऊपर भूमिमे डाला हुआ बीज फलका हेतु नहीं होता, उसी प्रकार - स्वार्थपरायण सांसारिक राग-द्वेषो मे फंसा हुआ अन्तकिरण
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নামাযে ঘর্ম } ज्ञानरूपी रंग अथवा वीजको सार्थक नहीं कर सकता। परन्तु पत्र निर्मल होने पर भी यदि उसमे मावुन दिये ही जाएँ, अथवा भूमिमें खाद डाल ही चले जाएँ और बस न करें, तो ऐसी अवस्था मै घह सब चेष्टा किमी फलका हेतु न होकर उल्टा हानिकारक ही सिद्ध होगी, प्रकृतिक राज्यमे मा ही नियम है । प्रत्येक फलउपार्जनके लिये अधिकार तथा योग्य मात्राका विचार अत्यन्त
आवश्यक है। वैध लोग भी अपने रोगियोंके लिये अधिकार व मानाका पूर्ण ध्यान रखते हैं। सारांश, अमृत भी यदि अधिक मात्रामें सेवन किया जाय तो विपल्प सिद्ध हो सकता है ! इसी प्रकार वेदान्तका कथन है कि मोक्षप्राप्तिम कर्मकी सहायता है जरूर, परन्तु अन्तःकरणकी निर्मलता सम्पादन हो चुकने पर मोक्षप्राप्तिके लिये तब कर्मका त्याग भी उतना ही जरूरी है। रजोगुणसे कर्म और सत्वगुणसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है (गी. अ. १४ श्लो. १७)। जब चित्त रजोगुणसे पूर्ण है तब सत्त्वगुणीज्ञानको कैसे धार सकता है ? परन्तु निष्काम-कर्मद्वारा जब हृदय रजोगुणसे निर्मल हो चुका और सत्त्वगुण फूट निकला, फिर तो केवल ज्ञानरूपी बीज ही हृदय क्षेत्रमे आरोपण करनेकी जरूरत है। यदि फिर भी बाह्य कर्मको ही हमने अपना उद्दश्य बनाए रखा और अन्तःकरण निर्मल होने पर भी उसका' चकर चालू रखा गया, नो उद्बुध हुआ सत्वगुण अवश्य देव जायगा और यह हमारे लिय एक प्रकारसे अधःपतन होगा, क्योंकि ज्ञान व कर्म परस्पर विरोधी है, एक कालमें दोनो नहीं रह सकते । निष्काम-कर्म और उपासनाका फल इतना ही है। कि वे ईश्वर-प्रीतिक उद्देश्यक सहारेसे सासारिक रागद्वष
और स्वार्थादि दोपोंको निवृत्त कर अन्तःकरणको निर्मल कर दें। तब उस निर्मल अन्तःकरणमे ही सारासा-विवेक उत्पन्न
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[आत्मविलास हो सकता है और सार क्या है श्रसार क्या है ? इस विषकसे ही संसारके प्रति राग-धुद्धिका अभाव होकर घेराग्य उपज सकता है तथा उम वैराग्यवान हृदयमे ही मैं कौन हूँ ?? 'ससार क्या है ? 'यह कैसे उत्पन्न हुश्रा है ?' 'इसकी निर्यात कैसे हो सकती है १५ 'परमात्माका क्या स्वरूप है और यह कहाँ है?' इत्यादि तत्त्व-विचार उत्पन्न हो सकते है। तत्पश्चात् फेवल इन तत्त्वविचारोंसे ही ब्रह्म-ज्ञानद्वारा मोक्षप्रानि सम्भव है, क्योंकि यह सय प्रपञ्च केवल अज्ञानजन्य है किमी पारम्भ-परिणाम करके नही पना । 'नान्यः पन्या विमुक्तये' (श्रुति) अर्थात् मोक्षके लिये अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। परन्तु तिलक-मतमें तो कमेका कदाचित् पर्यवसान है ही नहीं। जिस प्रकार उदरविकारके रोगीको वैद्य जुलाय दिये ही जाय और उसको कभी बन्दन करे तब उसकी क्या दशा हो सकती है ? यही अवस्था तिलकमतकी है। हाँ यदि इस मतमे धन्धरूप संसार सत्य हो तब उसकी निवृत्तिमें ज्ञानकी सार्थकता नहीं, किन्तु फर्म ही चाहिये । परन्तु रज्जु-सर्पके समान मिथ्या वस्तुको निवृत्तिमें कमेका अपेक्षा नहीं, किन्तु ज्ञानरूप दीपक ही केवल उपयोगी है। करेंद्वारा मोक्षप्राप्तिकी पुष्टिम गीताके जिन श्लोकोंको तिलक महोदयने प्रमाणमें दिया है, उन पर विचार अगले अकोंमें किया जायगा।
'ज्ञानीके लिये ज्ञानोत्तर मृत्युपर्यन्त लोकसंग्रहके निमित्त द्वितीय श्रङ्क-निराकरण निष्काम-बुद्धिसे कर्म करते रहना फर्तन्य
-- है इस तिलक-मत पर आगे चलनेसे पहले हमको 'कर्तव्य' शब्द पर विचार कर लेना चाहिये । शास अथवा राजनीतिकी किसी प्रकारकी विधिरूप अथवा निषेधरूप श्राज्ञा (यह कर्म करो और यह न फरो) फे पालनके निमित्त
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साधारण धर्म] किसी मनुष्यको बन्धन करना 'कर्तव्य' कहलाता है। साथ ही शाख व राजनीति “उस आजाभनके परिणाममें किसी प्रकार के प्रत्यवाय, प्रायश्चित तथा दण्ड श्रादिका भी उस प्राजाके साथ-साथ विधान करते है जिससे वह व्यवहारमें बाती रहे । परन्तु जिस आज्ञाके साथ किसी प्रकारके प्रत्यवाय आदिका विधान नहीं उसके व्यवहारमे पानेकी सम्भावना भी नहीं और तब वह 'कर्तव्य भी नहीं कही जा सकती। तिलक महोदयने ज्ञानी के लिये मृत्युपर्यन्त लोकसंग्रहके निमित्त कर्मकी कर्तव्यता तो बनाई है, किन्तु उसके साथ ही कर्तव्यच्युतिके प्रतिकारमे किसी प्रमाणसे प्रत्यवाय व प्रायश्चितका विधान नहीं किया। ऐसे विधानके विना न वह कार्यकारी ही हो सकती है और न 'कर्तव्य ही रहती है, क्योकि वह अपने पालनके लिये कर्ताको किसी प्रकार बन्धन नहीं करती। तिलक- महोदयने अपने प्रत्य में मोक्षका कोई स्पष्ट स्वरूप वर्णन नहीं किया और न ज्ञानी का कोई स्पष्ट लक्षण ही किया है, जिससे यह सष्ट होता कि झानी मोक्षमार्गमे ज्ञान प्राप्त करके' किस सोपान पर है और इस कर्तव्यद्वारा 'उसको किस त्रुटिको पूरा करना है, क्योंकि बिना ही किसी उद्देश्यके तो आँखें धन्द किये अन्धेवाली लकड़ी हाँके जाना कोई बुद्धिमत्ता नहीं हो सकती। यह बात तो निर्विवाद है कि कर्ता बिना कर्तव्य नहीं हो सकता, अर्थात् मैं कर्मका कर्ता हूँ' प्रथम यह भाव जब कर्ताकी बुद्धिमें दृढ़, हो तब उसके उपरान्त ही 'यह मुझ पर कर्तव्य है और यह कर्तव्य नहीं' इस रूपसे विधि व निषेध दोनो उसकी गर्दन पर सवार होते हैं। दूसरे, लोकसेवा कर्तव्य तभी हो सकती है, जबकि 'संसारके प्रति सत्यत्व व स्थिरत्वबुद्धि बढ़ हो। रज्जु भुजेंडके समान संसारके प्रति कल्पित बुद्धि धार कर तो कर्तव्य बुद्धि
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[आत्मविलास चन ही कैसे सकती है और जब कर्ता-बुद्धि सत्य है, कर्तव्य सत्य है, विधि-निषेध सत्य है, ससार. सत्य है, तब फिर इस 'मोक्ष' को 'बन्ध' और इस 'ज्ञानी' को 'अज्ञानी' क्यों न कहा जाय ? मोक्ष किससे छाना है ? संसार से अथवा परमात्मा से ? परमात्मासे तो मुक्ति किसीको भी स्वीकार नहीं, छूटना संसार से ही है। यदि यह कहा जाय कि जन्म-मरणसे मुक्त होना है तो जन्म-मरण संसारके सम्बन्धसे ही है, संसारको सत्यरूपसे ग्रहण करके जब इसके साथ अहन्ता-ममता इस जीवात्माने बाँधी, तब कतृ त्व-भोक्तृत्वद्वारा ही यह जन्म-मरणके प्रवाहमें बहने लगा। ऐसी अवस्था में जब कि ससारके साथ इस ज्ञानी की इस प्रकार कर्तव्य-बुद्धि बनी हुई है, तब इसके लिये अभी मोक्ष कैसा १ इससे हमारा यह प्रयोजन नहीं कि इस प्रकार का निष्काम कर्तव्य मनुष्यके लिये पाप है। नही ! नही !! यह तो परम पवित्र है और इसके द्वारा तुच्छ स्वार्थ से छूटकर ज्ञानका अधिकार प्राप्त होता है, परन्तु यहाँ प्रसंग ज्ञानीका है। कर्ता-बुद्धि व कर्तव्य-बुद्धिका परस्पर सम्बन्ध है, अथोत् 'कर्ता' विना 'कर्तव्य' नही रह सकता और 'कर्तव्य' से मुक्त होने पर 'कर्ता' भी लय हो जाता है। कर्ता-धुद्धिसे किये गये कम चाहे फलाशारहित ही क्यों न हों, परन्तु फल अवश्य रखते हैं
और अपना फल भुगानेके लिये कर्ताको जन्म-मरणके बन्धनमें डालते हैं। चाहे उनका फल उत्तम है, परन्तु है अवश्य । यह विषय इसी लेख में 'कर्म-अकर्मका रहस्य' शीर्षकसे पीछे स्पष्ट किया जा चुका है।
पाठक इससे यह न समझ ले कि लोकसेवा हमारे मतसे निन्दित है। नही ! लोकसेवा एक पवित्र साधन है और सेवा । धर्म तो अपने स्वरूपसे ही सर्वोत्तम है तथा अपने व्यक्तिगत
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साधारण धर्म] स्वार्थसे आगे बढ़कर कुटुम्ब सेवा, जातीय-सेवा, देश-सेवा
आदिके रूपमें आत्मविकासके विस्तारका उत्तम मार्ग है, जिमकी चर्चा 'पुण्य-पापकी व्याख्या में विस्तारसं की जा चुकी है। यह वो रजोगुणको शुभ प्रवृत्तिद्वारा निकालकर निवृत्ति में आनेका आवश्यक माधन है। परन्तु 'यही फल है, इससे आगे और कुछ है ही नहीं यह वेदान्तको स्वीकार नहीं। वेदान्त फहता है, इसमेंसे होकर गुजरना तो पवित्र है परन्तु यही ढेरे न डाल दो । साधनको ही फल न मान लो, मजिल इससे आगे है इस लिये आगे बढ़नेका भी ध्यान रखो । और न यही हमारा प्राशय है कि ज्ञानी लोककार्यमें प्रवृत्त होता ही नहीं, बल्कि ऐसे महापुरुषोंद्वारा तो, जैसा नीतिमें रचा गया है, अनायास व स्वाभाविक बहुत कुछ लोककार्य हो सकता है। जिस प्रकार बचा पालने पड़ा हुआ स्वाभाविक अपने अङ्गको हिलाता है, अथवा वृद्ध पुरुष स्वाभाविक अपने होठोंको चबाता है, परन्तु किसी निमित्तसे नहीं, इसी प्रकार ऐसे पुरुषोंद्वारा बहुत कुछ कार्य सम्पादन हो जाता है, परन्तु किसी कर्तव्यरूप निमित्तसे नही । यहाँ पर प्रश्न ज्ञानीके साथ कर्तव्यका है। .
तिलक महोदयने गीतारहस्यके इसी प्रकरणमें कहा है कि स्वामी शङ्कराचार्यका यह सिद्धान्त है कि ज्ञानोत्तर संन्यास लिये विना मोक्ष नहीं मिलता । तिलक महोदयके यह वचन सर्वथा प्रमाणशून्य हैं । शङ्कर मतमें ज्ञानोत्तर साक्षात्कारवान ज्ञानी पर किसी प्रकार ग्रहण-त्याग, योग-सांख्य, विधि-निषेध, प्रवृत्ति निवृत्ति कर्तव्य नहीं हैं, वह तो सब प्रकार द्वन्द्वातीत होता है। बल्कि वेदान्त तो यह कहता है:
कृष्णो भोगी शुकस्त्यागी नृपो जनकराघवौ । , वसिष्ठः कर्मकता च पन्चैते ज्ञानिनः समाः ।
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[आत्मविलास
१८] अर्थात श्रीकृष्ण भोगी और शुकदेवजी त्यागी हुए, जनक और रामने राज्य किया तथा वसिष्ठजी कर्ममें प्रवृत रहे । इस प्रकार यद्यपि इन ज्ञानियों का व्यवहार विलक्षण रहा तथापि ज्ञान-ष्टिसे ये सब समान ही हुए हैं। अर्थात् ये सभी ग्रहण-त्याग विधि-निषेध और प्रवृत्ति-निवृत्तिसे रहित कर्तव्यमुक्त ही हुए है। ___ अजी | कर्तव्यरूप विधि तो अज्ञानदशामें संसाररोगकी विद्यमानतामें ही थी, रोग निवृत्त होनेपर श्रोपधिका क्या प्रयोजन ? नदीपार होनेपर नौकासे क्या प्रयोजन ? 'उत्तीणे तु परे पारे नौकायाः किं प्रयोजनम् ।' साख्य व योग आदि तो सीढ़ियाँ थी, छतपर पहुँच गये फिर सीढ़ियोसे क्या प्रयोजन ? ज्ञानियों के लिये प्रवृत्ति-निवृचि मार्गका विधान करके प्रवृत्ति-मार्गी ज्ञानियोंमें जिस जनकको तिलक महोदयने शिरोमणि रखा है, जरा पाठक उनका अनुभव भी सुन लें:मय्यनन्तमहाम्भोधौ जगद्वीचिः स्वभावतः । उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिन वा क्षतिः ।। अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम । अरण्यमिव संवृत्तं क रति करवाण्यहम् ॥ (अष्टावक्र-गीता) ___ अर्थः-मेरे अनन्त समुद्रस्वरूपमें संसाररूपी तरङ्ग उत्पन्न • हो चाहे अस्त हो, परन्तु मेरे ब्रह्मस्वरूपमें न कुछ बढ़ना है न
घटना । आश्चर्य है कि जनसमुदायमें भी (तरङ्गोंमें जल-दृष्टिकी परिपक्वता करके ) मुझे द्वैत कुछ भान नहीं होता, (बल्कि सारा संसार) मेरी दृष्टिमें धनके समान शन्य हो गया है। ऐसी अवस्थामें मैं कहाँ रति धारूँ।
थोड़ा ध्यान दीनिये, जनककी दृष्टिमें तो सारा संसार ही - वन हो गया है । जब संसार ही नहीं रहा और न जनक कर्ता ही
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[१६
साधारण धर्म] रहा, फिर बीचमें ही कर्तव्य कहाँने निकल पड़ा ? जनक तो अपने निश्चयमें संसाररूपी तरङ्गोंमें अपना विलास कर रहा है
और अपने स्वरूपमे कुछ होता नहीं देखता, दूसरे अपनी मंदष्टि से उसमें 'कर्ता' व 'कर्तव्य' की भावना पड़े किया करें।
तिलक महोयने गीतारहस्य पृ० ३२४.३२५ पर ज्ञानीके लक्षणों में मुंह खोला है तो यह-"अहकार छूटनेसे मैं मेराभाषा नहीं रहती इसलिये निर्मम ज्ञानी होता है, उसके बदलेमें 'जगत् व जगत्का' अथवा भक्ति-पक्षमे 'ईश्वर व ईश्वरका' यह शब्द आते हैं। वासना छूटनेसे ज्ञानीका यह भाव रहता है कि संसारके सब व्यवहार ईश्वरके हैं और ईश्वरने उनके करनेके लिये ही हमें रचा है।"
पाठक जरा ध्यान दें! उपयुक्त जनकके अनुभव तथा इस तिलक-अनुभवमें कैसा आकाश-पाताल जैसा अन्तर है ? अजी! जव अज्ञानजन्य अहङ्काररूप 'अहं ही ज्ञानद्वारा समूल लुप्त हो गया, तब 'मम' कहाँ रह जायगा ? अहं-त्वंरूप संसार तो बहकारका ही परिणाम है, जब अज्ञानरूप मूल ही न रही तो वृक्ष कहाँ ? यह ज्ञान खाली ढकोसला तो नहीं, कोरी कल्पना तो नहीं, जैसे शतरञ्जके खेलमें वजीर-वादशाहकी कल्पना कर ली जाती है। नहीं, नहीं, यह आत्म-ज्ञान तो नकद है उधार नहीं, सचमुच ज्ञानीकी दृष्टिमें संसार इसी प्रकार शून्य हो जाता है जैसा जनकने ऊपर वर्णन किया । बल्कि स्वयं भगवान् भी गीतामें ऐसा ही वर्णन करते हैं:या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः । (अ० २-६९)
अर्थ.-जो आत्मतत्त्व सब भूतोंके लिये रात्रिके समान अन्धकारमय है अर्थात् अज्ञात है, उसमें संयमी ज्ञानीपुरुष
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[आत्मविलास जागता है अर्थात् उसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है। और जिस संसारमें भूत-प्राणी जाग रहे हैं अर्थात् उसे सत्यरूपसे ग्रहण कर रहे है, वह संसार इस तत्त्वमें जागे हुए मुनिके लिये रात्रिके समान शून्य होगया है।
ज्ञानी और उसके साथ 'जगत् व जगत्का, 'ईश्वर व ईश्वर का' और 'ईश्वरने हमको जगत्के लिये उत्पन्न किया है' इत्यादि व्यवहार ! आश्चर्य । महान आश्चर्य । महोदयजी ! ज्ञानी स्वयं ईश्वर है । उसके आँखे खोलनेसे संसारकी उत्पत्ति और आँखें वन्द करनेसे संसारका लय स्वाभाविक होता है। वह कभी उत्पन्न नहीं हुआ वह तो नित्यस्वरूप है । स्वयं गीतामें ज्ञानीके अनुभव के सम्बन्ध में कहा गया है:नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्वविद । पश्यन्मृण्वन्स्पृशञ्जिघनश्ननगच्छन्स्वपन्श्वसन ।। प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिपनिमिपन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ (श्र.५. श्लो८.८)
अर्थःमैं साक्षीस्वरूप कुछ नहीं करता, इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंमें वर्त रही हैं, ऐसा तत्त्वसे जानकर ज्ञानी इन्द्रियोंके सब व्यवहार खाना-पीना, चलना-सोना, रोना-धोना इत्यादि करता हुआ भी अकता है । और अनेक श्लोक गीतामें इसी आशयको व्यक्त करनेवाले मिलते हैं यथा-अ० १८ श्लोक १७, अ०३ श्लोक २७
ज्ञानी न शरीर है न इन्द्रियाँ, न मन है और न बुद्धि । वह तो सबका साक्षी और सवका आत्मा है। जैसे इसी अध्याय ५. श्लो.७ मे कहा गया है।
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- [.२१
साधारण धर्म] सर्वभूतात्मभृतात्मा कुन्नपि न लिप्यते । अर्थात्:-'सर्वेपां भूतानां आत्मा भूतात्मा यस्यासौ. स सर्वभूतात्मभूतात्मा' अर्थ यह कि सब भूतोंकी आत्मा ही जिसकी अपनी आत्मा हो गई है, ऐसा पुरुष करके भी कमोंसे लेपायमान नहीं होता। उसकी दृष्टिमें तो सभी कुछ बनके समान हो जाता है, चाहे अज्ञानियोकी दृष्टिमें वह सब कुछ करता दिखलाई भी दे। ऐसी अवस्थामें उस अपरिच्छिन्नपर परिच्छिन्नरूप कर्तव्य कैसा?
धन्य है ! इस ज्ञानकी विचित्र महिमाको बारम्बार कोटिशः धन्य है !! जिसके प्रभावसे इतना विशाल ब्रह्माण्ड भी दग्धरज्जुके समान रह जाता है। जैसे जली हुई रस्सी आकारमात्र दिखलाई तो पड़ती है परन्तु बन्धनके योग्य नही रहती, इसी प्रकार यह संसार जिसकी ज्ञान-दृष्टिमें छुई मुईके समान रह गया है, जहाँ दृष्टि पड़ी वहीं इन्द्रियग्राह्य आकार दृष्टिसे गिर जाते हैं और एकमात्र साक्षी चेतन ही इष्टिमें समा जाता है । फिर भला वनलाइये,उसकी दृष्टि में जब समार इस प्रकार आकारहोन और तुच्छ रह गया, तब ऐसी अवस्थामें उसके अनुभवमें 'जगत्व जगत्का''ईश्वर व ईश्वरका' और 'ईश्वरने हमको संसार के लिये रचा है इत्यादि शब्द व अर्थ कहाँस पाएंगे? हा यह भाव निष्काम-जिज्ञासुके तो हो सकते हैं, न कि ज्ञानीके।
गीतामें कही एक पद भी ऐसा नहीं मिलता जिसमें 'ज्ञानी' शब्दके साथ 'कर्तव्य का प्रयोग किया गया हो, बल्कि ज्ञानीकी कर्तव्यमुक्तिमें तो यह स्पष्ट प्रमाण हैं:
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । प्रात्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ।।
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२२
[आत्मविलासे नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कथन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ अ. ३. श्लो १७, १८)
अर्थ-जिस मनुष्यकी अपने आत्मामें ही प्रीति है, जो श्रात्मामें ही हम है तथा श्रात्मामें ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता । इस संसार में इस पुरुपके लिये कुछ किये जानेसे प्रयोजन नहीं और न किये जानेसे भी कोई प्रयोजन नहीं रहता, क्योकि उसका सम्पूर्ण भूतोंमें किसी प्रकारका लगाव नहीं रहा, वह अपने साक्षीस्वरूपसे सर्वथा असग है।
आशय यह कि उसके लिये स्वरूप-जागृति प्राजानेसे न तो 'कुछ करना' ही कर्तव्य रहता है और न 'कुछ न करना, क्योंकि उसकी दृष्टिमें तो सब ससार स्वमवत् ही रह गया है, ऐसी अवस्थामें कर्तव्य कहाँ ? कर्तव्य तो उस समयतक ही था जबतक संसारको सत्-बुद्धिसे ग्रहण किया जा रहा था । तिलक महोदय ने ऐसे स्पष्ट शब्दोंकी भी खचातानी करके ज्ञानी के साथ कर्तव्य ही लोड़ा है। भगवान्जी ! सब कर्तव्य तो कर्तव्योंसे छुटकारा पानेके लिये ही थे, न कि कर्तव्यमें धाँध रखनेके लिये ही । सब बीज फल खानेके लिये ही थे नकि बोते रहने के लिये ही।
तिलक मतमें ऐसा वर्णन किया गया है कि ज्ञानोको निष्काम कर्म करते-करते मृत्युके पश्चात् मोक्ष मिन जाता है । इस , मतके अनुसार:
प्रथम तो ज्ञानीको अपने कर्तव्य-काँके साथ मोक्षरूपी स्वार्थ
लगा हुआ है कि इसप्रकार कर्म करनेसे हमारी मोक्ष होगी। जब मोक्षरूपी स्वार्थ है तब वह निरस्वार्थ नहीं और जब उसका अपने कर्तव्य-कोंके साथ स्वार्थ है तब वह निष्कामी
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[२३.
साधारण धर्म
पी नहीं, चाहे उसकी कामना परमार्थसम्बन्धी है परन्तु
कामना ही। द्वतीय इस मतके अनुसार मोक्ष नकद नहीं, बल्कि मृत्युके पश्चात्
उधार है, और प्रत्यक्ष नही किन्तु अनुमानजन्य है । जब जीतेजी मोक्ष न मिला और कर्तव्यके बन्धनमें घिसटते फिरे तो मरकर मोक्ष मिलेगा इसका क्या निश्चय किया जाय? क्योंकि अनुमानजन्य विषयोमें भ्रमका होना बहुत कुछ सम्भव है। जैसे दूर देशमें धूलि पटलरूप हेतुसे अग्निरूप साध्यका
अनुमान किया जाय, तो पक्षमें साध्य अगिकी प्राप्तिका । असम्भव ही रहता है । (अर्थात् दूरदेशमें धूल के बादलोमें
धूचॉका भ्रम करके हम अग्निका अनुमान करें तो हमारा वह अनुमान भ्रममूलक ही होता है।)
इसके विपरीत वेदान्त-सिद्धान्तमे तो ज्ञानी सब कामनाओं रे मुक्त है । जिसकी मोक्षकामना भी परमानन्दकी प्राप्तिद्वारा छुट जाय वही ज्ञानी है। साथ हो मोक्ष उधार नहीं, बल्कि नकद है। जिस प्रकार 'दशम' के ज्ञानसे दशम-पुरुष अपने-आपको उत्काल नकद पा जाता है, (इस विषयमे पीछे पृ.७,८ पर नाथा कह आये हैं) उसी प्रकार ज्ञानी ब्रह्म-ज्ञानसे अपने ब्रह्मवरूपको साक्षात नकद प्राप्त कर लेता है । गीता भी इसकी साक्षी देती है:इहैव तैर्जितः सों येषां साम्ये स्थितं मनः। निर्दोष हि समं ब्रह्म तस्मादब्रह्माणि ते स्थिताः ॥ (अ.५१६)
अर्थात् जिनका मन ब्रह्मरूप समत्वभावमें स्थित है, उनके द्वारा जीवित अवस्थामें ही संसार जीत लिया गया (अर्थात् वे
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[आत्मविलास
२४] जीतेजी ही मुक्त हैं), क्योंकि ब्रह्म निर्दोष घ सम है और उनकी उस ब्रह्ममें ही अभिन्न स्थति है।
वास्तवमें घात तो है यह कि वेदान्तमतमें 'परमात्माकी प्राप्ति और अज्ञानरूप कारणसहित ससारकी निवृत्ति' मोक्षका स्वरूप है। ब्रह्मज्ञानका फल परमात्माकी प्राप्ति नहीं, क्योंकि वह तो हमारा आत्मा होनेसे (जैसा पीछे 'दशम' के टान्तसे स्पष्ट किया गया है) नित्य ही प्राप्त है । तथा ससारकी निवृत्ति भी ज्ञानका फल नहीं, क्योकि रज्जुमें सर्पके समान ब्रह्ममें संसार कदाचित् हुआ ही नहीं, नित्य ही निवृत्त है । ऐसी अवस्थामें ब्रह्म-ज्ञानका फल है तो केवल यह कि अज्ञान करके जीवको ब्रह्मप्राप्तिरूप जो कर्तव्य बना हुआ था, ज्ञान उस अज्ञानको दूर करके कर्तव्यजन्य क्लेशसे छुटकारा दिला दे, यही ज्ञानका साक्षात् फल हो सकता है, अन्य कुछ नहीं। जैसे किसी मनुष्य की कताईमें कङ्कण हो, वह कलाईसे ऊपर चढ़ जाय और इससे उस मनुष्यको यह भ्रम हो जाय कि मेरा कङ्कण खोया गया ! मेरा कङ्कण खोया गया तब इस अज्ञानके साथ ही ककणकी प्राप्तिरूप कर्तव्य व कर्तव्यजन्य क्लेश उसके हृदयमें भर जाता है । परन्तु जब उसको किसी पुरुपके बोध करानेसे यह ज्ञान हो जाय कि कङ्कण मेरे हाथमें ही है, तब उसके कङ्कणका अज्ञान
और कङ्कणप्राप्तिरूप कर्तव्य दोनों ही निवृत्त हो जाते हैं । कक्षणज्ञानका फल कङ्कणकी प्राप्ति नहीं, वह तो पहले भी प्राप्त था, किन्तु कङ्कणप्राप्तिरूप कर्तव्यसे मुक्त कर देना, यही कङ्कण-ज्ञानका साक्षात् फल है । इसी प्रकार 'नित्यप्राप्त ब्रह्मकी प्राप्ति' ब्रह्मज्ञान का फल नहीं, किन्तु अज्ञानजन्य ब्रह्मप्राप्तिरूप कर्तव्यकी निवृत्ति ही ब्रह्मज्ञानका साक्षात् फल है । इसी लिये कहा गया है:
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साधारण धर्म] झानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः । नवाऽस्ति किंचित्कर्तव्यमस्ति चेन्न स तत्त्वविता (अष्टावक्र गीता)
अर्थान् ज्ञानरूपी अमृत करके तृप्न व कृतकृत्य योगीके लिये "किञ्चित भी कर्तव्य नहीं रहता । यदि कर्तव्य शेप है तो वह ज्ञानी नहीं।
इससे सिद्ध हुआ कि अज्ञानके विना कर्तव्य-बुद्धि नहीं होती। अतः जबतक कर्तव्य-बुद्धि है तबतक अज्ञान है। ।
मारांश, तिलक महोदयका यह मत कि.
(१) ज्ञानीके लिये मृत्युपर्यन्त निष्काम-बुद्धिसे लोककार्य । कर्तव्य है।
(२) बानोत्तर 'सांख्य' व 'योग' दो भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। (३) 'सांख्य' से 'योग' श्रेष्ठ है। (४) अथवा मृत्युके पश्चात् ज्ञानीको मोक्ष मिलता है।
सर्वथा असङ्गत है। ऐसा न युक्तिमे ही सिद्ध होता है और न प्रमाणसे । बानी नित्य-मुक्त है, जीता हुआ ही जीवन्मुक्त है, फिर उसके लिये एक अथवा दो मार्ग कहाँ १ और कर्तव्य कहाँ ?
अव तिलक-मतके तीसरे अङ्कपर कि 'यद्यपि प्रवृत्ति व तिलक-मतके तृतीय निवृत्ति दोनों मार्ग प्राचीन हैं, तथापि अङ्गका निराकरण । ( प्रवृत्तिरूप कर्मकाण्ड ही श्रादिसे है और स्थिर रहनेके लिये है, निवृत्ति-मार्ग पीछेसे उसमें धीरे-धीरे प्रवेश होने लगा'-विचार किया जाता है। ___ 'प्रवृत्ति-मार्ग आदिसे है। इसपर विचार करनेके लिये हमें मूलको ही पकड़ना चाहिये । सबकी मूल तथा सबका आदि
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२६]
[अात्मविलास 'ब्रह्म' है, उसके स्वरूपमें नो किसी प्रकार प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति का प्रवेश है नही, किन्तु वह तो प्रवृत्ति व निवृत्तिका मोक्षी, नित्यनिर्विकार, कूटस्थ व अचल है । किसी भी शासने उसके स्वरूपमें कोई विकार अङ्गीकार नहीं किया है, बल्कि गीता स्वयं उसके स्वरूपको 'अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते' ऐसा वर्णन करती है । अर्थात् यह आत्मा न इन्द्रियोंसे देखा जाता है, न मन करके चिन्तन किया जा सकता है, ऐसा यह विकाररहित कहा गया है । तथा गीता, २ श्लोक २० से २४ में भी प्रया ही वर्णन किया गया है। हाँ, प्रवृत्ति व निवृत्तिका प्रवेश प्रकृति के राज्यमें है, सो प्रकृतिका वास्तविक स्वरूप भी तीनों गुणोंकी साम्यावस्थारूप निवृत्ति ही है। प्रकृतिके वास्तविक स्वरूपमें भी प्रवृत्तिका अङ्गीकार नहीं बन पडता, बल्कि वह तो शान्त और निवृत्तिरूप ही है। हाँ, जब जीवोंके कर्मसस्कार फलोन्मुख होते हैं तब अवश्य प्रकृतिकी माम्यावस्थामे क्षोभ होकर तीनो गुणोकी विषमतारूप विकृतिमें प्रवृत्ति उत्पन्न होती है जोकि नित्य नहीं नैमित्तिक है, अर्थात जीवोंके कर्मफलभोगके निमित्तसे ही है। इस विकृतिका भी स्वाभाविक स्रोत कर्मफलभोगरूप निमित्तको निवृत्त कर उस क्षोभनिवृत्तिद्वारा प्रकृतिकी वही साम्यावस्थारूप निवृत्तिमें निवृत्त होनेके लिये ही है। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि जीवके स्थूल, सूक्ष्म व कारण तीन शरीर माने गये हैं। सुषुप्तिश्रवस्था कारणशरीर है, स्वप्नअवस्था सूक्ष्मशरीर है, और जाग्रत्भवस्था स्थूलशरीरसे सम्बन्धित है। अब इनमेंसे कारणशरीर जो सुषुप्तिअवस्था है, उसमें नो किसी प्रकार किसी प्रवृत्तिका असम्भव ही है, बल्कि वह तो निवृत्तिरूप शान्त अवस्था ही है । नित्य ही यह प्रत्येक प्राणीके अनुभवगम्य है, इस लिये इसमें किसी प्रमाणकी अपेक्षा नहीं है । प्रत्येक प्राणी
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माधारण धर्म ]
म्वानुमवसे इस विषयकी साक्षी देता है कि वहाँ सुषुप्ति अवस्था में कुछ भी नहीं था, केवल आनन्द ही आनन्द था, वहाँ न सूर्य या, न पृथ्वी आदि पञ्चभूत और न उनका कार्यरूप ब्रह्माण्ड । वहाँ न राजा राजा रहता है, न चाण्डाल चाण्डाल ही रहता है इत्यादि। यथा श्रुतिः
अत्र पिताऽपिता भवति मातामाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदा अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति भ्रूणहाडभ्रणहा चाण्डालोऽचाएडालः पोल्कसोऽपोल्कसः श्रमणोऽश्रमणः तापसोऽतापसः। (वृहदारण्यकोपनिषत् ४. ३. २३) __ आशय यह कि इस सुपुप्तिअवस्थामें सब भेदोका अभाव होकर केवल सबका अभेद ही शेप रहता है । इस अवस्थामें न माता माता रहती है और न पिता पितारूपसे शेष रहता है । यहाँ राजा राजा नहीं रहता और न देवता देवता ही रहते हैं। चाण्डाल चाण्डाल नहीं रहता और न हत्यारा हत्यारा ही रहता है। बल्कि इस अवस्थामें तो सबका ही अभेद रहता है। हाँ, जीवके कर्मसंस्कार जब फलोन्मुख होते हैं, तब उस निमित्त से यह प्राज्ञरूपी जीव सुषुप्तिअवस्थासे निकल कर स्वप्न व जाग्रतमें आता है और फलभोगरूप निमिचके निवृत्त होनेपर फिर उस सुपुप्तिअवस्थामें ही विश्राम करता है; यथा श्रुतिः
'स यथा शकुनिः सूत्रण प्रवृद्धो दिशं दिशं पतित्वा अन्यत्रायवनमलब्ध्वा बन्धनमेवोपश्रयते, एवमेव खलु सौम्य तन्मनो दिशं दिशं पवित्वान्यत्रायतनमलब्ध्वा प्राणमेवोपत्रयते, पाणवन्धनं हि सौम्य मन इति । (छां. उप. अ. ६ स्वं.)
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[आत्मविलास
अर्थ-जिस प्रकार पक्षी सूत्ररूप पेटीसे बँधा हुआ दिशा-दिशा मे भ्रमण कर अन्यत्र सहारा न पाकर अपने बन्धनक ही श्राश्रय स्थित होता है, इसी प्रकार हे सौम्य ! वह मनोपाधिक श्रात्मा (जीव) जाग्रत-स्वप्न दिशाओमे भ्रमण करता हुआ अन्यत्र विश्राम न पाकर सुषुप्ति उपाधिवाले प्राण (पान) के ही प्राथय स्थित होता है। क्योंकि हे सौम्य ! जीव प्राण (ब्राह्म) आश्रयवाला ही है। अर्थात सुपुति-अवस्थामे प्राण (ब्रह्म) में देह, इन्द्रिय, मन व बुद्धि सवका ही लय हो जाता है। उस समय मन सम्पूर्ण संस्काररूपी सामग्रीको लेकर उसीमे लीन रहता है।
जीवकी इन अवस्थात्रयके अनुभव-प्रमाणसं अन्य किसी प्रमाणकी अपेक्षा धिना, उपयुक प्रकृति व विकृतिका स्वरूप भली-भाँति प्रमाणित हो जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि प्रवृत्ति का न ब्रह्माण्ड-प्रकृतिके वास्तव स्वरूपमे ही प्रवेश है और न जीव-प्रकृति सुपप्ति-अवस्थामे, केवल प्रकृतिको विकृति-अवस्था
और जीवकी जाग्रत्स्वा अवस्थामें ही भोगरूप निमित्त करके प्रवृत्तिका क्षोभ उत्पन्न होता है और भोगरूप निमित्तको भुगाकर फिर त्रिगुणोकी साम्यावस्थारूप प्रकृति अर्थात् सुपुमि अवस्थामें निवृत्त हो जाना ही उस प्रवृत्तिका उद्देश्य है। यदि प्रवृत्ति आदिसे होती तो ब्रह्माण्ड-प्रकृति और जीव-प्रकृतिक वास्तव स्वरूपमें भी उसका पता मिलना चाहिये था, परन्तु ऐसा तो नहीं देखा जाता। इस लिये यह सिद्ध हुआ कि प्रवृत्ति नित्य नहीं बल्कि नैमिचिक है।
जिस प्रवृत्तिको आदिसे नित्य बतलाया जा रहा है, अब देखना यह है कि वह प्रकृतिके किस गुणका परिणाम है। इस विषयकी जिज्ञासा होने पर गीता स्वय हमको रजोगुणके लक्षण वर्णन करते हुए य बतलाती है:
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साधारण धर्म ]
: लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्ध भरतर्षभ ॥(अ. १४. १२.)
अर्थ:-हे अर्जुन ! रजोगुणके बढ़नेपर लोभ, प्रवृत्तिका प्रारम्भ और कर्मोमे शमन न होनेवाली स्पृहा उत्पन्न होती है।
सत्त्वगुणकी वृद्धि प्रकाश तथा ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, (गी. अ. १४ श्लो. ११) और तमोगुणकी वृद्धिमें श्रप्रकाश, प्रवृत्ति का अभाव, प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं (गी. अ. १४, १३) । इससे सिद्ध हुआ कि प्रवृत्तिका प्रवेश न सत्त्वगुणमे ही हैं और न तमोगुणमे, किन्तु तमोगुण व सत्त्वगुणके मध्यवर्ती रजोगुण में ही इसका प्रवेश है। अर्थात् रजोगुणकी उत्पत्तिले पूर्व भी प्रवृत्तिका अभाव है और रजोगुण-शमनके पश्चात् भी उसका अभाव है, केवल रजोगुणकी विद्यमानता मध्यवर्ती कालमे ही प्रवृत्ति है । जो वस्तु न आदिमे पाई जाय और न अन्तमे, उसको आदिसे होना कैसे कहा जा सकता है ? अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । ,अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।। (गी.अ. २,२८)
अर्थ है भारत ! सर्व भूत-प्राणी अपनी उत्पत्तिसे पूर्व अव्यक्तरूप (अर्थात् इन्द्रियादिके अविषय निवृत्तरूप) है और अपने नाशके पश्चात् अव्यक्तरूप (निवृत्तरूप) ही रहते है, केवल मध्यकालमें ही व्यक्तरूप (प्रवृत्तरूप) भान होते है, फिर इस विषय मे रुदन कैसा ? आशय यह कि जो वस्तु केवल मध्यकालवी ही हो वह तो रज्जु-सपके समान भ्रमस्य ही है। इसी प्रकार । यह प्रवृत्ति भी आदि व अन्तके विना केवल मध्यकालवर्ती होने . 'से यथार्थ नहीं, मिथ्या ही है।
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२०
[श्रात्मविलाम __ इस सिद्धान्त अनुसार प्रत्येक प्रवृत्तिका फल केवल निवृत्ति ही है। स्थूलादि तीनों शरीर और जाग्रहादि तीनों अवस्था भी निवृत्त होनेके लिए ही हैं। बाल, युवा व वृद्धावस्था निवृत्त होने के लिये हैं। क्षुधा-पिपामा, राग-द्वप और सुख-दुःखादि द्वन्द्व निवृत्त होने के लिये है। ममता के विषय धन-पुत्रादि सभी पदार्थ निवृन होनेके लिये हैं। दिन, रात, पन, मास, ऋतु, सम्वत व युगादि काल निवृत्त होनेक लिये हैं। ब्रह्मा व इन्द्रादि देवता
और मप्तऋपि इत्यादि मभी निवृत्त होनेके लिये हैं। मारांश, सम्पूर्ण देश, काल व वस्तु निवृत्त होने के लिये ही हैं। जायते, अस्ति, पद्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति इन पड़ विकारोसे युक्त यह संसार निवृत्त होने के लिये ही है। कहाँतक कहा जाय, अन्ततः पड विकार भी निवृत्त होनेके लिये ही हैं तथा जन्म-मरण व प्रवृत्ति-निवृत्ति भी निवृत्त होनेके लिये ही है । मारा संमार ही जब निवृत्तिके लिये सिद्ध हुआ और प्रवृत्ति निवृत्ति भी निवृत्ति के लिये सिद्ध हुई तो फिर कर्मप्रवृत्ति को अनादि मिद्ध करना कितना आश्चर्यजनक हो सकता है ? पाठक म्वयं ही इसपर ध्यान देगे। बाबा आम्रफल वृक्ष में प्रवृत्त होकर और पककर निवृत्त होनेके लिये है। इसी प्रकार प्रत्येक प्रवृत्तिका स्वभाविक स्रोत निवृत्तिकी ओर ही दौड़ रहा है। प्रकृतिके राज्यमे कोई भी ऐमा इष्टान्त नही मिलता जो स्थिर प्रवृत्ति के लिये ही मिद्ध होता हो, फिर ऐसा कथन करनेका माहस क्या किया गया. यह समझ नहीं आना। 'कर्मद्वारा प्रकृति की निवृत्तिमुग्वीनता' शीर्षकमे यह विषय इसी प्रन्थम स्पष्ट किया जा चुका है। ब्रह्मलीन श्रीस्वामी रामतीर्थजी के वचनानुसार कि 'समाष्टि ब्रह्माण्ड जिस नियमके अधीन चल रहा है, एक प्रेमीकी आँखसे एक आँसुकी यह गिरनेमे भी उसी. नियमका राज्य है।' इसी निवृत्तिमुम्ब देवीनियमके अनुसार
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साधारण धर्म ]
अर्जुनके हृदयमे जिमके निमित्तसे गीता अवतीर्ण हुई, अट्ठारह अक्षौहिणी सेनाकै बीचमें वही त्यागकी विद्युत् कड़क गई, जिसके प्रभावसे न जातीय-अभिमान रहा, न गाण्डीय-धनुषका गौरव
औरन भगवान्के ये वचन ही कुछ काम कर सके कि "हे अर्जुन! महारथी लोग तुझको वैराग्य करके नहीं, किन्तु भय करके ही रपसे उपराम हुआ जानेंगे, जिनके मध्य बहुमान्य होकर भी तु लघुताको प्राप्त होगा और तरी अविनाशी अपकीर्ति के गीत गाये जायेंगे । माननीय पुरुपोके लिये तो अपकीर्ति मरणसे भी अधिक है।" (श्र. २. शो. ३४, ३५) । वही अजुन यो भोक्तुं भक्ष्यमपीढ़ लोक' (अथान् इस हत्यारे राज्यकी अपेक्षा तो इस लोकमे भिक्षावृत्ति भोगना ही उत्तम है) के लिये तैयार होगया । इसी नियमके श्रावेशमे आकर उस वीर पुरुषको विपाद काक
आँसुओंकी नदी बहानी पड़ी । (गी. अ, १ श्लो. ४५.४६. व अ. २ श्रो. १) अरे अभागे दैवानियम | विचारे अजुनपर बुरी ठौर कुसमयमें निशाना मारा !! जरा तो देश, काल व पात्रका विचार किया कर, इतनी आजादी तो तेरे लिये भली नही !!!
आरिबर और कोई चारान देख उस वीर अर्जुनको सखाभावकी तिलाखली-ढे गुरुभावसे भगवानकी शरण लेनी पड़ी, 'कृपणता करके मेरा क्षत्रियस्वभाव नष्ट हो गया है , इसलिये मेरे लिये जो कल्याणकारी हो वह निश्चयस कहिये । मैं आपका शिष्य हूँ मुझे उपदेश कीजिये । (अ.२ श्लो. ७) । इस अवसरपर कठोर नियमने अर्जुनके चित्तको ऐसा तपाया कि भूमिका निष्कण्टक राज्य तो क्या, देवलोकका स्वामित्व भी उसके इन्द्रियदाहक शोक को दूर न कर सके (अ २ श्लो.) ! लोहा गरम हुए बिना सो चोटे सार्थक हो कैसे सकती हैं ? इस प्रकार 'न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनेक्रेऽमृतत्वमानशा अर्थात अमृतत्वकी प्राप्ति
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[आत्मविलोम न कर्मसे हो सकती है, न सन्तानसे और न धनमे, एकमात्र लागसे ही वह भोगा जा सकता है। जब मोलह आने अर्जुन पर यह कानून प्रभावित होचुका तब ही वह भगवानके उपदेशका पात्र हुथा। परन्तु अन्दर रजोगुण या हुअा रहनेके कारण उम गीताज्ञानप्राम अर्जुनको युद्धम ही जुडना पड़ा और जब युद्धद्वारादबाहुअा रजोगुण निवृत्त हो गया तब वह ज्ञानी-अर्जुन ही हिमालयकी ओर ऐसा झपटा कि वह गया। वह गया!! वह गया ।|| ज्ञानी-अर्जुन तब न तिलक महोदयके इस अनुभवकी साक्षी ही दे पाया कि प्रवृत्ति ही आदिसे है और स्थिर रहनेके लिये है और न समूचे तिलकमतको ही सार्थक कर पाया कि 'जानीको मरणपर्यन्त लोककार्य कर्तव्य है। जिसके लिये गीता अवतीर्ण हुई, वही स्वय जब निलकमतका विरोध करे तो हम किसी औरको क्या कहे ? अजी ज्ञानी-अर्जुनके लिये जय कि निष्कण्टक-राज्य प्राप्त होगया था और कोई विरोधी रहने पाया ही नहीं था, तब लोककार्य करनेका सुअवसर तो अव प्राप्त हुआ था। इससे पहिले तो न वह ज्ञानी हो था और न घरेलु झंझटोंने ही उसे दम लेने दिया था। परन्तु क्या करे? जब स्टीम ही खलास हो गई तय एजिन कैसे चले ? रजोगुण ही न रहा तब प्रवृत्ति कैसे हो ' अजी । यह देवी-विधान बड़ा कठोर है, निर्दयी है । इसको किसीपर दया नहीं आती। चाहे कोई लाख कहे, कठोर कहे, निर्दयी कहे, परन्तु यह सत्यकी स्टीम तो दवाये दवती ही नहीं।
नहीं छुपती छुपाये वू छुपाओ लाख पडदों में।
मजा पडता है जिस गुल पैरहनको बेहिजाबी का ॥ त्याग (अर्थात् परमात्मा) ही सत्य हैं ! त्याग ही सत्य है !! इसको कोई दवाना चाहे यह कब दव सकता है? इसके विपरीत जो
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साधारण धर्म ] 'ग्रहण (अर्थात् संसार) की सत्यताके गीत गा रहे हैं, वे मर मिटेंगे, कुचले जायेंगे और अन्ततः मरकर भी, 'राम-राम सत्य है ! राम-राम सत्य है !!" पुकारना ही पड़ेगा। परन्तु मरे हुए मुरदेकी पायुको घृतलेपनसे क्या लाभ ? जीते-जी ही पुकरो, जिससे मरना ही न पड़े।
सरांश, तिलक मतका तीसरा अङ्क कि 'प्रवृत्ति आदिसे है और स्थिर रहने के लिये हैं। किसी प्रकार अनुभवानुसारी नहीं।
अब हम तिलक-मतके चतुर्थ अङ्कपर पाते हैं। फुटकल तिलक मतके चतुर्थ ) संन्यास-मार्गियोंकी इस उक्तिको उद्देश्य श्रतका निराकरण करके कि 'गीतामें अर्जुनको चित्तशुद्धिके लिये कर्मका उपदेश दिया गया है, क्योकि उसका अधिकार कर्मका ही था, परन्तु सिद्धावस्थामे तो कर्मत्याग ही भगवानका मत है भगवान तिलक सुब्ध हो गये हैं और कहते हैं-"हां, इसका भावार्थ यह देख पड़ता है कि यदि भगवान कह देते, 'अर्जुन ! तू अज्ञानी है तो वह नचिकेताके समान पूर्ण ज्ञानका आग्रह करता, युद्ध न करता और इससे भगवान् का उद्देश्य विफल जाता। मानो अपने प्रिय भक्तको धोका देने के लिये गीताका उपदेश किया गया। इस प्रकार अपने मत का समर्थन करनेके लिये जो भगवान्को भी धोखा देनेका दोष लगाते है, उनसे तो कुछ वाद न करना ही अच्छा है।" .
'अपने प्रिय भक्तको धोखा देने के लिये गीताका उपदेश किया गया भगवान ऐसा न करते तो अर्जुन युद्ध न करता । और उनका उद्देश्य विफल जाता । ऐसा भावार्थ उन संन्यास
मार्गियोंका तो नहीं हो सकता, और न ही कोई विचारवान् ।
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[आत्मविलास
३४] आस्तिक पुरुष उनके कथनका ऐसा भावार्थ निकालनेका साहस कर सकता है, तिलक महोदयके भावोद्गारका फल ऐसा भले ही हुआ करे। उन सन्यास-मार्गियोंके कथनका तात्पर्य तो यह हो सकता है कि “यह संसार मायामय है, एकरस कोई पदार्थ नहीं रह सकता। इस संसारमें असंख्य जीव हैं जिनकी कोई गिनती नहीं कर सकता, परन्तु सारे समाग्में ढूँढ देखिये, ऐसे कोई दो जीव नहीं मिलेंगे जो प्राकृतिक प्रकृत्तिमे एक जैसे हो । एक कारीगर किसी वस्तुका दस्तकार है और नित्य ही वह अपनी दस्तकारीका काम करता है। एक साधारण चटाई बनानेवालेको ही ले लीजिये, परन्तु अपने जीवनभरमें वह ऐसी दो चटाई कभी नहीं निर्माण कर सकता जिनकी सर्वांगमें समता हो सके। मायाके राज्यमे तो भेद स्वाभाविक ही है, इसी नियमके अनुसार जीव-जीवकी आकृति भिन्न-भिन्न है, प्रकृति मिन्नभिन्न है, रुचि भिन्न-भिन्न है, अधिकार भिन्न-भिन्न है, रोग भिन्नभिन्न है और औषधि भिन्न-भिन्न है। सारे संसारमें सत्त्व, रज व तम गुण तो नीन ही हैं, पर इन तीनोका परिवर्तन, मात्रा और परिमाण प्रत्येक प्राणीमें भिन्न-भिन्न है । इसीलिये प्रत्येक रोगीके लिये प्रोपविका भेन, मात्राभेद, अनुपानभेद और पथ्यभेट होना जरूरी है। जो वैद्य सभी रोगियोंपर एक ही जमालघोटा और वह भी एक ही मात्रामें वर्तता रहे, वह कभी सफल नहीं हो सकता और उसका अपने रोगियों के लिये भयङ्कर होना आवश्यक है।" उपयुक्त संन्यास-मागियोंकी दृष्टिसे भगवान एक ऐसे भयङ्कर वैद्य नहीं थे। उन्होंने अर्जुनके संस्कारोंका भली-भाँति निरीक्षण किया और जाना कि यद्यपि यह मीठी-मीठी बातें वैराग्यकी कर रहा है 'अ यो भोक्तुं भक्ष्यमपीह लोके' के गीत गा रहा है, परन्तु रजोगुण अभी इसके हृदयमे भरपूर है, वह
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साधारण धर्म] इसको टिकने न देगा। इस लिये उसको फर्ममें ही प्रवृत्त किया गया और गीता के अन्तमें स्पष्ट कह दियाः--
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे । 'मिथ्यष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।। (अ. १८,५६)
अर्थान् अहंकारके वशीभूत हुआ जो तू ऐसा मानता है कि 'मैं युद्ध न करूंगा' यह तेरा मिथ्या निश्चय है, क्योकि तेरी प्रकृति तुमे वरवश युद्ध में जोड़ देगी। । परन्तु उद्धयको, जिसके अन्दर रजोगुण था ही नहीं, कर्म में प्रवृत्त कैसे किया जाता ? उसके लिये तो शुरूसे ही त्याग की महारनी पढ़ी गई । (देखो श्रीमद्भागवत् एकादश स्कन्ध कृष्ण-उद्धव सम्बाद अ.६ से २८) और अन्तमें कहा गया कि इस बानको अपरोक्ष करनेके लिये तुम बद्रिकाश्रममे जाओ, वल्कल-वस्त्र धारण करों और कन्द-मूल आहार करके तप करो इत्यादि । गीताके कृष्ण और भागवतके कृष्ण दो तो थे ही नहीं, यह वार्ग तो तिलक महोदयको भी स्वीकार ही होगी। यदि सारे संसारमें सब जीवोंके लिये कर्मयोग ही एकमात्र भेपज है तो उद्धवको छूटते ही त्यागका उपदेश क्या किया गया? तिलक मतके अनुसार यदि कर्मयोग ही एक ओपधि थी तो अपने महाप्रयाएके समय श्रीकृष्ण अवश्य अपने अत्यन्त प्रिय भक्त उद्धवको धोखा दे गये और अपनी चालाकीसे नहीं चूके। परन्तु नहीं जी! धोखे चोखेकी बातें जान दो। वास्तवमें अपनी विपरीत भावना करके अपना आप ही अपनेको धोखा देता है, जब कि हम संसारके किसी पदार्थको अथवा मत-मतान्तर व पन्थ-पन्थाईको सत्यं मान बैठते हैं और दूसरोम द्वेष करके विप उगलने लगते हैं, दूसरा तो कोई धोखा देनेवाला है ही नहीं।
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[आत्मविलास
३६] वेदान्तका किसीसे द्वप नही, वेदान्त अपने सबको अवकाश देता है और सबका सदुपयोग करता है। वैद्यका तो काम यही है कि रोगीके अधिकारका भली-भाँति निर्णय करके उसको मार्ग पर डाल दे, फिर प्रकृति आप अपना काम करेगी और आप ही प्रवृत्तिसे निवृत्तिमें उठा ले जायगी। अजी । गुरुका काम तो इतना ही है कि शिष्यके चित्तको भली-भाँति टटोलकर जिधरसे पानीके निकासका मार्ग दीख पड़े, उधर पानीको निकलनेका मार्ग खोल दे फिर पानी आप ही अपनी गतिमे निचानकी ओर चलता हुआ समुद्रमे मिलकर अपने नाम-रूपको मिटा देगा। यथा नद्यः स्पन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।
(मुण्ड. उप ३, २,८) अर्थात् जिस प्रकार नदियाँ बहती हुई समुद्रमे लय होकर अपने नाम-रूपको मिटा देती हैं, इसी प्रकार विद्वान् नामरूप से छूटा हुआ परात्पर दिव्यपुरुष परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
हाँ सिद्धान्त यह अवश्य है कि ज्ञनोपदेशसे पूर्व अधिकारीका हृदय तीव्रतर वैराग्यकी अग्निमें खूब तपा हुआ होना चाहिये। यदि संसारके प्रति थोड़ा-सा भी राग है तो उपदेश सफल होनेकी आशा नहीं की जा सकती । जिस प्रकार लोहा यदि ठडा है तो उसपर छोड़ा हुआ जल उसके अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता, इधर-उधरको ढुलक जायगा और यदि वह तप कर लाल होगया है वो फिर क्या मजाल जो पानीकी एक बूंद भी इधर-उधर चली. जाय, पानीका लोहेसे स्पर्श हुआ कि झट गायब । इसी प्रकार अधिकारीका चित्त भी तपा हुआ हो तो गुरुके बचनोको ऐसा शोपण कर जायगा, जैसे हंस दूधको पानीमेसे। यह सिद्धान्त
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- [३७
साधारण धर्म]
सवपर लागू है चाहे कर्मकाण्डी-अर्जुन हो चाहे जनक । एक बार तो इसको धर्म-कर्म सभीकी बलि लेनी ही है । इस सिद्धान्त की सत्यतामें अर्जुनके लिये तो स्वयं गीता प्रमाण है ही। (देखो गीता श्र. २ श्लो. १ व श्लो ४ से)। इसी प्रकार जनकको भी यह बलि देनी पड़ी कि अनायास सिद्धोंकी गीता श्रवण कर उसका निर्मल अन्तःकरण तप गया । (देखी योगवासिष्ठ, उपशम प्रकरण, सिद्ध-गीता और जनक-विपाद सर्ग )। यह बात दूसरी है कि अर्जुन और जनकको बहुत काल इस वैराग्यकी अग्निमें तपना न पड़ा, क्योकि वे पूर्व जन्मके योगभ्रष्ट थे और इस मञ्जिल मेंसे वे पहले लगे हुए थे। तथापि ज्ञानसे पूर्व इस मखिलमेंसे होकर निकलना उनको भी आवश्यक था, चाहे . इसमें उनको रुकना न पड़ा। स्वामी रामतीर्थनीने अमेरिकाकी एक प्रदर्शनी में देखा कि बीके बदरमें गर्म प्रवेश होकर नौ मासके अन्दर वह बड़ी शीव्रतासे लाखों रूपोमें बदलता है कभी चूहा, कभी बिल्ली, कभी कुत्ता, इत्यादि । कहा गया है कि लगभग ८४ लाख रूपोंमेंसे उस गर्भको निकलकर फिर मनुष्यकी प्राकृति प्राप्त होती है। गर्भकी उन भिन्न-भिन्न ' योनियोंकी आकृति उस प्रदर्शिनी में दिखलाई गई थी। ठीक, इसी प्रकार योग-भ्रष्टको भी धर्मकी इन भिन्न-भिन्न कोटियोमेस लँघना ज़रूरी है, चाहे इनमे रुकना न पड़े।
"
" इसी सिद्धान्तके अनुसार जब भगवानले अर्जुनको तपा हुआ देखा तो अपने वचनामृतकी वर्षा उसपर करना ज़रूरी समझा। अपनी विचित्रयुक्तियोंसे जब उन्होंने अर्जुनको अपने वास्तविक स्वरूपका बोध करा दिया और जब उसका अपने व्यक्तिगत. शरीरपरसे कब्जा उठ गया, तव उसकी अपनी दृष्टिमें न कम रहा नाअकर्म, न योग रहा न सांख्य, न वह
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[श्रात्म विलास
३८] फर्ता रहा न भोक्ता और न भोग्य-संसार ही उसकी दृष्टिमें शेष रहा । दूसरे भले ही अर्जुनमें यह सब उपाधियाँ आरोपण किया करें, परन्तु अर्जुन तो फिर इन मश्र उपाधियोंका साक्षी और इन सबसे दूर खड़ा था। जैसे इन्द्र-धनुपमे देखनेवाले भले ही विचित्र-विचित्र रंगोंको देखा करें, परन्तु वह तो अपनी दृष्टि में सब रंगोंसे रहित होता है। इमी प्रकार अर्जुन तो तव शरीरद्वारा सब कुछ करता हुआ भी अपने नाती-स्वरूपसे कुछ भी न करता था, बल्कि सर्वथा अकर्ता और असग था तथा शरीरद्वारा कुछ न करता हुआ भी अपनी सत्ता-स्फूर्तिद्वारा सब कर्ता-धर्ता वही था (गी. अ. ४-१८) । वास्तवमें गीताका प्रतिपाद्य विषय है तो बस इतना ही। इमस भिन्न प्रवृत्तिरूप निष्काम कर्मयोग नगीताका विषय है और न निवृत्तिरूप सांख्य । ये दोनों प्रवृत्ति (योग) व निवृत्ति (सांख्य) तो मार्ग है न कि उद्दष्ट स्थान ।
अब हम तिलक-भवके पाँचवें अपर पाते हैं। इस अङ्क तिलक-मतके पचम ) में हमारे लिये जो विचार कर्तव्य है, अलका निराकरण (वे ये हैं।
(अ) 'योग' शब्दका क्या अर्थ है ? और 'योग' शब्द गीतामे
निष्काम कर्मके अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है अथवा अन्य
अर्थमें भी ? तथा मुख्य अर्थ 'योग' शब्दका क्या है ? (आ) कर्म किसको कहते हैं। (६) भिक्षावृत्ति, जिसको तिलक महोदयने निर्लज्जतामूला
कर्म वर्णन किया है, क्या यह उनका विचार धर्मव मर्यादाको स्थिर रखनेवाला है ? और क्या वह वस्तुर निर्लज्जतामूलक कर्म है ? ..
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[३६
साधारण धर्म] (३) अनासक्त-व्यवहारिक-कर्म मन अधिकारियों के लिये एक ', ही प्रकारका होना चाहिये अथवा अधिकारानुसार उनका
भेद हो सकता है ? और किसी अधिकारपर 'जहाँ उन ___ काँका त्याग प्रत्यवायरूप हो सकता है. वहाँ अन्य
अधिकारको प्राम करके उन कोंका आचरण भी प्रत्या
वायरूप हो सकता है वा नहीं ? अब इन चारों विकल्पोपर भिन्न-भिन्न विचार किया जाता है:
. (अ) 'योग' शब्दका सामान्य अर्थ 'जुड़ना' 'मिलाप पाना' है। धर्मसम्बन्धमे जब 'योग' शब्दको प्रयोग होता है, तब वह चेष्टा जिसके द्वारा परमात्मामे चित्तको लगाव हो, 'योग' शब्दसे निरूपण की जाती है। इस प्रकार अधिकारभेद व साधनभेदमे योग अनेक प्रकारका वर्णन किया गया है। जैसे कर्मयोग, ध्यान-योग, भक्ति-योग, जप-योग, तप-योग, दान-योग, नान-योग, हठ-योग इत्यादि । ,अपने अधिकारानुसार जो अधिकारी जिस साधनद्वारा परमात्माके मम्मुख हुआ है, वह उसी 'योग" का योगी है । सांसारिक कामना न रख जो चेष्टाएँ केवल ईश्वरप्राप्तिरूप निमितसे आचरणमे लाई जाएँ वे सब 'योग' शब्दके अन्तर्गत आ जाती हैं, परन्तु गीतामें मुख्यतया 'योग' के 'नान-योग' और 'कर्मयोग' भेदसे दो ही भेद किये गये हैं। यथाःलोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानध। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।। (अ. ३. ३.)
अर्थात् इस लोकमें हैं निष्पाप अर्जुन ! मेरे द्वारा पहले दो प्रकारकी निष्ठा कही गई हैं, एक सांख्योंकी ज्ञान-योगसे और दूसरी योगियों की कर्म-योगसे।"
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४०]
[आत्मविलास
ज्ञान-योगसे भिन्न और जितने प्रकारके योग कहे गये हैं, वे सब कर्म-योगमें गणना करने योग्य हैं, क्योंकि वे सब या तो शारीरिक क्रियारूप हैं या मानसिक-क्रियारूप । इसलिये क्रियारूप होनेसे सब ही कर्म-योगके अन्तर्गत हैं । चित्तके निश्चयका नाम 'निष्ठा' है। जैसा जिसके चित्तका निश्चय है और
जैसा जिसके चित्तका प्रवाह है, वैसी ही उसकी निष्ठा है । लोक में भी ऐसा ही प्रसिद्ध है, जैसा जिसके चित्तका प्रवाह होता है वैसी ही उसकी निष्ठा कही जाती है। जैसे कहा जाता है कि अमुक पुरुषकी निष्ठा संसारमें है, अमुकको धर्म में, अमुककी कर्ममें, अमुकको ध्यान व ज्ञानमें इत्यादि, निष्ठा चित्तका धर्म है । ___ 'योग' शब्द गीतामे केवल निष्काम कर्मके अर्थमें ही प्रयुक्त नहीं हुआ और न निष्काम-कर्म गीता-दृष्टि से 'योग' शब्दका मुख्य अर्थ है । 'योग' शब्दका मुख्य अर्थ गीतामें वह मिद्धावस्था है, जहाँ तत्त्वसाक्षात्कारद्वारा अपने आत्माका परमात्मासे मेल हो जाय, अभेद हो जाय । जहाँ देहाभिमान गलित होकर कई त्व-अहंकारसे छुट्टी मिल जाय और 'सर्व मैं ही हूँ' की अभेद-भावना करके भेद-भावना भाग जाय । यही अवस्था 'योग' शब्दका मुख्घ अर्थ है, गीताने स्वयं इस विषयको यू स्पष्ट किया है:सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । वेति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ।। यं लन्ध्या चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । यस्मिन्स्थितोन दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ . तं विद्याइदुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् । सनिश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विएणचेतसा ।। ६ श्लो २१-२३
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[४१
साधारण धर्म] __ अर्थ:-जो आत्यन्तिक सुख इन्द्रियोंसे अतीत केवल (सूक्ष्म) बुद्धिद्वारा ही ग्रहण करने योग्य है, जिस अवस्थामें उसको अनुभव करता है और जिसमें स्थित हुश्रा भगवत्स्वरूपमे चलायमान नहीं होता, जिसको पाकर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ पानेयोग्य नहीं मानता और जिसमें स्थित हुआ महान दुःखसे भी चलायमान नहीं होता, दुःखसंयोगसे रहित उस स्थितिकी 'योग' संज्ञा जाननी चाहिये । तत्पर हुए चित्तसे वह 'योग' निश्चयपूर्वक उपार्जन करने योग्य है।
इसी अध्यायमें आगे चलकर इसी तत्त्वज्ञानीकी 'योग' रूपसे प्रशंसा की गई है और श्लोक २६, ३०, ३१, ३२ में कहा गया है कि 'योगसे जिसका आत्मा युक्त है, ऐसा सर्वत्र समदर्शी पुरुष सर्वभूतोंमें स्थित अपने आत्माको और सर्च भूतोंको अपने
आत्मामें समान रूपसे देखता है । (गी. अ. ६ श्लो. २६)। ___ 'जो मुझको सर्वत्र देखता है और सर्वको मेरेमें देखता है, उसके लिये न मैं अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिये अदृश्य होता है। (गी. अ. ६. ३०)।। ___ 'जो सर्वभूतों में एकीभावसे स्थित मुझ परमात्माको (समताघष्टिस) भजता है, वह योगी सर्व प्रकार वर्तता हुआ भी मुझमें ही रम रहा है ।। (गी. अ. ६ श्लो ३१)।। ___ हे अर्जुन! अपनी उपमा करके (अर्थात् जैमी अपने शरीरमें
आत्मदृष्टि है, वैसी ही सर्वभूनोंमें श्रात्मदृष्टि रखनेवाला) जो सर्वत्र समान रूपसे देखता है, चाहे सुख हो चाहे दुःख हो सर्व सुख-दुःखोंको जो आत्मरूपसे आलिङ्गन करता है, वह योगी
परम श्रेष्ठ माना गया है। (गी. अ. ६ श्लो. ३२)। 5. इससे अगले ३३ वें श्लोकमें ही अर्जुन इस ज्ञानरूप योगको
महिमासे चकित हो मगवानसे पूछता है कि हे मधुसूदन ! यह
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[आत्मविलास
४२] जो योग समताभावसे आपके द्वारा कहा गया, मनकी चञ्चलता के कारण इसकी स्थिति तो बड़ी दुर्लभ है। अर्जुनकी इस शङ्का का समाधन करते हुए इसी अध्याय ६ के अन्तमे भगवान इस 'योग' की मुक्तकण्ठसे सर्व श्रेष्ठता यूं वर्णन करते हैं:तपस्त्रिभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।।
(गी. अ. ६, श्लो. ४६) अर्थ'- (अपने आत्मस्वरूपमे योग पाया हुआ) योगी तपस्वियोसे श्रेष्ठ है, शास्त्रश्रवणद्वारा जिन्हे परोक्ष-ज्ञान हुआ है उनसे भी श्रेष्ठ माना गया है और कर्मकर्ताओंसे भी वह योगी श्रेष्ठ है। इस लिये है अर्जुन तू योगी बन, अर्थात् उपयुक्त रूपसे अपने परमात्मस्वरूपमें अभेद प्राप्त कर।
सातवें अध्यायके आरम्भमें ही इसी योगस्थितिके उपायके सम्बन्धमें भगवान कहते हैं:मथ्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः । असंशयं समय मां यथा ज्ञास्यसि तच्छणु। (अ.७, १.)
अर्थात्ः मेरे में आसक्त हुए मनवाला और मत्परायण हुआ जिस प्रकार इस योगको उपार्जन करता हुआ तू निश्चयपूर्वक समग्ररूप मुझको जान जायगा, वह ज्ञान मुझसे श्रवण कर। फिर सातवें अध्यायके दूसरे श्लोकमे ही इस ज्ञानको प्रशंसा इस प्रकार करते हैं.ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । यज्ज्ञात्वानेह भूयोऽन्यज्ज्ञावव्यमवशिष्यते ॥ (अ.७, २.)
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साधारण धर्म] अर्थः-में तेरे लिये रहस्यके सहित उस तत्त्वज्ञानको अशेषता से कहूँगा कि जिसको जानकर फिर तुमे और कुछ जानना शेष, न रहेगा। - इससे स्पष्ट विदित होता है कि उपयुक्त दोनों श्लोकोंमें 'ज्ञान' व 'योग' पर्यायसे है, स्वरूपसे इनका भेद नहीं । अर्थात् 'योगयुखन करता हुआ तू समग्ररूप मुझको जान लायगा' (७. १.) तथा 'जिसको जानकर फिर तुझे और कुछ जानना शेष न रहेगा' (७. २) दोनों एक ही अर्थके द्योतक हैं, इससे 'ज्ञान' व 'योग' का अभेद सिद्ध है। तदनन्तर इसी अध्यायमें श्लोक १२ तक अपनी सर्वरूपता सम्पूर्ण भूतोंमें वर्णन की है, इससे सिद्ध है कि सर्वात्मदृष्टिका नाम ही 'योग' है।
उपयुक्त व्याख्यासे स्पष्ट है कि 'योग' शब्द गीतामें केवल निष्काम कर्मके अर्थमें ही प्रयुक्त नहीं हुया, किन्तु इसका मुख्य अर्थ भगवत्स्वरूपस्थितिरूप सिद्धावस्था ही है। 'फलाशाका परित्याग करके कर्तव्य-बुद्धिसे कर्मोमे प्रवृत्त होना' ऐसा तिलक मतमें निष्काम-कर्म-योगीका लक्षण किया गया है । परन्तु प्राकृतिक नियमके अनुसार कर्तव्य-बुद्धिके साथ कर्ता-बुद्धि बलात्कार से लागू होती है, का बुद्धिके बिना कर्तव्य बुद्धि हो नहीं सकती, जैसो इस विषयको पीछे कई स्थानो पर स्पष्ट किया जा चुका है।
और जव कर्ता-बुद्धि व कर्तव्य-बुद्धि विद्यमान है, तब कर्मोका लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति रहना स्वभाविक है और जरूरी है, किसी न किसी लक्ष्यके विना कर्तव्य-बुद्धि हो नही सकती । ऐसी अवस्था में कर्ता व कर्तव्य-धुद्धिके रहते हुए वह समता-बुद्धि जिसको पाकर
और कुछ पानान,रहे (गी. अ. ६, श्लो. २२) और वह अभेददृष्टि, जिसको जानकर और जानना शेष न रहे (गी. अ. ७.
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[आत्मविलास श्लो. २) कहाँसे पा सकती है ? क्योंकि भेद-दृष्टिके कारण अभी उसको प्राप्तव्य व ज्ञातन्य शेन रहता है।
सारांश, यह सिद्ध हुआ कि निष्काम-कर्म-योगी सर्वथा समदृष्टि व अभेददृष्टिवाला नहीं होता। यद्यपि वह उस मार्ग पर चल रहा है, परन्तु अभी मभिलपर नहीं पहुँचा. मञ्जिल अभी दूर है। तथा गीता दृष्टिसे 'योग' शब्दका मुख्य अर्थ यह पूर्ण अवस्था है, जहाँ जिज्ञासु अपने लक्ष्यको पाकर और सफलमनोरथ होकर कृतकृत्य हो जाय और अपने सम्पूर्ण पुरुषार्थों से छुटकारा पाकर सब कतव्योंसे मुक्त हो जाय । लही पहुँचकर जिज्ञासु न जिज्ञासु ही रहे और न जिज्ञासा, न कुछ करना ही रहे न पाना।
(आ) 'कर्मकी व्याख्या' निष्काम कर्मक प्रसंगमें पीछे प्रथम खण्डमें की जा चुकी हैं इसलिये पुनरुक्ति निष्प्रयोजन है। ('कमकी व्याख्या को इसके साथ मिलाकर पढ़ना चाहिये)। यहाँ प्रसंगसे इतना ही कह देना काफी होगा कि शारीरिक अथवा मानसिक वह चेष्टारूप व्यापार जिसके साथ मन-बुद्धिका सम्बन्ध हो और जो मन-बुद्धिकी जानकारी हो तथा भावो. सादक हो, उस चेष्टारूप व्यपारकी 'कर्म' रूपसे संज्ञा की जाती है। परन्तु जिन शारीरिक चेष्टायोंके साथ मन-वृद्धिका सम्बन्ध नहीं होता और जो भावको उत्पन्न करनेवाली नहीं होती वे 'कर्म' की गणनामें नहीं आती । स्वयं गीताने 'कर्म की व्याख्या इसी रूपसे की है। यथाः
भूतमावोद्भवको विसर्गः कर्मसंज्ञितः। (अ.८. श्लो ३)
अर्थः-भूतोमें भावको उत्पन्न करनेवाली जो चेष्टाएँ है, उनकी कर्म' रूपसे संज्ञा की गई है।
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[४५ ..
साधारण धर्म १, दिलक महोदयने कर्मकी जो व्यापक व्याख्या की है और भूख, प्यास, श्वासोच्छास व क्षणभर जीवित रहना भी 'कर्म' में सम्मिलित किया है वह व्यापक दृष्टिसे तो हमें ह्रदयसे स्वीकार है। यगपि श्वामोच्लास हमारे मतमें 'कर्म' की व्याख्यामें नहीं श्राता, क्योकि श्वासोच्छास किसी भावको उत्पन्न नहीं करता। तथापि व्यापक दृष्टिको लेकर हम तो इससे आगे बढ़कर यह कहने के लिये उद्यत है कि केवल प्रवृत्तिरूप व्यापार ही 'कम' नी, किन्तु सम्पूर्ण निवृत्तिरूप व्यापार मी 'कर्म' है और कर्म का त्याग भी 'कम' है, क्योंकि यह सम्पूर्ण चेष्टाएँ मन-धुद्धिके साक्षात् परिणाम हैं और भावको उद्भव करनेवाले हैं । कर्मकी जिस व्यापक दृष्टिपर वे जा रहे हैं और श्वासोच्छासपर्यन्त चेष्ठाको 'कर्म' मानते हैं, उसे लेते हुए क्या तिलक महोदय यह कहनेका साहस करेंगे कि निवृत्तिरूप चेष्टा 'कर्म' नहीं ? चाहे वह निवृत्तिरूप चेष्टाएँ उनकी दृष्टिसे भली हो या पुरी, यह वात इसरी है, परन्तु हैं वे 'कर्म । और जब यह बात निश्चित हो चुकी सत्र तिलक महोदयका निवृत्ति को कर्महीन मानना और वासोच्छासकी भी बराबरी न देना, या तो हठ है या उनके विचागंको संकीर्णता। हाँ, यह बात अवश्य है कि 'कर्म' का अधिकारीके साथ घनिष्ट सम्बन्ध है, एक अधिकारीके शिये जो कम हो सकता है वही अन्य अधिकारी के लिये 'विकर्म । हस्यके लिये जो 'कर्म हो सकता है संन्यासीके लिये यह पिका और संन्यासी के लिये जो 'कर्म' है वह गृहस्थके लिये विक्रम होगा, इसमें सन्देह ही क्या है ? इसी प्रकार लोकसेवा कसी अधिकारीके लिये कर्मरूप हो सकती है तो इससे भिन्न अधिकारीक लिये वह विकर्म होगी। यदि विचारसे देखा जाय
प्रत्येक चेष्टा जो स्वधर्मानुकल हो, चाहे निवृत्तिरूप हो अथवा वित्तिरूप, वह लोकमेवा व लोकसंग्रहरूप स्वतः सिद्ध होती है।
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[आत्मविलास
४६] यद्यपि वाणी करके अथवा शरीर करके बडे-बड़े उपदेशन दिये जाएँ और कोई संगठन न किया जाय, तथापि उन अधिकारानुसार चेष्टाओंका यथार्थ पाचरण ही सच्ची व सुदृढ़ लोकसेवाव लोकसंग्रहको सिद्ध कर देता है । परन्तु तिलक महोदयने तो अपनी एकदेशीय दृष्टिसे अधिकारको मिटाकर केवल एक रेखा निकाल दी है कि 'वस, इससे आग और कुछ है ही नहीं।' परन्तु भगवान एक ऐसे भरकर उपदेष्टा नही थे सम्पूर्ण गीतामें कहीं भी ऐसा एक भी शब्द उनके मुखारविन्दसे नहीं निकला जिसमें उन्होंने निवृत्तिपक्षको निन्दित ठहराया हो, जैसा विला भगवान् मुक्तकण्ठसे निवृत्तिमार्गको निन्दित कर रहे हैं। यदि वास्तवमें निवृत्तिपक्ष निन्दनीय था तो क्या वे (भगवान्) स्पष्ट रूपसे उसको त्या-य नहीं कह सकते थे, जैसा उन्होंने सकाम-कर्मकी खुले शब्दोमें निन्दा की है यहाँतक कि स्वर्गपर्यन्त विपयसुखोको भी उन्होंने घृणाष्टिसे निरूपण किया है और अपने मार्गमें उनको प्रतिवन्धक बतलाया है। देखो गी. अ.२ श्लो. ४२, ४३, ४४ और अन्तमे स्पष्ट कह दिया है:दूरेण धवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनजय। बुद्धौ शरणमनविच्छ कृपणाः फलहेतवः । (अ. २, ४६)
अर्थ बुद्धि-योगसे सकाम-कर्म अत्यन्त तुच्छ है, इसलिये हे धनक्षय | तुम बुद्धि-योगका आश्रय ग्रहण करो। जो फलकी वासनावाले हैं वे अत्यन्त दीन हैं।
यदि स्वयं भगवानके विचारसे निवृत्तिपक्ष निन्दित होता तो ऐसी अवस्थामें क्या साथ ही वे उसका स्पष्ट रूपसे खण्डन नहीं कर सकते थे और उसको भी क्या निन्दित नहीं कह सकते है थे कि हे अर्जुन भिक्षा माँगना निर्लज्जताका व्यवहार है और
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[४७ .
साधारण धर्म ] पतित करनेवाला है। क्योकि इस समय अर्जुनके लिये यही तो विवादका विषय बन रहा था । हॉ, यह बात ठीक है कि उन्होंने अर्जुनको इसका अधिकारी नहीं पाया और अध्याय २ श्लो. ३१ से ३५ तक 'युद्ध ही तेरा धर्म है 'युद्ध न करनेसे नू अपने स्वधर्म व कीर्तिको नष्ट करेगा' इत्यादि रूपसे उसको उपदेश किया। परन्तु यह कहीं नही कहा कि निवृत्तिपक्ष निन्दित है अथवा विकर्म है। इसके विपरीत भगवान्ने तो स्पष्ट रूपसे अधिकारको स्थिर रक्खा है और स्पष्ट ही कहा है:
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । ' स्वधर्मे निधन श्रेयः परधर्मो भयावह ॥ (अ. ३-३५)
अर्थः-दूसरेके धर्मको अच्छी तरह आचरणम लानेकी अपेक्षा अपना गुणरहित धर्म भी कल्याणकारी है, अपने धर्माचरणमे मरना भी श्रेयस्कर है, परन्तु पराया धर्म भयको देने वाला है। यही श्लोक अ. १८.४७. में कुछ हेर-फेरसे फिर भी निरूपण किया है और अ. १५.४८ में फिर ताकीद की है कि अपना स्वाभाविक कर्म चाहे दोपवाला भी हो परन्तु उसका त्याग न करे, क्योकि यूं तो सभी कर्म बूमसे अग्निके सदृश दोपोंसे घिरे हुये होते हैं। हॉ,अर्जनको भगवान्ने रजोगुणके कारण निवृत्तिका अधिकारी नहीं पाया और उसको युद्धमे ही जोड़ना जरूरी समझा। परन्त न तो यह कहा जा सकता हैं और न कदापि.भगवानका ही यह श्राशय हो सकता है कि संघको प्रवृत्तिमें ही फंसे रहना जरूरी है। . विचार से देखा जाय तो कर्ममें प्रवृत्ति व निवृत्ति प्रकृतिके तीन गुणोके अधीन ही होती है और वे प्राकृतिक गुण ही प्रवृत्ति प.निवृत्तिमें प्रेरक हैं। रजोगुण वृद्धिको प्राप्त हुआ प्रवृत्तिमें
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[आत्मविलास जोड़ता है और सत्त्वगुण निवृत्निमें 1(गी. अ. १४ श्लो. ६,७)। यह बात अनुभवसिद्ध है और 'कर्मद्वाग प्रकृतिकी नियुत्तिमुखीनता' के प्रमगमें पीछे प्रथम खण्डमें हमारे द्वाग स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रकृतिका स्वाभाविक स्रोत निवृत्तिमुखी दी है और धर्मानुकूल प्रत्येक प्रवृत्तिके गर्भ में निवृत्ति ही गर्मित है जो अवश्य अपने समयपर प्रसारित होगी। इस नियमके अनुसार इस जन्समें अथवा गत जन्ममें जो व्यक्ति प्रवृश्चिमें रत रहकर उससे अधाये हैं और अपने बढ़-चढ़े रजोगुणको खो बैठे हैं तथा जिनके हृदयमै सत्त्वगुणका विकास हो पाया है
और जिनका चित्त त्यागपरायण हुआ है, उनकी अपनी प्राकृतिके विरुद्ध कोई भी धर्मशास्त्र अथवा भगवान् यह कैसे कह सकते हैं कि उनके लिये प्रवृत्तिके बन्धनमें फंसे रहना ही स्वधर्म है । यदि वह ऐसा बन्धन लगाते हैं तो न वे धर्मशास्त्र ही हैं और न वे भगवान ही हैं। पूर्व अवस्थामें भी वर्णाश्रमधर्मका बन्धन इसी लिये था कि प्रवृत्ति उच्छद्धल न हो और इस प्रकार प्रवृत्ति मर्यादामें रहकर रजोगुणका वेग निकल जाय तथा निवृत्तिका स्रोत चल पड़े, नकि धर्मबन्धन प्रवृत्तिरूप 'बन्धनके लिये हो थे। नही जी । यह बन्धन कौन सहार सकता है और धर्मशास्त्र अथवा भगवान ऐसे कठोर कैसे बन सकते हैं | जो बन्धनसे मुक्ति के अधिकारीको भी बन्धनमें फैमानेके जिये ही उद्यत रहें और लोक व लोकसेवाकी सत्यताके गीत गाये ही जाएँ, हमारे तिलक भगवान् यह ड्यही भले ही सभाले रक्खें । परन्तु हमारे धर्मशास्त्र और हमारे भगवान्ने तो सचे अधिकारीको मवे प्रकार सञ्ची स्वतन्त्रता व समा स्वराज्य प्राप्त करानेके लिये कमर बाँधी हुई है और मुक्तकण्ठसे कह दिया है:-- "ब्रह्मचर्याद्वागृहाद्वावनाद्वायदहरेव विरजेत वदहरेव प्रव्रजेत्"
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[४E
साधारण धर्म ' अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रममें, गृहस्थाश्रममें अथवा वानप्रस्थाश्रममें जस दिन भी तीव्र वैराग्य. हो, उसी दिन, संन्यास ले लेवे । प्रध्याय १३ में धानके साधनोंका निरूपण करते हुए स्वयं गीता (कहती है:मसक्तिरनमिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादषु। नित्यं च समचिचत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥ मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥ अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एवज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ (ो से ११)
अर्थ:-पुत्र, स्त्री, घर व धनादिमें आसक्तिका अभाव और ममता न होना, प्रिय-अप्रियकी प्राप्तिमें सदा ही चित्तका सम रहना, मुझमें एकीमावसे स्थितिरूप ध्यान-योगके द्वारा, अन्यभिचारिणी भक्ति, एकान्त देशमें रहनेका स्वभाव, जनसमुदायमें अरति ( अर्थान अनासक्ति), अध्यात्म-ज्ञानमें नित्य स्थिति और तत्व-ज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सर्वत्र देखना यह सत्र तो ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान। . . - अध्याय १८ श्लोक ५१, ५२, ५३ में फिर भी ऐसा ही कहा बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च [... शब्दादीविषयांस्त्यक्त्वा, रागद्वेषौ व्युदस्य च-11... विविक्तसेवी लघ्याशी। यतवाक्कायमानसः। : 'ध्यानयोगपरों नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ।' : -
गया है:
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[ आत्म विलास
५०] अहंकारं बलं दर्षे काम क्रोधं परिग्रहम् । विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।
अर्थः-विशुद्ध बुद्धिसे युक्त और साविकी धारणाले अन्त:करणको वशमे करके, शब्दादि विषयोंको त्यागकर और रागद्वपको नष्ट करके एकान्त देशका सेवन करनेवाला, अल्पाहारी, मन वाणी और शरीरको वशमें रखनेवाला, दृढ़ वैराग्यको भलीभौति आश्रित करके नित्य ध्यान-योगपरायण हुआ पुरुष अहं कार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और सग्रह को त्यागकर ममवा रहित और शान्त अन्तःकरण होकर ब्रह्ममें एकीभाव प्राप्त करने के योग्य होता है।
साराश, उपयुक्त विवेचन व प्रमाणोंसे यह स्पष्ट है कि कमकी. व्यापक व्याख्या में प्रत्येक निवृत्ति मन-बुद्धिका साक्षात परिणाम होनेसे 'कम ही है, न कि 'अकर्म वा 'विकर्म । तथा यदि अधिकारानुसार किसी के लिये एक ओर प्रवृत्ति ही कम व निवृत्त विकर्म है तो दूसरी ओर किसी अन्य के लिये निवृत्ति ही कर्म व प्रवृत्ति विकर्म हो सकती है। सभी धर्मशाल और स्वयं भगवान्का यही श्रेष्ठ सम्मत् है। इससे हमारा यह आशग नहीं कि लोकसेवा निरर्थक वस्तु है। नहीं ! जिन हृदयोंमें रजोगुण भरा हुआ है उनके लिये यह परमार्थका अद्वितीय साधन है। परन्तु एकमात्र यही साधन है इससे आगे और कोई लक्ष्य है ही नहीं, केवल इतने मात्रमं हमारा विरोध है। अजी मायाके राज्य में किमी षातका नियम कैसे बनाया जा सकता है ? धर्मशास्त्र
और राज्यके कानून यथाशक्ति नियम करते है, परन्तु पद-पद पर उनको भी अपवाद (exceptions) करने ही पड़ते हैं। जव, पाँच-पाँच वर्षके ध्रुव व नामदेवादि घालकोंमें निवृत्ति फड़क गई
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साधारण धर्म]
और दबानेसे न दय सकी, तब यौवनोंकी तो वार्ता ही क्या है ? धर्मशास्त्र और सर्वज्ञ ऋषि-मुनि तो इस बातकी जुम्मेवारी ले नही सकते थे और उन्होंने तो अपवाद ( exceptions) लिख भारे 'यंदहरेव विरजेत तदहरेव प्रव्रजेत । भगवान् तिलक भले ही इस बात की जुम्मेवारी ले। और चिल्लाते रहे कि निवृत्ति धर्मवरुद्ध है। मायाके राज्यमें यह नियम तो नहीं किया जा सकता के सभी भगवान तिलक जैसे कर्मवीर व कर्मयोगी होगे । परन्तु अपने पिछले जन्मों में जो भगवान् तिलककी भाँति प्रवृत्तिपरायण हो अपने रजोगुणके वेगको खलास कर बैठे हैं और इस जन्ममें योगभ्रष्ट होकर उत्पन्न हुए हैं; अथवा अपने वर्तमान पुरुषार्थद्वारा जो सत्वगुण उपार्जनमें तत्पर हैं और प्रवृत्तिमें धकेलनेवाला (जोगुण जिनमें है ही नहीं, ऐसे पुरुषों के लिये भी तिलक महोदय को कोई मार्ग खोलना चाहिये था कि वह कहाँ जाएँ और क्या. करें ? प्रवृत्तिकी सामग्री उनमें रही नहीं और निवृत्ति के लिये उनका मार्ग बन्द, फिर उनकी कौन गति ? यद्यपि इसमें सन्देहं नहीं कि इस योनिमें गीतारहस्य लिखते समय भगवान विलक के हत्यमें पूर्ण रूपसे और निष्कामभावसे रजोगुणका समुद्र उमंड रहा था, इसलिये उस पार उन्होंने आँख उठाकर देखा ही नहीं, तथापि प्रकृतिके राज्यमें रजोगुण निकलनेपर सत्त्वगुणका प्रसव स्वाभाविक है। यदि इस समय हम भगवान् तिलक की अात्माका आह्वान कर सकते तो इस विषयपर उनसे चित्र साक्षी प्राप्त की जा सकती थी।
' (इ) अब हमें यह विचार करना है कि अधिकारी के लिये भिक्षावृत्ति, जिसको तिलक महोदयने निर्लज्जतामूलक कम वर्णन भकिया है, यह उनका विचार कहातक उचित है ? गृहस्थके लिये नित्य ही पश्च-महायज्ञोंकी विधि शाखकारोंने विधान की हैं और
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५६]
[आत्मविलास इन पञ्च-महायनोंमें नृयज्ञको मर्वश्रेप कथन किया गया है। जाति-पातिका विचार न करके अनायास द्वारपर आये हुए अतिथि-अभ्यागतको ईश्वररूप जान और उसके शरीर व मनके अधिकारका विचार न कर आदर-सत्कारपूर्वक यथाशक्ति अन्न-जलादिसे उसको सन्तुष्ट करना 'नृयज्ञ' कहा गया है। यही एक ऐसी पवित्र चेष्टा है जो कि विषम-दृष्टियुक्त गृहस्थको व्यवहारिक रूपसे स्वाभाविक समतादृष्टिका पाठ पढ़ाती है और सर्वत्र ईश्वरदर्शनके आनन्दकी चटक लगाती है । भावपूर्ण दानसे स्वभाषत ही कोमलता आती है और दानके अभावसे स्वभावत कठोरता उपजती है, यह नीति है। दानके मूल्यका ध्यान न रख श्रद्धाभावसे दिया हुश्रा एक टुकडेका भी दान दाताके चित्त को पानीके समान पतला करके बहा देने में समर्थ है और येनकेन प्रकारेण कोमलता उपजाना हो धर्मका लक्ष्य है। इस विषयमें महाभारतमें एक आख्यान है कि एक यतिको १०।१५ दिनके पश्चात एक रोटी मिली।ज्यू ही बलियैश्वदेव करके वह उसे खानेके लिये बैठा कि एक अतिथि उसके निकट आ पहुंचा। यतिने अतिथि-नारायणके दर्शनसे अपनेको कृतार्थ जाना
और धडा प्रसन्न हुआ, उसने ईश्वररूपसे उसकी पूजाकी और प्रसन्नमनसे नम्रतापूर्वक रोटीका श्राधा भाग उसको निवेदन किया और शेष श्राधा प्रसादके रूपमें ग्रहण किया । यति नव मोजन करके उस स्थानसे चला गया, तब एक नेवला स्वाभाविक उस स्थानपर आया और यतिकी जूठनपर आनन्दसे लोटपलोटे मारने लगा। उस जूठनसे नेवलेके मुम्बका, स्पर्श होने का,यह प्रभाव हुआ कि उसका आधा मुख स्वर्णमय हो गया। यह प्रमाव उस श्राधी रोटीके भावपूर्ण दानका था। वही नेवला युधिष्ठिरके राजसूय-यहमें, जहाँ भगवान कृष्णने अतिथियों के
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[५३
साधारण धर्म]
पादप्रक्षालन व जूठन उठानेका भार लिया हुआ था, पहुँचा
और उस हजारो मन जूठनपर कई दिनतक पड़ा रहा। परन्तु युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें उस कोमल भावका महत्व न रहनेके कारण उसका शेप आधा मुख भी स्वर्णमय न हो सका। इससे वहाँ यही निष्कर्ष निकाला गया है कि जितना मूल्यवान् यति की, आधी रोटीका दान था, युधिष्ठिरका समग्र राजसूय यज्ञ उसके एक अंशके बराबर भी नही था, भावराज्य का ऐसा ही विचित्र महत्त्व है। भगवान तिलकने स्वयं अपने गीतारहस्यमें इस आख्यानको दृष्टान्त रूपसे ग्रहण किया है । इस प्रकार धनी व निर्धनका विचार न रख, सभी गृहस्थोंके लिये उपयोगी और सबको सुलभ ऐसे महत्त्वपूर्ण नृयज्ञका विधान करके हिन्दु धर्म तथा वेद-शास्त्रोंने संसारमें गौख प्राप्त किया है। इसके यथार्थ उपयोगद्वारा प्राप्त हुई क्षणिक शान्ति ऐसी बहुमूल्य है कि वह लाखों रुपयोंके भोग भोगनेस भी नहीं मिल सकती। यह शान्ति-सुख ही ऐसा प्रवल शस्त्र है जो अनेक दुराचारोंसे रक्षाकर दाताको धर्म-पथमें अग्रसर होनेके लिए घरवश धकेल देता है। स्वयं गीता इस नृयनके लिये इन दृढ़ शब्दोमे यू जोर देती है :: यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्व किल्विषैः । । । भुञ्जते ते त्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।। (अ.३-९३)
अर्थः, गाशेप अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष सर्व पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और जो पापी केवल अपने ही उदरके निमित्त पकाते हैं वे अन्न नही, किन्तु पाप भक्षण करते हैं। । गृहस्थाश्रमकी जो महिमा तिलक महोदयने गाई है वह पथार्थ है, परन्तु उसकी यह महिमा केवल उदारतापूर्ण त्यागके सम्बन्धसे ही है, न कि कृपणतापूर्ण:पकड़से । वास्तवमें यह नृयज्ञ
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[आत्मविलास ही गार्हस्थ्य-धर्मका प्राण है, इसके यिना गाईरव्य-धर्म ऐमा ही है जैसे बिना प्रागका पुतला--
आतिथ्यं शिवपूजन प्रतिदिनं धन्यो गृहस्थाश्रमः (भत ४१) । अर्थान् वही गृहस्थाश्रम धन्य है, जिसमें प्रतिदिन अतिथिमकार घ शिवपूजन होता है । जिस आतिथ्य-धर्मके प्रभावस मोरध्वजादि नरेशोंने अन्यक्त परमात्माको व्यक्तरूपमे आकर्षण कर लिया और आप परम गतिके भागी हुए, ऐसे पवित्र धर्माङ्गमे अश्रद्धा उपलाना तो शान्तिके स्थानपर अशान्तिका ही धाद्वान करता है। इस प्रकार तिलक महोदयका यह उपदेश गृहस्थके लिये तो किसी प्रकार न इहलौकिक सुखका हेतु होसकता है और न पारलौकिक उन्नतिका साधन ।
यह तो गृहस्थके सम्बन्धमें चर्चा हुई, श्रय भिन्तुकके सम्यन्ध में सुनिये। अहकारकी मूलको समूल निकाल फेंफना तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' रूप समताभावका फेवल कथनमात्र ही नहीं किन्तु व्यवहारिक रूपसे उपार्जन करना, यही वेदान्तका एकमात्र प्रतिपाद्य विषय है। यही 'पैताल' की पहेलीका अन्तिम साध्य श्रौप यही परम पुण्य । धर्मफे जितने भी बङ्ग प्रत्यङ्ग है वे सभी साक्षात् अथया परम्परास इसी उद्देश्यकी पूर्तिम सहायक होनेसे धर्मरूप हैं। अधिकारीके लिये व्यवहारिकरूपसे 'वसुधैव कुटुम्बकम' (अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी ही हमारा कुटुम्ध है) यह भाष उपार्जन करने के लिये भिक्षावृति एक अद्वितिय जीता. जागता साधन है । यह अधिकारीके चितकी परम उदारताका परिचायक है और आत्मविकासका एक अनोखे रूपसे शिक्षा देनेवाला शिक्षक है। इससे अधिकारीके चित्तमें यह भाष कूट-कूट कर भरे जाते हैं कि 'हे । मन जिसमें तूने शरीर धारण किया वही
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साधारण धर्म] - तेरा कुटुम्ब नहीं बल्कि समप्र संसारही तेरा 'कुटुम्ब है। किमी एक कुटुम्बमें उत्पन्न होना और ममत्व बाँधना तो आवश्यक है, परन्तु उसी चार-दीवारी में अपने समतको संकीणे रखकर मर जानातो जीते ही कवरमें सड़नेके समान है और पाश्विक जीयनसे भी निकृष्ट! किसी एक माताके उदरसे जन्म लेना तो जरूरी है, परन्तु केवल उसीका रहकर मर जाना तो मावाके यौवनको नष्ट करनेके लिये कुठाररूप ही बनना है। ऐसे उदार भावोंसे जिमका हत्य पूर्ण है वह समतारूपी प्रेमका मतवाला,
. : विरह कमण्डलु कर लियो, वरागी दो नैन । ___ 'माँगें दरश मधूकरी, छके रहैं दिन रैन ।
जत्र झोली हाथमें लेकर निकलता है तव कौन ऐसा कठोर हृदय होगा जो उसकी आँग्वोको देखकर पिघेल न जाय, संत्यस्वरूपकी एक लहर उसके हृदय में उमड़ न आवे और 'मसारकी असारताका फोटो हुँच न देवे । तिलक महोदयके विचारसे यह 'मंगनपन' भले ही जचे, परन्तु वास्तवमें यह माँगना तो माँगना नहीं, बल्कि तन-मन-धन सर्वस्व लुटा देना है। अहंकारकी लड़को निकाल फेंकनेका यही एक सच्चा व्यवहारिक साधन हैं। यद्यपि अहंकारकी मूल केवल ज्ञानमें ही निकाली जा सकती है, वथापि जिस प्रकार पड़दा मोटा हो तो एका-एक उसे फाड़ा नहीं जा सकता; परन्तु जब उसको घिस कर पतला कर लिया गया तो उसका फाइना सहज हो जाता है, इसी प्रकार अहंकारके ' पड़देको पतला करनेमें भिक्षावृत्ति परम उपयोगी साधन है।
जप-तप-व्रतादि जितने साधन हैं सधका फज एकमात्र मनपर विजय पाना है और मनोनाश वासनाक्षयकी सिद्धिद्वारा ही . सत्त्व-विचारका अधिकार प्राप्त हो सकता है, जिससे अहंकार
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५६ ]
श्रात्म विलास] समूल नग्ध हो जाता है। चिरकालीन जप-तप-त्रतादिद्वारा मन पर वैसी विजय प्राप्त नहीं की जा सकती, जैसी भिक्षावृत्तिद्वारा स्वाभाविक ही प्राप्त हो जाती है और इससे मनोनाश वासनाक्षयकी सिद्धि हो सकती है। योग-वाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग ६३, ६४ में राजा भागीरथका पाख्यान है । जब उसको तत्त्वजिज्ञासा उत्पन्न हुई तब उसके गुरु त्रितलऋषि ने पहिला उपदेश यही किया कि "हे राजन! तू राज-पाटका परित्याग करके अपने शत्रुओंके घर से भिक्षा माँग, जिससे तेरा मनोनाश व वासनाक्षय सिद्ध हो । आधुनिक कालके भतृ हरि तथा गोपीचन्द्रादि नरेश इसके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं । इससे हमारा यह अभिप्राय नहीं कि सर्व साधारणके लिये ऐसा कर्तव्य है, परन्तु धर्मकी उपयुक्त सोपानों को उत्तीर्ण करके जिनके हृदयोंमें 'हकीको इश्क' वरङ्गायमान हुश्रा है, जो सत्यप्रेमके मतवाले हुए हैं, किसी हटीले रंगीलेके रंगमें जिनका मन रंगा गया है और उस रंगने आगा-पीछा देखनेकी
आँखें ही बन्द कर दी है, उनके लिये तिलक महोदय सरीखे देशभक्त भले ही घृणा-दृष्टि उपजाते रहें और देश-भक्तिके गीत गाया. करें, परन्तु वहाँ तो सुननेके कान ही किसी बदमस्तने रहने न दिये, फिर सुने कौन ? गालियाँ देनेवाले गालियोंकी बौछाड़ याँधते ही रह जायेंगे, परन्तु जिनके सिरपर सफर सवार हुआ है उन्हें पीछे मुड़कर कब देखना है ?
सात गाँठ कोपीन की, साधु न माने शङ्क।
राम अमल माता रहे, गिने इन्द्र को रङ्क॥ स्वामी रामदासजीने अपने ग्रन्थ दासबोधमें जिसको तिलक महोदयने स्थान-स्थानपर प्रमाणभूत माना है, दशक १४ समास २ मे भिक्षावृत्तिकी महान प्रशंसाकी है। उनका कथन है:
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साधारण धर्म ] . मिनाके समान अन्य वैराग्य नहीं और वैराग्यके समान
अन्य सौभाग्य नहीं । मिक्षा कामधेनु है, जो पुरुष भिक्षान
भोजन करता है वह मानो नित्य अमृतपान करता है।' उनका यह भी वचन है:. मिक्षाहारी निराहारी भिक्षा नैव प्रतिग्रह।
असन्तो वापि सन्तो वा सोमपानं दिने दिने । . अर्थ:-भिक्षान्न आहार करनेवाला निराहारी है (क्योंकि उसने देहाभिमानको वे डाला है और देहाभिमान रखते हुए भोजन करना ही आहार करना है। इस प्रकार भिक्षा प्रतिमह भी नहीं है । चाहे सन्त हो वा असन्त, भिक्षाहारी प्रतिदिन अमृतपान काता है। - देशसुधारके मतवालों और देशस्वराज्यके प्रेमियोंकी दृष्टिमें भिक्षावृत्ति चाहे खटकती हो और द्वेषका पात्र बनी रहे, परन्तु वास्तवमें बात तो है यह कि हकीकी ® स्वराज्य व हनीती सुधार का माधन नो यह भिक्षावृत्ति जिसमें सर्वत्यागरूपी महेशका निवास है, इस ऐसे पवित्र धार्मिक कार्यसे घृणा उपनाकर तो वे देशमुधारके स्थानपर धार्मिक-अशान्ति व धार्मिक-विसवके ही कारण सिद्ध होंगे। हॉ, जो महाशय देशस्वराज्यके कायमें प्रवृत्त है उनके लिये उनकी प्रकृतिके अनुसार यह देशसेवा एक पवित्र साधन है, परन्तु अन्य अधिकारियों के प्रति घृणा करना तो कोई सुधार है ही नहीं, बल्कि उल्टा उनके लिये हानिकारक है और उनकी पवित्र शक्तिका हास करनेवाला है। यह तो ठीक ऐसे - ही है जैसे कोई कारीगर आगे-आगे मकान बनाता जाय और पीछेसे उसको गिराता आवे। जिस सड़कसे वे जा रहें हैं तीन
पारमार्थिक
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[आत्मविलास वेगसे अपनी सड़कपर चले जाएँ, उनको पीछे मुडकर ज्यो देखना चाहिये ? जब वे पीछे मुडकर देखते है उसी समय उनकी चाल वेढंगी हो जाती है ।मला, आत्म-अकल्याण करते हुए देशकल्याण कैसे होगा?
सरांश, दाता व भिक्षुक दोनोंके लिये परमशान्तिका साधन जो यह भिक्षावृत्ति, उसे 'निर्लनतामूलक' कथन करनेपर तो निर्लज्जता भी लज्जित होती है। ___() अप हमें देखना है कि अनासक्त व्यवहारिक कर्म क्या है ? प्रकृतिके राज्यमें भेद है । प्रकृतिभेद, गुणभेद, वर्णभेद,
आश्रमभेद, शरीरभेद, इन्द्रियभेद और मन-बुद्धिका भेद, सारांश सर्व संसार भेदरूप ही है। जब सर्व भेदमय है तब अधिकारभेद ही क्यों न हो ? और जब अधिकारभेद सिद्ध हुआ, तब अधिकारानुसार प्रवृत्ति व निवृत्तिका भेद होना भी जरूरी है। जबकि अधिकारभेद मुख्य है तब अधिकारानुसार प्रत्येक प्रवृत्तिच प्रत्येक निवृत्ति 'व्यवहारिक कर्म के अन्तर्गत आनी चाहिये । प्रवृत्तिरूप कर्म ही 'व्यवहारिक कर्म है और निवृत्तिरूप कर्म 'व्यवहारिक कर्म नहीं, ऐसा तो कोई भी बुद्धिमान् श्राग्रह नहीं करेगा, क्योंकि प्रहण-त्यागरूप सम्पूर्ण व्यवहार व कर्म प्रकृतिके राज्यम ही है । इसलिये अधिकारानुसार प्रवृत्ति व निवृत्ति दोनों भी प्रकृतिके राज्यमें ही हैं और अधिकारभेदसे दोनो ही 'कर्म' की व्यापक व्याख्या आजाते हैं । इस प्रकार क्या प्रवृत्ति व क्या निवृत्ति जब दोनों व्यवहारिक फर्म' ही हैं, तब फलकी आसक्ति छोड़ कर होनों ही 'अनासक्त व्यवहारिक कर्म' बनाये जा सकते हैं। फलाशारहित कर्मको ही 'अनासक्त कर्म कहते हैं, इससे सिद्ध हुआ कि फलकी आशाका परित्यागकर अधिकारानुसार प्रवृत्ति व निवृत्ति दोनों ही 'अनासक्त व्यवहारिक कर्म' है।
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५६]
साधारण धर्म] इस विषयमें थोड़ा और विचार किया जाय तो स्पष्ट होगा, कि प्रवृत्ति जिनके लिये अधिकारकी वस्तु और व्यवहारिक-कर्म है, निवृनि उनके लिये त्याज्य है और यह व्यवहारिक-कर्म नहीं है । तथा निवृति जिनके अधिकारमें पाती हैं और व्यवहारिक कर्म है, उनके लिये प्रवृत्ति त्याज्य है और वह व्यवहारिक-कर्म . नहीं है। साथ ही इस प्रकार जिनके लिये प्रवृत्ति त्याज्य है उनके लिये प्रवृत्ति प्रत्यवायरूप होगी और निवृत्ति जिनके लिये त्याज्य है उनके लिये निवृत्तिका प्रत्यवायरूप होना जरूरी हैं, इसमें सन्देह ही क्या है ? दृष्टान्त-स्थलपर समझ सकते हैं कि गृहस्थके लिये जो धर्म है वह सन्यासीके लिये अधर्म, और संन्यासीके लिये जो धर्म है वह गृहस्थ के लिये अधर्म होगा। धनसंग्रह व पुत्रोत्पत्ति गृहस्थके लिये धर्म है तो संन्यासीके लिये अधर्म, और मिक्षावृत्ति संन्यासीके लिये धर्म है तो गृहस्थ के लिये अधर्मरूप होगी। हाँ सांसारिक कामनाका परित्यागकर केवल ईश्वरप्राप्ति लक्ष्य करके अपने-अपने धोका आचरण तो दोनोके ही लिये अनासक्त
यवहारिक कर्म हो सकते हैं । परन्तु तिलक महोदयकी अपनी एकदेशीय दृष्टिमें तो केवल प्रवृत्ति ही अनासक्त व्यवहारिक कर्म है, निवृत्ति तो न कर्म ही मानी जा सकती है और न व्यवहारकी गणना में ही आती है, फिर वह अनासक्त व्यवहारिक कर्म तो बने ही कैसे ? वास्तवमें विचारसे देखा जाय तो आसक्तिव अनासक्ति ग्रहण व त्यागरूप ही है, अर्थात् आसक्ति ग्रहणरूप व प्रवृत्तिरूप है तथा अनासक्ति त्याग व निवृत्तिरूप । एकमात्र फलत्यागके सम्बन्धसे ही जब 'आसक्ति' अर्थात् प्रवृत्ति 'अनासक्ति के
रूपमें मानपात्र हुई, फिर सर्वत्यागरूप निवृत्तिको अनासक्त व्यव'हारिक कम भी न मानना तो विचरोंकी अत्यन्त वसंकीर्णता है।
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६०
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आत्मवितास
इस अवमें 'योग' शब्द व 'कर्म' शब्दकी व्याख्या हो चुकी तिलकमतमें प्रमाणभूत , है, इसलिये उन गीताशोकोपर जिनको गीतालोकोंकी समा- तिलक महोदयने अपने मतकी पुष्टिमें लोचना और उनके द्वारा प्रमाणरूपसे ग्रहण किया है, विचार स्वपक्षसिद्धि
कर लेना आवश्यक है। प्रागे चलनेसे पहले तिलकमतपर व वेदान्तसिद्धान्तपर सामान्यरूपसे दृष्टिपात कर लेना चाहिये, जिससे पाठकोको आशय समझने में सुविधा मिले।
(१) 'सांख्य' व 'योग' वेदान्तष्टिसे दो मार्ग जिज्ञासुके लिये हैं, ज्ञानीके लिये नहीं; जैसे जो छत्तपर पहुँच गया उसके लिये सोपान नहीं रहते, सोपान उपीके लिये हैं जो छतपर पहुँचनेकी इच्छा रखता है। परन्तु तिलक मतके अनुसार ज्ञानके बाद भी दोनों मार्ग ज्ञानीके लिये शेष रहते है तथा दोनो मार्ग स्वतन्त्र है, एकको दुसरेकी अपेक्षा नहीं । ज्ञानी ज्ञानोत्तर मोक्ष प्राप्त करनेके लिये चाहे सांख्यमार्गसे जाय चाहे योगमार्गसे, तथापि सांख्यकी अपेक्षा योगमार्ग श्रेष्ठ है और ज्ञानीपर कर्तव्य शेष रहता है, ऐसा उनका कथन है।
(२) वेदान्त-मतमेंदोनीमार्गजिज्ञासुके लिये मानकर निष्कामकर्मरूप 'योग' सेअन्तःकरणकी शुद्धि औरतत्पश्चात्ज्ञान (सांख्य) से मोक्ष माना है । वेदान्त-मतमें गीतोक्त सांख्यका'अर्थ'संन्यासआश्रम नहीं, किन्तु श्रवण, मनन व निदिध्यासनरूप प्रात्मानुसन्धान है। -
तिलक मतमें 'सांख्य से निवृत्तिपक्ष और 'योग'से प्रवृत्तिपक्ष अभिप्राय है । तिलक मतमें प्रवृत्तिरूप चेष्टानोको ही 'कर्म मानकर निवृत्तिरूप चेष्टाओंका खण्डन किया है और निवृत्तिरूप - चेष्टायोंको कर्म, नहीं माना, जोकि वेदान्त व गीतासे विरुद्ध है।
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६१.
साधारण ध ] गीताने कर्मको व्यापक व्याख्या यही की है कि जो भावको उत्पन्न धरनेवाली चेप्टाएँ है वे सब 'कर्म' है (अचलो.३)। इस दृष्टिसे बत शारीरिक चेष्टाएँ ही 'कर्म' नही, किन्तु मानसिक व बौधिक सम्पूर्ण सन्दरूप परिणाम भावोत्पादक होनेसे कम है, चाहे शरीरसे उनका कोई सम्बन्ध न हो और चाहे वे प्रवृत्तिरूप हो या निवृत्तिरूप।
(३) वेदान्त-मतसं लोकसंग्रह प्रवृत्तिसे ही सिद्ध नहीं होता बल्कि निवृत्चिद्वारा भी सिद्ध होता है, इसको पागे स्पष्ट किया बायगा । यदि भगवद्दष्टिसे मोक्षप्राप्ति व लोकसंग्रह केवल प्रवृत्चिद्वारा ही सम्भव होता तो उद्धवको निवृत्तिका उपदेश न किया जाता । परन्तु तिलक-मतमें केवल प्रवृत्तिद्वारा ही लोकसंग्रहकी सिद्धि मानी है, निवृत्तिद्वारा नहीं।
(१). वेदान्त मतसं गीता प्रकृतिविरुद्ध उपदेश देनेको प्रवृत्त नही हुई और प्रकृतिका स्वाभाविक स्रोत प्रवृत्तिसे निवृत्ति में ही है। रखोगुणसे प्रवृत्ति; व सत्त्वगुणसे निवृत्ति उत्पन्न होती है, इस प्रकार रजोगुण निवृत्त होकर सत्त्वगुणका उत्पन्न होना प्राकृतिक ६। परन्तु तिलक-मत प्रतिनित्य और निवृत्त होनेके लिये नहीं । वेदान्त-मतमें निवृत्ति प्रवृत्तिको निकालकर आप भी निवृत्त होने के लिये है, स्थिर रहने के लिये दोनों ही नहीं। * इस प्रकारसामान्यरूपसे दोनों मतोंका दिग्दर्शन कराया गया।
तिलक महोदयने (१) 'नानी के लिये कर्तव्य' (२) 'मोक्षकी मस सिद्धि' (३) 'कर्मको विशेषता' और (8) 'निवृत्ति खण्डन' जिन गीताश्लोकोंको प्रमाणमें दिया है वे ये हैं, अब उनपर
विचार किया जाता है:
(१) यत्सांख्यः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । ५, एक सांख्य चे योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। (अ.५.५)
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[आत्मविलाम
अर्थ-जो स्थान सांख्योंद्वारा प्राप्त किया जाता है वही योगियोंद्वारा गमन किया जाता है, इसलिये जो पुरुष सांख्यको और योगको एक देखता है, वही देखता है।
इस लोकसे विलक महोदयने यह सिद्ध किया है कि 'ज्ञान', (साख्य) से जो मोक्ष मिलवा है वही 'कर्म' (योग) से, 'कर्म'शान' का पूर्वांग नहीं, मोक्षष्टिसे यह दोनों तुल्यबलवाले और स्वतन्त्र हैं। परन्तु उनका यह विचार ठीक नहीं है, जैसे रात व दिन परस्पर विरोगी हैं इकट्ठे नहीं रह सकते, उसी प्रकार सांख्य (निवृत्तिमार्ग) व 'योग' (प्रवृत्तिमार्ग) परस्पर विरोधी है। प्रवृत्ति (ग्रहण) व निवृत्ति (त्याग) परस्पर विरोधी पदार्थों को स्वतन्त्र य तुल्यबल कोई भी बुद्धिमान् नहीं मान सकता। हाँ, कालभेदसे दोनो उपयोगी बनाये जा सकते हैं, परन्तु एक ही अधिकारीमें एक ही कालमें परस्पर विरोवी साधनोंको स्वतन्त्र व तुल्य घलयाले निश्चय करना ऐसा हो प्रमादजनक होगा, जैसे कोई वैध अपने रोगीके लिये एक ही कालमें परस्पर विरोधी रेचक ध पाचक दोनों प्रोपधियोंको स्वतन्त्र व तुल्यबल तजवीज करे। भगवान ऐसे भ्रान्तचित्त नहीं थे। साधारण बुद्धिका मनुष्य भी इसपर श्रद्धा नहीं कर सकता। हाँ, 'सांख्या व 'योग' में लक्ष्यके अभेद करके, कि वे दोनों क्रम-क्रमसे एक ही लक्ष्यको भेदन करनेवाले है, एकत्ता स्थापन की जा सकती है। दोनोंको समकालीन
और स्वतन्त्र साधन मानकर एकता बनाना सर्वथा अयुक्त है। जिस प्रकार लाहौरसे दिल्ली जानेवाले दो भुमाफिर, एक गाजियाबादमें है और दूसरा सहारनपुरमें, वे दोनों एक ही स्थानको प्रास होनेवाले है और दोनोका मार्ग भी एक ही हैं, इसलिये उन होनाका अभेद है । परन्तु लक्ष्यका अभेद रहते हुए भी मखिलोंका भेद अवश्य मानना पड़ेगा। एक अपने स्थानको एक ही दिनम
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साधारण धने] प्राप्त कर लेगा और दूसरे को कई पड़ाव लॉपने पड़ेंगे। ठीक इसी दृष्टान्तसे 'सांख्य' व 'योग' की एकता भगवानको इष्ट है न कि भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र मागे मान करके । श्लोकमे 'सांख्य' के साथ 'प्राप्यते' और 'योग' के साथ 'गम्यते' शब्द प्रयुक्त हुए है:-,
.. 'यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते' ... इस शब्दभेदका प्रयोजन भी यही है कि सांख्यद्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है, योगद्वारा उसीको गमन किया जाता है। श्राशय यह कि सांख्यके द्वारा जो स्थान प्राप्त करना है योगद्वारा भी पहुँचना तो उसी स्थानको है, परन्तु गमन करके, अर्थात् परम्परासे मञ्जिल लाँघ कर । 'प्राप्यते' और 'गम्यते' शब्दका भेद इसी आशयको सूचित करता है । विपरीन इसके परस्पर विरोधी साधनोंकी स्वतन्त्रता व तुल्यबलवत्ता किसी प्रकार युक्ति को नहीं सहार सकती-और न युक्तिविरुद्ध प्रमाण मान्य ही हो सकता है। परन्तु हमारा उपर्युक्त श्राशय तो युक्ति,प्रमाण और दृष्टान्तसे स्पष्ट सिद्ध होता है । तिलक-मतके अनुसार यदि 'सांख्य वयोग को स्वतन्त्र व वैकल्पिक माना जाय तो जो मुमुनु इन दोनो, मार्गोंमें से किसी एक मार्गमें प्रवृत्ति हुआ है, उसके लिये दूसरा मागे सर्वथा निरर्थक सिद्ध हो जाता है मानों वह दूसरा मार्ग संसारमें शून्यरूप ही है और उसका कोई मूल्य नही । परन्तु वेदान्त-भतमें ऐसा नहीं है, मुमुक्षुके लिये दोनो ही मागोका कालभेदसे सदुपयोग किया गया है, यही वेदान्त-मतमे गौरव और तिलक मतमें विचित्र लाघव है। (२) लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।। (अ.३.३)
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[आत्म-विलास
अर्थः हे निष्पाप ! पूर्व मेरे द्वारा इस संसारमें दो प्रकारकी निष्ठा कही गई हैं, 'ज्ञान-योग' द्वारा सांख्योंकी और 'कर्मयोग' द्वारा योगियोंकी । इस श्लोकसे भी तिलक महोदयकी उक्ति सिद्ध नहीं होती । अधिकारमेहमे यह दो निष्ठाएँ भिन्न-भिन्न हैं जरूर, मोक्षप्राप्तिमें दोनोंकी अपेक्षा अवश्य है, परन्तु इससे इन दोनोंकी स्वतन्त्रता व तुल्यबलवत्ता मिद्ध नहीं होती। यदि भगवानको इनको तुल्यबलवत्ता इष्ट होती तो यह कह सकते थे कि योगीजन चाहे 'कर्म-योग' से जाएँ चाहे ज्ञान-योग' से, और सांख्यवाले चाहे ज्ञान-योग' से जाएँ चाहे 'कर्म-योग' से । परन्तु इसके विपरीत भगवान्ने तो स्पष्टरूपसे अधिकारको स्थिर किया है
और कहा है कि योगके अधिकारियोंको 'कर्मयोग' से ही गमन करना चाहिये न कि ज्ञान-योगसे, और सांख्यके अधिकारियोंको 'ज्ञान-योग' से ही जाना चाहिये न कि 'कर्म-योग' से । परन्तु तिलक मतमें तो कहा गया है कि दोनो स्वतन्त्र हैं जिसकी इच्छा जिस मार्गसे जानेकी हो वह उसी मार्गसे जा सकता है इसके विपरीत इस श्लोकमें तो ऐसीस्वतन्त्रता नहीं दी गई, यहाँ तो अधिकारका बन्धन लगाया गया है। अब यदि ऐसा कहा जाय कि 'कर्म 'ज्ञान' का पूर्वाग नहीं, तो अ४ श्नो. ३३ में स्पष्टरूपसे भगवान्ने कह दिया है कि "हे परन्तप । द्रव्य-यज्ञकी अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ ! समस्त काँका ज्ञानमें पर्यवसान होता है।"
यदि कर्म पूर्वांग न होता तो ज्ञानमें पर्यवसान भी न पाता, क्योंकि फलमें ही फूलका पूर्वाग होनेसे पर्यवसान होता है, और ज्ञान-यज्ञकी सर्वश्रेष्ठता भी न गाई जाती । यदि दोनों मार्ग 'स्वतन्त्र व तुल्यबल समझे जाएँ, तब उनमेंसे एकको 'सर्वश्रेष्ठ - कहना कोई अर्थ नहीं रखता । इससे आगे ही अ. ४ श्लो. ३५,
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[६५
साधारण धर्मे] ३६, ३७, ३८ में ज्ञान-यज्ञकी महिमा इस प्रकार गाई गई है:
"ज्ञानके समान कोई श्रेष्ठ वस्तु संसारमें नहीं है।" "ज्ञान-अग्नि सर्व कर्मोको इसी प्रकार भस्म कर देती है, जिस
प्रकार भौतिक अग्नि ईंधनको जलाकर भस्म कर देती है।" । “तू कितना भी पापीसे पापी हो, फिर भी ज्ञान-नौकाद्वारा तू
सर्व पापोको भली प्रकार तर जायगा ॥" और श्लोक ३८ में तो स्पष्ट ही कह दिया है:.. तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।।
अर्थात् उस ज्ञानको (जिसकी महिमा ऊपर कही गई है) तू स्वयं ही योगके सिद्ध होनेपर काल पफिर आप ही अपनेमें प्राप्त कर लेगा। .
इससे तो योगसिद्धि ही ज्ञानको पूर्वाङ्ग सिद्ध होता है । यदि 'कर्मयोग', ही विशेष होता तो 'संसारमें ज्ञानके समान कोई पवित्र वस्तु नहीं है। इन वचनोंका कोई भावार्थ नहीं बन सकता था।'ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता ही 'कर्म' कीगौणताको सिद्ध करती है।
तिलक महोदयने स्थान-स्थानपर कहा है कि ज्ञानोत्तर ज्ञानीके लिये दो मार्ग हैं, परन्तु शोक ! ऐसा कोई प्रमाण गीतामें नहीं मिलता जिससे ज्ञानके पश्चात् दो मार्ग सिद्ध होते हों । बल्कि ज्ञानीके लिये यह वो कहा गया है 'तस्य कार्य न विद्यते' (अ.३. श्लो. १७, १८) अर्थात् ज्ञानी के लिये कोई कर्तव्य नहीं है। परन्तु तिलक महोदय तो मुक्तपर भी बन्धन लगाये ही जाते हैं। --- (३) ; संन्यासः कर्मयोगश्च निश्रेयस्करावुभौ । .
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥(अ.५,२.) अर्थ:-संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मोक्षप्रद हैं, ईन दोनोंमें भी कर्मसंन्याससे कर्मयोगकी विशेपता है।
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[आत्मविलास
६६] इस श्लोकसे तिलक महोदयने यह प्रमाण किया है कि दोनों मार्ग तुल्यवल व स्वतन्त्र होते हुए भी भगवानको यह इष्ट है कि कर्मसंन्याससे कर्मयोगकी विशेषता है।
(१) दोनों मागोंकी स्वतन्त्रता, (२) तुल्यबलवत्ता और (३) वैकल्पिक रूपसे इनका आचरण, इन तीनों विषयोका खण्डन तो विस्तारसे हमारे समाधानके अङ्क प्रथममें इसी खण्डके पृ.४ से १४ पर तथा उपयुक्त श्लोक नं १ व २ की व्याख्यामें प्र. ६१ से ६५ पर किया जा चुका है इस लिये पुनरुक्ति निष्प्रयोजन है। अब यहाँ विचार यह करना है कि क्या कर्मसंन्यास' (सांख्य, ज्ञान, निवृत्तिपक्ष) से 'कर्मयोग' की विशेषता भगवानको इष्ट है ? यदि ऐसा माना जाय कि वास्तवमें भगवानको 'कर्मयोगकी' विशेषता इष्ट है, तो भगवान्के पूर्वापर वचनोंकी सङ्गति नहीं लगवी। किसी वक्ताके आशयका निर्णय करनेके लिये पूर्वापरकी सगति लगाना अत्यन्त जरूरी है, बिना ही सङ्गतिके अपना आशय किसी एक वचनसे सिद्ध करना तो ऐसा ही होगा, जैस किसीने कुरानसे भी 'नुमाज मत पढ़ो निकाल लिया था। पीछे चतुर्थ अध्याय श्लो. ३५,३६,३७ में तो भगवान ज्ञानकी सर्वश्रेष्ठता और श्लो. ३८ में योगको ज्ञानका पूर्वाङ्गवर्णन कर आये हैं यथा:
तत्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति' अर्थात् योग सिद्ध होनेपर साधक उस ज्ञानको समय पाकर
® कुरान में लिखा था कि 'नुमाज मत पढ़ो, जबकि तुम नापाक हो । एक व्यक्ति नुमाजसे घबराता था, अपने साथियोंसे पीछा छुड़ाने के लिये 'जबकि तुम नापाक हो' इस वाक्यको दवा कर अपने साथियोंको कुरान दिखलाकर कहने लगा "देख लो ! कुरानमें भी लिखा हुआ है कि नुमाज मत पढ़ो।
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[६७
साधारण धर्म] अपने-श्राप अनुभव करेगा तथा आगे इसी अध्याय ५ श्लोक ४ व ५ में सांस्य व योगका अभेद इस प्रकार वर्णन कर रहे हैं:
'एक सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। 'सांख्ययोगौ पृथग्वालाः प्रवदन्ति न पण्डिता ॥ . फिर बीचमें ही कर्मसंन्याससे 'कर्मयोग' की विशेषता मानी जाय तो वदतोव्याधात-दोष आता है, इसका कोई समाधान विलक-मतमें नहीं मिलता । वेदान्त-मतमें तो इसकी स्पष्ट सङ्गति है और वदनोव्याघात-दोष भी नहीं 1 यह इस प्रकार है:
(१) 'सांख्य' व 'योग' दोनों एक ही स्थानको लेजानेवाले हैं उनके लक्ष्यका भेद नहीं । लक्ष्य के अभेद करके ही उनकी एकता कथन की गई है, परन्तु पड़ावोंका भेद अवश्य है। इसको श्लोक नं०१ की व्याख्यामें स्पष्ट किया गया है। . () योगसंसिद्धिके द्वारा ज्ञानप्राप्ति सम्भव है, यह अध्याय ४-३८ में भगवानको इष्ट है। और शानद्वारा ही मोक्षकी सिद्धि हो सकती है, जैसा गीता अ. ११ श्लो.,६, १०, १९ व अ. १८ श्लो.५१, ५२, ५३ में कहा गया है।
(३) जो पुरुष जिस साधनका अधिकारी है उसके लिये वही मोक्षप्रद है, क्योंकि उस साधनके द्वारा ही वह मोक्षमार्गमें अग्रसर हो सकता है। अधिकारभिन्न साधन चाहे ऊँचा भी छोवह उसके लिये अधःपतनका ही कारण होगा। जैसे ज्वरपीड़ित रोगीके लिये घृत पुष्टिकारक नहीं, किन्तु रुक्ष अन्नसे ही वह बल प्राप्त कर सकता है, वैद्य उसके लिये रुक्ष अन्न ही पथ्य बतलाना है। इसी
पहले कुछ कहना और पीछे आप ही उसे काट देना, इस दोषको 'वदती व्याघाव दोष कहते हैं। । ... ;
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६]
[आत्मविलास प्रकार जिसके हृदयमें रजोगुण भरपूर है उस अधिकारीकी दृष्टिसे यहाँ 'कर्मयोग' को विशेषता कही गई है। रजोगुण निकलनेपर वह श्राप 'सांख्य द्वारा ज्ञानको प्राप्त कर जायगा। इसी दृष्टिसे 'कर्मयोगो विशिष्यते' कहा गया है। .. (४-५-६) कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसास्मरन् ।
इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ नियतं कुरु कर्म वं कर्म ज्यायो हकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते नासिद्धय देकर्मणः।। (अश्लो ६.७.८)
अर्थः कर्म इन्द्रियोंको रोककर जो मूढपुरुषमनसे इन्द्रियोंके विपयोंका स्मरण करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है। और जो मनसे इन्द्रियों को रोककर कर्मेन्द्रियोंद्वारा असक्त हुआ कर्मयोगका प्रारम्भ करता है, हे अर्जुन | वह विशेष है। इसलिये तू नियत (अधिकारानुसार) कर्मको कर, कर्म न करनेसे कर्म करना श्रेष्ठ है, क्योंकि बिना कर्मके तेरी शरीरयात्रा भी सिद्ध नहीं होगी।
इन तीनों श्लोकोंसे तिलक मतका कोई अङ्ग प्रमाणित नही होता। न तो इनसे यही सिद्ध होता है कि मोक्षप्राप्तिमें कर्म स्वतंत्र साधन है, न यह सिद्ध होता है कि ज्ञानसे कर्म विशेष है और न यह कि ज्ञानीके लिये कोई कर्तव्य है। इन श्लोकोंमें स्पष्ट यही कथन है कि जो मनमें विषयोंका चिन्तन करता रहता है और इन्द्रियोंको रोककर निश्श्रेष्ट हो बैठा है वह दम्भी है । वेदान्त भी ऐसे त्यागको आदर नहीं देता । परन्तु शुभसकामकर्म, निष्काम
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साधारण धर्म-]
कर्म और भक्तिके द्वारा जिनके हृदयोस रजोगुण निकल चुका है, भोगोंसे जिनकी बुद्धि विरस हुई है और सांसारिक सर्व कामनाएँ निर्मल होकर केवल भगवत्प्राप्तिरूप वासना ही जिनके चित्तमें ठसे गई है, उनको वेदान्त खुले दिलसे निवृत्ति के लिये
आलिङ्गन करता है। श्र.३लो मेंजो यह कहा गया है कि 'कर्म नकरनेसे कर्म करना श्रेष्ठ है उसकासम्बन्ध भी उन्हींदम्भी पुरुषोंसे है, त्यागी पुरुषोंसे नहीं । सिद्धान्त यही है कि जैसे लोहेसे लोहा काटा जा सकता है, उसी प्रकार अधिकारानुसार नियत कर्म करते-करते कर्मसे छुटकारा पाया जाता है, परन्तु लक्ष्य छुटकारा पानेमें ही है इसके विपरीत तिलक-मतमें कदापि कर्मसे छुटकारा है ही नहीं, कर्तव्यका बन्धन विद्यमान ही है। (७.८) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । .... : मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।। (गी. २.४७)
बुद्धियुक्तो जहातीह उमे सुकृतदुष्कृते। ... तस्माद्योगाय युज्यस्त्र योगः कर्मसु कौशलम्॥ (गी.२-५०)
अर्थः तेरा अधिकार कर्ममें ही है फल मे कदापि नहीं, इस लिये तू कर्मफलका हेतुवाला वनकर कर्म न कर और कर्म न करनेका भी .अाग्रह न कर । बुद्धियोगसे युक्त हुा पुरुष इसी लोकमें पाप व पुण्य दोनोंसे अलिप्त रहता है, इस लिये तू योगका आनय कर, कर्म करनेकी चतुराईको ही 'योग' कहते हैं। (इस श्लोकका वास्तविक तात्पर्य तो कुछ और ही है, परन्तु उनकी उक्तिको लेकर ही कहा जाता है।)
इन दोनों श्लोकोसे भी..तिलक-मतका कोई अङ्ग प्रमाणित 'नहीं होता ;ज इनसे यही सिद्ध होता है कि ज्ञानीके लिये ज्ञानोत्तर
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७० ]
आत्म विलास] भिन्न-भिन्न दो मार्ग हैं, अथवा मोन केवल कर्मसे ही सम्भव है, अथवा ज्ञानीपर कर्तव्यरूप विधि है । इन श्लोकोंमें फलाशारहित कर्मकी महिमा गाई गई है, मो वेदान्तको मुक्तकण्ठसे स्वीकार है । वेदान्त निष्काम-कर्मका खण्डन नहीं करता, बल्कि मुमुक्षुके लिये इसको श्रादर देता है और इसमेंसे होकर इससे आगे बढ़ने के लिये भी कहता है, परन्तु तिलक-मतमें तो इससे आगे और कुछ है ही नहीं। अर्जुनके लिये भगवानने कर्मका अधिकार स्थिर किया है यह सही है, परन्तु तिलक महोदयका कथन है कि भगवान्ने अर्जुनको कर्मका अधिकारी बनाया है इससे सबका यही अधिकार है। यह हो कैसे सकता है ? सत्रकी प्रकृति समान कैसे बनाई जा सकती है ? 'प्रकृतिनां वैचित्र्यम्' प्रकृति सबकी भिन्न-भिन्न होती है। यदि तिलक महोदयकी उक्तिको ही मान लें तो इन्ही भगवानने उद्धवको एकादशस्कन्ध (भागवत्) में त्यागका उपदेश क्यों किया? शायद वह इसका कोई सचर न दे सकेंगे और चुप ही होना पड़ेगा। (६, १०, ११) नियतस्य तु संन्यासः कर्मणोनोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥ दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्यजेत् । स कृत्वा राजसं त्योग नैवत्यागफलं लभेत्।। कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन । संगत्यक्त्वा फलं चैव सत्यागासात्विकोमतः।।
(श्र. १८ लो.. .) अर्थ:-स्वधर्मानुसार नियत कर्मोंका संन्यास किसीको भी उचित नहीं, मोहसे नियत कोका त्याग तामस-त्याग कहा गया
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साधारण धर्म] है। 'कर्म दुःखरूप है। इस प्रकार शरीरक्लेशके भयसे जो कर्मका त्याग किया जाय, ऐसा पुरुष राजसिक-त्याग करके त्यागके फलको प्राप्त नहीं होता । हे अर्जुन ! स्वधर्मानुसार नियत किये गये कर्माको जो पुरुष करना योग्य है। इस मावसे फल व प्रासक्तिको छोड़ कर करता है, वह सात्त्विक त्याग कहा गया है।
उपर्युक्त तीनों लोकोंमें गुणभेदसे त्यागके तीन भेद किये गये हैं, जिनमेंसे मोह-अज्ञानपूर्वक त्यागको 'तामस' और कायको शके भयसे दुःखरूप मानकर किये हुए त्यागको राजस' कहा गया है और दोनों ही निन्दित कहे गये हैं। केवल सात्त्विकत्यागको आदर दिया गया है और उसका यह लक्षण किया गया है कि आसक्ति व फलाशाको त्यागकर नो नियंत कर्म (स्वधर्मानुसार) किया जाय, वह ही 'सात्त्विकत्याग है। अब देखना यह है कि नियत कर्मका क्या अर्थ है। 'ब्राह्मणका जो नियत-कर्म है वह उससे भिन्न है जो क्षत्रियका है और क्षत्रियका नियत-कर्म वैश्य व शूद्रसे भिन्न है । एक वर्णका नियत-कर्म दूसरे वर्णके लिये अनियत-कर्म बन जाता है। इसी प्रकार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासीमेंसे प्रत्येक आश्रमका जो अपनाअपना नियंत-कर्म है, वह अन्य आश्रमके लिये अनियत-कर्म अवश्य सिद्ध होगा। इतना ही नहीं, बल्कि प्रत्येक वर्ण व प्रत्येक आश्रममें व्यक्तिभेदसे प्रत्येक व्यक्तिके चित्तके अधिकारानुसार गुणतारतम्यसे नियत-कर्म भिन्न-भिन्न होगा। जिसके चित्तमे तमोगुण प्रधान है, उसके लिये वह चेष्टाएँ जो तमोगुण निवृत्त करके रजोगुणको प्रकट करनेवाली होंगी, नियत-कर्म' कहला सकती हैं। जिसके चित्तमें रजोगुएकी प्रधानता है, उसके लिये वह चेष्टाएँ जो रजोगुण घटाकर सत्त्वगुणका उद्बोध करनेवाली हों नियत-कर्म हो सकती हैं । रजोगुणस प्रवृत्ति औरसत्त्वगुणसे
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७२]
[आत्मविलास निवृत्ति सिद्ध होती है। जिसके हृदयमें सत्त्वगुण भरपूर है और जो गीता अ. १८ श्लोक ५१, ५२, ५३ के अनुसार मन-इन्द्रियोंको जीतकर वैराग्यपरायण हुआ है, ऐसे वैराग्यपरायण अधिकारीके लिये पैराग्य क्या नियत-कर्म नहीं, अनियत कर्म है। परन्तु तिलक महोदय तो केवल प्रवृत्तिरूप कर्मों को ही नियत-कर्म मानते हैं, निवृत्तिको न कर्म ही मानते हैं और न 'नियत-क्रर्म' । जिनके दिमागमें रजोगुणकी प्रवलवाके कारण एकमात्र प्रवृत्ति ही उस गई है, उन एकदेशीय दृष्टिवालोंको कौन समझाये परन्तु व्यापक भगवानका उपदेश ऐसा एकदशी नहीं हो सकता, वह व्यापक है
और समीके लिये श्रेयपथप्रदर्शक है । कर्मकी व्याख्याके अनुसार प्रत्येक प्रवृत्ति प प्रत्येक निवृत्ति भावोत्पादक होनेसे 'कर्म' है। जबकि 'नियत-कर्म' की व्याख्या इस रूपसे व्यापक मानी जाय, तब इन श्लोकोंसे तिलक-मतका कोई अह्न प्रमाणित नहीं होता। (१२) एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ।। (अ. ४. १५)
अर्थः-ऐसा जानकर पूर्व मुमुक्षुबोंद्वारा भी कर्म किया गया है, इस लिये तू भी पूर्वजोंद्वारा सदासे किये हुए कर्मको ही कर। - इस श्लोकमें भगवान्ने मुमुनुजनोंके लिये कर्मकी प्राचीन शैलीको वतलाया है, वेदान्तका इससे कोई विरोध नहीं है। मुमुक्षुके लिये वेदान्त कर्मका निषेध नहीं करता, बल्कि अन्तः करणकी शुद्धिके लिये कर्मकी आवश्यकता निरूपण करता है
और साथ ही यह भी कहता है कि अन्तःकरणरूपी क्षेत्र जब साफ हो चुका तब इसमें ज्ञानरूपी बीज बोनेकी जरूरत है। क्षेत्र साफ करते रहने के लिये ही नहीं है बल्कि बीज बोकर फल पैदा
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[ मधिारण धर्म करनेके लिये है। इस प्रकार मुमुक्षुके लिये इम श्लोकमें कर्म की आवश्यकता कथन की गई, ज्ञानीके लिये कर्मका बन्धन नहीं किया गया। 'कर्म' प्रकृतिके राज्यमें है और मुमुतु भी अभी प्रकृति के राज्यमें ही है, प्रकृतिराज्यसे बाहर नहीं निकला। इसलिये उसपर अधिकारानुसार प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति कर्तव्य है। परन्तु ज्ञानी जो प्रकृतिराज्यसे केसरीसिंहके समान पिञ्जरा तोड़कर निकल गया, उसपर कोई कर्तव्य कैसे लागू हो सकता है ?. उस ब्रह्म-कर्म समाधिवाले के लिये (ब्रह्मकर्मसमाधिना अ.' ४-२४) तो सव कर्म अकर्म ही है, अर्थात् ब्रह्मरूप ही हैं। फिर उस ऐसे अभेदपिवालेपर विधि कैसी ? विधि तो भेदमे ही होती है। . . . . . . (१३-१४) त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
'कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ।।. : ... . निराशीयंतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । 30 • शारीर केवलं कर्म 'कुर्वन्नाप्नोति किल्विपम् ॥
+ अर्थः 'कर्मपलको त्यागकर जो पुरुष कर्तृत्वाभिमानसे रहित सांसारिक आश्रयसे छूटा हुआ नित्य हम है, वह कर्ममें प्रवृत्त रहता हुंआ भी कुछ नहीं करता। जो पुरुप आशारहित है, चित्त और शरीरको जीते हुये है तथा जिसने सभी भोगोंकी सामग्री त्याग दी है, ऐसा पुरुष केवल शरीरसम्बन्धी कर्म करता' हुधा पापको प्राप्त नहीं होता।
प्रथम श्लोकमें कहा गया है कि 'जो पुरुप सर्व आश्रयरहित नित्व ही अपने स्वरूपमें तृप्त और कर्तापनसे छूटा हुशा है, वह 'कर्मफलको त्यागकर कर्ममें प्रवृत्त हुआ भी कुछ नहीं करता। इमी
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आत्मविलास ]. प्रकार दूसरे श्लोकमें भी इसकी पुष्टि की गई है कि 'जो सब
आशाओंसे छूटा हुआ है और शरीर-मनपर जिसका काबू है, वह शरीरसम्बन्धी स करता हुआ मी पापसे लेपायमान नहीं होता। भगवान्के उपर्युक्त वचन वेदान्तसे विरोधी नहीं है । वेदाविका यह आशय है कि निष्काम कर्मसे जिसका अन्तःकरण যুদ্ধ ই স্পী মানা কথন চৰীকা মিনাল ভিলক্ষ্য दग्ध हुआ है, उसके लिये कर्म वन्धनकारक नहीं और वह करता हुआ भी कुछ नहीं करता । उसके सब कर्म भुने बोनके समान है नो फलके हेतु नहीं रहते और वह सर्व कर्तव्योंसे मुक्त है, फरे या न करे। हॉ, अन्तःकरण शुद्ध होनेके पश्चात् और ज्ञानसे पहले प्रवृत्तिसे छूटकर ज्ञान के साधनोंमें प्रवृत्त होना वेदान्तहष्टिसे आवश्यक है, परन्तु ज्ञान प्राप्त कर चुकनेपर उसके लिये कोई विधि नहीं । जय वह रोगमुक्त हो गया तब उसके लिये ओषधि व पथ्य जरूरी नहीं।
तिलक मत कहता है कि ज्ञानीके लिये भी कर्तव्य अवश्य है सो इन श्लोकोंसे शानीपर कोई कर्तव्य सिद्ध नहीं होता। मगवान्का कथन है कि ऐसा पुरुष कर्म भी करे तो भी वह कुछ नहीं करता और किसी पापसे लेपाथमान नहीं होता। परन्तु इससे उसपर किसी कर्मकी विधि सिद्ध नहीं होती, बल्कि यह उसकी. महिमा है कि वह करता हुआ भी कुछ नहीं करता और नहीं पॅधता। न तिलक-मतके अनुसार इन श्लोकोंसे धानोत्तर दो, भिन्न-भिन्न मार्ग स्वतन्त्र और तुल्यबल ही सिद्ध होते हैं। (१५) तस्मादज्ञानसम्भूतं हत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
चित्त्यैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ (१-४२) अर्थ-इसलिये अनानसे उत्पन्न हुये हृदयस्य अपने इस संशयको (कि मैं कर्ता-मोक्ता हूँ) बानरूपी खड्गसे छेदन करके
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[ साधारण धर्म और योगमें स्थित होकर हे भारत ! तू खड़ा होना ।। । __ इस श्लोकसे भी तिलक-मतको कोई अङ्ग प्रमाणित नहीं होता। इस श्लोकका तात्पर्य यह है कि यह जो तेरे हृदय में संशय स्थिर हो गया है कि 'मैं भीष्मादिकोंको मारनेवाला हूँ
और वे मारेजानेवाले हैं। यह तेरे कर्तृत्वाभिमान करके ही सिद्ध होता है। कर्तृत्वाभिमान देहासिमानके कारणसे है, जब तूने शरीरको ही आपा करके जाना और भीष्मादिकोंको अपनेसे भिन्न जाना, तभी तू मारनेवाला बन रहा है। किन्तु यह अज्ञानसम्भूत है। इस संशयको तू अपनी ज्ञानरूपी तलवारसे काट, कर्मरूपी तलवारसे नहीं; क्योंकि भज्ञानसिद्ध वस्तुको नाश करने के लिये ज्ञानकी ही जरूरत है। अन्धकारको नष्ट करनेके लिये प्रकाश ही चाहिये, किसी शखादिकोंसे अथवा जप-तपादिकोसे अन्धकारकी निवृत्ति असम्भव है । वह ज्ञान यह है कि तूने नो अपने-आपको देहरूप करके नाना है सो तू नहीं, बल्कि तू शरीर का सार व अधिधानरूप आत्मा है । देहादि तेरे वास्तविक स्वरूप को ढाँपनेके लिये पोशाकके समान कल्पना किये गये हैं। जब तू 'अात्मस्वरूप जानतसे निकलकर स्वप्नमें जाता है तब स्थूलदेह
रूपी पोशाक तेरेसे उतर जाती है, लेकिन उस समय भी तू देही (आत्मा) अवश्य रहता है और, सूक्ष्मशरीरको सब रचनायोंको देखता है । सुषुप्ति अवस्थामें जब तू अपने वास्तविक प्रानन्दस्वरूपमें विश्राम करता है तब यह सूक्ष्मशरीररूपी पोशाक भी तेरे से उत्तर जाती है, परन्तु तू तो यहाँ भी अवश्य रहता है और जाप्रतमे आकर सुपुप्ति व स्वप्नके अनुभवोंकी स्मृति भी करता है। इसलिये वही तू है, जो तीनों अवस्थाओं में हाजिर नाजिर है और यह तीनों शरीररूपी पोशाकें तेरे में -कल्पित हैं। जो तू * इस अर्जुन शरीर में है वही तू मीप्रमादि सर्व शरीरों में है और
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मात्मविलास]
[७६ सर्व देश-काल-वस्तुसे अच्छेच है । जैसे एक ही व्यापक आकाश नाना-घटोंमें पाया हुआ भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, परन्तु वास्तष में घटोंके भेदसे आकाशका भेद और घटोंके नाशसे आकाशका नाश नहीं होता, इसी प्रकार शीरोंके नाशसे आत्माका नाश नहीं हो सकता।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । । उमौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न इन्यते ॥ ।
अर्थात् जो इस आत्माको मारनेवाला जानता है अथवा जो "इस आत्माको मरनेवाला मानता है, वे दोनों ही यथार्थ नहीं जानते, क्योंकि वास्तवमें यह आत्मा न मारता है न भरता है। ___इस प्रकार ज्ञानरूपी तलवारसे पर्तृत्वाभिमानको काटकर अपने आत्मस्वरूपी योगमें स्थित हुआ, हे भारत! तू खड़ा हो । कर्तृत्वाभिमान ही धन्वन है और इसका समूल अभाव होना ही मुक्ति । किसी प्रकार कर्मके द्वारा कर्तृत्लामिमानको नाश नहीं किया जा सकता, बल्कि कर्मद्वारा तो इसकी वृद्धिका ही सम्भव है । एकमात्र उपयुक्त ज्ञान ही इस अमिमानसे छुटकारा दिला सकता है और यह ज्ञान केवल उसी हृदयमें टिक सकता है जो 'वैराग्यरूपी माडूसे साफ हो चुका हो। इस श्लोकमें भगवान ने धर्मद्वारा मोक्ष निरूपण नहीं किया, बल्कि कर्तृत्व-संशयको छेदन करनेके लिये 'ज्ञानासिना' ज्ञानरूप खड्ग ही सावन बतलाया है । 'योग' शब्दका अर्थ यहाँ निष्काम कर्म-योग नहीं है, बल्कि यहाँ आत्मस्वरूपस्थिति ही 'योग' शब्दका मुख्य अर्थ है । क्योंकि ज्ञानरूपी तलवार और निष्काम कर्मयोग दोनों साधन तो इकट्ठे रह नहीं सकते, किन्तु ज्ञानरूप तलवार तो साधन है और 'योग' (आलस्वरूपस्थिति) साध्य, अर्थात् ज्ञानद्वारा ही आत्मस्वरूप
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७७]
[ साधारण धर्म की प्राप्ति सम्भव है। बानद्वारा विष्काम-कर्मयोग किसी प्रकार साध्य नहीं बनाया जा सकता । अव यदि यह कहा जाय कि इस लोकम, भगवान्ने अर्जुनको खड़ा होनेके लिये कहा है तो इससे शानीपर कोई कर्तव्यरूप विधि सिद्ध नहीं होती। यदि भगवान् के मतसे मानीपर विधि होती तो अपने उपदेशकी-समाप्ति पर भगवानको स्पष्ट कहना चाहिये था कि तुमे युद्ध करना कर्तव्य है, परन्तु वे तो भन्तमें कहते हैं।
, 'मैंने तेरेको अपना अति गुह्य-ज्ञान कह दिया है, इसको विचारकर 'यथेच्छसि तथा कुरु' अर्थात् नैसी तेरी इच्छा हो
वैसा कर (अ. १८ श्लो. ६३)। (१६) : सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
1. अर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीपर्लोकसंग्रहम् ।। (३. २५) __अर्थः-हे भारत ! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही भनासक्त हुआ विद्वान् लोकसंग्रहको चलाता हुमा र्म करे।
इस श्लोकसे स्पष्ट विदित है कि भगवानने विद्वान् पर अपने निमित्त तो कोई कर्तव्य नहीं रक्खा, बल्कि लोकसंग्रहके "निमिच कर्म करनेको कहा है, सो भो कर्तव्यरूपसे नहीं किन्तु एक परामर्शरूपसे कहा है। 'कुर्यात विद्वान्' अर्थात विद्वान् लोकसंग्रहको करे, विद्वान्पर कर्तव्य है ऐसा नहीं कहा गया । यदि विद्वानके लिये विधि भावानको इष्ट होती तो 'पुर्यात के स्थानपर 'कर्वप' शब्दका प्रयोग क्या वह नहीं कर सकते थे ? परन्तु भगवानको 'विद्वान्पर विधिरूप कर्तव्य इष्ट नहीं है। दूसरे, विद्वान् की प्रत्येक चेय स्वाभाविक ही लोकसंग्रहरूप होती है। उसको लोकसग्रह बनानेके लिये कोई कर्तव्य धारण करना नहीं पड़ता। यदि वह कृत्रिमरूपसे कर्तव्य धारकर लोकसंग्रह करना चाहे, तब बह
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आत्मविलास]
[ लोकसंग्रह चलानेका पात्र ही नहीं।लोकनंद तो उम विद्वानद्वारा फेवल तभी सिद्ध हो सकता है, जबकि उनकी प्रत्येक चेष्टा मी प्रकार स्वाभाविक सत्यतापूर्ण व शिक्षाप्रद हो जाय, जैसे नेत्रोंका खोलना मून्दना और मालोका बहना सामाधिक होता तिलक महोदय का जीवन केवल प्रवृत्तिपरायण रहा, इस लिये वे फेयता प्रवृत्तिमें ही लोकसंग्रहको भले ही भीमावद कर परन्तु बदि वे थोड़ा पीछे मुड़कर देखते तो उनको ज्ञात होता कि नियुत्तिद्वारा कितना कुछ लोकसंग्रह सिद्ध हो चुका है और हो रहा है। बल्कि 'प्रवृत्तिद्वारा यह शान्ति व स्वराज्य स्थापन नी हो सकता जो निवृत्तिद्वारा स्वाभाविक सिद्ध हो जाता है। इसके लिये हमको प्राचीन बालक सनकादिक व शुक्रादिकोपर दष्टि डालनेकी जरूरत नहीं, बल्कि निकटवर्ती कालके श्रीकधीर देवजी, श्रीगुरुनानकदेवजी, गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी, श्रीस्वामीरामदासजी, श्रीज्ञानदेवजी, श्रीदादूदयालजी और श्रीरामचरणजी के जीवन तथा वर्तमान काल के श्रीस्वामी विवेकानन्दजी, श्रीस्वामी रामतीर्थजी और श्रीस्वामी मगलनाथजी आदिके जीवन इसके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं। जिनके आचार व विचार मुर्दोमे भी प्रापसचार कर देते हैं । वल्कि सस्य तो यह है कि प्रवृत्तिद्वारा नो लोक्साह सिद्ध होगा वह केवल भौतिकसुखको ही देनेवाला होगा, सच्ची शान्ति प्रदान करने में निवृत्तिरूप लोकसंग्रह ही एकमात्र साधन है। तिलक महोदयने कहा है कि सन्यासी कहते हैं 'कर्तव्य शेष नहीं, कुछ न कर।
और गीता कहती है 'पर्तव्य शेष नहीं, अनासक्त बुद्धिसे कर। वास्तवमें कहना पडेगा कि तिलक महोदयने कर्तव्य अशेष' का भावार्थ ही न सममा । 'क्तव्यशेप नहीं के साथमें न तो संन्यास का ही ऐसा मत है कि 'कुछ न कर' और न गीता ही ऐसा कहती है कि 'अनासक्त बुद्धिसे कर। यदि 'कुछ न कर यह विधि लगाई
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[ साधारण धर्म जाय-तो कुछ न करना' भी कर्तव्य बन जाता है और 'अनासक्त बुद्धिसे कर यह विधि भी कर्तव्य हो जाता है। तिलक महोदय के दोनों कथन ही भ्रममूलक हैं । 'कर्तव्य अशेप' का भावार्थ तो यह है कि जहाँ पहुँचकर न तो कुछ न करना ही कर्तव्य रहे और न 'अनासक्त बुद्धिसे करना ही क्तव्य रहे, वहाँ ही 'कर्तव्य अशेप' थयार्थरूपसे सिद्ध होता है। जैसे शिशुकी समस्त शारीरिक चेवाएँ स्वाभाविक कर्तव्यशून्य होती हैं, वैसे ही जिन ज्ञानी पुरुषोंने अपने-आपको ज्यूँ का त्यूँ जाना है उनकी शारीरिक व मानसिक सर्व चेष्टाएँ स्वाभाविक कर्तव्यशून्य होती हैं
और स्वाभाविक लोकसंग्रहका श्राकार धारण कर लेती हैं। क्योंकि सत्यकी ज्योति उनके हृदय में प्रकट हुई है, इसलिये जो कुछ उनसे निकलता है 'सत्य' 'प्रकाश' ही निकलता है ।जैसे सूर्यसे जो कुछ निकलता, है वह प्रकाशरूप रश्मि ही होती है। सारांश यह कि विद्वान-ज्ञानीपर लोकसंग्रह किसी प्रकार कर्तव्यरूपसे आरोपित नहीं किया जा सकता। क्योंकि जहाँ पर्तव्य है वहीं अहान है, कर्तव्य सदेष भेदरष्टिमें ही बनता है और भेददृष्टि ही अज्ञान है। (१५). तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर। - - : * असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुपः ।। (३-१६)
अर्थ-इसलिये तू अनासक्त हुआ निरन्तर करनेयोग्य काँका भली प्रकार श्राचरण पर, क्योंकि शनासक्त कर्माका आचरण करता हुथा पुरुष परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
इस श्लोकमे 'तस्मात् (इसलिये) शब्द अपनेसे पूर्व श्लोकके माथ समन्वय सिद्ध करता है। श्लोक ३. १७ व ३. १८ में भगवान् ने कहा है, . : त्रिसकी अपने आत्मामें प्रीति है और जो स्त्मामें ही हम - वसन्तुष्ट है, 'तस्य कार्य न विद्यते' उसके लिये कोई कर्तव्य
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श्रामविलास ]
नही रहता (३. १७) । उमका इस संस रमें न तो कुछ किये जानेसे प्रयोजन है और न कुछ न किये जामेसे ही कोई प्रयोजन है (३. १८)।
इससे स्पष्ट है कि भगवानको आत्मम (ज्ञामी) पर कोई . कर्तव्य इष्ट नहीं है । अध्याय ३ श्लोक १७ की टीका तिलक महो। दयने 'तस्य कार्य न विद्यते' के अर्थमें स्वयं अपना कुछ कार्य नहीं रहता, परन्तु संसारके निमित्त कर्तव्य रहता है। ऐसा अधिक अर्थ किया है । यह उनका साम्प्रदायिक अाग्रह है । यदि इसको सत्य भी मान ले तो अगले श्लोक ३. १८ में इसका हाथों-हाथ स्पष्ट खण्डन मिल जाता है, जिसमें कहा है कि 'उसका इस संसार में ही कुछ करने या न करने से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता' 'न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यापाश्रयः।' हाँ, उस उपर्युक्त अवस्थाकी प्राप्तिके लिये इस श्लोक (३ १६) में अनासक्त-बुद्धिसे, करनेयोग्य कर्मोका आचरण सहायक बताया गया है । इससे वेदान्तका कोई विरोध नहीं, वेदान्त कर्मों को निष्फल नहीं कहता, घल्कि उसका तो कथन है कि जैसे लोहसे लोहा काटा जाता है, वैसे ही कर्मोंसे मे काटे जाते हैं। इसी प्रकार कर्तव्य-कर्म मी कर्तव्यों से छुटकारा दिलानेके लिये हैं, नकि कर्तव्योंमें अकड़े रखने के लिये ही। इस श्लोकसे कर्मझी कर्तव्यता जिनासुपर रक्खी गई है कि इस प्रकार आचरणद्वारा वह उस ज्ञानापस्था (मुक्तकर्तव्यता) को प्राप्त हो सकता है, जिसका वर्णन पिछले श्लोक ३ १७ व ३ १८ में किया गया है । परन्तु तिलक-मता तो कथन है कि कर्तव्योंसे क्दापि छुटकारा है ही नहीं। ऐसा अर्थ इन तीनों श्लोकों की संगति लगावेसे सिद्ध नहीं होना । 'मुक्त-कर्तव्य' का अर्थ 'निश्चेष्ट होना नहीं है, जैसा तिलक महोदयने इन श्लोको को टीकामें वेदान्त मतको आशय जितलाया है, बल्कि 'विधिसे
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१.]
[साधारण धर्म मुक्त होना है। कर्मकी विधि ही बन्धन है, स्वाभाविक कर्म वन्धक नहीं। यही आशय उन योगवाशिष्ठ तथा गणेश-गीताके श्लोकोंका है, जो तिलक महोदयने इन श्लोकोंकी दीकामें अपनी
ओरसे प्रमाणमें दिये हैं और श्लोक नं० १६ (अ. ३. २५) की “व्याख्या हमारे द्वारा भी पीछे पृ. ७७ से ७६ पर उसका यही
ओशय स्पष्ट किया गया है। (१८) अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरगिर्न चाक्रियः॥
(अ० ६-१) अर्थः कर्मफलका प्राश्रय न करके जो करने योग्य कर्म करता है वही संन्यासी और वही योगी है, न कि अग्निको त्यागनेवाला अथवा क्रियाको त्यागनेवाला।
इस श्लोकमें फलाशारहित कर्मकी प्रशंसा की गई है और ऐसे कर्मको संन्यासकी उपमा दी गई है। इससे भगवान्का तात्पर्य - निष्काम कर्मकी महिमामें है न कि संन्यासकी निन्दामे । जिस संन्यासकी उपमा देकर निष्काम-कर्मकी महिमा गाई गई है, वह संन्यास इससे निन्दित नहीं ठहरता। यदि उपमान (संन्यास) निन्दित है तो उपमेय (निष्काम-कर्म) स्वाभाविक निन्दित होगा। । इससे स्पष्ट है कि संन्यासकी उपमा देकर सन्यास निन्दित नही बनाया गया, बल्कि इसके सम्बन्धसे निष्काम-कर्मकी स्तुति गाई गई है। ऐसी स्थितिमें संन्यास तो स्वाभाविक स्तुतियोग्य है ही, जिसके द्वारा निष्काम-कर्म स्तुतिपात्र बना। परन्तु इसके विपरीत तिलक महोदयने इस श्लोकसे निष्काम कर्म ही धेय और सन्यास गहित ठहराया है, जो उनकी अनुदारताका ही परिचय देता है। दूसरे, यद्यपि संन्यासमार्गमें शारीरिक चेष्ठाको 'घटाया गया है,
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अात्मविलास]
[२ तथापि श्रवण-मनन-निदिध्यासनादि मानसिक व बौद्धिक चेष्टाओं का विकास अधिक है। क्या तिलक महोदय कह सकते हैं कि कर्मकी जो व्याख्या भगवान्ने अ.८ श्लो. ३ मे की है, उसके अन्तर यह बौद्धिक चेष्टाएँ नहीं पाती । क्याचे भावशून्य चेष्टाएँ हैं और अधिकारीके लिये वे नियत-कर्म नहीं । इसके अलावा. इस श्लोकसे न तो कर्मसे मोक्ष सिद्ध होता है और न ज्ञानीपर, कर्तव्य ही सिद्ध होता है। (१६) तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च । मय्यर्पितमनोवुद्धिमिवैष्यस्यसंशयम् ॥
(-४) अर्थ-इसलिये सर्व कालमें तू मेरा स्मरण कर और युद्ध कर, मेरेमे अर्पण किये मन-बुद्धिसे तू निस्सन्देह मेरेको ही प्राप्त.
होगा।
___इस श्लोकमें भक्तियुक्त कर्मकी प्रशसा की गई है, सो यथार्थ ही है। वेदान्त इसका विरोध नहीं करता, बल्कि ऐसे कमको
आदर देता है और ज्ञानमे इसकी परम उपयोगिता मानता है। किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कर्म ही मोक्षका साक्षात् साधन है, अथवा ज्ञानीपर कोई कर्तव्य है।
इस प्रकार तिलक महोदयकी उक्तिके अनुसार इन श्लोकोका अर्थ ग्रहणकर हमने विचार किया है, वस्तुतः तो इन श्लोकोंका अर्थ गम्भीर है। हमारे विचारसे गीता तिलक-मतकी, जैसा उन्होने प्रकट किया है, पुष्टि नहीं करती। गीता एक परम उदार, व्यापक और प्राकृतिक शिक्षा देनेवाला अद्भुत प्रन्थ है जो किसी मत-मतान्तरकी सीमामे नही बॉधा जा सकता। यह सब मत-मतान्तरोंको प्रकाश देनेवाला है, और संबसे निराला है
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३
[ साधारण धर्म कर्मको यद्यपि इसमें आदर दिया गया है, परन्तु ज्ञान, त्याग व संन्यासको निन्दा नहीं की गई, बल्कि त्याग, संन्यास व ज्ञानको पूर्ण महत्व दिया गया है. (देखो अ. १३ श्लो. ७ से ११, अ. १८ श्लो. ५१ से ५३ व अ. ४ श्लो. ३३ से ३६) तथा प्रकृतिके तीनों गुणोंके अनुसार अधिकारको भली-भॉति पुष्ट किया गया है। तिलक महोदयने गीताका तात्पर्य प्रवृत्तिमण्डन व निवृत्तिखण्डन में भले ही निकाला हो, परन्तु यह सम्भव नहीं जान पड़ता और सात्त्विक-बुद्धि आज्ञा नहीं देती कि वस्तुत. गीताका तात्पर्य निवृत्तिखण्डनमें है। सच बात तो हैं यूं कि प्रवृत्तिको भी जो
आदर गीतामें मिला है वह निवृत्तिरूप त्यांगके सम्बन्धसे ही मिला है। जैसे हलवेको प्रियता मिली है तो मिश्रीके सम्बन्धसे, मिश्री विना अपनी उसमे कोई त्रियता नहीं, इसी प्रकार प्रवृत्ति भी मानपात्र हुई है तो केवल फ्लत्यागरूप निवृत्ति के मेल करके। फिर यह क्योंकर माना जा सकता है कि निवृत्तिरूप मिश्री अपने स्वरूपसे त्याज्य है। गीताका प्रत्येक शब्द व प्रत्येक आशय व्यापक है। इसी प्रकार 'कर्म' व 'योग' शब्द भी उसमें गम्भीर हैं और व्यापक अर्थ रखते हैं। 'कर्म' शब्द का अर्थ केवल शारीरिक धाएँ ही नहीं, किन्तु मानसिक व बौद्धिक चेष्टाएँ भी गीता की व्याख्यामें 'कर्म' हैं। परन्तु तिलक महोदयने शारीरिक प्रवृत्तिरूप चेष्टानोको ही 'कर्म' मानकर मानसिक व बौद्धिक तत्त्वचिन्तनादि निवृत्तिरूप चेष्टानोको 'कर्म' से भिन्न त्याव्य माना है, जो किसी प्रकार गीताका तात्पर्य नहीं हो सकता। यदि निवृत्तिरूप मानसिक व बौद्धिक चेताओंको भी 'कर्म' रूपसे ग्रहण किया जाय (जो गीताको मान्य है) तो तिलक-मत निर्मूल हो जाता है।
वेदान्तके आशयको न समझ, मुक्त-कर्तव्य (कर्तव्यराहित्य)
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आत्मविलास] का अर्थ उन्होंने कर्महीनता व निश्चेष्टता किया है, जो सर्वथा अनुभवविरुद्ध है । मुक्त-कर्तव्यका अर्थ चेष्टाशून्य होना नहीं है, बल्कि विधिमुक्त होना है। चेष्टा अपने स्वरूपसे बन्धनका हेतु नहीं है, किन्तु चेष्टा के साथ जो विवि है कि 'अमुक कर्म करना हमारे अपर 'विधि' या 'फरज' है और उसको करनेके लिये हम पाबन्द हुये हैं। केवल वह विधि ही बन्धन व कर्तृत्व-अहङ्कारका हेतु है और वही दुःख है। अपनी स्वाभाविक चेष्टा, जिसके साथ विधिरूप कर्तव्य नहीं, दुःखरूप भी नहीं, बल्कि वह तो श्रानन्दरूप है। जैसे बच्चे कियी कर्तव्यके विना गुडे-गुडियोके खेलमें गृहस्थ के सभी प्रपञ्च रचते हैं, परन्तु वह उनके लिये केवल विनोद रूप ही होता है, किसी प्रकार दुःखरूप नहीं होता। इसी प्रकार मुक्त-कर्तव्यका आशय तो यह है कि देहाभिमानसे ऊँचा उठकर
और स्वरूपस्थिति प्राप्त करके विधिके बन्धनसे छुटकारा पा लिया नाय, जहाँ न तो 'कुछ न करना' विधि रहे और न 'कुछ करना' ही विधि रहे । वेदान्तका यह श्राशय नहीं कि किसी प्रकार साधन अवस्थामे ही लोक व वेदका बन्धन तोड़ा जाय। कदापि नहीं बल्कि चेदान्त तो साधन अवस्थामें अधिकारीके अधिकारानुसार कर्तव्यका बन्धन लगाता है कि वह अपने धर्मा नुसार कर्तव्यमें बंधा हुआ अपनी उन्नतिके मार्गमें निर्विवतया सीव्र वेगसे चला जाय, जिस प्रकार नदीका प्रवाह अपने तटोकी मर्यादामें बंधा हुआ तीन वेगसे समुद्रकी ओर दौड़ता जाता है।' परन्तु अन्ततः सटोकी मर्यादामें चलता हुआ समुद्रमे मिलकर
सको मर्यादामुक्त व तटमुक्त स्वाभाविक ही होना पड़ेगा। ठीक, इसी प्रकार अधिकारानुसार कर्तव्य-बन्धन भी जीवको अपनी मर्यादामे चलाता हुआ शिवरूप समुद्रमें मिलाकर मुक्त
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२५]
। साधारण धर्म कर्तव्य करनेका जुम्मेवार है । जैसे वृक्षके साथ बँधा हुआ फल जन पक जाता है तब अपने-श्राप वृक्षसे छूट जाता है। प्रकृति का ऐसाही अटल नियम है। इसी प्रकार कर्तव्यको अपनी ओर. से त्याग करना नहीं है, बल्कि सचा त्याग वही है कि परमानन्दरूप समुद्रमे मिलता हुआ कर्तव्य अपने आप छूट जाय, जिस प्रकार दया-दव मदिरापान करते-करते मदिराप्रेमीके हाथसे प्याला अपने-आप छूट जाता है। जिन लोगोने अपने ऊपर कर्तव्यसे मुक्त होनेकी विधि लागू की हुई है कि कर्तव्यका त्याग करना हमको कर्तव्य है वे वास्तवमें अशी बन्धनमें ही हैं। सारांश, किसी भी प्रकार जो लोग कर्तव्यके साथ बंधे हुए हैं वे अभी रोगी है। यह जीव शिवरूप होते हुए जब अपने वास्तविक खरूपको भूल जाता है और देहादिमें अभिमान करता है, तभी यह किसी न किसी रूपमें अपने ऊपर कर्तव्यका भूत सवार कर लेता है, यही रोग है । ऐसी अवस्थामें इहलोक' अथवा परलोक के सुखकी इच्छासे इसके हृदयमे रजोगुण विद्यमान हो जाता है। - कर्तव्यता केवल रजोगुणका ही परिणाम है और जहाँ रजोगुण व कर्तव्य है वहाँ कर्तृत्वरूपसे परिच्छिन्न-अहङ्कार भी है। जहाँ रजोगुणमिनित कर्तत्व-अहङ्कार व कर्तव्य दोनो हैं, वहाँ जो कुछ निर्णय होगा वह अवश्य एकदेशीय व दोषयुक्त ही होगा, व्यापक
और निर्दोष नहीं हो सकता है क्योकि ऐसे लोग अभी कर्तन्यके भारवाही है, भारसे मुक्त नहीं हुए, फिर उनकी दृष्टि क्योकर व्यापक हो सकती है। इसके विपरीत जो पुरुष उपर्युक्त रीतिसे मुक्त कर्तव्य हुए हैं, उनकी दृष्टि सदैव व्यापक होगी और जो कुछ उनके द्वारा निर्णय होगा वह निर्दोष, व्यापक और सर्वश्रेयस्कर होगा; इसमें सन्देह ही क्या है ? ...
तिलक-मतके अनुसार 'योग' व 'सांख्य भिन्न-भिन्न दो भागों
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आत्मविलास]
[६ की कल्पना करके उपयुक्त रीतिसे इस मतका निराकरण किया गया। यदि तत्त्वदृष्टिसे देखा जाय तो 'योग' व 'सख्या भिन्नभिन्न मार्ग नहीं है । वस्तुतः 'योग' शब्दका अर्थ न 'निष्कामकर्म अथवा प्रवृत्तिमार्ग ही है और 'सांख्य' शब्दका अर्थ न कर्मत्यागरूप निवृत्ति हो है, बल्कि दोनो एक ही हैं और परस्पर दोनों की सङ्गति लगाना ही गीताका उद्देश्य है। अपने साक्षीस्वरूप आत्मामें अभेदरूपसे स्थिति पाना ही 'योग' है, तथा तत्वसाक्षात्कारद्वारा कर्तृत्वाभिमानसे मुक्त होकर और कर्तव्यसे छूटकर सब कुछ करके भी कुछ न करना ही 'सांस्य' है। इस विषयका विस्तारसे विवरण 'गीता-दर्पण'* की प्रस्तावनामें हमारे द्वारा किया गया है, जिनको जिज्ञासा हो वे वहाँ देखें।
तितक-मतका छटा अङ्क कि 'अहवार छुटनेसे में मेरी तिलक-मतके पठ, मापा नहीं रहती, उसके बदले ज्ञानी अंकका निराकरण । 'जगत् व जगत् का अथवा भक्तिपक्षमें 'ईश्वर व ईश्वरका यह व्यवहार होता है' इत्यादि । इसका समाधान हमारे समाधानके अङ्कन० २ मे पृ. १८ से २२ पर आ चुका है, इसलिये पुनरुक्ति निष्प्रयोजन है।
अब हम तिलक-मतके सातवें असपर पाते हैं। इस अङ्कमें तिलक मतके सप्तम | तिलक महोदयका कथन है कि 'लोकोको अंकका निराकरण (खोटी प्रवृत्तिसे बचाकर शुभ प्रवृत्तिमें लगाना लोकसंग्रह है और ज्ञानियोके गृहस्थमें रहनेसे लोकसंग्रह अधिक होता है !! -
स्यह अन्य 'म गणपतराम गंगाराम शराफ नया बाजार, अजमेर के पतेसे मिल सकता है। .....
M
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८७]
[साधारण धर्म ___ यहाँ हमारे लिये यह विचार कर्तव्य है कि लोकसंग्रह गृहस्थमें रहकर ही सिद्ध होता है अथवा गृहस्या त्यागकर भी और अधिक लोकसग्रह गृहस्थमें रहकर होता है अथवा गृहस्थ त्यागकर । स्वयं अपना आचार-विचार और व्यवहार इतना पवित्र व उत्कृष्ट हो कि लोकोके लिये श्रादर्शरूप बन जाय, जिससे लोक स्वयं हमारे सत्यता व प्रेमपूर्ण श्राचार-विचारसे आकर्षित होकर हमारा अनुसरण करे और स्वयं अशुभ प्रवृत्तिसे छूटकर शुभ प्रवृत्तिमे जुड़ जाएँ, इसीका नाम लोकसंग्रह है। जिसने जितना अधिक अपना सुधार किया उतना ही अधिक वह लोकसंग्रह कर पाया, अपना सुधार करना ही लोकसंग्रहकी कुञ्जी है। जैसे सूर्य अपने प्रकाशमे प्रकाशमान होता है तब बिना ही किसी चेष्टाके संसारका अन्धकार अपने आप दूर हो जाता है, अखिल ब्रह्माण्डवर्ती जड़-चेतन पदार्थोमे स्वतः जागृति आ जाती है और स्वतः ही लोकसंह सिद्ध हो जाता है। स्वयं प्रकाशशून्य रहकर उसके द्वारा ससारमे किसी अर्थकी सिद्धि नहीं हो सकती । सूर्यके केवल अपने प्रकाश प्रकाशमान होनेका ही यह फल है कि उसके उदय होते ही पशु, पक्षी, मनुष्य, नदी सब सचेत हो जाते है और अपने अपने व्यवहारमें प्रवृत्त होजाते हैं । वर्षा होती है तो सूर्य करके, फल-फूल व अन्नादि पकते हैं तो सूर्य करके, यद्यपि उसको यह कोई कार्य अपने-आँप करना नहीं पड़ता, परन्तु यह सब कुछ सिद्ध होता है उसी सूर्यद्वारा, उसी की साक्षीमें। दीपकको अपने प्रकाशमें प्रकाशमान होनेकी ही देरी है कि पतंगे अपने-आप उसपर आपकी बलि देने के लिये हाजिर हो जाते हैं, उसको (दीपक को) पतंगोंके लिये निमन्त्रणपत्र भेजनेकी कोई जरूरत नहीं। संसारका केन्द्र हमारे अपने ही अन्दर, है, इसलिये अपने-आपको हिलाकर संसारको हिताया
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आत्मविलास] जा सकता है। इसके विना केवल संसारको हिलानेकी चेष्टा करना प्रमाद है, वह हिल नहीं सकेगा। दृष्टान्तस्थलपर समझ सकते हैं कि मेज या चारपाई जो आपके पास पड़ी हुई है, यदि ओप इसको हिलाना चाहते हैं तो आप इसका वह भाग जो
आपके निकटतर है पकड़कर खैरे, ऐसा करनेसे इसके समप्र -भाग हिल जायेंगे। इसके विपरीत यदि आप इसके निकटतर भागको छोड़ परले भागपर हाथ डालेगे तव आप इसको हिला नं सकेगे। ठीक, यही अवस्था ससारके सम्बन्धमें है। संसारका सबसे निकटतर भाग अपना हृदय है, इसको हिलाकर संसारको अवश्य हिलाया जा सकता है। भगवान् बुद्ध, शङ्कर, नानक, कवीर आदि इसके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं। वे सब अपना सुधार करके ही, अपने श्रापको आदर्शरूप बनाकर ही संसारका सुधार कर पाये थे, इसके बिना नहीं। यह वात विज्ञानद्वारा प्रमाणित है कि एक स्थानकी वायु सूर्यतापसे हलकी होकर जब ऊंची उठ जाती है और अपना स्थान खाली कर देती है, तब वह आप ऊची उठकर और अपना स्थान खाली करके सम्पूर्ण ब्रह्माण्डवायु मे खलबली उत्पन्न कर देती है और उस खाली स्थानके भरनेके लिये सब ओरसे अपने-आप ब्रह्माण्डवायुमे हल-चल मच जाती
है। ठीक, इसी प्रकार अधिकारी जब अपने आत्मप्रकाशके तापसे । सूक्ष्म होकर परिच्छिन्न-अहङ्कारसे ऊँचा उठ जाता है, तव ससार में उसका अनुसरण करने के लिये और उसकी खाली जगह घेरने के लिये स्वाभाविक ही हत-चल उत्पन्न हो जाती है। .. · तन छक मन छक वैन छक, नयन रहे मण्डराय।
छकी दृष्टि जापर पड़े, रोम रोम छक जाय ॥ । जव कि ठोस सत्य यही है कि अपने-आपका सुधार करना 'और अपने श्रापको आदर्शरूप सिद्ध करना ही संसारका सुधार
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[ साधारण धर्म करना है और यही सुदृढ़ लोकसंग्रह है, तब तिलक महोदयका यह मत कि 'ज्ञानियोंके गृहस्थमें रहनेसे ही अधिक लोकसंग्रह सिद्ध होता है एक शून्य कल्पना और कोरा हठ है। हमारा तो कथन इतना ही है कि पहले ही संसारका सुधार करनेके लिये तथा लोकसंग्रहके लिये न भटपटाओ, इससे पहले अपना तो सुधार करलो, ठीक-ठीक ज्यूँका त्यूँ अपना और ससारका स्वरूप तो जान लो और २+२४ की भाँति यह यथार्थ निर्णय तो कर लो कि ब्रह्मास लेकर चींटीपर्यन्त भूत-प्राणिमात्रका जीवन किस अनोखी वस्तुके तिये कटु हो रहा है। अपनी प्रत्येक चेष्टा मे वे किस सलौनी वस्तुको घटार रहे है । वह कहाँ है ? उसका वास्तव स्वरूप क्या है और यह ठीक-ठीक कैसे प्राप्त की जा सकती है ? जवतक इन पहेलियोंको ठीक-ठीक न सुलझा लोगे
और आप अपनी प्यास भली-भाँति शान्त न कर लोगे, तबतक श्राप लोकसंग्रहके पात्र ही नहीं हो सकते । इससे पहले ही लोकसंग्रहके लिये यदि व्याकुल हो रहे हैं तो स्मरण रहे कि श्राप संसारके सुधारक न होकर संसारके नाशक भी हो सकते हैं। 'नीम हकीम खतरेजॉ, नीममुल्ला खतरे इमाँ'- अर्थात् श्रद्ध वैद्य से जीतनका भय और अई-उपदेशकसे धर्मका भय होना जरूरी है। तब यही गति संसारकी होनी निश्चित है। चौकेजीसे छट्वेनी होनेके स्थानपर दुवेजी ही बनना पड़ेगा। इसके विपरीत यदि
आप अपना फैसला कर बैठे है तो इस चिल्लाहटका कोई अर्थ नहीं बनताकि 'नानियोंके गृहाथमे रहनेसे ही लोकसंग्रह बनता है, अन्यथा नहीं । प्रथम तो बानीका यह विचार. कि 'मुझे लोकसंग्रह कर्तव्य हैं और इसके लिये मुझे गृहस्थमे ही रहना आवश्यक है, उसके ज्ञानकी सर्व प्रकार त्रुटिको ही सिद्ध कर रहा है, क्योंकि अभी उसमें आत्मप्रकाराकी मस्ती ही नहीं आई।
यहादुओजी है तो इस ही लोकर
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आत्मविलास]
द्वि० सण्ड 'लोकसग्रह मुझको करना है, गहन्थम ही रहना है, नगार विगळा हुआ है और इसका सुधार करना है। ज्यामिरपन अनेक कर्तव्यरूप भ्रम उसमे भर पं । जो वर्तव्यावहीं म
और भ्रम सदैव अन्धकार (नान) में ही झोता प्रकाश (मान) मेनहीं। जबकि अन्धकार विद्यमानता बारम अन्धकारकी निवृत्ति नहीं होती, इसके लिये तो प्राशनारियानी तो वही होगा जिसके वित्त घर र ननका निकल गया।
'गह उद्यान एक सम जान्यो. भारगिटायां इजा। जिसकी ठिमेस्य संमार. या जामा तन गया न्यावर क्या जगम अपने ही परमानन्दकी नगगन गई हो. भंवरष्टि दग्ध होगई हो । पिर उसके लिये कहां गया ? ना सुधार ? ज्ञान कोई वाचनिक नहीं है, बल्कि शरीरक रोम-रोममें परमानन्द की लहरे तरङ्गायमान करना है। इस प्रकार सूर्यके समान अब ऐसा महापुरुष अपने आत्मप्रकाशम प्रकाशमान होता है, उसके नेत्र, वाणी और प्रत्येक चेपासे जयानन्द्रवीरसियाँ फूट-फूटकर निकलती है, तब स्वत अज्ञानान्धकार निवत्त होता जाता है भावुक-भक्त उसके परमानन्द के स्रोतमे मनन करते हुए तन-मन से मालामाल होजाते हैं और रवत नोक्मग्रह मिट्ट हो जाता है। परन्तु हमारे तितक महोदय बानिय तो प्रवृत्ति-निवृत्तिका भेद और ससारगटि भरपूर हो रही है, यह कि नको तो अपने स्वरूपमे संसार जिंगडा हुलासान हो रहा हे गौर उसको सुधारनेका भार उनपर तदा हया है। रामा । मुभागे अपनी दृष्टियोको, जब आपकी अपनी दृष्टि सुधर जारगी तब बाहर ता ससार तीनकालमेही नहीं हुा । केवल आपकी टिम ही ससार भरा पडा था, उखाडो उसको यहाँसे, फिर सेनिमाफे पडदेके समान वाहर तो कुछ बना ही नहीं, केवल अपने नेत्रों में पीलिया होनेसे ही सन संसार पीला दीख पड़ता है।
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११
[साधारण धर्म क्या सोचे क्या समझे राम' तीन कालका वॉ क्या काम ? क्या सोचे क्या समझे राम? तीन लोक नहीं उपजे धाम । नित्य तृप्त सुख सागर राम । क्या सोचे क्या समझे राम !
लोकसंग्रह वारतवमें कर्तव्य नही हुआ करता, यदि कर्तव्य है तो वह लोकसंग्रहका पात्र ही नहीं। लोकसंग्रहका पात्र तो वही होगा जिसकी चेष्टा स्वाभाविक ऐसी पवित्र होजाय, जैसे अङ्गों का पड़कना स्वाभाविक होता है। यदि क्तव्य रखकर चेष्टाएँ की गई है तो वे कृत्रिम है, ऐसी चेष्टाएँ लोकसंग्रहरूप नहीं हो सकती। क्योकि उन चेष्टाओका अभी उसके खस्वरूपमें प्रवेश नही हुआ वे केवल स्वॉगमात्र है । वाभाविक चेष्टाओंमे और कर्तव्यरूप चेष्टाओमें बड़ा अन्तर है। सारांश यह है कि ज्य-त्यू करके पहले अपना सुधार कर लेना चाहिये । जैसे-जैसे आपकी निजी प्रकृति आपके लिये मार्ग खोलती है, चाहे निवृत्तिद्वारा चाहे प्रवृत्तिद्वारा आत्मकल्याण कर जाना चाहिये । यह आग्रह
और वन्धन न लगाओ कि प्रवृनिमे ही रहना है और निवृत्ति घृणित है । शरीररूपी स्थकी वागडोर उस कृष्णके हाथ में दे दो, पिपर संसाररूपी कुरुक्षेत्रसे वह तुमको साफ निकाल ले जायगा, जरा आँच भी न आने देगा । क्या प्रवृत्ति व क्या निवृत्ति ससारमे कोई पदार्थ निप्पयोजन नहीं है, कालभेद व अधिकारभेदसे सभी अमृत हैं। रोगीके अधिकारानुसार विपभी अमृत बन जाता है, तव अमृतवरूप निवृत्तिका तो कहना ही क्या है ? जिस प्रकार वह आत्मदेव रीमे उसको रिमा लेना चाहिये, अपने-आपकी प्रत्येक वलि उसके चरणों मेट धरनेके लिये उद्यत रहना चाहिये। जब वह रीझ गया और आप अपनी आन्तरिक शीतलता करके शीतल हो गये, तब आपके दर्शनमात्रसे सभी शीतल हो जाएंगे। जैसे चन्द्रमा जव अपने आपमे शीतल होता है, तब उसके दर्शन'
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[ ६२
श्रात्मविलास ] द्वि० खराड
मात्रसे क्या जड क्या चेतन सभी शीतल हो जाते हैं और उसकी किसी चेष्टा के बिना सभी उससे रस ले लेते हैं ।
वास्तविक दृष्टि तो यही है जो ऊपर कथन की गई । यदि नीचे उतरकर व्यवहारिक दृष्टिसे देखा जाय तो लोकसंग्रह निवृत्तिद्वारा जिस मात्रामे सिद्ध होता है, वह प्रवृत्तिद्वारा नहीं वन पडता । प्रवृत्तिद्वारा लोकसंग्रहमे प्रवृत्त पुरुषोंका जीवन केवल उन्हींके लिये उपदेशरूप हो सकता है, जो प्रवृत्तिमे लम्पट हैं, सो भी स्थिर शान्तिको देनेवाला नही, निवृत्ति वालों के लिये उनके जीवन से कोई भी उपदेश नहीं मिल सकता। परन्तु जो निवृत्तिद्वारा लोकसमूह में प्रवृत्त हुए हैं, उनका जीवन क्या प्रवृत्तिपरायण, क्या निवृत्तिपरायण सबके लिये उपदेशरूप है और स्थिर शान्ति को प्राप्त करानेवाला है। इस सिद्धान्तकी सत्यतामे ईश्वरीय प्रकृति स्वयं साक्षी है कि जैसा स्थायी लोकसंग्रह निवृत्तिपरायण भगवान् शुकदेव, भगवान् बुद्ध, भगवान् शङ्कर, श्रीकबीर, श्री नानकदेव और खामी रामदास आदि महापुरुपोद्वारा बन पड़ा है, वन रहा है और बनता रहेगा, वैसा प्रवृत्तिपरायण जनकादिद्वारा न हुआ है और न होगा। जिन साधनोद्वारा संसारमे स्थिर शान्ति स्थापित हो, वे ही यथार्थ लोकसमहरूप हो सकते हैं और प्रकृतिकी यह नीति है कि शान्तिका उद्बोध निवृत्तिद्वारा ही सम्भव है, प्रवृत्तिद्वारा नहीं । जहाँ प्रवृत्ति है वहीं रगड़-झगड़ धान उपस्थित होती है । अव यह बात दूसरी है कि किसीके चित्तमें प्रवृत्ति ही घर कर बैठी हो, वह प्रवृत्तिरूप खटपटसे ही संसारका सुधार मानने लगे और निवृत्तिसे हानि। यह केवल निवृत्तिका ही प्रभाव है कि त्रितापसे तपे हुए परीक्षतको श्रीशुकदेवते सप्तम दिनमें ही ज्ञानामृत पान कराकर विदेहमोक्षको प्राप्त करा दिया और जो भागवत्रूपी ज्ञान-गङ्गा उनकेद्वारा बहाई
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[ साधारण धर्म गई, उसके प्रवाहमे पड़े हुए अनन्त मुमुच, ब्रह्मसमुद्रमें समा गये, समा रहे हैं और समाते रहेगे। भाई! तेलने तो तिलोसे ही श्राना है, केवल प्रवृत्तिम ही शान्ति टूटना तो वालुसे तेल निकालना है । जहाँ कहीं प्रवृत्तिमे भी कुछ शान्ति देखनेमें आती है तो निवृत्तिक सम्बन्ध करके, फिर कैसे कहा जा सकता है कि निवृत्तिम लोकसंग्रह सिद्ध नहीं होता। यदि चमगादड़ सूर्यको न देखे तो इसमें सूर्यका क्या दोप
अब हम तिलक-मतके आठवे अपर आते हैं। इस अङ्कमें तिलक मतकै अष्टमी तिलक महोदयका यह सिद्धान्त है कि 'योग अंक्का निराकरण । (कर्म-योग) ही मुख्य हैं और संन्यास एक निष्फल चेष्टा । मनुके ध्यानमे भी यह बात भलो-भाँति आ गई थी कि संन्यासकी ओर लोगोकी फिजूल प्रवृत्ति होनसे संसारका कर्तृत्व नष्ट हो जायगा और समाज पढ्नु हो जायगा । इसीलिये मनुने तीनों ऋण (देव, ऋपि च पितर) की मर्यादा वाँध दी थी कि इन ऋणोसे मुक्त होकर पिर सन्यास ले। इससे यह सिद्ध होता है कि पाश्रम-धर्मका मूल हेतु यह था कि यथाशास्त्र गृहस्थ चलानेयोग्य लडकोंके सियाने हो जानेपर अपनी बुढ़ापेकी निरर्थक अाशाओंसे लड़कोकी उमङ्गोके आड़े न पा निरा मोर्चपरायण हो मनुष्य स्वयं आनन्दपूर्वक संसारसे निवृत्त हो जावे ।
यहाँ हमें संक्षेपसे विचार करना है कि:
(१) क्या मनु आदिकोकी दृष्टिमे संन्यास फिजूल प्रवृत्ति है, इससे संसारका कर्तृत्व नष्ट हो जाता है और समाज पढ्नु हो जाता है ?
(२) तीनो ऋणोंका बन्धन संन्यासके प्रवाहको रोकनेके "लिये है, वा सन्यासका मार्ग खोलनेके लिये ?
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आत्मचिलास द्वि० खण्ड
(३) आश्रम-धर्मका मृत हेतु फेवत थुवा लडकी बढ़ी चढ़ी उसंगोके पाडे न पाने के लिये प्रथया आत्मकल्याणक लिये ?
इस स्थलपर सहज ही प्रश्न होता है कि संसारका कतत्व क्या है। उत्तर दिना पिसी विवाटके स्पष्ट है कि सर्व भेदभावको दूरकर एकत्वभावमे समता-भरा प्रम स्थापन करना, यही एकमात्र संसारका कर्तृल है, यही स्थिर शान्तिका हेतु और यही प्राणिमात्रके जीवनका वास्तविक लक्ष्य है । प्रत्येक प्राणी जागने तक और मरनेतक साक्षात अथवा परम्परासे अपनी प्रत्येक चेष्टामें अपने अपने विचारानुसार ऐसे सुखकी खोज कर रहा है जो कभी नष्ट न हो। यह अविनाशी सुख केवल इस कर्तृत्वद्वारा ही सिद्ध हो सकता है और किसी प्रकार भी नहीं। इस लिये बिना किसी विवादके प्राणिमत्रके जीवनका लक्ष्य वस्तुत. यही वनता है। जब कि प्राणिमात्रका कर्तृत्व यही सिद्ध हुआ तब प्रत्येक समाज व प्रत्येक गतिका कर्तत्व क्या इससे कुल सिन्न हो सकता है ? कदापि नहीं । ससारमे प्रत्येक धर्म के प्रत्येक अङ्ग व उपासका वास्तविक नन्य साक्षात् अथवा परम्परा करके इसी स्थलपर पहुँचने के लिये ही हैं और जन्म-मरणपर्यन्त यावत् संसारके तापोसे मुक्ति इसी स्थलपर पहुंचकर ही सम्भव हो सकती है। सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥ (गी १८-२०) तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः । (ईशावास्य) ., अर्थ.-भित्र-भिन्न सर्व भूतोमे जिस ज्ञानद्वारा एक ही अभिन्न व अव्यय भाव जाना जाय, वही सात्विक ज्ञान है।
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५]
[ साधारण धर्म 'जिसने एकत्वको सबमे देखा, उसके लिये कहॉ शोक और कहाँ मोह ?, __ उद्भिज गेनिसे लेकर मनुष्यपर्यन्त प्रकृतिकी क्रम-क्रमसे प्रत्येक
चेष्टाओका विकास इसी अभेद-स्थितिपर पहुंचने के लिये है अन्य किसी निमित्तसे नहीं और यहीं पहुँचकर प्रकृतिको विश्राम है। इसके विना जीन प्रकृतिके बन्धनसे कदापि छुटकारा नहीं पा सकता, चाहे असंख्य योनियॉ क्यो न व्यतीत हो जाएँ और यही पहुंचकर वैतालकी भेटोकी पूर्णाहुति होती है। परन्तु स्मरण रहे कि जिस प्रकार अनेक प्रकारको खाद्य सामग्रीक मेजसे भोजन बनाया जाता है, उसी प्रकार यह एकता किमी रूपमे बनाई जानेवाली वस्तु नही है, किन्तु रखत.सिद्ध है। बल्कि जब उस स्वतःसिद्ध एकतामे हमारा प्रवेश होगा तब हम अनुभव करेंगे कि वहाँ भेदभाव कदापि हुआ ही नहीं था। बल्कि वह वस्तु ज्यूकी त्यँ सदा ही एकरस स्थित है, इस अनेकताने उसको कदापि स्पर्श किया ही न था और यह सव भेदभाव नीचे ही थे। यदि हमको उस एकतामें प्रवेश करना इष्ट है तो हमको चाहिंय कि हम केवल अपने-आपेकी बलि दे छोडे और प्रापेको खो देवे । पापा खोकर ही हम ऊँचे उठ सकते हैं और उस समतामे प्रवेश कर सकते हैं। प्रापेको रखकर कदापि नहीं, क्योकि यह श्रापा ही उसमें प्रतिबन्धक है। लिम प्रकार जत प्रापेको अग्निमें जलाकर और भापके रुपमें सुन्म होकर ही उँचा उठ सकता है और सम्पूर्ण वातावरणके साथ एकता प्राप्त कर सकता है, न कि वर्फके रूपमे अपनेको जड़रूपमे नीचे गिराकर, उसी प्रकार आपेको रखते हुए किसी प्रकार भी एकता सम्भव नहीं है। इसके विपरीत
आपको बनाये रखकर और देहाभिमानको सुदृढ करके जो एकता. वनानेकी चेष्टा की जा रही है, वह कोरा प्रमान ही है और ऊँटके गलमें बकरी जोड़नेके समान है।
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श्रात्मविलास] द्वि० सण्ड
एक गणितशास्त्रवेत्ता पण्डितकी क्या है कि वह वार कुटुम्बसहित देशान्तरके लिये निकला । मार्गमें एक नदी आई, विचार हुआ कि इससे कुटुम्बको कैनै पार करें। कहीं कोई छोटाघड़ा नदीमें डूब न जाय । पण्डितजीको गणित-शाम्प्रकी स्मृति
आई और मट नदीके इस तीर, परले तोर तथा मध्यवर्ती जलका माप लेकर तीनोंका समभाग निकाल लाये । घर अपने बुद्धम्य के प्रत्येक व्यक्तिकी ऊँचाई मापकर उन सबकी ऊँचाईका समभाग निकाल लिया, तत्र सर्व कुटम्बकी ऊँचाई समभागसे नदी का समतल एक फुट कमती रहा। पण्टिननोको बडी प्रमन्नता हुई कि कुटुम्य निर्षितासे पार हो जायगा और सबके सब नदीमे उतर पड़े। परन्तु जब नदीके मध्यमे पहुंचे तो कई छोटेछोटे बच्चे डूब गये। पार जाकर पण्डितजीको चिन्ता हुई और फिर अपने गणितकी पड़ताल की, परन्तु हिसाव पूर्ववत शुद्ध निकला। वारम्बार पड़ताल करनेपर पण्डितजी व्याकुल हुए और सोचने लगे कि 'लेखा ज्यूँका त्यॆ युनबा डूबा क्यो १५
ठीक, वही हिसाव उन लोगोका है जो वास्तविक रहस्यको न जान शरीगेंद्वारा एकता बनानेके पीछे पड़े हुए हैं और धार्मिकमर्यादाओंको भङ्ग कर रहे हैं। यधपि धार्मिक मर्यादाएँ क्रम-क्रमले व्यव्हार में आई हुई श्रापेकी भेंट लेनेके तिये है और जिज्ञासुके चित्तको ऊँचा उठा ले जाकर वास्तविक अभेदमें प्रवेश करा देनेके लिये ही हैं। तथापि जो लोग अपने चितोंको उन्नत किये बिना ही केवल जड़-शरीरके व्यवहारसे ही एकता बनानेके अभिमानी है और धार्मिक-मर्यादाएँ तोड़नेके पीछे पड़े हुए है, वे न श्राप ऊँचे उठेगे और न दूसरोको उठाएँगे। हम आप नीचे गिरकर गिरे हुओंको नहीं उठा सकते, बल्कि आप ऊँचा उठकर ही गिरे हुओंको उठा सकते हैं । जिस प्रकार किसी स्थानकी वायु आप
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६७]
[ साधारण धर्म स्थूल होकर और नीचे गिरकर ब्रह्माण्डवायुको ऊँचा नहीं उठा सकती, बल्कि आप अपनी सूक्ष्मताद्वारा ऊँची उठकर ही ब्रह्माएडवायुमे हलचल पौदा कर सकती है। शरीरोंका भेद प्राकृतिक (स्वाभाविक) है और अभेद अस्वाभाविक । प्रत्येक व्यक्तिका स्वानुभव ही इसमें प्रमाण है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने ही निजी शरीरके अगोंमे अभेदव्यवहार कदापि नहीं कर सकता। जो व्यवहार उसका मस्तक व मुखके साथ है, वहीं व्यवहार चरण व पायु श्रादिके साथ असम्भव है । जबकि शरीरसम्बन्धसे अपने ही मे अभेद्रव्यवहार असम्भव है, तब दूसरोके साथ शरीरसम्बन्धमे अभेदव्यवहार कैसे सम्भव हो सकता है। प्रकृतिविरुद्ध होनेसे यह तो निष्फल प्रवृत्ति होगी । हाँ, मन-बुद्धि करके जो भेद बन गया है वह वास्तवमें अस्वाभाविक है और अभेद स्वभाविक । क्योंकि शुद्ध सात्त्विकवुद्धि व शास्त्रप्रमाणद्वारा सम्पूर्ण भूतोमें एक ही निर्विशेष अविनाशी तत्त्वतत्त्ववेत्ताओद्वारा प्रमाणित हुआ है, केवल अशुद्ध बुद्धि करके ही उसमें भेदाभास हो रहा है वास्तवमें नहीं। शुद्धबुद्धिद्वारा उस तत्त्वमे प्रवेश करके ही यथार्थ अचलअभेद सिद्ध हो सकता है। जैसे नाना घटोमे तथा नाना तरङ्गामे उपादान-दृष्टि मृत्तिकारूपये और जलरूपसे ही अभेट स्वाभाविक है, घटो और तरङ्गोकी व्यक्तिदृष्टिम उनकी , एकता असम्भव है, जैसे ही शुद्ध सात्विक बुद्धिद्वारा उस एक कारणरूपमें प्रवेश करके ही अभेद व एकताहो सकती है, अन्यथा नहीं। उस एक कारणरूपसे भिन्न रहकर और शरीरोम यधे रहकर ही अभेद करना चाहें तो धात्रीकी कथाके समान अक्रय
कहानी होगी। इसलिये मन-बुद्धिद्वारा चराचर भूतजात तथा : । यात्रीको क्या योगवासिष्ठके उपशम प्रकरणमें श्राती है, जिसमें अपने 'चालकों के चित्त वहनाने के लिए उसने अत्यन्त श्रेसम्भव विषयोंका रथेन किया है।
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आत्मविलास
[EE हि खण्ड मनुष्यमात्रके प्रति एकता स्थापन करना सफल प्रवृत्ति हो सकती है। वह इस रूपसे कि हमारी जिन चेदानीद्वारा वे हनीफिक सुख तथा पारलौकिक शान्तिकं भागी बन सकं, अपनी इन चेष्टाओंसे उनका श्रेय साधन किया जा, न कि 'प्रय और उनके श्रेयसाधनमे अपने स्वार्थों की भरमा बलि दी जाय । यही वास्तवमें अपने आपको ऊँचा उठाना है और इस प्रकार श्राप ऊँचे उठकर उनको भी ऊँचा उठाया जा सकता है। परन्तु अपने
आपको बनाये रखकर यदि हम स्वभावसिद्ध शारीरिक भेटको मिटानेगे ही अपनी सर्व शक्तियों को लगा देंगे तो भी हग अभेद न कर सकेंगे, क्योंकि वह गेट तो प्राकृतिक है। उन्टा प्रवाह चल पडनेसे मन-बुद्धिद्वारा जो यथार्थ अभेट किया जा सकता है, उस यथार्थ पुरुषार्थसे भी हम अवश्य पञ्चित रह जायगे। न यह होगा न वह । जहाँ कही नितने अंशम एकता देखने आती है, उसके मूलमे कारणरूपसे उतना ही मनोकी पवित्रता तथा स्वार्थत्याग अवश्य पाया जायगा ।
खैर जी जो कुछ भी हो, हमारा तो प्राकृतिक प्रसंग यह था कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्रति एकता स्थापन करना ही एक्मान संसारका कर्तृत्त है और यह केवल नापेको खोनेसे ही सिद्ध हो सकता है। प्रापेका खोना सर्वत्यागरूप निवृत्ति ही है और 'संन्यास' उस निवृत्तिमे प्राणसञ्चार करनेवाला है। फिर नहीं कहा जा सकता कि संन्यासद्वारा ससारका कर्तृत्व नष्ट हो जायगा। यदि तिलक महोदयके कथनानुसार 'मनुके ध्यानमें यह बात भली-भाँति आ गई थी कि संन्यासकी घोर लोगोकी फिजूत प्रवृत्ति होनेसे ससारका कर्तृत्व नष्ट हो जायगा और समाज पढ्नु हो जायगा तव अपने इतने बड़े प्रन्थमें, जहाँ उन्होंने खाने-पीने, सोने ठने और मल-मूत्रस्योगादि छोटी-छोटी चेष्टाओंका भी
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६६]
[ साधारण धर्म विधान कर डाला, वहाँ शोक कि मनु इतनी महत्त्वशाली चर्चा के लिये, जिससे संसारका कर्तत्व ही नष्ट हो जाता है, दो पंक्तियाँ लिखनेका अवकाश न दे सके । उनको अवश्य कहीं बोलना चाहिये था कि 'हे जीवो संन्यास फिजूल प्रवृत्ति है और संसार तथा समाजको विध्वंस करनेवाली है। खैर! भला हुआ, प्रभातका भूला-भटका सन्ध्याको घर आ जाय तो उसे भूला न कहना चाहिये। तिलक महोदयको समयपर ही सूझ आ गई, अभी तो प्रलय में बहुत समय बाकी है। कलियुगके अभी पाँच हजार वर्प ही व्यतीत हुए हैं, चार लाख सत्ताईस हजार वर्ष तो कलियुगमें और भी शेप रहते हैं। अच्छाजी ! इसमें किसीका दोप भी क्या है ? दृष्टिमय तो संसार है ही, ईश्वरकी नीति भी तो ऐसी ही है कि 'जैसी मति वैसी गति ! एक अपनी ऑखोंमे पीतिमा रोग हो जानेसे सारा संसार ही पीला दिखलाई देने लग पड़ता है, फिर तिलक महोदयको संन्यास ससारनाशक कसे न जचता और इसमें उनको भलाई कैसे दीख पंडती ? अपनी भावनासे अमृत भी तो विप हो सकता है, त्रिगुणमय तो संसार है ही। इसीलिये भगवान्ने बुद्धिके सत्त्व, रज व तम गुणभेदसे तीन भाग कर डाले, यथा:
(१) प्रवृत्ति-निवृत्ति, कर्तव्य-अकर्तव्य, भय-अभय और बन्ध-मोक्षको जो ठीक-ठीक जाने वह बुद्धिसात्विक कही जाती है।
(२) जो उपयुक्त वातोंको यथावत् ज्यूँका त्यूँ न जान सके, घह, राजसिक बुद्धि है।
(३) और जो इन सबको विपरीत करके जाने वह बुद्धि तामसिक कही गई है। (गी. अ १८ श्लो ३०, ३१, ३२)
जो महाशय रजोगुणपरायण हैं, संसारकी सत्यता जिनके हृदयमें दृढ़रूपसे उस रही है और वास्तव तत्त्वसे अनभिज्ञ रहकर
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[ १००
आत्मविलास ] द्वि० खण्ड उँटके गलेमे वकरी जोडने के समान जो शरीरोद्वारा ही अभेद वनानेमें तत्पर हो रहे हैं, उनको सच्ची शान्ति देनेवाला और नरकको स्वर्ग बनानेवाला यह अमृतरूप त्याग क्योंकर भला अच सकता है। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि त्यागमूर्ति स्न. कादिऋपि, याज्ञवल्क्यमुनि, शुकदेवस्वामी तथा शङ्करस्वामी. द्वारा ससारका कर्तृत्व नष्ट हो गया था, अथवा मनुफी आज्ञा. विरुद्ध उनका यह निपिद्ध व्यवहार हुआ था। ऐसा किसी दृष्टान्त या प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता। तिलक महोदयको दोपदृष्टिसे वचकर थोड़ी सारग्राही दृष्टि मी धारण करनी चाहिये थी, परन्तु 'अर्थी दोप न पश्यति । अपने रजोगुणी प्रभावसे प्रभावित हो तिलक महोदयने मनुके श्राशयकी यहॉतक बँचातानी की
और उनके वचनोंका ऐसा विपरीत भाव ग्रहण कर लिया, यथा हि :___ 'संन्यासके आक्रमणसे समाजको पड्नु होनेसे बचानेके लिये ही मनुने तीनो ऋणोंकी मर्यादा बाँध दी है कि संन्यास लेना ही हो तो इन ऋणोंसे छूटकर ले, पहिले नहीं।
यदि ऐसा भी मान लें तो उपनिपद्के उन वचनोंसे भी तो इस श्राशयकी संगति लगानी चाहिये थी, जो मुक्त कण्ठसे पुकारकर कह रहे है :
"ब्रह्मचयोदेव प्रव्रजेद् गृहाद्वा वनाद्वा । । यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत् (जावाल उपनिषद्) अर्थ:-ब्रह्मचर्य से ही सन्यास धारण कर लेवे, चाहे गृहस्थसे और चाहे वानप्रस्थाश्रमसे, जिस दिन भी तीव्र वैराग्य हो उसी दिन सन्यास ले ले। ___ क्या उन सर्वज्ञ शास्त्रकारों के दिमागमें प्रमाद था ? जो अभी तो वैराग्यवानके लिये सर्व प्रकारसे निवृत्तिका खुला मार्ग देते
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[ साधारण धर्म हैं और अभी तीनों ऋणोका बन्धन लगाते हैं। परन्तु नहीं जी। वहॉ तो प्रमाद कोई था ही नहीं, तिलक महोदय अपने रजोगुणी वेगसे चाहे जो समझ बैठे, दोनो वच्नो की संगति तो स्पष्ट ही है। .. सती-स्त्री जव अपने पतिके लिये जलनेको उद्यत होती है, तब किसकी मजाल है जो उसकी ओर देख सके और उसकी आँखोसे आँखें मिला ले ? भाई! इसकी आँखोंमें तो बलाकी शक्ति भरी पड़ी है हमसे तो देखा नही जाता। सभी उसको मस्तक नवाते है, उसकी भस्मीको भी मरतक पर धारण करते हैं
और अपने लोक-परलोककी सर्व कामनाओं के लिये उससे मुरादे माँगते हैं। वेद-शास्त्र भला उसके मार्गमें रोड़े बनकर अपने
आपको कलंकित कैसे कर सकते है ? उसकी ठोकरसे तो भय लगता है, कहीं पिसकर चकनाचूर न हो जाएँ। बावा! यह अपने घर जा रही है, इसको कौन बोले ' चुप-चाप कान दबाये पड़े रहो, इसके लिये ऋण-विणका बन्धन कैसा ? अरे भाई । ऋणोंका बन्धन तो उन पशुजीबोके लिये था, जो श्वानके समान सांसारिक भोगरूपी हड्डीको चबाते-चबाते थकते ही न थे। बादशाह-सलामत जब अपने घरा गये तब सब मुसाहिब अपनेआप ही सेवा में हाजिर हो जाते है । जव वैराग्य आया तो ऋण आप ही पूरे हो चुके, ऋणरूप मुसाहियोकी खुशामद तो इस बादशाह-सलामत (वैराग्य) के लिये ही थी।
तर तीव्र भयो वैराग्य तो मान अपमान क्या ? जान्यो अपना श्राप तो वेद पुराण क्या ? खुद मस्ती कर मस्त तो मदिरा पान क्या? किचा देहाध्यास तो आत्मज्ञान क्या? वीतराग जब भये तो जगत्को लोड क्या? तृणवत् जान्यो जगन् तो लाख करोड़ क्या ?
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आत्मविलास
[१०२ द्वि. सण्ड
चाह रन्जुस बध्यो तो फिर सरोड़ क्या? किचा भ्रान्ति साथ तो विवाद फिर और क्या ? क्या तीनो ऋणोका बन्धन संन्यासका प्रवाह रोकनेके लिये था' महोदयजी । यह अनोखी नीति कहाँसे निकाल लाये ? कहीं त्यागके लिये भी धन्धन हुआ है ? हो, पफडके लिये तो बन्धन हो सकता है। संसारके सभी शासन पकडके लिये ही सारे कानून व विधान निर्माण करते हैं, जिनका यही श्राशय हुआ करता है कि यदि तुमको पकड ही इष्ट है तो अमुक-अमुकरीतिसे जिसमे तुम्हारा अनुचित स्वार्थका लगाव न हो और दूसरोके स्वार्थको हडप कर जानेवाला न हो, तुम पकड कर सकते हो । परन्तु निस्वार्थ त्याग के लिये संसारके किसी भी शासनने आजतक कोई भी विधान नही किया, बल्कि त्यागपरायण पुरुपके लिये तो सभी शासन
आदर व मानपत्र प्रदान करते हैं । 'सर' (Sir) राय-बहादुर' 'खान-वहादुर' आदि टाइटल देते हैं, समाचार-पत्रों में उनकी प्रशंसा की जाती है, दरवारमे उनको कुरसी मिलती है और उनके स्मारफमें पत्थर भी लगाये जाते है। इधर, संसारके सभी धर्म त्यागपरायण यज्ञ-दान-तपादि शुभ कमाँको विधिरूपसे वर्णन करते हैं और आर्थिक, शारीरिक व मानसिक त्यागका जिसमें जितना अधिक सम्बन्ध है, उनको उतना ही अधिक पुण्यरूप व मोक्षरूप निरूपण किया जाता है है त्यागमे तीनो लोक वेद यही गावें । फिर नहीं कहा जा सकता कि संन्यासरूप सच्चा त्याग जिसमे आर्थिक, शारीरिक और मानसिक तीनो त्याग पूर्णरूपसे विद्यमान हैं और जो सच्ची-सरकारको भेट दिये जा रहे हैं, किसी रूपसे धर्म शास्त्रोद्वारा निषिद्ध व निन्दित टहराया जाय । क्या यह सच्ची-सरकार उसको स्वीकार न करेगी और अपने दरबारमें उस त्यागी पुरुषको अवकाश न देगी ? और न किसी प्रकार
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[साधारण धर्म यही ध्यान में आता है कि मनु अथवा कोई भी धर्म-शास्त्र ऐसे त्यागको मंसार व समाजके लिये अटकाव जान और उसके लिये मार्ग निरोधकर अपने-अापको कलक्ति करेंगे। अधिभौतिक दृष्टि रखनेवाले हमारे अर्वाचीन महोदयगण यह ड्यटी भले ही सॅमाले रक्खें । परन्तु यह किसी प्रकार समझ नहीं आता कि जो घात हमारी सच्ची-सरकार (ईश्वरीय-दरवार) को कबूल है
और जिस भेंटको वह अपनी छातीपर हाथ रखफर सिर-आँखो से स्वीकार करती है, वही वात उसकी प्रजाके लिये हानिकारक वन जायगी। क्या वह सच्ची-सरकार इतनी उन्मत्त हैं और बीटिशादि शासनोके समान इतनो स्वार्थपरायण हैं कि प्रजाकी अनिटकारक चेष्टा उसको अपने लिये इष्ट होगी ? नहीं जी | उस सच्चीसरकारको 'प्रमाद' तया स्वार्यपरायणता' का सर्टिफिकेट हमसे तो नहीं दिया जा सकता। हाँ, हमारे वर्तमान रात-त्रताप्रेमी अर्वाचीन महोदय वेशक बलवान हैं, वे निस्सन्देह उस सच्ची-गवर्नमैण्टफो भी उखाड़ सकते हैं । गवर्नमेण्टसे विरोध करना तो काम ठहरा ही, फिर वहाँ जो भला लगे वह यहॉ बुरा लगना ही चाहिये । ज्वरपीड़िन रोगीको मिश्री भी तो कटु खगने लग पड़ती है। ___ सारांरा, तिलक महोदयने सन्यासको जिस दृष्टिसे देखा है
और मनुके वचनोंका जो आशय ग्रहण किया है उसमें भारी भूल की है । त्यागरूप सन्यासका मार्ग निरोध करना शास्त्रकारोंका आशय कदापि नहीं हो सकता, ऐगा आशय तो तब हो सकता था जब कि उनकी दृष्टिमें ससार वस्तुत' सत्य होता, परन्तु वे तो पुकार-पुकारकर गला फाड-फाड़कर चिल्ला रहे है :(१) एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म । (२) नेह नानास्ति किश्चन ।' (३) 'मृत्योः स मृत्युमामोति य इह नानेव पश्यति ।।
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आत्मविलास]
[१०४ द्वि० खण्ड
अर्थ.-(१) वह परमात्मा देश-काल-वस्तुपरिच्छेदसे रहित तथा सजातीय-विजातीय-स्वगतभेदसे रहित एक और अद्वितीय है, भ्रम करके ही उसमे यह सर्व भेद व परिच्छेद भान होते हैं।
(२) उस परमात्मामे नानात्व कुछ भी नहीं है।
(3) जो यहाँ नानात्वको सत्य जानता है वह मृत्युसे मृत्युको प्राप्त होता है, अर्थात् आवागमन इस नानात्व-दृष्टि करके ही है।
फिर यह कैसे समझा जा सकता है कि उन सर्वज्ञ तत्त्ववेत्ता महापुरुपोका आशय भ्रमरूप संसारकी सत्यताके गीत गाते रहकर थूकके पकोडोको गटकने रहने के लिये हो है । परन्तु ऐसा नहीं है, न तो सर्वज्ञ-ऋपियोकी दृष्टिमे ससार सत्य ही है और न त्यागद्वारा ससारकी क्षति ही होती है। बल्कि त्यागद्वारा तो ससार अपने तक्ष्यकी ओर अग्रसर होता है। सम्पूर्ण संसारका लक्ष्य एकमात्र 'सुख-शान्ति' ही है और वह केवल त्यागद्वारा ही प्राप्त की जा सकती है । त्याग ही उसका मूल्य है, जितनी मात्रामे उसका मूल्य चुकाया जायगा उतनी मात्रामें ही वह खरीदी जा सकती हैं, फिर संन्यासका मार्ग निरोध करनेका क्या अर्थ हो मकता है ? हाँ, यह माना कि देशसेवादि पवित्र चेष्टाएँ है, इनके द्वारा राग-द्वेपकी मात्रा घटाई जा सकती है और व्यक्तिगत स्वार्थसे छूटकर आत्मविकासका यह उच्च साधन है, परन्तु भस्मासुरकी भॉति यहाँ तो उल्टा इसका दुरुपयोग होने लगा। भरमासुरने शिवजीसे वर प्राप्त किया कि जिसके सिरपर तू हाथ रक्सेगा वह भस्म हो जायगा, वर प्राप्तकर वह शिवजीपर ही इसकी परीक्षा करने दौड़ा। इसी प्रकार व्यक्तिगत स्वार्थोसे छूटकर जिम त्यागके आशीर्वादसे देशसेवाको आदर मिला, श्राप तो उल्टा उस मूर्तिमान त्याग (सन्यास) को ही भस्म करने को उद्यत हुए । अनी । यह तो मान ही लिया जायेगा कि देश
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१०५
[साधारण धर्म संयाके मूलमे भी तो स्वार्थत्यागके द्वारा 'आत्मकल्याण' ही है
और इसमे ऊँचे उठकर वस्तुतः आत्मश्रेय साध लेना ही मुख्य लक्ष्य है। परन्तु आप तो इस पड़ावको ही मजिल मान बैठे कि यम, इससे आगे और कुछ है ही नहीं। इस प्रकार उल्टा पीछे मुडकर देखने लगे और मच्चे धर्मके प्रति द्वेष करने लग पड़े। परा होशमें आओ, अपने अन्दर प्रवेश करके देखो, यह तो उल्टी चही चल पड़ी, आत्म-कल्याएके स्थानपर आत्म-अकल्याण होने लग पड़ा। ऐप तो अपने विरोधियोंके प्रति भी निन्दित है, फिर सच्चे त्यागके प्रति हेप तो आश्चर्यरूप हैं जिसका किसीसे भी द्वेष नहीं।
इससे हमारा यह प्राशय नहीं कि नाटकघरमे एक्टरफे ममान सबको ही तुम्बी ले लेनी चाहिये । कदापि नहीं, यह तो उल्टा हानिकारक है । परन्तु धर्मकी उपयुक्त कक्षाओसे इसी जन्ममें अथवा भूत जन्मम उत्तर्ण होते हुए और त्यागको भेटे -'वैताल' को अर्पण करते हुए जिनमे त्यागको लाती फूट निकली है और रोके रुमा नहीं सकती, उनके लिय तो मनु आदि सभी धर्म-शास्त्र हाथ बाँधे हुए 'जी हुजूर बनकर यही वचन कहते हैं। 'यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रनजेत् । हि
REP अर्थात् जिस दिन भी तीव्र वैराग्य हो उसी दिन संन्यास ले - लेवे । परन्तु जिनके अन्दर-यह त्याग नहकाओं को भोग'परायण हैं, उनके लिये भोगोंकी मर्यादा बार मिये नो मणोका बन्धन लगाते हैं कि इन भागामात बोलका ग• परायण रहो और फिर, इन कारणों से भरत नामक इंडा
मारकर कहते हैं कि अथातो तुमको यार होता मिला। भ,मुख्यं तात्पर्य शासकारोत ही लागे
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आत्मविलास
. [१०६ वि० खण्ड का मार्ग निरोध करनेमे । इस प्रकार मनु व उपनिषद्वाक्यको मंगति त्यागमे ही है। 'प्रवृत्तिसा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफलाः। (मनु)
अर्थात् जीवोकी प्रवृत्ति भोगोमे स्वाभाविक है, परन्तु निवृत्ति महाफलरूप है।
हाँ, जो नवयुवक देशसेवादि शुभ प्रवृत्तिपरायण हैं उनके देशभक्त नवयुवको । लिये यह प्रवृत्ति उत्तम है। परन्तु हमारा
से विनती । उनके प्रति इतना ही परामर्श है कि निवृत्ति से वे घणा न करें और अपना द्वेपभाव न उगलें। इससे तो उनकी अपनी प्रवृत्ति भी अशुभ-प्रवृत्ति हो जायगी और उनमे देवी मानसिक वलवृद्धि होने के बजाय आसुरी पाशविक वल ही रह जायगा, जिससे उनको न इहलौकिक सफलता प्राप्त होगी
और न पारलौकिक । अपनेसे भिन्न अधिकारी निवृत्तिपरायण पुरुपोके प्रति चिप उगलकर वे अपनी ही हानि करेंगे। उनको ध्यान रखना चाहिये कि निवृत्तिपरायण पुरुपोद्वारा उनके देशका हास नहीं हो सकता। हाँ, उनके प्रति द्वेप करनेसे देशका ह्रास होना अवश्य सम्भव है। किसी भी शरीरके स्वास्थ्यके लिये यात, पित्त और कफ तीनो दोपोकी समता बनाना जरूरी है, कोई एक घोप प्रवल हुआ कि शरीरके स्वास्थ्यमें बांधा श्रार। इसी प्रकार किसी भी देशकी उन्नतिके लिये सत्व, रज और तम तीनों गुणोंकी समता वनाना परमावश्यक है। यदि आप रजो. गुग्णकी ही घृद्धि करते रहें और सत्त्वगुणके साधन निवृत्तिपरायण पुरुपोंसे द्वेपकी वृद्धि करते रहे, तो उल्टा श्राप देशकी आत्मा के हन्ता बन जाएँगे जिम प्रकार प्राणोंके विना शरीरकी स्थिति असम्भव है, उसी प्रकार सत्त्वगुणी त्यांग प्रायस्प है, इसके
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१०७]]
[ साधारण धर्म विना देशरूपी शरीर शवके समान निलीव हो जायगा। क्या देश, क्या व्यक्ति, जिस किसीको, जब कभी, जितनी कुछ सफलता प्राप्त हुई है, उसका हेतु उतनी ही मात्रामे 'त्याग' अवश्य होना चाहिये । इसके बिना सफलता 'नासीदस्ति भविष्यति' ही सिद्ध होगी, अर्थात् न हुई है, न है और न होगी। क्या केवल रजोगुणकी वृद्धिद्वारादेशकी उन्नति सम्भव है ? कदापि नहीं। रजोगुणकी वृद्धिका ही यह प्रभाव है कि आजकल देशमें अधिभौतिकस्वतन्त्रताका कोलाहल चहुँ ओरसे मचता चला आ रहा है। अर्थात् प्रत्येक जाति व व्यक्ति शरीरों और मनोंसे आजादी प्राप्त करनेके लिये परस्पर संग्राम करते दिखाई दे रहे है। क्या स्त्रीसमाज, क्या मनुष्य-समाज, क्या मजदूर-दल, क्या अन्त्यज
और क्या धनी, सभी जाति, व्यक्ति व सम्प्रदाय व्याकुल हो रहे हैं कि हम शरीरोध मनोसे आजाद हो और हमारे मन-माने व्यवहार व भोगपरायणतामे कोई भाड़ न रहे। परन्तु क्या यह आजादी है, क्या यह देशमे शान्तिस्थापन कर सकती है ? हरगिज़ नहीं। आजादीके नामपर इस बन्धनके लिये और शान्तिके नामपर इस अशान्तिके लिये दुहाई है । वास्तवमे अध्यात्मिक स्वतन्त्रता व अध्यात्मिक-शान्तिद्वारा ही सच्ची स्वतन्त्रता और सच्ची शान्ति प्राप्त की जा सकती थी और वह सात्विक त्यागके हिस्सेमे ही पाती है। परन्तु उस सात्त्विकत्यागं और अध्यात्म-विद्याको कुचलकर केवल रजोगुणी साइन्सद्वारा आजादी ढूँढना तो खपुष्पके समान है। वर्तमान योरुपदेश इसका ज्वलन्त दृष्टान्त है। जिस रजोगुणी साइन्सद्वारा
आर्थिक उन्नतिको ही आजादी माना गया था, यही बढ़ी-चढ़ी साइन्स आज विचित्र रूपसे युद्धकी कला-कौशलका साधन बन रही है और सम्पूर्ण संसारमें अग्निकाण्डकी सम्भावना करा
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आत्मविलास ]
[१०२ द्वि० खण्ड रही है। प्राशय यह कि केवल इस प्रकार बढ़े-बढ़े रजोगुणद्वारा देशकी उन्नति नहीं हो सकती। यद्यपि इस रजोगुणका रहना भी स्वाभाविक है, तथापि इसके साथ-साथ शान्ति स्थापन करतेवाला सात्त्विक त्याग भी आवश्यक है। याद रखिये, 'अपने वढे-चढ़े रजोगुणके कारण वर्तमानमें आप लोग इस त्यागका अनादर भले ही करे, परन्तु कभी न कभी इस रजोगुणके खलास हो जानेपर भापमेसे प्रत्येकको त्यागकी भेंट चढ़नी पडेगी और इस शिवस्वरूपके सामने नतमस्तक होना पड़ेगा। यह बात निश्चित है कि शारीरिक बल आसुरी वल है और मानसिक व आत्मिक बल देवी बल है तथा लोक-परलोककी सभी सफलताएँ देवी वलसे ही सम्पादन की जा सकती है, न कि आसुरी बलसे। भगवान वशिष्टके एकमात्र ब्रह्मदण्डसे जब विश्वामित्रकी सम्पूर्ण संना हताश हो गई तब विश्वामित्रके मुखसे स्वभाविक ही यह उद्गार निकल पडा:
धिग्त्रलं क्षत्रियवलं ब्रह्मतेजो बलं बलम् ।
एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे ॥ अर्थात् क्षत्रिय वलको धिकार है, ब्रह्मतेजका बल ही एकमात्र चल है, जिस एक ब्रह्मदण्डद्वारा मेरे सारे अक्ष कट गये।
अपने केवल मानसिक बलके प्रभावसे प्रह्लादने हरिण्यकशिपुकी सारी शक्तियोंको कुण्ठित कर दिया था। आप अपनी तमोगुणी शक्तियोको बढाकर कैसे सफलता प्राप्त कर सकेंगे। सत्पुरुषांक प्रति और त्यागस्प सन्यासके प्रति द्वेप तो कोरा तमोगुण है। प्रकृतिका यह नियम है कि द्वेपसे शक्ति क्षीण होती है और त्याग से वलपृद्धि, द्वैप तमोगुणमूलक है और त्याग सत्त्वगुणमूलक, इसलिये सर्व शक्तियोंका भण्डार केवल सत्त्वगुणी त्याग ही है। प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी अनुभवसे इसको प्रमाणित कर सकता
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१०६]
[साधारण धर्म है कि जब-जब हृदयमे द्वेषभाव भरा गया, हृदय तपा और बल घटा और जव-जव त्यागभाव हृदयमे आया, शान्ति मिली और क्लवृद्धि हुई । द्वेष तो आपको अपने विरोधियों के प्रति भी त्याज्य है, फिर अविरोधियोसे तो द्रुप कैसा? आप तो शक्तियोकी मूल जो त्याग है, उसपर ही कुल्हाड़ा रखने लगे । वास्तवमं बडी मूल यही है कि अपने भीतर कूड़ा-कचरा भरा रखकर बाहरकी सफाई की जाय तो हो नहीं सकती और यदि अपना भवन वुहार लिया जाय तो बाहर स्वतः ही सफाई हो जाती है।
'उपयुक्त व्याख्यासे यह स्पष्ट है कि संन्यास-आश्रमका मूलहेतु, जैसा कि तिलक महोदयने कहा है, यही नही,था कि युवा., लड़कोकी बढ़ी-चढ़ी उमङ्गोके आड़े न पाया जाय तथा इस विचारसे कि वृद्ध अवगृहस्थके किसी कार्यके योग्य नहीं है और नवयुवकोंकी स्वतन्त्रतामें यह बाधक है, केवल इसीलिये उसको इस वृद्धावस्था में गृहस्थ से निकलकर अपने हालपर निर्भर रहना चाहिये। यदि इस आश्रमका आशय इतना ही समझा जाय, तब तो यह एक भारी धृष्टता होगी और धर्मकी सारी उदारता ही लुप्त हो जायगी। मनुष्य सम्पूर्ण जीवनभर तो कोल्हुके बैल की भाँति गृहस्थके भरण-पोपणमे लगा रहे और बाल्यावस्थामें पुत्रोंकी तुच्छसे तुच्छ सेवा करता रहे, परन्तु वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर वही पुत्र अपनी सेवाके पुरस्कारमे अपने 'पिताकी यह सेवा करें कि 'अब हमको तुम्हारी जरूरत नहीं, अब तुम अपना रास्ता लो और हमारी उमङ्गोंके आड़े न आओ।
दाँत हिले और खुर घिसे, कन्धा वोम न लेय। . ऐसे : बुट्टे पैलको, कौन बाँध भुस देय ॥ । धन वचनोंके अनुसार उसको उसके हालपर छोड़ देना, यह तो बड़ी आश्चर्यजनक वाता है ! जिस धर्ममें ऐसी' स्वार्थपरा
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आत्मविलास]
[१९० द्वि० खण्ड यणता प्रधान है वह तो महान् अधर्म है। ऐसा आशय निकालकर तो हिन्दु-धर्मको लजाना है और इसकी मखौल उड़ाना है। परन्तु नहीं जी धर्म इतना कृपण कैसे हो सकता है ? आश्रमधर्मका मूलहेतु तो वास्तवमें श्रात्मकल्याण है और वह निवृत्तिद्वारा ही सिद्ध होता है। शास्त्रोंका वचन है ---
'प्रवृत्तिरोधको वर्णो निवृत्तिपोपकश्चाश्रमः ।। अर्थात् वर्ण-धर्मका प्राशय प्रवृत्तिको मर्यादामें रखना है और आश्रम-धर्मका प्राशय निवृत्तिको पुष्ट करना है। मूनमें निवृत्ति ही धर्मका मुख्य लक्ष्य है और यही आत्मकल्याणका मुख्य हेतु है । भर्तृहरिजीका क्या ही सुन्दर वचन है:
यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावजरा दूरतो
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यादत्तयो नायुपः । , प्रात्मश्रेयसि तावदेव विदुपा कार्यः प्रयलो महान्
संदीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ अर्थः-- जबतक यह शरीर स्वस्थ व रोगरहित है, जबतक बुढापा दूर है, जबतक इन्द्रियोंकी शक्ति नष्ट नहीं हुई है और जबतक आयु क्षीण नहीं हुई है, तबतक विद्वानको आत्मकल्याण के लिये महान् पुरुषार्थ कर लेना चाहिये, क्योकि तत्पश्चात् घर जलने लगनेपर कूप खोदनेका उद्यम किस कामका' अर्थात् विचारवानको आयु क्षीण होनेसे पहले-पहले जितना शीघ्र और जिस समय भी हो सके श्रात्मकल्याणके लिये जुट जाना चाहिये। ___ उपयुक्त वचनोंसे स्पष्ट सिद्ध है कि संन्यास आश्रमका जो मूलहेतु तिलक महोदयद्वारा व्यक्त किया गया है वह सर्वथा निर्मूल है और केवल उनकी अपनी कपोल-कल्पना है।
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१११]
[ साधारण धर्म अपने मतके नवे अक्षमे तिलक महोदयका कथन है कि गीता तिलक-मतके नवम 1 के प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिमें 'श्रीमद्भगवअंकका निराकरण [ दुगीतासपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे ऐसा सङ्कल्प आया है। इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म-विद्याकी प्राप्तिमें 'संन्यास' और 'योग' दो मार्गोमे 'योग' श्रेष्ठ है और यही गीताका प्रतिपाद्य विषय है।' __तिलक महोदयका यह अनुमान-प्रमाण भी भ्रममूलक है। 'योग-शास्त्र से भावार्थ निष्काम कर्मयोग ही नहीं है, इतना ही अर्थ ग्रहण करनेसे तो 'योग' शब्दकी व्यापकता भङ्ग होती है। 'योग' शब्दका अर्थ 'जुड़ना 'मिलाप पाना' है, जैसा हमारे समाधानके पञ्चस अङ्कमे इसका स्पष्ट निरूपण किया जा चुका है और यही अर्थ व्यापक रूपसे यहॉ विवक्षित है। धर्मके जितने भी अङ्ग हैं, ईश्वरप्राप्तिमे सहकारी होनेसे सभी 'योग' नामसे कहे जा सकते हैं और इसीलिये गीताका प्रत्येक अध्याय भिन्न-भिन्न योगके नामसे निरूपण किया गया है। जिस-जिस अभ्यायमे जिस-जिस साधनका मुख्यतया निरूपण हुआ है वह उसी नामसे कहा गया है। यदि 'योग' शब्दसे केवल 'कर्मयोग' ही मन्तव्य होता, तो भिन्न-भिन्न नामविशिष्ट योग न कहे जाते, जैसे :संख्या माम अध्याय ।। संख्या नाम श्रध्याय १ अर्जुनविषादयोग
८ अक्षरब्रहयोग २ सांख्ययोग
६ राजविद्याराजगुपयोग ३ कर्मयोग
१० विभूतियोग ४ ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ११ विश्वरूपदर्शनयोग ५ कर्मसंन्यासयोग १२ भक्तियोग । ६ आत्मसंयमयोग , . १३ क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग ' ७ ज्ञानविज्ञानयोगः || १४ गुत्रियविभागयोग
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आत्मविलास
[११२ द्वि० खण्ड संख्या नाम अध्याय
राख्या नाम माग १५ पुरुषोत्तमयोग १७ श्रद्धात्रयविभागयोग १६ देवासुरसपट विभागयोग । १८ मोक्षसंन्यामयोग
इससे स्पष्ट है कि संकल्पमे 'योग-शास्त्र से निष्काम कर्मयोगशास ही नहीं, बल्कि वह शाल अभिप्रेत है जो परमात्माके साथ मेल करानेवाला अर्थात सम्बन्ध जोदनेवाला है और यही अर्थ श्रेष्ठ है। जब 'योग' शब्दका व्यापक अर्थ प्राप्त है. तय उसकी व्यापकताको भन्न करके एफदेशी अर्थ लगाना तो भूल है और भगवद्वचनके महत्त्वको घटाना है।
तिलक-मतके प्रत्येक अक्ष्पर भिन्न-भिन्न विचार किया उपसंहार गया। तिलक महोदयद्वारा निवृत्तिपक्षमे जो दोप दिया गया, उनका परिहार हम स्थलपर हमारे द्वारा जरूरी समझा गया। शेपमें तिलक महोदयकी व्यक्तिके विपयमे तो कुछ कहना, सूर्यको दोपकसे दिखलाने के तुल्य है। प्रकृतिका यह नियम है कि जब-जब संसारखे देशगत अथवा समाजगत कोई विशेप क्षति उत्पन्न होती है, तब-तब उस अशम होनेवाली क्षति की निवृत्ति के लिये उस देश व समाजने ईश्वरीय अशसे किसी न किसी रूपमे विशेष शक्तिका प्रादुर्भाव होता रहता है, जो उरा सुधारके निमित्त ही अवतीर्ण होती है और उसी सम्बन्ध
अपना पिंचित्र चमत्कार दिखला जाती है। जिस प्रकार शरीरके - किसी अजमे कोई क्षत उत्पन्न होता है तो शारीरिक-प्रकृति स्वयं
भीतरसे उस क्षतकी पूर्तिका साधन करती है, डाक्टर लोग इस विषयको भली-मॉति जानते हैं। ठीक, यही व्यवस्था प्रकृतिको देश व समाजवपुके सम्बन्धमे है। जिस प्रकार निकटवर्ती कालम जब हिन्दू समाजपर ईसाईयो व यवनोका आक्रमण था, तब , उस समयको आवश्यकतानुसार स्वामी दयानन्दजीद्वारा हिन्दू
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११३]
[साधारण धर्म समाजमें जागृति हुई और उन आक्रमणोंसे हिन्दू-समाजको सुरक्षित किया गया। इसी नियमके अनुसार भगवान तिलकका प्रादुर्भाव भी उन उच्च कोटियोंमेसे ही था और केवल वर्तमानमे गिरे हुए भारतकी देश-जागृतिके निमित्त ही उनका अवतार था। इसीलिये देशसेवाका भाव उनमे पूर्णरूपसे भरपूर था और इस विषयमे उन्होंने अपने तन-मन-धनकी पूर्णाहुति दी थी। वे परोपकारपरायण प्रभावशाली भव्य-मूर्ति थे और कविवर मैथलीशरणके इन वचनोको उन्होंने भली-भाँति चरितार्थ किया था :
बास उसीमें है विभुवरका, है वस सच्चा साधु वही । जिसने दुखियोंको अपनाया, बहकर उनकी बाँह गही ।।
इस प्रकार यद्यपि भगवान तिलकद्वारा पूर्णरूपसे देश-जागृति में भाग लिया गया और केवल इसी दृष्टिको सम्मुख रखकर उन्होंने गीताशाखकी समालोचना की, तथापि प्रकृतिराज्य अपने स्वरूपसे ही अधूरा और पङ्गु है। उसके किसी एक अङ्गमे सुधार का यन किया जाता है तो उसके विपरीत किसी दूसरे अङ्गमें श्राघातकी सम्भावना हो जाती है। सर्वाङ्गपूर्ण यह प्रकृतिराज्य कदापि हुआ ही नहीं और होगा भी नहीं, अपने स्वरूपसे तो यह कुत्तकी पूछके समान ही है, जो कभी सीधी नहीं होती। हाँ, यदि जीव अपने परमपुरुषार्थद्वारा प्रकृतिराज्यसे ऊंचा उठकर उस अपने चारतविक स्वरूपमें प्रवेश करे, जो प्रकृतिका मूल व उद्गम स्थान है, तब वहाँ पहुँचकर उसको यह प्रत्यक्ष भान होगा कि यह सब उतार-चढ़ाव और विगाड़-बनाव वरे ही थे और इन सब भेदभावोंने उसको रंञ्चकमात्र भी स्पर्श नहीं किया था। इसी उद्देश्यको सम्मुख रखकर प्रकृतिराज्यमें जितने भी धर्मके श्रेङ्ग व उपाङ्गोंको रचना हुई है, उन सबका फल साक्षात् अथवा,
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आत्मविलास
[११४ • वि० खण्ड परपरा करके उस परमतत्त्वमें प्रवेश करके इन मव उतारचढ़ाचोमे मुक्त करानेसे ही है।
इसी उद्देश्यके अनुसार देशसेवा भी प्रात्मविकासका एक उपयोगी साधन है और तिगत स्वार्थमे ऊँचा ठकर देशस्वार्थतक स्वार्थका विकास पा जाना, एक श्रेष्ठतर उन्नति है। परन्तु यही जीवनका परमलक्ष्य है उससे आगे और कुछ है ही नही' यह हमारे लिये मन्तव्य नहीं है। हमारा कथन तो यह है कि हाँ, यह भी एक उच्च सोपान है, परन्तु निर्दिष्ट-स्थान यही नहीं हैं। यह बात ध्यानमें रहे कि देशसेवाके पात्र भी वही होंगे जिन्होने अपने व्यक्तिगतस्वार्थ, कुटुम्यस्त्रार्थ और जातीयस्वार्थ की बलि पहले दे छोडी हो । परन्तु लो अभी इन नीचे स्वार्थोमे ही कहीं अटके हुए है, वे देशसेवाके भी अधिकारी नहीं हो सकेंगे। यह माना कि देशस्वराज्य भला है, परन्तु अपने स्वरूपसे ही यह राग-द्वेप और जन्म-मरणसे छुटकारा दिलानेवाला नहीं हैं। इस देशभक्तिके द्वारा स्वार्थका विकास तो हुआ, परन्तु निस्वार्थता अमी नहीं आई, देश-स्वार्थके साथ अभी बन्धन है ही। जिस प्रकार रेलगाडी दिनभरमें सैंकडो मील तो दौड जाती है परन्तु लाइनके साथ बँधी हुई हैं, लाइन छोडकर एक इश्य भी नहीं चल सकती। इसी प्रकार स्वार्थ चाहे कितना भी उच्चकोटि: का हो परन्तु है स्वार्थ ही, लाइनके समान जीवका अपने स्वार्थ के साथ बन्धन अपश्य रहता है। और जबतक किसी भी अशमें स्वार्थ है, राग-द्वेप व जन्म मरण आदि विकारोंसे छुटकारा नहीं हो सकता, रहेगा यह स्वार्थ बन्धनरूप ही। वास्तवमे तो इन राग-द्वषादि विकारों से मुक्ति तभी होगी, जबकि यावत् ईश्वर सृष्टिपर हमारा स्वराज्य होगा, हमारी आँखें खुलनेपर संसारकी उत्पत्ति तथा ऑखें बन्द होनेपर संचारका प्रलय. स्वतःसिद्ध है
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[ साधारण धर्म जायगा और यह एकमात्र ज्ञानद्वारा ही साध्य है । निष्काम-कर्म जालका साधन होनेमे हेय नही किन्तु उपादेय है, परन्तु प्रकृतिका यह अटल नियम है और 'पुएबपापकी व्याख्या में इसका भली-, भाँति मिद्धान्त किया जा चुका है कि जब हम किसी पड़ावको ही उहिष्ट-स्थान मान बैटने हैं और वही डेरा डालकर आगे बढ़ने से इनकार करते है, तब हम उल्टा नीचे गिरने लग पड़ते हैं और द्वेषभाव हमारी गर्दन पकड़ने लग जाता है। जिस प्रकार किसी नदीके प्रवाहको बन्धन लगाकर जब आगे बढ़नेसे रोक दिया जाता है, तब उस प्रवाहको उस बन्धनमे टकर खाकर पीछे लौटना पड़ता है और पानी टक्कर खानेसे झाग-झाग हो जाता है। ठीक, इसी प्रकार जब हम अपने आत्मोन्नतिके प्रवाहको मार्गके किसी पडायमें डेरा डालकर और उसीको मञ्जिल मानकर श्रागे बढनेसे रोक देते हैं, तब हमको टक्कर खाकर पीछे लौटना पड़ता है और मागोंके रूपमें उपभाव आत्मोत्कृष्टताके कारण हमको दवा लेता है। इसलिये हमारा मुख्य कर्तव्य है कि किसी पड़ावको ही मंजिल माननेसी भूल न करें, सदैव ध्यान रखें कि हमको इसमें भागे पहुँचना है और पीछे मुड़कर न देखे । केवल तभी निविनतासे किसी रुकावटके बिना हम अपनी मंजिलपर पहुँचनेमें समर्थ हो सकेगे और उपादि विकारोसे सुरक्षित हो सकेंगे। मारांश:"न योगेन न सांख्येन कर्मणा नोन विद्यया ।
ब्रह्मात्मैकत्ववोधेन मोक्षः सिद्धयति नान्यथा ।।
अर्थ:- केवल श्रात्मा चं ब्रह्मके एकत्वज्ञानसे ही मोक्षकी मिद्धि होती है, अन्यथा न हठादि योगसे, न प्रकृति-पुरुपविवेकसुन माल्यसे, न निकाम-कमोदिसे और न शास्त्राध्ययनरूप परोक्षज्ञानसे ही मोक्ष सम्भव है। (सिलामत-निराकरण समाम हुआ)
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आत्मविलास] द्वि० खण्ड
पूर्वपक्षी यह तो हमने जाना कि मोक्षका साधन केयले त्याग-वैराग्यमर ज्ञान है, अन्य निष्काम-कर्मादि अन्तःकरण
पूर्वपक्ष की शुद्विद्वारा रैराग्यके उपजानेमें सहायक हैं। परन्तु यह तुम्हारा ज्ञानका साधन वैराग्य तो बड़ा कडया है। इसका तो ध्यान पाने ही शरीर कम्पायमान होता है, इसका दृश्य तो हम अपनी आँखोंसे ही देख चुके हैं। सा दुःख परमामा किसीको न दिखावे, सम्बन्धियोंके लिये तो यह मृत्युसे भी अधिक शोकप्रद है । मरे हुए प्राणीका तो स्यापा सभी करते हैं
और देखते हैं, परन्तु यहाँ तो जीते हुए प्राणीको सम्मुख बैठाकर स्यापा किया जाता है । हरे! हरे ।। यह तो कठोरताकी अवधि है। जिन माता-पितादि सम्बन्धियोम जन्म, पले-पोये, खेले, खाये, मोज उड़ाई समय पडनेपर उनको इस प्रकार धोका दे बैठना, यह तो बडी कृतघ्नता है । धर्म तो कहता है :
आत्मस्थिति जानी उसने ही, परहित जिसने व्यथा सही। परहितार्थ जिनका चैभव है, है उनसे ही धन्य मही ।।
परन्तु इसके विपरीत यहाँ तो केवल अपने स्वार्थ के लिये ही सबको चिरका दे बैठना है। साथ ही तुम्हारा यह पैराग्य तो विद्वेपपूर्ण भी है, विद्वेपके बिना सम्बन्धियोंसे मुँह कैसे मोड़ा जा सकता है ? भला जिस चेष्टामें इतनता, स्वार्थपरायणता व विद्वप तीनों शामिल है, वह धर्म कैसे। यह हमारी समझमें नहीं आता।
हाँ भाई । ठीक कहते हो, संसारकी प्रत्येक गति ही जो उल्टी उक्त पूर्वपक्षका समाधान } ठहरी, फिर तुम ऐसा क्यों न कहीं ?
- दुःखमें सुखबुद्धि, अपवित्रमें पवित्र बुद्धि, धनित्यमे नित्यबुद्धि, अधर्ममे धर्मबुद्धि और धर्ममें अधर्म
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११७]
[ साधारण धर्म बुद्धि, यही तो अविद्या देवीकी रचना है। फिर इस अविद्यारचित संसारमे यह सब विपरीत भावना हो तो आश्चर्य ही क्या है ? तुम्हारे अन्दर भी तो वही नटनी नृत्य कर रही है, तुम्हारा क्या दोष है ? तुम इसीलिये अपने मुंह से थोडा ही बोलते हो न तुम अपने कानोसे सुनते हो, न अपनी आँखोसे देखते हो और न अपनी बुद्धिसे सोचते ही हो, बल्कि दूसरोकी बुद्धि, आँख और कानसे ही काम लिया जाता है, यही तो पाप है। अरे माई ! मनुष्यको ये बुद्धि, आँख, कान यू ही परमात्माने नहीं दिये है, बल्कि ये ईश्वरकी परम दात हैं और एकमात्र अपने देखनेजानने के लिये ही प्रदान किये गये हैं। इसलिये मनुष्यका मुख्य कर्तव्य है कि सत्त्वगुणकी वृद्धिद्वारा इनका सदुपयोग करे, अपनी ही बुद्धिसे सोचे, अपनी ही आँखोंसे देखे और अपने ही कानोंसे श्रवण करे। 'अजी सब संसार कहता है, वैराग्य बड़ा कटु है !' अरे भाई । सव संमारका कहना ही किसी विषयकी सत्यताका प्रमाण नहीं हो सकता । मब संसार कहता है, 'सूर्य घूमता है, पृथ्वी ठहरी हुई है। सव संसार कहता है, 'मनुष्यजीवन बारम्बार नहीं मिलता, इसलिये मनुष्य-शरीर पाकर खूब भोगोंको भोग लेना चाहिये, बस यही इस जीवनका फल है।" तब क्या इसको सत्य माना जाय ? दुनिया तो उल्टी ही चकी चलाती है :
रंगीको नारंगी कहें, वने दूधको खोया।
चलतीको गाडी कहे, देख कबीरा रोया ।।, परन्तु तुम ही कहो, उलूक-पक्षी यदि सूर्यको अन्धकारका गोला देखता है, तब इसमें सूर्यका क्या दोष ?
पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम् ? नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दृषणम् ?
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आत्मविलास]
११८ . "द्वि० खण्ड
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूपणम् ? . अर्थ यह कि यदि करीर (केर) के वृक्षको पत्र नहीं लगते तो इसमें वसन्त-ऋतुका क्या दोप? दिनमें यदि उलूक-पक्षी ही न देखे तो इसमे सूर्यका क्या दोप' तथा चातकके मुखमे धारा नहीं पड़ती तो इसमें मेधका क्या दोष कहा जाय । इसी प्रकार सूर्यके समान प्रकाशमान इस त्यागरूप वैराग्यमे यदि तुमको अन्धकार-बुद्धि हो तो इसमें वैराग्यका क्या दोप?
संसारमें कडवा क्या है ? 'फड़वा करेला और नीम चढ़ा' की मॉति संसारमे उलझे हुए इस मनके समान और कौन वस्तु कड़वी हो सकती है। जो पाठ प्रहर चौसट घड़ी ससारमें फंसा हुआ, सर्पकी भॉति शरीररूपी विलमे बैठा हुआ राग-द्वेषरूपी फुन्कार मार रहा है, अपनेको और इस बिलको दोनोंको जला रहा है और गैरव-नरककी तैयारियाँ कर रहा है। यहाँ भी जलना और वहाँ भी जलना । जो वासनारूपी रस्सीसे बंधा , हुआ घटीयन्त्रके समान संसार-चक्रमें नीचे-ऊपर भटक रहा है
और सकल्योके जालमे फंसकर जिसकी 'ज्य भरक्ट तरु ऊपर . चढकर डार-डार पर लटकत है' की गति बनी हुई है। भला, इसके समान कडवा और क्या होगा, जहाँ अपनी चेष्टामोद्वारा . नीचे लिखे वचनोको भली-भाँति चरितार्थ किया जा रहा है :
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥ असो मया हतः शवहनिप्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ आयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योस्ति सदृशो मया।
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१९६]
[ साधारण धर्म यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥
(गी श्र. १६ लौ १३, १४, १५) अर्थ:-यह तो भान मैंने पाया और अपना यह मनोरश मैं और पूरा करूँगा, इतना धन तो मेरे पास है फिर भी यह इतना और होवेगा । इस शत्रुको तो मैने मार डाला अब औये को भी मैं मालगा। मैं सबसे बड़ा हूँ, ऐश्वर्यको भोगनेवाला हूँ, मैं सिद्ध हूँ, वलवान हूँ और सुखी हूँ। मैं बड़ा धनवान और कुटुम्बवाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है ? मै यज्ञ करूंगा, दान दूंगा और भोगोका आनन्द लूंगा-जो इस प्रकार के अज्ञान व अभिमानसे मोहित हो रहे हैं। तथा इसके फलस्वरूप जिनकी ऐसी गति हो रही है :
अनेकचित्तविम्रान्ता मोहजालसमावृताः। प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ अर्थः-अनेक प्रकारसे भ्रमित हुए चित्तवाले, मोहरूप जाल मे फंसे और काम-भोगोमे आसक्त हुए ऐसे पुरुष अपवित्र नरको में पड़ते हैं। ____ भला! इसके समान भी कोई कटु वस्तु हो सकती है ? हरे। हरे !! यहाँ तो चित्त घबराता है ! वडी दुर्गध आती है । हमसे तो यहॉ ठहरा नहीं जाता। निकलो भागो भला इस प्रकार. इस संसारमें उलझे हुए मनके समान और कौन कड़वा होगा। जिसनें अपने सम्बन्धसे इस चेतन-पुरुपको भी बाँधकर शरीररूपी कारागारमें डाल दिया है।
चेतन रोगी है रह्यो . अस्यो वहम आजार, कहूँ स्वर्ग पुनि नरककी, लाग्यो खान पजार। लाग्यो खान पंजार रन-दिन राखे किस्सा,
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श्रामविलास ]
[१२० द्वि० खण्ड
'हम अमुक' 'तुम अमुक' 'इसमे मेरा हिस्सा ।" कहे गिरधर कविराय बुद्धि भई नख-शिख सोगी, विना पित्त कफ वाय भयो परमेश्वर रोगी॥ अर्थान् चेतन-पुरुषको इन सब अवस्थाओकी प्राप्ति एकमात्र इस कड़वे-करेले मनके सम्बन्धसे ही है। अपने-आपको शरीर व मनसे बड़ा माननेवाले ये भोले-भाले कितने तुच्छ हो गये हैं। शरीरका मान पानेके लिये दर-दर श्वानके समान भटकते फिरते हैं और सर्वदा चित्तमें भयभीत रहते हैं। जरा इनके चित्तोको तो देखो, क्तिने हलके हैं ? जिस चित्तमे कामनाएँ भरपूर है वह भारी-भरकम कहाँ ? उसमे बड़ाई कैसी? जिसमे कामनाएँ है वह तो दरिद्री है, भिखारी है और उसकी वही गति होती है जो जलमे पड़ी हुई एक तुम्बीकी । हॉ भाई । वड़ तो तुम हो, बल्कि घड़ोसे भी बड़े हो, परन्तु अपने स्वरूपको भुलाकर और शरीररूपी कारागारमें बंधे रहकर बड़े बनना चाहते हो, इसके समान तुच्छता और क्या होगी ' खुशीके दिन तो उसी दिन पीठ दिखा गये जिस दिन तुमसे यह भूल हुई । अव प्रकृतिका नियम भङ्गकर शरीरसे बडा बनने के पीछे पड़े हो। याद रक्खो, ब्रह्माकी
आयुपर्यन्त भी तुम इसमें सफल-मनोरथ न हो सकोगे और जब कभी भी सत्यतासे अपने-आपमें प्रवेश करोगे, अपनेको ठगा हुश्रा ही पाओगे। शरीर व मनके सम्बन्धसे जो जितना बड़ा वनेगा, उतना ही उसको छोटा बनना पड़ेगा। क्योकि शरीरका अभिमान जितना अधिक हद होगा, उतना ही काम-क्रोध व राग-द्वेपकी लाते और मुक्के सहने पड़ेंगे और उतना, ही वह अपने आत्मस्वरूपसे दूर पड़ता चला जायगा। इस प्रकार संसारमें फंसा हुआ मन ही कड़वेसे कडवा है।
इसके विपरीत हमारे इस मजनको तो देखो, कितना शान्त
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१२१.]
[साधारण धर्म है ? हृदय वर्फके समान शीतल हो गया है, सब कामनाएँ कूच कर गई हैं। जिस प्रकार समुद्र-मथनके पश्चात् मन्दराचल निकल जानेसे समुद्र क्षोभरहित हो गया था, इसी प्रकार देखो तो सही, इसका हृदय कितना शान्त व गम्भीर है। न मानकी इच्छा, न अपमानका भय, न किसी रागकी लगन, न द्वैपकी जलन, न भूख-प्यासकी परवाह, बल्कि शरीरके रहने जानेकी भी चिन्ता नही । न किसीकी,मिन्नत, न खुशामद, न किसीसे कुछ लेना है. और न किसीका कुछ देना है। " हमन है इश्कके भाते, हमनको दौलता क्या रे? -
नहीं कुछ मालकी परवाह, किसीकी मिन्नताँ क्या रे? - हमनको खुश्क-रोटी वस, कमरको एक लंगोटी बस ? . सिरे पे एक टोपी बस, हमतको इजाताँ क्या रे? . कबा-शाला वजीरोको, जरी-जरवक्त, अमीरोंको ? हमन जैसे फकीरोको, जगत्की नेमता क्यारे१ .
कड़वापन तो विषयोमें आसक्त हुए मनके सम्बन्धसे ही था, इसने तो सारे ही विषको धो डाला है। ___ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । - बन्धाय विषयासक्त मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥
अर्थात् मन ही मनुष्योंके लिये बन्ध-मोक्षका हेतु है, विषयों मे फसा हुआ मन ही बन्धनका और विषयोंसे छूटा हुआ मन ही मोक्षका-हेतु है। .... " ____यह तो बड़ा शूरवीर है ! बड़ेसे बड़े योधाके लिये भी मनपर , जय पाना महान कठिन है, परन्तु इसने तो मनपर विजय पाई । है। अव तुम ही कहो कड़वा वैराग्य या कड़वा- संसार जिस वैराग्यके प्रभावसे सर्व सांसारिक आसक्तिरूप विप धोया गया,
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जो छाग्रह हो सकता है. यह तो उसकी जूटय उसके दर्शन कठोर
श्रामविलास]
[१२२ दि खण्ड वह आप कटु कैसे हो सकता है ? तुम तो हमारे आत्मदेवका दृश्य देख ही चुके हो । सत्य कहना, ऐसा कौन कठोरहृदय होगा जो इसके दर्शनमात्रसे पिघल न गया हो । इसके समान भी कोई सत्याग्रह हो सकता है ? वर्तमानमे जो तुम्हारा अधिभौतिकसत्याग्रह चल रहा है, यह तो उसकी जूठन है। अपने ईश्वरको साक्षी देकर कहना, क्या तुम्हारा हृदय उसके दर्शनले पानीपानी नहीं हुआ' यदि सच मुच तुम्हारा हृदय उस समय कठोर ही बना रहा तो अवश्य जन्म-जन्मान्तरके पापोसे भरपूर रहा होगा। अन्यथा यह सम्भव नहीं था कि हृदयमें कुछ वण्डक न
आती और दो आँसुओकी भेट उमको न दी जाती। भला जिसके देखनेसे पत्थर भी पिघल जाते हैं, फिर उसकी अपनी शान्तिका क्या ठिकाना ? देखो, जिस वैराग्यको तुम कड़वा कहते हो, उसके समान संसारमे क्या कोई भी चीज मीठी हो सकती है?
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अब आओ | विचार करे कि 'कठोर तुम्हारा संसार, या हमारा वैराग्य ।' कठोरता क्या है ? देहम आत्म-बुद्धि-थार शरीरसम्बन्धी स्वार्थोंमें निमग्न रहना, मिथ्या भोगोंमें सत्यबुद्धि धार पापके बीज मुट्ठी भर-भर बोते रहना और उन पापोके फलस्वरूप प्रागे-पीछे, दाहिने-वाएं, ऊपर-नीचे सब ओरसे दुःखो की मार खाते रहना, क्या यह कठोरता नहीं ? यदि हृदयमे जडता और कठोरता न होती तो दुःखोका कोई एक थपेड़ा लगते ही मुंह उधरसे अवश्य फिर जाना चाहिये था। परन्तु अपने श्राधरणसे सच्छास्त्र व सन्तोंके हृदयवेधी वैचनरूप घाणोंको भी 'कुण्ठितकर वारम्बार उन्हीं दुःखप्रद चेष्टायों में प्रवृत्ति रहना, यह स्पष्ट रूपसे सिद्ध करता है कि हृदय कठोर है।
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[ साधारण धर्म भला, इसके समान और कठोरता क्या होगी? तुम ही कहो । जो वस्तु जैसी है उसको चैसा न देख उससे विपरीत देखना, यही तो अनानरूप जड़ता है और जड़ता ही कठोरता है। जो सुखस्वरूप अपने ही भीतर भरपूर है, उस परमसत्यसे मुँह मोड़ स्वप्नरूप संसारमें आसक्त हो जाना, इसके समान जड़ता और कठोरता क्या होगी? साधो! दुइ दूर जब होवे, हमरी कौन कोई प्रत खोवे ? साधो ! कौन नशा तुम पीया ? अब लग आप सही नहीं कीया ॥ सिन्धु विषे रश्वक सम देखे, आप नहीं पर्वत सम पेखें। चमके नूर तेज सब तेरा, तेरे नयनन काहे अन्धेरा। ' देखो ! इस समयतक सत्यताके तीर हमने तो अपनी ओरसे खूब ही बँच-बैंचकर मारे हैं, परन्तु सम्भव नहीं जान पड़ता कि किसी हृदयमें इनका घाव हुआ हो। किसी भूले-भटकेका तो कहा नहीं जाता। हृदयकीववत् कठोरताका यह स्पष्ट प्रमाण है।
इसके विपरीत हमारे इस दीवानकी ओर दृष्टि डालो कि सत्यके इन अचूक तीरोंने इसके हृदयको कोमल करके पानीके समान बहा दिया है, जिससे मिथ्या संसारकी कोई आसक्ति अब उसको चला नहीं सकती। सांसारिक मिथ्या आसक्तिरूप वाए अब उसके हृदयमें विना क्षोभ पैदा किये इसी प्रकार प्रवेश कर जाते हैं, जैसे समुद्र में फैके हुए बम्बके गोले किसी प्रकार क्षोभ उत्पन्न किये विना समुद्रमे समा जाते हैं। परन्तु तुम तो इस कोमल हृदयको कठोर कहते हो । भाई ! यह कठोरता नहीं, यह तो परम कोमलता है। हाँ, यह बात भिन्न है कि जैसे यवन
* अर्थात् समुद्र में रचकमात्र मोती होता है, उसको तो वडे काटसे पाने के लिये व्यानुल होते हैं, परन्तु अपने भीतर पर्वतके समान जो अविनाशी मोती भरा हुया है उसको नहीं देखते। , ,,
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आत्मविलास ]
द्वि० खण्ड ' भाषामें 'राम' शब्दका अर्थ 'गुलाम' किया जाता है, वैसे ही ' तुम भी इस कोमलताका अर्थ अपनी भापामे कठोरता करने लग पडो। परन्तु वास्तवमे तो इसका चित्त अत्यन्त कोमल और अत्यन्त निर्मल है -
मन ऐसो निर्मल भयो जैसे गहानीर। पीछे-पीछे हर फिरत कहत कबीर-कबीर ।।
अब हमको देखना है कि सासारिक सम्बन्धोंको बनाये रखना कृतघ्नता और स्वार्थपरायणता है, अथवा इनसे ऊँचे किसी अन्य सम्बन्धको जोडनेके लिये इनका तोड़ डालना' यह वात भली-भाँति समझमे आ जानी चाहिये कि संसारमे जितने भी मम्वन्ध हैं और जितने भी धर्मके अङ्ग है, अर्थात् मातृभक्ति, पितृभक्ति, भ्रातृभक्ति, पतिसेवा, गोसेवा, पन्नीसेवा, गुरुसेवा, । कुटुम्घसेवा, जातिसेवा, देशसंवा इत्यदि, इन सबका साक्षात फल स्वार्थत्याग व अन्तःकरणकी दवताद्वारा केवल इश्वरके सम्मुख होना है और इन धार्मिक सम्बन्धोद्वारा उसीसे सम्बन्ध जोड़ना है। ये सब भक्ति व सेवा उस साक्षात फलकी उत्पत्ति निमित्तमात्र है, इनका अपना और कोई फ्ल नहीं। ये सब सम्बन्ध उसी समयतक हमारे लिये पुण्यरूप हैं, जबतक उस साक्षात् फलकी उत्पत्तिमें सहायक हैं। परन्तु जब किसी अवस्था पर पहुंचकर ये सासारिक सम्बन्ध उस साक्षात् फलकी उत्पत्तिम सहायक न रहें अथवा विरोधी हो जाएँ, तव इनका जोड़ना पुण्यरूप न रहकर तोडना ही पुण्यरूप सिद्ध होता है। प्रकृतिदेवीकी नीति कुछ ऐसी ही विलक्षण है कि एक अवस्थामें जो वस्तु पथ्य होती है, अन्य अवस्थामें वही कुपथ्य हो जाती है। • किसी अवस्थामें पाचक द्रव्य पथ्य है और रेचक कुपथ्य, किन्तु कालान्तरमें भिन्न अवस्था प्राप्त होनेपर पाचक कुपण्य सिद्ध
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१२५]
[साधारण धर्म होता है और रेचक पथ्य । उपर्युक्त सिद्धान्तकी सत्यताम सम्पूर्ण वेद-शानं मुक्तकण्ठसे विना किसी विवादके अपनी साक्षी देते हैं। उस सच्चे सम्बन्धको जोड़नेके लिये प्रह्लादने पिताको नमस्कार किया, ध्रुवने मातासे मुँह मोड़ा, विभीषणने भ्राताको पीठ दी, बलिने गुरुकी उपेक्षा की और ब्राह्मणोंकी स्त्रियों और 'गोपियोंने अपने-अपने पवियोंकी आज्ञा भङ्ग करके उनका परित्याग किया। परन्तु किसी भी शाबने इन सब चेष्टायोंमें 'कृतघ्नतादि पापोंका आरोप न किया, बल्कि ये सब शांखोंद्वारा - पुण्यरूप ही प्रमाणित हुई।
पिता वचन प्रह्लाद त्याग अपनो मत ठान्यो । यलिराजा गुरुवचन नेक हिरदै नहीं आन्यो । दई भ्रातको पीठ विभीषण कुल मरवायो। गोप्याँ पतिव्रत छाँड़ कियो अपनो मन भायो ।। यह निगम माँहि निन्दित करम करत लगे प्रतिवाय ।
हरिधर्म साधत जगन्नाथ अधर्म धर्म हो जाय ।। ' गाथा है कि शरद पूर्णिमाकी रात्रिके समय यमुनातटपर । जब भगवान्ने अपनी बंशीका मधुर नाद किया तो गोपियाँ ज्यकी ज्यू अपने घरेलू धन्धोका परित्यागकर उस मधुर-ध्वनिसे
आकर्षित हो मदोन्मत्तके समान भगवान्के निकट भागी चली "आई। जो भोजन कर रही थी वह भोजन छोड़कर, जो बालकको
स्तनपान करा रही थी वह बच्चेको पटककर और जो पतिसेवामें । लगी हुई थी वह सेवा. परित्यागकर दौड़ी ! सारांश, जब सब
गोपियाँ एकत्रित हो गई तब भगवान्ने मधुर भाषामें उनको उपदेश किया, "हे गोपियो! नीके लिये संसारमें पतिव्रत-धर्मके
समान अन्य कोई धर्म नहीं है। खियोंके लिये पति ही परमेश्वर 'है, इसलिये तुमको अपने पत्तियोंका परित्यागकर रात्रि के समय
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आत्मविलास]
[१२६ द्वि० खराद्ध जगलमें भ्रमण करना उचित नहीं है। इसपर सब गोपियोने एकस्वरसे-भगवानके चरणोंमें विनम्र प्रार्थना की, "हे नाथ! आपका कथन उचित है, परन्तु इस स्थलपर हमारी एक शक्षा है, आप कृपाकर उसका समाधान करें, फिर जैसी आपकी आज्ञा होगी हमारे लिये वही कर्तव्य होगा।" वह शहा यह है कि एक पतिव्रता पति-सेवापरायण थी। कालवशात् पतिको देशान्तर गमनकी इच्छा हुई तो उसने अपनी पत्नी से अपना मनोरथ प्रकट किया। स्त्रीने रोकर कहा, "हे स्वामी | मेरा जीवन आपके आधार है, मैं
आपको भोजन कराके आपका प्रसाद लेती हूँ, फिर आपके बिना मेरे जीवनका श्राधार क्या हो सकता है "पतिने उसको अपनी एक मूर्ति बनाकर दे दी और कहा कि इसको तू मेरा रूप जानं विधिपूर्वक मेरे आनेतक इसकी सेवा करना । ऐसी आज्ञा देकर पति देशान्तरको चला गया और वह पतिव्रता उस मूर्तिकी यथाविधि सेवा करती रही । काल पाकर पति अपने घरको लौट श्राया। गोपियों पूछती है, "हे चित्त-चोर "आप आज्ञा दीजिये कि उस सती-स्त्रीको अब कौनसे पतिपर अपना आधार करना चाहिये ? पतिकी मूर्तिपर अथवा सच्चे पतिपर ' इसी प्रकार पत्तियोंके.पति सच्चे पति जब आप हमसे खोये हुए हमको प्राप्त • हुए हैं, तब अब हमको किसकी शरण लेनी चाहिये ? आपकी
मूर्तिरूप उन पतियोकी शरण लें या आप सच्चे पतिकी भग'वान् गोपियोंके अवधिरूप प्रेमपर चकित हुए और कुछ उत्तर न
दे सके । ठीक तो है, उत्तर क्या देते १ गीताके अन्तमें बचन तो हार धूठे हैं, उत्तर देनेका मुंह कहाँ ? भला, सत्य भी कहीं छुपा - सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । .. . .अईस्वासर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ ,
(गी. अ. १८लो. ६६)
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१२७]
[ साधारण धर्म - अर्थात् सर्व धर्मोका परित्यागकर केवल मेरी ही शरणकों प्राप्त हो, मैं तुमको सारे ही पापोसे मुक्त कर दूंगा, सोच मत कर
अजी। ये संसारके सव नाते तो टेलीफोनकी भाँति उससमयतक ही प्यारे थे, जबतक मदनमोहन दूर बैठा हुआ इनके दास अपना प्रेम-सन्देश भेज रहा था। दौड़-दौड़कर, उस समय तक ही इनसे कान लगाया जाता था और उसके नातेसे ये टेलीफोन भी प्यारे लगते थे। परन्तु जव यानन्दकन्द स्वयं ही घर आ.गया तब इन टेलीफोनोसे क्या प्रयोजन ? अव तो ये टेलीफोनकी घंटियाँ प्यारी नहीं लगती, 'अब तो इनसे चित्त उकता.गया। इसी प्रकार यह सांसारिक सम्बन्ध टेलीफोनके रूपमे परम्परासे उसी समय तक उपादेयं थे जबतक उस प्रेममूर्ति से नाता नहीं जुड़ा था और वह हृदयमे नहीं उतर आया था। वास्तवमे तो इनके द्वारा उस प्रेम-मूर्तिसे ही नाता जोड़ना लक्ष्य था। परन्तु साक्षात् जब उससे नाता जुड़ गया तव ये अपने स्वरूपसे उपादेय न रहकर हेय ही सिद्ध होते हैं।' . .
भाई ! जो वीज जिस फलके लिये बोया जाय, यदि वह फल दिये बिना ही गिर जाय तो कृतघ्न है; परन्तु जो बीज बोया हुया फलके सम्मुख हो रहा है उसकोः कृतन्त्र कहनेका साहस कैसे करते हो? मनुष्य-शरीरका फल केवल ईश्वरप्राप्ति ही है, न कि सांसारिक भोग। भोग तो पशु-पक्षी आदि योनियोंमे भी जीवको प्राप्त थे और यह नियम है कि जिसको जिस भोगकी इच्छा है वही उसको सुखदायी होता है। सूकरको अपनी योनि. के भोगोमें जो आनन्द है, इन्द्रके भोग उस समय उसके लिये वैसे
आनन्दरूप नहीं रहते, क्योंकि उसको उनकी इच्छा ही नहीं है। इनलिये भोगदष्टि सूकर व इन्द्रमें कोई भेद नहीं। इसी प्रकार भोगदृष्टिसे मनुष्य शरीरमें कोई विलक्षणता नहीं। मनुष्य शरीर
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आत्मविलास-]
[१२८.. द्वि० खण्ड मोक्षद्वार है इसके द्वारा भगवानको प्राप्त किया जा सकता.है, यही एकमात्र इस शरीरकी बड़ाई है। भगवान रामचन्द्रने राज्यसिहासनारूढ़ होने के पश्चात् एक बार अपनी प्रजाको आह्वानकर क्या हो सुन्दर उपदेश किया है। चौद-बड़े भाग्यमानुप तनु पावा। सुरदुर्लभ सग्रन्थन गावा ।।
साधनधाम मोक्षकरद्वारा पाइनजिहि परलोक संवारा!! सो परत्र दुःख पावहि, शिर धुनि धुनि पछिताहि ।
कालहिं कर्महि ईश्वरहि, मिथ्या दोप लगाहि ॥ इह तनु कर फल विषय न भाई । स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुःखदाई ॥ नर तनु पाय विषय मन देही । पलटि सुधा ते शठ विष लेही। नर तनु भव वारिधि के वेडे । सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरे ।। कर्णधार सद्गुरु दृढ़ नावा । दुर्लभ साजसुलभ करि पाँवा ।।
जेन तरें भवसागरहि, नर समाज अस पाय ।
सो फुतनिन्दक मन्दमति, पातमहनि गति जाय ॥ भगवान् वशिष्ठ भगवान रामचन्द्र के प्रति उपदेश करते है :-.. अत्राहाराणे .कर्म कुर्यादानिन्ध,
___कुर्यादाहारं प्राणसंधारणार्थम्। प्राणं संधारयात्तत्त्वजिज्ञासनार्थ, तत्त्वं जिज्ञास्यं येन भूयो न दुःखम् ॥
(योगवाशिष्ठ). अर्थ:-इस संसारमें अहारके लिये अनिन्दित कर्म कर्तव्यहै (निन्दित नही), प्राणरक्षणार्थ श्रहार कर्तव्य है (मोगार्थ नहीं),
और प्राणरक्षा तत्व-जिनासाके लिये कर्तव्य है (किसी सांसा.. रिफ यशके लिये नहीं) इस प्रकार जिसने तत्त्वको खोन कर ली केवल इसीके लिये दुखोसे छुटकारा है।
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१२६]
[साधारण धर्म यही आशय भागवतके प्रारम्भमें भगवान् व्यासजीने निरूपण किया है।
धर्मस्य ह्यापवर्गस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते । नार्थस्य धर्मकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः॥ कामस्य नेन्द्रियप्रीतिलामो जीवेत यावता। जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः ॥ वदन्ति तत्तत्वविदस्तवं यज्जानमद्वयम । ब्रह्मति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ।।
(मागवत प्रथम स्कन्ध अ० २ श्लले० ६, १०, ११) अर्थः-धर्मका फल धनादि नहीं है, किन्तु मोक्ष ही धर्मका फल है। धनादिका फल कामलार नही माना गया है, किन्नु सत्पात्रोके निमित्त धन व्यय करके धर्म उपार्जन करना ही धनका मुख्य फल है। कामका फल विषयभोगद्वारा इन्द्रियप्रीति करना नहीं है, किन्तु तुधा-पिपासादि कारके वेगको निवृत्तकर जीवनरक्षा करना ही कामका फल है । जीवनका फल संसारसम्बन्धी कर्नामें फरो रहना नहीं है. किन्तु तत्त्वजिज्ञासा ही एकमात्र फल है, जिसको तत्त्ववेत्ता तत्व', 'अद्वैत' चा 'जान' कहते हैं और "जो 'ब्रह्म', 'परमात्मा', या 'भगवान' शब्दों करके कथन किया जाता है। - इस प्रकार जब यह अपने लक्ष्यकी ओर जा रहा है, तव कृतन कैसे। अब आपका यह विचार कि इस त्यागसे सम्बन्धियोंकी हानि होती है, बहुत ही थोथा है और-सत्यकों न जानकर ही ऐसा प्रलाप किया जाता है। भला, सत्यके सम्बन्धसे भी कभी किसीकी हानि हुई है ? सूर्यका अन्धकारसेक्या सम्बन्ध
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आत्मविलास]
[१३० द्वि० सण्ड अग्निकी ज्याला नीचे को और जलफा प्रयाह उपरको वहन लगे यह असम्भव तो सम्भव हो जाय, परन्तु सत्यनापूर्ण त्याग किसीकी हानि हो, यह सम्भव नही । 'पाजनक कोई ऐसा दृष्टान्त देखने-सुननेमें नहीं आया कि जो किसीके परमार्थपरायण होनेसे उसके पीछे सम्बन्धियोको हानि पहुँची हो । किनी वस्तुका हानि. लाभ केवल परमार्थदृष्टिसे ही प्रमाण किया जा लाता है कि वह हमारे परमार्थको वनानेवाला है या विगाउनेवाला । सांगारिक दृष्ठिसे हानि-लाभका प्रमाण करना तो अति तुच्छ दष्टि है। वस्तुतः इस त्यागमे तो इतना बल है कि इसके सम्बन्धसे सम्बन्धियोंकी व्यावहारिक हानि भी असम्भव है, फिर पारमार्थिक लाभका तो अन्त ही क्या है ? यदि इस त्यागके सम्बन्धले किसी सम्बन्धीको कष्ट भान होता है तो वह ऐसा ही है, जैसे किसी पके हुए फोड़ेमें चीरा लगानेसे कुछ समयके लिये कष्ट प्रतीत होता है, परन्तु पीप निकल जानेपर पूर्ण शान्ति मिलती है। जिसको तुम घरका देना कहते हो यह चिरका नहीं, बल्कि अपने पवित्र श्राचरणोसे सम्बन्धियोकी एक ऐसी सच्ची व ठोस मेवा है जो दूसरोसे अनेक जन्म धारकर भी नहीं हो सकती। जो आम्रफल पककर वृक्षसे गिर पड़े, आप भीग निकले और दूसरोको मिठाम दे, वह तो परम उपकारक है न कि कृतघ्न । किसी भी मनुष्यका एक चारदीवारीके अन्दर उत्पन्न होना तो श्रावश्यक है, परन्तु उसी चार-दीवारीमें रहकर मर जाना तो घोर पाप है और कवरमें सड़-सड़कर मरनेके तुल्य है। अब कहिये, क्या यह कृतघ्नता है ? आप तो स्वय हमारे आत्मदेवके चरित्र देख चुके हो, फिर प्रत्यक्षको प्रमाण क्या जिसने उसके चरित्रोसे और उससे प्रेम किया वही अमर हुआ। परन्तु अपनी दोषदृष्टि करके तुम उसके आचरणोंको अपने हृदयमे ठहरने नहीं देते, इसीलिये तुम्हारे
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१३१]]
[ साधारण धर्म भीतरसे यह सब विकार निकल रहे हैं। भला । देखो तो सही, जो व्यक्ति जीते ही मर गया है और मरके भी अमर हुमा है, उसको स्वार्थपरायण व कृतघ्न कहना कैसासुफेद झूठ है। जिसने शरीरसम्बन्धी सर्व स्वार्थोंकी तिलाञ्जलि दी और संसारके लिये अपने शरीरको भी खाद बना दिया, वह तो पूर्णरूपसे स्वार्थत्यागी है न कि स्वार्थी । द्वैपकी मूल राग है, रागसे ही द्वेषकी उत्पत्ति होती है। जब हम परिच्छिन्न-दृष्टि धार शरीरसम्बन्धी स्वार्थको बनाये रखकर कुछ पदार्थोंमें ममत्व करते हैं, तब ममत्व के विषय जो पदार्थ है उनमे रागकी उत्पत्ति होती है। और प्रकृतिदेवीकी यह नीति है कि जहाँ हमने स्वार्थष्टिसे दो-चार पदार्थोंमे राग किया, वहाँ ही उनसे भिन्न पदार्थोंमे द्वेष उत्पन्न हो जाता है और हृदय तपने लगता है। अर्थात् अपने हृदयगत प्रेमको स्त्रीपुत्रादि दो-चार पदार्थों के साथ जोड़कर जब हम इसे सीमाबद्ध कर देते हैं, तब यह गंदला हो जाता है और इसमें द्वेषरूपी सड़ॉद पैदा हो जाती है। परन्तु वैराग्यकी यह बढ़ी-चढ़ी अवस्था तो बी-पुत्रादिगत प्रेमकी सीमाको तोड़कर इस पवित्र प्रेमके प्रवाहको सब ओरसे खुला कर देती हैं, जिससे सम्पूर्ण भूतप्राणियोंके प्रति हमारा हृदयगत प्रेम विकसित हो जाता है। इस प्रकार इस विषमताके निकल जानेसे क्या सम्बन्धी और क्या असम्बन्धी सबको हम समतापूर्ण प्रेम प्रदान कर सकते हैं
और इस अवस्थापर पहुँचकर ही 'वसुधैव कुटुम्बकम्' भाव पूर्णरूपसे जागृत हो सकता है, यथा :
माता च कमलादेवी पिता देवो जनार्दनः । बान्धवाः विष्णुभक्ताश्च निवासो भुवनत्रयम् ॥ अर्थात् लक्ष्मीदेवी ही हमारी माता है, विष्णुदेव ही हमारे
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आत्मविलास ]
[१३२ वि० साउ पिता है तथा विष्णुभक्त ही हमारे बान्धव है, टम प्रकार तीन लोक ही हमारा भवन है।
यह सब इस वैराग्य को ही महिमा है जिमने विपमताका धन्धन तोडकर इस समताका विस्तार किया है। सारांश, जिमको तुम कटु कहते हो वह परम-मधुर है । जिसका कठोर कहा जाता हैं वह परम-कोमलता है। जिसको पृतन्नता कहा गया है वह परम-कृतज्ञता है। जिसको चिरका देना कहते हैं वह परम-मेवा है। जिसको स्वार्थपरायणता कहा जाता है वह म्यान्यागकी अवधि है और जिमको विद्वेप कहते हो वह परम-समता है। केवल तुम्हारे दृष्टिदोपके प्रभावसे ही यह सब विपरीत भावनाएँ हो रही है, अपनी राष्टिको पवित्र करनेसे सभी ताप दूर हो सकते हैं। खैर जी
बीती ताहि बिसार दे आगेकी सुधि ले।
जो वन प्रावे सहजम ताहीमे चित्त दे। पाण्डित्याभिमानी परन्तु शास्त्रोके केवल परोक्षज्ञानी कोई कहते हैं याज्ञवल्क्य का मत है कि सन्यासमें केवल ब्राह्मणका ही अधिकार है। कोई मनुका प्रमाण निकालकर लाते हैं कि 'मनुने तीन रोका बन्धन लगाया है, इन ऋणोको चुकाये विना सन्यास लेनेसे अधोगति होती है। कोई अन्य ग्रन्थोंफा प्रमाण लाते है और कहते हैं कि 'संन्यास तो हम भी लेते, परन्तु क्या करें कलियुगमें सन्यासका किसी भी वर्णको अधिकार नहीं है।' इस प्रकार अपनी अपनी कॉई-कॉई सब मचाते ही रह गये, परन्तु हमारा आत्मदेव तो मदमाते सिंहके समान संसार___ - देवाण, ऋपिकण और पितृमण । यज्ञ-यागादि करके देवताओंको तृप्त करना देवऋणसे, वेदाध्ययनद्वारा ऋषिणसे और पुत्रपतिद्वारा पितृ
से मुक्ति होती है।
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१३३ ]
[ साधारण धर्म रूपी पिझरेको तोड़कर ऐसा भपटा कि वह गया! वह गया ! वह गया !! और 'तववाहम्' (मैं तेरा ही हूँ) भावसे निकलकर 'त्वमेवाहम्' (मैं तू ही हूँ) भावमे जाटिका और पूर्णरूपसे
सत्त्वगुणमे आरूढ हो गया। परमार्थरूपी वृक्ष हरी-भरी लह- लहाती टहनी-पत्तियोसे सुन्दर फूलके रूपमे विकसित हो पाया। वावा! अब इसकी आँखे किसी दूसरी सम्धी दुल्हनसे लड़ी है, अब इसके कान तुसको सुननेवाले नही रहे, अब तुम इसके रोग की परीक्षा नहीं कर सकते, तुम इसकी नाड़ीको नहीं पहिचान सकते, इसको छोड़ अव अन्य सांसारिक पुरुपोंकी नाडीको टटोलो ।
अरी! मैं तो राम दीवानी री। मेरा मर्म न जाने कोय । सूली ऊपर सेज पियाकी, किम विधि मिलना होय ।।
अब मैं अपने रामको रिझाऊँ। (टक) डाली छे न पत्ता छड़ ना कोई जीव सताऊँ।। पात-पातमें प्रमु बसत है, वाहीको शीश नवाऊँ। (टक) गङ्गा जाऊँ न यमुना जाउँ, ना कोई तीरथ न्हाऊँ। अड़सठ तीरथ घटके भीतर, तिन ही में मल-मल न्हाऊँ। (टक) ओपधि खाऊँ न बूटी लाऊँ, ना कोई वैद्य बुलाऊँ। पूरण वैद्य मिले अविनाशी, वाहीको नब्ज दिखाऊँ। (टंक) ज्ञान कुठारा कसकर बॉघु, सुरत क्मान चढ़ाऊँ। पाँचो चोर वसें घट भीतर, तिनको मार गिराऊँ । (टेक)
देखोजी बन्धन सदैव पकड़के लिये ही होता है। भला, त्यागके लिये भी कमी बन्धन हुआ है। सच्चे ऋषि-महर्षि इतने प्रमादी कैसे हो सकते हैं कि रगेदिल अधिकारीके लिये किसी प्रकार वन्धन लगाकर अपनेको दूपित करें। हाँ! अधिकारी होना चाहिये, फिर तो वह सर्व प्रकारसे उसे 'शुभागमन बहने के लिये
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आत्मविलास
[१३४ द्वि० खण्ड उद्यत हैं, यही तो उनकी उदारता है। भला, जव उनकी दृष्टिमें जीव शिवरूप ही है और केवल मिथ्या पदार्थोंकी पकड़से वह अपने-आप ही बन्धायमान हो गया है, यथा:
* कुण्डलिया - मरजी चेतन की जभी झक मारन की होय । भृगतृष्णाके नीरमें बह चल्यो बिन तोय ।। बह चल्यो बिन तोर ना कहुँ किनारो पावे । कहुँ ऊर्ध्व कहुँ अध पुनि-पुनि गोते खावे ॥ कहे गिरधर कविराय दीजिये किस ढिग अरजी।
परमेश्वरकी श्राप भई जब ऐसी मरजी ॥ ऐसी अवस्थामें जबकि सच-मुच यह चेतनदेव मिथ्या पकड़ से जीवरूपमें श्राप ही बँध गया है और इस पकड़का छोड़ना ही मुक्ति है तथा प्याजकी पौदके समान इधरसे उखाड़ना और उधर जमाना ही है, तब सचक्षु ऋषि-मुनि सच्चे अधिकारीके लिये जो अपने घर जा रहा है, काल अथवा वर्णका बन्धन कैसे लगा सकते हैं ? अपने घर जानेवालेके लिये भी कही कभी देशकालका बन्धन हुआ है। हाँ, यह सब बन्धन क्रम-संन्यासके अधिकारी उन वैराग्यशून्य हृदयोंके लिये तो हो सकता है, जिनमें वैराग्यकी लाली अभी नहीं आई। परन्तु मूलमें शास्त्रके सभी मर्यादारूप बन्धन, बन्धनोसे छुटकारा दिलानेके लिये ही हैं, न कि बाँधे रखनेके लिये । अनी जातिका सम्बन्धतो शरीरसे ही है न कि आत्मा से, किन्तु यह तो अब शरीरसे ही हाथ धो बैठा, अब इस शवको तुम सँभालो और बन्धन लगाये जाओ। यह लो ! हम तो जाते हैं !
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१३५]
[ साधारण धर्म
-ज्ञान:वाचस्पति-मिश्रका मत है कि निष्काम-कर्म उपासनादिका कर्मजन्य अपूर्व जान ) फल विविदिपारूप जिज्ञासा है, निर्मल में उपयोगी सामग्री अन्तःकरणमे जिज्ञासाके उत्पन्न हो जानेपर
का जनक है। कर्मजन्य अपूर्व अपना फल देकर नष्ट हो जाता है । जिज्ञासाके होते हुए भी उत्तम गुरु-शास्त्रादि सामग्री सिद्ध होवे तब ज्ञानकी प्राप्ति सम्भव होती है । उत्तम गुरु-शास्त्रादि मामग्रीके बिना जिज्ञासा होनेपर भी जानका सम्भव नहीं।" परन्तु विवरणकार इससे आगे बढ़कर और नुजा टांककर क्या ही सुन्दर सिद्वान्त करते हैं कि 'निष्काम-कर्मादिका फ्त केवल जिनासा ही नहीं, बल्कि जिज्ञासाद्वारा ज्ञान है । मजन्य अपूर्व ज्ञानकी उत्पत्तिपर्यन्त शेष रहता है, वह ज्ञानको उत्पन्न करके ही नष्ट होता है और इस जन्ममें अथवा भाषी जन्ममे कर्मजन्य अपूर्व उत्तम गुरु-शास्त्रादि सामग्रीको स्वयं ही सम्पादन करता है।
इस सिद्धान्तके अनुसार हमारा आत्मदेव सद्गुरुकी शरण सद्गुरु महिमा } को प्राप्त हो चुका है और उनके चरणोमें
आत्मनिवेदन कर चुका है। उन सद्गुरुकी महिमा वर्णन करने के लिये न वाणीकी सामर्थ्य है और न लेखनीमें ही वल है, मन ही जानता है। परन्तु मनकी गति भी महिमा वर्णन करनेमें गुगेके गुड़ के समान है। बलिहारी जाऊँ! और कोटिशः वारी-बारी नाऊँ उन सद्गुरुके चरणकमलोंपर । धन्य है, हे गुरो! आपकी कारीगरी और आपके हाथकी सफाईको बार•म्बार धन्य है ! चुपके चुपके वह काम किया, शरीर और मनइन्द्रियोंपर ऐसा अधिकार पाया और उनको भम्मकर ऐसा - अपने प्रात्मस्वतनके जाननेको इच्छा। संस्कार ।
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आत्मविलास]
[१३६ द्वि० खण्ड पारस बताया कि कुछ न पूछो । इसपर खूबी यह कि जरा आँच भी तो न लगने दी, इस सफाईकी उपमा नहीं मिलती।
- भजन:मैं वारीजाऊँसन्गुरुकी, जी मै बलिहारीजाऊँज्ञानी गुरुकी (टर) मेरा किया भरम सघ दूर, मैं वारी जाऊँ सतगुरुकी ॥१॥ सतगुरु मेरा ऐसा हुआ जी, ज्यू दिवताकी लोय । आई पडोसन ले गई जी, दिवलारो दिवला जोय ||२(टर) मन धोवी तन कापडा जी, सुरता साचुन होय । शील-शिला मेरा सतगुरु बैठा, सब रग दिया है वोय ॥३॥ (टर)
भजनका पक्तिवार पर्थ :--(१) मैं सद्गुरुपर वारी जाता हू और उन मानी गुरुपर बलिहारी जाता है, जिन्होंने मेरा सर प्रम दूर कर दिया। अर्यात मैं अपने आपको अजान करकै क्र्ता-भोक्ता जीव मानकर संसारचक्रम
म रहा था, वह कर्तव-भोक्तृत्व श्रम दूर करके सभी कर्मवन्मनोंको भस्म कर दिया, ऐसे सद्गुष्पर मैं बलिहारी जाता हूं।
(२) जिस प्रकार पडोलन अपने दीपकको दूसरी पडौसनके प्रज्वलित दोपकसे जोडकर चली जाती है तो इससे पूर्व प्रज्वलित दीपक कोई न्यूनता नहीं आती और वह अपने समान ही दूसरे दीपकको प्रज्वलित कर देता है। इसी प्रकार मेरे सद्गुरु दीपककी लौ के समान स्वयं प्रकाश हैं, जो कि अपने संसर्गमें आये हुएको अपने समान ही प्रकाशमान कर देते हैं और श्राप ज्यू 'के न्यू रहते है। ऐसे सद्गुस्पर में बलिहारी जाता हूं।
(३) मोनकी नीव जितासावाला मन धोनेवाला बोची है, सन अर्थात् शरीर बौनेयोग्य वत्र है जो अनेक विकारोंका घर है और अन्तर्मुखी आत्माकार-वृत्ति माबुन है । अर्थात् पहिमुखी-वृत्तिद्वारा इस देहम ही आत्मवृद्धि हो रही थी और यही सर्व पुण्य-पापादि मल-विकारोंका हेतु था, उसको दूर । करने के लिये जो श्रात्माकार अन्तम सी-वृत्तिरूपी साधुन दिया गया तो देहोऽह'
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१३७]
[साधारण धर्म थे घाटी हरिनामकी जी, चढ़ सकै नहि कोय । चेढ़सी हरिका सूरमा जी, जाके धड़पर सीस न होय ! (टर) कवीरा मारा मान गढ़ जी, लूटे पाँचो खान । ज्ञान कुल्हाड़ी हद कर बाही, काट किया चौगान ||शा (टेर) भाव करके समान उद्धकर 'ब्रह्माहारिम' रूपी रंग चढ़ गया। यह सब मलनिवारणरूप व्यवहार अचल कूटस्थाप शिलाके आधारसे ही हो सकता है । यहाँ अधिष्ठानरूप शिला मेरे सद्गुरु हैं, जिन्होंने अपने अधिष्ठानस्वल्पसे आप ज्यूके त्ये रहकर सब अहंता-पप्रतापी मलको वो दिया है। उन सगुल्सर मैं वारी जाता हूं, बलिहारी जाता है।
(४) हरि नाम, अर्थात् निगण-ब्रह्मका स्वत्य एक घाटीके तुल्य है, अर्थात् अगम्य है। इस ब्रह्मस्वरूपमें प्रारूड होना दुस्तर है, इसमें कोई पुरुष जो अपनी अहन्ताको बनाये हुए है, आरुढ नहीं हो सकता। इस्में वह हरि का सूरमा अर्थात् वह तीव्रतर वैराग्यवान् ही पालइ हो सकता है, जिसने अपने सिरको वडसे जुदा कर दिया हो । अर्थात् प्रथप जिसने सर्व संसार सम्बन्धी स्वायोंकी बलि देकर फिर शरीरसम्बन्धी प्रासविन व ममताको मम कर शरीरसम्बन्धी अन्ता भी भरम कर दी हो, अर्थात् जिसने अपने आपको ज्ञानद्वारा देहादिसे असा कर लिया हो। ऐसे मेरे सद्गुरु हैं जिन्होंने उस घाटीमें प्रवेश किया है, उनपर मै बलिहारी जाता हूं।
(५) 'मान' अर्थात् सूक्ष्म अहंकार ही संसारकी मूल है, वही राजा है उसीसे सर्व विकार उत्पन होते हैं और वह अति दुर्जय है जो गड वॉचकर बैठा है । कबीरजी कहते हैं कि मैंने उसका गढ़ अर्थात् देहाभिमान तोडकर उसको मार दिया और उसके पाँच सान अर्थात् अमीर-मरा (१) काम, (२) क्रोध, (३) लोभ, (४) मोह और (५) अहंकार थे, उनको मैंने लूटे लिया। क्या तो वे पॉवों जीवके लुटेरे थे, परन्तु मैने तो उनको ही लूट लिया और जानरूपी कुल्हाड़ी ऐसी बेहद बताई कि इन सर्वका त्रिकालाभाव सिद्ध हो गया । इस प्रकार जितनी भी कुछ विषमतांपो कॉटेदार मोड़ियाँ
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द्वि० सण्ड
आत्मविलास]
[१३८ श्रद्धाभाव ऐसा प्रज्वलित हुआ कि अपना आपा खोया गया, सद्गुरुकी वाणी ही अपनी वाणी और उनके नेत्र ही अपने नेत्र हो गये। इस प्रकार भगवानके इन वचनोके अनुसार तीनो सामग्री एकत्रित हो चुकी है :
श्रद्धावॉल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्या परांशान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
(गी. अ ४लो ३६) अर्थ:-श्रद्धा, तत्परता और जितेन्द्रियता तीनोके मिलनेपर ही ज्ञानकी प्राप्ति होती है और अधिकारी ज्ञान प्राप्त करके तत्काल परां-शान्तिको पा जाता है।
इन्दव छन्द मौज करी गुरुदेव दयाकरि, शब्द सुनाय कह्यो हरि नेरो। ज्यों रविके प्रकटे निशि जात सु, दूर कियो भ्रम भान अन्धेरो॥ कायिक वाचिक मानस हूँ करि, है गुरुदेवहि बन्दन मेरो। सुन्दर दास कहे कर जोरिजु, दादू दयालको हू नित चेरो ।।१।। न्यू कपड़ा दरजी गहि व्योंतत, काठहिं को बढई कसियान । कञ्चनको ज्यू सुनार कसै पुनि, लोहको घाट लुहार हि जाने ।। पाहनको कसि लेत सिलावट, पात्र कुम्हारके हाथ निपाने । तैसेहि शिष्य कसै गुरुदेवजु, सुन्दर दास तवै मन माने ) पूरण ब्रह्म बताय दियो जिन, एक अखण्डित व्यापक सारे । राग रु द्वेप करें अब कौनसु, जो अहै मूल वही सब डारे॥ संशय शोक मिटयो मनको सव, तत्त्व-विचार कहो निरधार। सुन्दर शुद्ध कियो मल घोगजु, है गुरुको उर ध्यान हमारे ||शा थी, उन सबको जान-कुन्हाधीपे काटकर मैदान साफ कर दिया। अर्थात् 'सर्व ब्रह्म हाट उत्पन हो गई। यह सब कार्य जिन सद्गुरकासे हुआ उन परे में परिहासे गाता हूँ।
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१३६]
[ साधारण धर्म
• दोहा ।
सन-शुरु श्रीहरिके चरण, अधिक अरुण अरविन्द ।
दुःखहरण तारणतरण, मुक्तकरण सुखकंद ॥१॥ नमस्कार सुन्दर करत, निशिदिन बारम्बार ।
सदा रहे मम शीशपर, राद्गुरु चरण तुम्हार ॥२॥ तन मन इन्द्रिय वशकरण, ऐसा सद्गुरु सूर ।
____ शङ्कन अने जगत् की, हरि । सदा हजूर शा द्वंद्वरहित निर्मल सदा, सुखदुःख एक समान ।
भेदाभेद न देखिये, सद्गुरु चतुर सयानं ॥४॥ मनसा वाचा कर्मणा, सब ही तूं निर्दोष ।
क्षमा दया जिनके हृदय, लिये सस्य संतोप ॥ भानु उदय ज्यू होत है, रजनी तमको नाश ।
सुखदाई शीतल सदा, जिनके हृदय प्रकाश ॥ सद्गुरु सुधा-समुद्र हैं, सुधामयी है नैन ।
नख-शिख सुधास्वरूप है, सुधासु वर्षे बैन ॥७॥ हरि सद्गुरु शीशपर, उरमें जिनको नाम ।
सुन्दर आये शरण तकि, तिन पायो निजधाम || बहे जात संसारमे, सद्गुरु पकड़े केश ।
सुन्दर काढे डूबते, दे अद्भुत उपदेश ॥il सुन्दर सद्गुरु जगत्मे, पर उपकारी होय।।
नीच ऊँच सब उद्धरै, शरण जुआवे कोय ॥१०॥ सुन्दर सद्गुरु सहजमे, किये सु परली पार।
___ और उपाय न तरि सके, भवमागर संसार ||११|| । सद्गुरुकृपाके विना कोई भी अपना परमार्थ सिद्ध नहीं कर
सकता । श्रीगुरुकृपाके विना रज-तम धुलकर निर्मल नहीं होते
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आत्मविलास]
[१४० द्वि० सण्ड तथा आत्मज्ञानम दृढतम निष्ठा भी नहीं होती। श्रीमानेश्वर महाराज कहते हैं :___ "समग्र वेद-शास्त्र पढ डाले, योगादिका भी खूब अभ्यास किया, पर इनकी सफलता तभी है जब श्रीगुरुकृपा हो। कमाई तो अपने ही परिश्रमकी होती है, तथापि उसपर जवतक श्रीगुरुकृपाकी मोहर नहीं लगती तवतक भगवानके दरबार में उसका कोई मूल्य नहीं होता । अत्यन्त सूक्ष्म व विशुद्ध बुद्धिद्वारा ज्ञान प्राप्त होनेपर भी सूक्ष्म अहकार सद्गुरुके चरण गहे मिना निशेष नष्ट नहीं होता। श्रीराम व श्रीकृष्णको भी श्रीगुरुचरणकमलोंका आश्रय लेना पडा, तव औरोकी तो बात ही क्या है ? वेद, शास्त्र, पुराण और सन्त सभी इस विषयमें एकस्वरसे कहते हैं कि सद्गुरु मनुष्य नहीं हैं, साक्षात् ब्रह्मके अवतार हैं। उनके आशीर्वाद बिना जिज्ञासुकी कमाई सफल नहीं है। जिस प्रकार भोजन-सामग्री सभी विद्यमान है, परन्तु पकानेवाला न हो तो क्षुधा निवृत्त नहीं होती, सामग्री रहते हुए भी क्षुधातुर रहना पड़ता है। इसी प्रकार साधनचतुष्टयसम्पन्न भी जिज्ञासु हुआ, परन्तु सद्गुरु बिना आवागमन नहीं छूटता। इसलिये 'शाब्दे परे च निष्णाते ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्' ऐसे सद्गुरुकी शरण लेनेको भागवरकारने कहा है। गीताका वचन है 'तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया 'आचार्यवान पुरुषो वेद' इस प्रकार
आत्मवेत्ता महापुरुषके चरण गहनेको वेदोंने कहा है। जगद्गुरु श्रीमत् शङ्कराचार्यकी आज्ञा है :पडङ्गादि वेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादिगधं सुपचं करोति। गुरोरंघ्रिपद्मेमनश्चेत्र लग्नंततः किं ततःकिंततःकिं ततः किम । अर्थात् पडलादिवेद व शास्त्रविद्या जिसके मुखमें है और गध
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१४१]
[ साधारण धर्म पद्य कवित्वम भी चतुर है, परन्तु यदि सद्गुरु के चरणारविन्दमे मन न लगा तो इन सर्व विद्यादिसे क्या फल हुआ? अर्थात कुछ नहीं । साराश, सभीका मत एक स्वरले यही है :
यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥ अर्थ :-जिसकी ईश्वरमे पराभक्ति है और जैसी ईश्वर में भक्ति है वैसी ही गुरुमें है, उसी महात्माके हृदयमे यह शास्त्रके अर्थ यथार्थरूपमे प्रकाशमान होते है। ___ श्रीमद्गुरु वोलते-चालते ब्रह्म है, उनकी चरणधूलिमें लोटे बिना कोई भी कृतकृत्य नहीं हुआ। वह अधिकारी दीनोपर तनमन-वाणीसे बड़े ही दयालु होते हैं, शिष्यकं भववन्धन काट डालते हैं और अहङ्कारकी छावनी उठा देते हैं। वह शब्द-ज्ञानमें पारङ्गत होते हैं, ब्रह्म-ज्ञानमें सदा झूमते रहते हैं और निज-भाव से शिष्यको प्रबोध करानेमें समर्थ होते हैं।" ___ श्रीस्वामी विवेकानन्दनी अपने भक्तियोग विषयक प्रवन्धमे कहते हैं :-"गुरुकृपासे मनुष्यकी छुपी हुई अलौकिक शक्तियाँ विकसित होती हैं, उसे चैतन्य प्राप्त होता है, उसकी आध्यामिक वृद्धि होती है और अन्तमें वह नरसे नारायण हो जाता है। आत्मविकासका यह कार्य ग्रन्थोंके पढ़नेसे नहीं होता। जीवनभर हजारो ग्रन्थोंको उलट-पुलट करते रहो, उससे अधिक से अधिक तुम्हारा वौद्धिक ज्ञान ध्ढ़ेगा, पर अन्तमे यही जान पड़ेगा कि इससे श्राध्यात्मिक बल कुछ भी नहीं बढ़ा। बौद्धिक
ज्ञान वढा तो उसके साथ आध्यात्मिक बल भी बढ़ना ही चाहिये, 1, यह कोई कहे तो सच नहीं है । ग्रन्थोके पढ़नेसे ऐसा भ्रम होता है,
पर सूक्ष्मताके साथ अवलोकन करने पर यह जान पड़ेगा कि
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[१५२
श्रात्मविलास
दि० सगड बुद्धिका तो खूब विकास हुआ, तो भी या यात्मिक शक्ति जहाँको तहाँ ही रह गई । अध्यात्म-शक्तिका विकास करानेम कंवल ग्रन्थ असमर्थ है। किमी जीवको आधारिमक संस्कार करानेके लिये ऐसे ही महात्माकी आवश्यकता है जो जीवकोटिसे पार निकल गया हो, यह शक्ति अन्यमे नही है। आध्यात्मिक संस्कार जिसका होता है वह है शिष्य, और संस्कार करानेवाला होता है गुरु । भूमि तपकर जोत-जातकर तैयार हो और वीज भी शुद्ध हो, से संयोगर्म ही अध्यात्म-विकास होता है। अध्यात्मकी तीन सुधा के लगते ही, अर्थात् भूमिके तैयार होते ही उसमे ज्ञानरूपी वीज बोया जाता है। सृष्टिका यह नियम है कि अध्यात्म ग्रहण करने की क्षमता होते ही, प्रकाश पहुँचानेवाली शक्ति प्रकट होती है। सत्यज्ञानानन्दस्वरूप सद्गुरुको संसार ईश्वरतुल्य मानता है। शिष्य शुद्धचित्त जिज्ञासु और परिश्रमी होना चाहिये, जब शिष्य अपनेको ऐसा बना लेता है तब उसे श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, निष्पाप, दयालु और प्रबोधचतुर समर्थ सद्गुरु मिलते हैं। सद्गुरु शिष्यों के नेत्रोमे ज्ञानाञ्जन लगाकर उस दिव्य-दृष्टि देते हैं। ऐसे सद्गुरु बडे भाग्यसे जव मिलें तव अत्यन्त नम्रता, विमल-सद्भाय और दृढविश्वासके साथ उनकी शरण लो, अपना सम्पूर्ण हृदय उन्हे अर्पण करो, उनके प्रति अपने चित्तमें परम प्रेम धारण करो और उन्हें प्रत्यक्ष परमेश्वर समझो । इसीसे भक्ति ज्ञानका अपना समुद्र प्राप्त कर कृतकृत्य होगे।" । सारांश, संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये मनुष्य-शरीर बेड़ा है, सद्गुरु इसके पार करनेवाले केवट है और ईश्वरकृपा अनुकूल वायु है। ऐसे चेड़ेको प्राप्तकर जिसने सद्गुरुकृपा व ईश्वरकृपा प्राप्त नहीं की (वास्तवमे गुरुकृपा ही ईश्वरकृपा है, श्वरकृपा भिन्न नहीं), वह आत्महत्यारा है। इसके समान कोई
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१४३]
[साधारण धर्म हत्यारा नहीं है और जानना चाहिये कि उसने बेड़ा पाकर भी अपने आपको समुद्रमे डुबो दिया। नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं सवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् । मयानुकूलेन नमस्वतेरितं पुमान्भवाब्धिन तरेत्स आत्महा।।
(भाग स्कं ११ अ २० लो १७) जिस प्रकार बाटा, घृत व शकर तीनों पदार्थों के मेलसे जानमें उपयोगी विविध ] प्रसाद (हलवा) की सिद्धि होती है, कृमा व विचारमहिमा ( उसके लिये तीनो ही पदार्थाकी आव. श्यकता है, तीनोम यदि एक भी न हो तो सिद्धि असम्भव है। इसी प्रकार ज्ञानरूपी अमृतके सिद्ध करनेके लिये गुरुकृपा, शास्त्रकृपा व आत्मकृपा तीनो सामग्रीका होना अत्यन्त आवश्यक है, तीनोंमें यदि एक भी न हो तो ज्ञानकी सिद्धि असम्भव है। मोक्ष की तीब्र जिज्ञासा और सारासार-विवेकरूप निर्मल विचारका नाम श्रात्मकृपा है । गुरुकृपा व शास्वकृपा विद्यमान है, परन्तु यदि आत्मकृपा जाग्रत् नही हुई, तब यह दोनो विद्यमान हुई भी यथार्थ फल नहीं दे सकती। परन्तु यदि धात्मकृपा भली-भाँति प्रज्वलित हो गई है तो उक्त दोनो कृपा स्वाभाविक आफर्पित हो जानेके लिये बाध्य हैं, ईश्वरकी नीति ऐसी ही है। जिस प्रकार दीपक यदि अपने प्रकाश में प्रकाशित है और अपने आपको जला रहा है, तो पतंगे विना किसी आहानके अपने आप उसपर जलनेके लिये खिंचे चले आयेंगे। इस अवस्थापर पहुँचकर हमारे आत्मदेवने तीनों कृपात्रोको ही यथार्थरूपसे आलिङ्गन किया है, इसलिये इसकी सफलतामें कोई सन्देह नहीं । वास्तवमें इस अनर्थरूप संसारकी निवृत्तिका उपाय विचारसे भिन्न और कुछ है ही नहीं अपना निर्मल विचार ही एकमात्र प्रपञ्चनिवृत्तिको
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[१४४
श्रामविलास
द्वि० खण्ड साक्षात् साधन है। यज्ञ-दान-तपादिक, निष्कामकर्म-उपासनावैराग्यादिक तथा शम-दमादिका फल साक्षात् अथवा परम्परा करके विक्षेपादि दोपकी निवृतिद्वारा निर्मल विचारको उत्पत्ति ही है । गुरुकृपा व शाषकृपा भी अपने निर्मल विचारकी उत्पत्तिद्वारा ही मोक्षमें सहायक हैं, अन्य रूपले नहीं। सद्गुरुकृपाका फल निर्मल विचार ही है। जो वस्तु अविचारसिद्ध हो उसकी केवल विचारसे ही निवृत्ति सम्भव है। जिस प्रकार अपनी परिछाहीमे अविचारसिद्ध नैतालकी निवृत्ति विचारद्वारा ही सम्भव है, इसी प्रकार आत्मामें अविचारसिद्ध जगत्की निवृत्ति केवल विचारद्वारा ही हो सकती है, अन्य उपायसे नहीं । केवल विचारद्वारा ही बुद्धि तीक्ष्ण होती है, वुद्धिका भोजन विचार ही है, इसी से उसकी पुष्टि होती हैं। अज्ञानरूपी वनमें आपदारूपी वेलि पसरी हुई है, विचाररूपी तीक्ष्ण खड्गसे ही उसको काटा जा सकता है। दुःख अविचार करके ही है, केवल विचारमे ही उसकी निवृत्ति है । मोहरूपी हाथी जीवके हृदय कमलको खण्ड. खण्ड कर डालता है और राग-द्वेपादि कीचड़ फैलाकर जीवको उसमें फँसा देता है, जब विचाररूपी सिह प्रकट हो तब मोहरूपी हाथ का नाश हो और राग-द्वपादि पर सूखकर जीवको शान्ति मिले। विचारवान पुरुप आपढामे इसी प्रकार नहीं डूबता जैसे तुम्बी जलमे नहीं डूबती। जैसे दीपकसे पदार्थका ज्ञान होता है, इसी प्रकार केवल विचारसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है। अविचाररूपी रात्रिमे तृष्णादि पिशाचनी विचरती रहती हैं, जब विचाररूपी सूर्य उदय हो तव अविचाररूपी रात्रि
और तृष्णारूपी पिशाचनीका पता भी नहीं चलता कि कहाँ गये। सद्गुरुष सच्चालाकी युत्तिद्वारा केवल आत्मविचारसे ही संसारमयको नियुत्ति होती है । इस अवस्थापर पहुंचकर हमारे
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१४५]
[ साधारण धर्म आत्मदेवने तीनो कृपाओंको यथार्थरूपसे आलिङ्गन किया है ओर विचाररूपी मित्रसे गाढ़ मित्रता की है। इस प्रकार विवेक, बैराग्य, शमादि-पट्सम्पत्ति और मुमतारूप साधन-चतुष्टयद्वारा बुद्धिरूपी पात्रको निर्मल करके शालरूपी कामधेनुको दुहा गया तो क्षीर-समुद्र उमड़ आया और विचाररूपी मानीसे मथन किया गया तो अमृतका समुद्र बह निकला । योगवाशिष्ठ लीलोपाख्यानने संसारको लीलारूप ही सिद्ध कर दिखाया। लवण, गाधि, विपश्चित् तथा शिलोपाख्यानने देश-काल-वस्तुकी स्वसत्ता ही लुप्त कर दी । सम्पूर्ण देश-काल-वस्तुरूप विकार व परिच्छेदोगे एक निर्विकार, अपरिच्छिन्न,सजातीय-विजातीय-स्वगत त्रिविधभेदशून्य सत्ता ही मनको भा गई। सदाशिव-वासिष्ठसम्बादने तो ऐसा रंग जमाया कि वास सगुण-पूजा चित्तसे दूर होकर बोध, साम्य और +शम केवल इन तीन पुष्पोद्वारा ही शिवार्चन मनमें खुब गया और मस्ती देने लगा। विचारमागर सागररूप ही सिह हुश्रा । अधदेवो स्वारने आँखे खोल दी और अपने
* मेद तीन प्रकारका होना है --(१) सजातीय भेद, जैसे एक मनुप्यन्यक्तिका दूसरे मनुष्यव्यक्तिने भेद है, मनुष्यत्वजाति दोनों में एक है, परन्तु व्यक्तिभेद है । (२) जातीय भेदवालेको विजातीय भेद कहते हैं, जैसे मनुष्य का अवसे विजातीय भेद है । (३) एक ही व्यक्तिमें अभेदको स्वगत भेद कहते हैं, जैसे हाथका पावसे स्वगत भेद है। सर्व प्रपय त्रिवित्र मैदवाला है, परन्तु परमात्मामें तीनों भेदोंका अभाव है।
यथार्थ ज्ञानको कोष कहते हैं, अर्थात् आत्मतत्त्वको ज्यूका त्यूँ । जानना ! 4 उस तत्त्वको सर्वमै परिपूर्ण,देखना। *चितको निवृत्त करना और श्रात्मतत्त्वसै भिन उर्छन फुरना। . .
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श्रामविलास
[१४६ दि० राण्ड श्राप चित्तमे देश-माल-बस्तुको अन्योऽज्याप्रयता घर कर गई, जो किसी प्रकार दूर करनेस भी दूर न हुई। वृत्तिप्रभाकर प्रभा. फररूप बनकर अज्ञानान्धकारको पास कर गया। जैसे समुद्रमे सोताखोरको टटोलते-टटोलते मोतीकी खानि मिल जाती है, इसी प्रकार शास्त्ररूपी समुद्रसे विचाररूपी अमूल्य रनोंकी खानि सोजते-खोजते हाथ लग गई, जिनको विवेकरूपी धागेमे पिरोकर हमारे यात्मदेवने अपने काठमे धारण किया। सो विचाररूपी रन वह हैं :
एक दूसरे श्राश्रय और दूसरा पहले श्यामय, इससे अन्योऽन्याधय पडोई 1 अन्योऽन्याश्य वस्तु अपना कोई आश्रय न होने से भ्रमरूप ही होती है। वो तु में ब्रमम्प ग अपने मन श्राश्रय होता है, सर्पशान के सिगार मां और कोई प्राधय नदी । तया मनान गो मर्पके ही मात्रय स्लिाइन प्रकार ज्ञान एक दुसरे अन्योन्याय होनेसे दोग का मामला है।
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१४७
[ साधारण धर्म -- तत्त्व-विचार :(१) स्थूल-सूक्ष्म और चर-अचररूप सम्पूर्ण अभ्याल एक निर्विकार फूटत्य सत्ताके) अविदेव व अधिभूत तथा जाता, आश्रय ही अशेष पिकारोंका ज्ञान, नेयादि त्रिपुटिल्प प्रपन्न, __सम्भव है। देश, काल व वस्तु +त्रिविधपरिच्छेदवाला ही है। अर्थात् त्रिविधपरिच्छेदमें ही सम्पूर्ण प्रपञ्च समा जाता है, विविध-परिच्छेदसे भिन्न प्रपञ्चका और कोई रूप है ही नहीं । तया कालका छोटेसे छोटा ऐसा कोई भाग नहीं, चाहे वह क्षणका हजारयाँ अंश भी क्यो न हो, कि जिस कातव्यक्तिमें यह प्रपञ्च निर्विकाररूपसे स्थित रहता हो। वल्कि काल के प्रत्येक अंशमें यह धिकारकी ओर तीन वेगसे दौड़ रहा है, वही प्रपञ्च कदाचिन भी नहीं है। अपने स्वरूपसे इस प्रकार विकारी होते हुए भी 'वही यह प्रपञ्च है' ऐसी प्रतीति अपने मूल
मन-बुद्धयादि अन्तःकरण तथा इन्द्रियादिको, जो जातके साधन हैं 'अध्यात्म' कहते हैं।
अन्तःकरण व इन्द्रियादिके मिन्न-मिन देवता, जिनकी ज्ञानमें सहायता है 'अघिदेव' कहलाते हैं।
परभूतरचित संमार जो मानका विषय है 'अविभूत' कहा जाता है । जैसे चतु अध्यात्म है, सूर्य अधिदेव है और रूप अधिभूत है । ___+सम्पूर्ण प्रपत्र अध्यात्म व अधिदेवादिके अन्तर्गत ही है और वह देशकृत, कालकृत तथा वस्तुकृत परिच्छेद (हट) वाला ही है। अर्थात् किसी एक देशमें है अन्य देशमें नहीं तथा एक कालम है अन्य कालमें नहीं। परन्तु 'परमात्मा अपरिच्छिन्न (बहन) होनेसे त्रिविध-परिच्छेदोंसे रहित है। नाति व व्यक्तिवाले पदार्थ 'वस्तु-परिच्छेग' कहे जाते हैं।
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आत्मविलास]
[१४८ वि० सएड मे किसी एक नित्य-निर्विकार वस्तुका पता देती है। धेगकी तीव्रता करके निकारी होता हुआ भी यह प्रपञ्च स्थूल नेत्रोद्वारा इसी प्रकार स्थित प्रतीत होता है, जैसे किसी मशीनका पहिया पेगकी तीव्रता करके बिल्कुल स्थित प्रतीत होता है। अश्या जैसे बालक ल खेलते हैं, तब वह अपने चक्रके वेगसे खडा हुआ प्रतीत होता है और बच्चे तालियाँ बजाते है कि यह घूमता नहीं बल्कि स्थित है।
(२) अव विचार होता है कि यह जो इतना असख्य विकार प्रतीत हो रहा है, अपने-आप तो इसकी सिद्धि हो नहीं सकती, बल्कि उसके मूलमें कोई एक निर्विकार, सत्वस्तु अवश्य रहनी चाहिये। क्योंकि विकारी वस्तु तो अपने स्वरूपसे किसी कालम भी वही नहीं है और प्रत्येक कालमें नष्ट हो रही है । तथा प्रत्येक नाश अमावस्प (Negative) है,भावरूप (Positive) नहीं। और यह अचूक सिद्धान्त है कि 'अभाव' (नहीं) से 'अभाव' (नही) की सिद्धि कदापि हो नहीं सक्ती, बल्कि 'भाव' से ही 'अभाव की सिद्धि हो सकती है। अजी । है हीन हो तो 'नहीं को कौन सिद्ध करे। पहले है हो तो पीछे नही की सिद्धि हो। जैसे शन्य (6) का अपने आप कोई मूल्य नहीं, एका '१५ (Unit) हो तब उसके आश्रय ही शन्यका मूल्य हो सकता है। इसी प्रकार यह प्रपञ्च नित्य-विकारी होनेसे अपने-आप तो (०) शून्यरूप ही है तथापि किनी एक अद्वैत-निर्विकारके आश्रय ही इसकी भावाभावरूप सिद्धिका सम्भव है। जैसे 'अस्ति' रूपे सत्ता-सामान्य जत हो तब उसके आश्रय ही विशेषरूप तरहों का भाव व अभाव सिद्ध होता है। अर्थात् 'अव तरङ्ग है और 'अय तरह नहीं है, इन दोनो अवस्थाओंका प्रकाश सामान्य रूप जलके द्वारा ही हो सकता है । सत्ता सामान्य जल ही न हो
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१४६]
[ साधारण धर्म तो उरङ्गोका भाव अथवा प्रभाव कैसे सिद्ध हो ? विशेषरूप तरजोकी प्रतीति ही अपने नीचे मामान्य, निविशेप जलको सिद्ध कर रही है। इसी प्रकार विशेषरुप प्रपञ्चका भावाभावरूप विकार अपने नीचे निर्विशेप, सामान्य, निर्विकार, अपरिच्छिन्न, सलवस्तुको सिद्ध कर रहा है।
(३) प्रपञ्च जब कि अपने स्वरूपसे विकारी है और प्रत्येक क्षणमें नष्ट हो रहा है, ऐसी अवस्थामे यदि इसके मूलमे कोई एक अचल-कूटस्थ वस्तु न होती तो उत्तर क्षणमे इसकी प्रतीति भी न होती । यदि ऐसा मान लिया जाय कि इस प्रपञ्चके नीचे कोई एक अचल-कूटस्थ वस्तु नहीं है, तन ऐसी अवस्था मे अव्यवहित पूर्व-क्षणमें जब नष्टम्वभाव प्रपञ्चका नाश हो गया तो उत्तरक्षणमें इस प्रपञ्चकी प्रतीति भी न होनी चाहिये थी। क्योंकि जैसा अङ्क नं०२ में अपर विचार किंग जा चुका है, अभावसे तो भावकी उत्पत्ति हो नहीं सक्ती और भावरूप अचल-कूटस्थ कोई सत्त्वस्तु इस प्रपञ्चके नीचे मानी नहीं गई, जिसके आश्रय इसकी उत्तर-प्रतीति होती। इसलिये स्वयं अभावरूप होनेसे इस प्रपञ्चकी उत्तर क्षणमें प्रतीति ही नहीं होनी चाहिये थी। परन्तु यह प्रपञ्च तो प्रत्येक उत्तर-क्षणमें 'घट है! 'पट है' 'धन है। 'पुत्र है। 'स्त्री है इत्यादि रूपसे 'है। 'हैकरके अपने स्वभावसे श्रभावरूप हुआ भी भावरूप प्रतीत हो रहा है। इस प्रकार इस प्रपञ्च की उत्तर-प्रतीति ही, अपने मूल में किसी एक सत्य-कूटस्थ भावरूप वस्तुको सिद्ध कर रही है। क्योंकि यह प्रपञ्च अपने स्वरूपसे
तो प्रत्येक क्षण विकारी होनेसे अभावरूप ही है। इसलिये स्वयं । अमावरूप होते हुए भी, उस भावरूप अचल-कूटस्थके आश्रय
व्यवधानरहित, अन्तरायरहित ।
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आत्मविलास ]
[ १५० दि० खण्ड स्वयं भावरूप न होते हुए भी, यह भावरूप नतीत हो रहा है। जैसे रज्जुमे भ्रमरूप सर्प स्वय अभावरूप होते हुए भी भावरूपरज्जुके श्राश्रय भावरूप प्रतीत होता है।
(४) जव कि कोई एक भावरूप सत्वस्तु इस प्रपञ्चके नीचे जानी गई, तब उस वस्तुका निर्विकार होना भी जरूरी है। क्योकि यदि देश-काल-वस्तु परिच्छेदरूप विकारोसे उस सत्वस्तु को प्रभाषित माना जाय और विकारी जाना जाय, तो ऐसी विकारी सत्वरतुके आश्रय तो प्रापचिक विकारोकी प्रतीति ही असम्भव होगी। जैरो स्वर्णकारका अहरन यदि हथौड़ेकी चोटसे आप हो नीचे दबनेवाला हो, तो उसके श्राश्रय भूपणरूप विकारों की सिद्धि हो नहीं सकती। भूपणरूप विकारोकी सिद्धि तो अपने श्राश्रय वह अहरन तभी कर सकता है, जबकि वह सर्व विकारांमे आप अचल-कूटस्थ रहे। इसी प्रकार प्रापचिक विकारो के नीचे उस सनबस्तुका निर्षिकार, अचत, कूटस्थ रहना ही निश्चित है।
(५) इस प्रकार इस प्रपञ्चके नीचे उस सत्, निर्षिकार तथा भावरूप वस्तुका एक व देश-काल-वस्तु-परिच्छेदशून्य तथा सजातीय-विजातीय-स्वगतभेदशून्य होना ही निश्चित् हैं। क्योंकि यदि वह सत्वस्तु भेद व परिच्छेदवाली मानी जान तो विकारी होनेसे उस भेट व परिच्छेदवाती वस्तुकी लयरूप निवृत्ति माननी होगी। यदि पह निकृतस्वभाव हुई तो उसकी लयरूप निवृत्ति शून्यमे तो हो न सकेगी। योकि अभावरूप शून्यसे जव भाव की उत्पत्ति ही असम्भव है, तब अभावरूप शून्यमें भावकी निवृत्ति कैसे हो ? यह नियम है कि जिससे जिसकी उत्पत्ति होती है उसकी निवृत्ति भी उसीमे होती है, जैसे घटकी उत्पत्ति मृत्तिका
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[ धर्मसाधारण से होती है तब घटका लय भी मृत्तिकाने ही होता है। इसलिये उसकी लवरूप निवृन्ति किसी अन्य एक, परिच्छेदशन्य व भेदशून्य सत्वस्तुमे ही माननी होगी। यदि उस दूसरी वस्तुको भी भेद व परिच्छंदवाली मानें तो उस दूमीकी निवृत्ति तीसरीने
और तीसरीकी निवृत्ति चौथीमे, इस प्रकार निवृत्ति-धारा मानने में अन्ननवरथा दोषकी प्राप्ति होगी और अन्ततः किसी एक भेट व परिच्छेदशन्य तथा निवृत्तिशन्य सत्वस्तुको मानना ही होगा, जिसके आश्रय इस असतरूप प्रपञ्चकी प्रतीति होती है। ऐसी स्थितिमें वीचकी धारा निष्प्रयोजन सिद्ध होगी। इससे सिद्ध हुआ कि वह सन्वस्तु जिसके बाशय प्रपञ्चकी प्रतीति हो रही है, सर्व भेद य सर्व परिच्छेदशून्य है तथा निवृत्तिशून्य है और वही इरा अिध्यस्तरूप प्रपञ्चका अधिष्टान है और वह अधिप्टान एक, भावरूप, अचल व निर्विकार हैं। इस प्रकार संक्षेपसे अधिष्ठानका विचार किया गया, अब अयस्तरूप प्रपञ्चका विचार कर्तव्य है।
(६) सजातीय, विजातीय व स्वगत त्रिविधमेद, देश-कालत्रिविध-परिच्छेदोकी । वस्तु परिच्छेदयाले ही है। उपर्युक्त विचारो अन्योऽध्याश्रयता से त्रिविध-रिच्छेदोका उस सत्यस्वरूप
धाराका नाम 'अनवरया' है। मतप कन्मित-वस्तु 'अन्यस्त' कहाती है। जिस सन्वस्तुके आश्रय श्रमको प्रतीति होती है वह 'अधिछान' कहाती है, जैसे रज्जुमे सर्पभ्रन होता है तब सम्-रज्जु निथ्या-सर्पका
विष्ठान होती है । इसीको साक्षी भी कहते हैं। सर्व विकारोम जो निर्विकाररूपसे स्थित रहे, वह 'सानी' कहा जाता है, जैसे दो पुरुषों के झगडेमें निर्विकाररूपसे रहनेवाला तीसरा पुरुष साक्षो कहा जाता है। इसी प्रकार सर्व प्रपञ्चविकाराम निर्विकाररूपसे स्थित रहनेसे उस सन्-वस्तुको 'साक्षी' भी कहा गया है।
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आत्मविलास]
द्वि० खण्ड परमात्माके स्वरूपमें तो प्रवेश पाया नहीं गया, बल्कि उस सत्यस्वरूपकी अधिष्ठानता व साक्षिमे, उसको स्पर्श किये विना ही, इन त्रिविध-परिच्छेदोंकी प्रतीतिमात्र सिद्धि हुई। जैसे सत्यशुक्तिकी अधिष्ठानतामें शुक्तिको स्पर्श किये बिना ही, मिथ्या रजत प्रतीनिमात्र होती है। अब आओ देखें कि यह देश-कालवस्तुरूप प्रपत्र अपना भी कोई स्वरूप रखता है या यह मायामात्र ही है, क्योकि देश, काल और वस्तुगे भिन्न प्रपञ्चका और कोई रूप है ही नहीं।
(७) देश, काल और वस्तु तीनो परिच्छेद, परस्पर वस्तुपरिच्छेदवाले ही हैं । अर्थात् तीनी एक वस्तु नहीं, बल्कि भिन्नभिन्न वस्तु हैं और अपनी भिन्न-भिन्न जाति रखते हैं। देश में देशत्व है कालत्व नहीं, कालमे कालत्व है देशत्व नही तथा वस्तु मे पस्तुत्व है देशत्व व कालत्व नहीं, इसतिये तीनो सजातीय नहीं विजातीय है । यद्यपि देश व काल भी वस्तुपरिच्छेदवाले होनेसे वस्तुत्व तो इन दोनोमे भी है, परन्तु जाति तीनामे समान नहीं, भिन्न-भिन्न जातिवाले होनेसे विजातीय ही है, सजातीय नहीं।
(0) अब देखना यह है कि यह तोनी किसके पानय स्थित है" यद्यपि न्यायमतमें देश व कालको नित्य-द्रव्य माना है, परन्तु यहाँ प्रश्न होता है कि देश व काल जातिरूपमे नित्य हैं, अथवा व्यक्तिरूपसे निन्य हैं । यदि जातिरूपसे नित्य कहा जाय तो कोई हानि नही, जैसे घटत्व पटवादिजाति अपने प्रवादरूपसे नित्य है, तसे ही देश व काल भी अपने देशत्व व कालव जातिरूपले व प्रवाहरूपसे नित्य सम्भव हो सकते हैं। परन्तु यदि व्यक्तिरूपसे देश व कालको नित्य कहा जाय तो सर्वथा असम्भव है। क्योकि नित्य-विकारस्वरूप जिन देश-कालके विकारसे सम्पूर्ण प्रपञ्च विकारचक्रमें घूम रहा है अर्थात् सर्व विकारोंके
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१५३]
[साधारण धर्म मूलमें जबकि देश व कालरूप विकार ही एकमात्र हेतु है, फिर उन्हीं देश-कातको नित्य कहना किसी प्रकार भी अनुभवानुसारी नहीं देश व काल स्वयं निर्षिफार रहकर प्रपञ्चमे विकार उत्पन्न नहीं कर सकते, बल्कि प्राप विकारी होकर ही प्रपञ्चमे विकार उन्पन्न करते है। जो देश कालरूप व्यक्ति पूर्व क्षगगे है वही उत्तर चरणम नहीं, इसलिये देश व कालको व्यक्तिरूपसे नित्य कहना तो हास्यजनक ही होगा।
(E)न्यायमतमें देश कातको सर्व कार्यप वस्तुओकी उत्पनिमे कारणरूप साधारण-सामग्री के अन्तर्गतमाना गया है। अर्थात् देश-काल सर्व कार्यों के प्रति कारण है, ऐसा उनका सत है, सो यह भी अनुभवनिरुद्ध है। क्योकि कारणको कार्यसे पूर्व स्थिति को ही मान्य है, अर्थात कारण कार्यले पूर्व विद्यमान रहना चाहिये, ऐसा सवका मत है । परन्तु उपयुक्त विचारले कोई भी देश व कालम्प व्यक्ति काचिन अपने कार्यसे पूर्व थिन पाये नहीं जाते । बल्कि जिस नपने कार्यकी उत्पत्ति होती है, उसी अव्यवहित-क्षणमे देश व कालरूप व्यक्ति भी अपने कार्यके साथ-साथ नगीन ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये उस समकालीन देश तथा कालरूप व्यक्तिको अपने कार्यके प्रति कारणता सिद्ध नहीं हो सकती। यदि पूर्व-तरावर्ती देश-कालरूप व्यक्तिको अपने कायके प्रति कारणता मानें, तो कार्योत्पत्ति-कालसे वह अविद्यमान है,और नष्ट हो चुकी है। यदि नष्ट देश-कालरूप व्यक्तिले कार्यकी उत्पत्ति मानी जाय तो नष्ट कुलाल व चनासे भी कार्यकी सिद्धि होनी चाहिये और यह सबके अनुभवविरुद्ध है।
(१०) यदि ऐसा कहा जाय कि देश व कालरूप जाति नित्य है, उस देरात्य वं कालत्व-जातिरो, कार्योत्पत्ति सम्भव है और उस जातिमें कारयता माननी चाहिये, तो यह विचार भी
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[१५४ वि० खण्ड अनुभवशन्य है। क्योकि जाति विशेषण है व धर्म है, जो अपने विशेष्य व धर्मारूप-द्रव्यके आश्रय रहती है, स्वतन्त्र उस जाति की न स्थिति है और न उसमें कोई क्रिया है। क्रिया सदैव द्रव्यरूप-व्यक्तिके आश्रय होती है, जैसे कुलालकी क्रिया कुलालरूपव्यक्तिके और चक्रकी क्रिया चक्ररूप-व्यक्तिके आश्रय रहती है, कुलालत्व व चक्रत्व-जातिमे कोई क्रिया नहीं। यदि जातिमे क्रिया माने तो कुलालत्व-जाति समष्टि कुलालोमें एक है, इस लिये एक कुलालमें एक क्रिया होनेसे समष्टि कुलालोमें वही क्रिया होनी चाहिये । इस प्रकार देश व कालरुप-जातिमे भी कार्यके प्रति कारणताका असम्भव है।
(११) उपर्युक्त विचारसे देश व काल नित्य हैं और सर्व कार्योक प्रति कारण है, यह मत असङ्गत हुआ। बल्कि इस विचारसे तो देश, काल तथा कार्यरूप वस्तुकी समकालीनता ही सिद्ध हुई। साथ ही अब यह भी विचार होता है कि देश व काल अपने कार्यरूप वस्तुसे भिन्न देशमें रहकर तो कार्योत्पत्ति कर नहीं सकते, जैसे कुलाल घटसे तटस्थ रहकर घटकी उत्पत्ति करता है। किन्तु देश व काल कार्यरूप वस्तुके स्वरूपमें अनुगत होकर ही रहते हैं। कुलाल एक स्थूल व्यक्ति है, अतः घटके साथ उसका तादात्म्य असम्भव है, इसलिये कुलाल घटके साथ संयोगसम्बन्धद्वारा ही घटोत्पत्तिमे समर्थ होता है। परन्तु देश-काल तो अति सूक्ष्म हैं और यह नियम है कि सूक्ष्म-वस्तु स्थूलको व्याप्त करके ही स्थित होती है, जैसे सूक्ष्म-आकाश स्थूल-ब्राह्माण्डको व्यात्र करके ही स्थित रहता है।
(१२) यदि ऐसा कहा जाय, कि जैसे घट और जलका । आधाराधेयभाय सम्बन्ध है, इसी प्रकार देश व काल घटके
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[साधारण धर्म 'समान आधारभूत होकर वस्तुको धारण कर रहे होगे, तो यह भी अनुभवविरुद्ध है। क्योकि घट व जलके समान आधाराधेयभाव भी स्थूल पदार्थों में ही सम्भव है। जितने देशमे जल है, उतने देशमे घटकी स्थिति नहीं, किन्तु जलसे अव्यवहित-भिन्नदेश में स्थित होकर ही घट जलको धारण करता है। परन्तु देश व काल तो वस्तुदेशमे व्यापकर ही स्थित हैं, भिन्न देशमे रहकर नहीं; क्योकि देश-काल अपरमाणु हैं, अर्थात् पृथ्वी-जलादिके समान परमाणुवाले द्रव्य नहीं हैं। यदि परमाणुवाले द्रव्य होते तो अपना कोई भिन्न देश निरोध करते, परन्तु अपरमाणु होने से आकाशके समान वस्तुदेशमे तादात्म्यरूपसे ही स्थित रहते हैं। .. (१३) उपर्युक्त व्याख्यासे सिद्ध हुआ कि जैसे देश, काल व वस्तु परस्पर समानदेशीय हैं, तैसे ही परस्पर समकालीन भी हैं। अर्थात् एक ही देश व एक ही कालमें रहनेवाले हैं और परस्पर वस्तु-परिच्छेदवाले भी है। यह बात तो स्पष्ट ही है कि जो भिन्नभिन्न जातिवाली वस्तु समदेशी व समकालीन होंगी, वे अन्योऽन्याश्रयरूप ही होंगी। और जो भिन्न-भिन्न वस्तु अन्योऽन्याश्रयरूपसे स्थित होती हैं, वे वास्तवमें अपने स्वरूपसे होती ही नही हैं, केवल भ्रमरूप ही होती हैं। जैसे रज्जुमें भ्रमरूप-सर्प अपने ज्ञानके आश्रय स्थित होता है और सर्पज्ञान अपने ज्ञेयरूप-सर्पके -आश्रय स्थित होता है। सर्प व सर्पज्ञान परस्पर अन्योन्याश्रय होनेसे और समदेशी व समकालीन होनेसे दोनो ही भ्रमरूप होते हैं। सारांश, देश-कालका आश्रय वस्तु और वस्तुका आश्रय देश-काल सिद्ध हुए, इसलिये तीनों ही अन्योऽन्याश्रय होनेसे भ्रमरूप ही हैं। क्योंकि इन तीनोमेंसे प्राक्सिद्धत्व किसीसे भी नहीं पाया गया, इसलिये एकको शेष दो की अपेक्षा है। और जो वस्तु आप ही आश्रयशून्य है वह किसी दूसरेका श्राश्रयभूत कैसे हो
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[ १५६
अात्मविलास]
द्वि० खण्ड सकती है ? जसे बन्ध्यापुन आप ही नही उपजा फिर वह किसी दुसरेको उत्पश करो कोगा?
(१४) शङ्का:-तुम्हारे उपर्युक्त विवेचनसे यह तो स्पष्ट हुआ कि 'काल' किसी क्षण भी स्थिर नहीं है और चलस्वरूप होनेके कारण व्यक्तित्वरूपसे नित्य नहीं है, परन्तु इससे 'देश' का चलखरूप व क्षणपरिणामी होना सिद्ध नहीं होता और न अनुभवमें ही आता है। दिन, रात, प्रहर, घड़ी, क्षण आदि करके 'कात' तो परिवर्तनशील प्रतीत होता है, परन्तु कालके समान 'देश' का परिवर्तन अनुभवविरुद्ध है।
(१५) समाधान -देखो जी । देश, काल और वस्तु इन त्रिविध-परिच्छेदोंका मत्ा, निर्विकार, शुद्धचेतनके स्वरूपमें तो प्रवेश पाया नहीं गया, जैसा ऊपर अङ्क ३, ४ व ५ में विवेचन किया जा चुका है, किन्तु प्रपञ्चमे ही इनका प्रवेश है और उक्त तीनो परिच्छेदोंका नाम ही प्रपञ्च है । अव यदि विचारसे देखा जाय तो देशकी स्वतन्त्र स्थिति कही भी नहीं पाई जाती, 'वस्तु' तथा 'काल' को श्राश्रय करके ही 'देश' की स्थितिका सम्भव होता है । यथा (१) देश-परिच्छेद किसी कालमे ही होगा, इस लिये 'देश' को 'काल' की अपेक्षा है। कालकृत-विकारके बिना देशकृत-विकार असम्भव है, क्योकि सव विकारोके मूलमे 'काल' ही हेतु है, यह सवके श्रनुभवसिद्ध है। (२) तथा कोई वस्तु-परिच्छेद उत्पन्न हो तब उस देशकी अपेक्षा होगी ही, यदि वस्तुकृत कोई विकार ही नहीं है तो 'देश' किसको हदमें वॉधेगा ? क्योकि सीमावद्ध करना ही 'देश' का फल है। और शुद्वचेतन तो किसी सीमामे है नहीं, वह तो असीम होनेसे सर्व सीमाओके पार है, इसलिये वस्तु ही सीमावद्ध होनेसे देश-परिच्छेदवाली है। जैसे घट-वस्तु व घट-कालकी उत्पत्तिके साथ ही घट-देशकी उत्पत्ति
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१५७]
[साधारण धर्म होती है, घटकी उत्पत्तिसे पूर्व घट-देशका भी अभाव था और घट-नाशके अनन्तर भी घट देशका अभाव हो जायगा, केवल घट-वर्तमान-कालय ही घट-देशकी सिद्धि होती है। इससे सिद्ध हुआ कि 'देश' को 'काल' तथा 'वस्तु की अपेक्षा रहती है, 'देश' की निरपेक्ष स्थिति नहीं रहती । जब कि 'देश' की स्थिति 'काल' तथा. 'वस्तु' के आश्रय है और 'काल' तथा 'वस्तु' क्षणपरिणामी हैं, तब देशका अपरिवर्तनशील रहना कैसे सम्भव हो सकता है ? कालरूपी पारेके नीचे सभी 'देश' व 'वस्तु' क्षण-क्षण करके विकृत हो रहे है। 'देश वही है। 'वस्तु वही है। इस प्रकार सर्व ही प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्ष भ्रमरूप हैं, क्योंकि जब 'काल' वही नहीं, तय 'देश' व 'वस्तु' वही कैसे रह सकते हैं ? पूर्वदृष्टवस्तुके संस्कारसहित उसी वस्तुकी अन्य प्रतीतिको प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्ष कहते हैं । इस रीतिसं 'देश' काल य वस्तु सापेक्ष ही सिद्ध हुश्रा ।
(१६) अब यदि काल-परिच्छेदका विचार किया जाय तो कालकी भी स्वतन्त्र स्थिति नहीं पाई जाती; किन्तु 'काल' को भी 'देश' तथा 'वस्तु' की अपेक्षा सिद्ध होती है। क्योकि काल का प्रवेश शुद्ध-वेतनम तो है नहीं, वह तो कालातीत है। यदि देशकृत तथा वस्तुकृत कोई विकार ही न हो तो कालकी गणना ही कैसे हो ? अजी। किसी विकारके साथ ही तो कालका
आरम्भ होगा, निर्विकारमें तो कालका कोई सम्बन्ध है ही नहीं। अजायते, अस्ति, पबद्धते, +विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति, मुख्य छः विकारोबाला ही प्रपञ्च माना गया है । जव वस्तु का जायते' रूप पहला विकार हो तब ही शेष विकारोंकी उत्पत्ति
का सम्भव होता है और तत्तत् विकारके साथ-साथ उस-उस . *सन होता है। मौजूद है। बढ रहा है। परिणामी होता है। रघट रहा है। नाश होता है ।
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[१५८ द्वि० खण्ड कालकी गणना भी होती है। जैसे देवदत्तकी उत्पत्तिके साथ ही देवदत्तोत्पत्ति-काल उत्पन्न हुश्रा और जितनी-जितनी अवस्थाएँ देवदत्तकी परिवर्तन हुई, वैसे-वैसे ही कालकी गणना होती गई। देवदत्तकी उत्पत्तिसे पूर्व देवदत्तोत्पत्ति-काल विद्यमान नहीं था, बल्कि देवदत्तकी उत्पत्तिके साथ ही देवदत्तोत्पत्ति-काल, देवदत्तके अस्तित्वके साथ ही देवदत्त-अस्ति-कालकी गणना हुई । तथा देवदत्तकी वृद्धिके साथ ही देवदन्त-वईन-काल, देवदत्तके परिणाम के साथ ही देवदत्त-परिणाम-काल, देवदत्त-क्षयके साथ ही देवदत्तक्षय-काल और देवदत्त-नाशके साथ ही देवदत्त-नाश-कालकी उत्पत्ति व गणना होती रही। किसी वस्तुकृत, अवस्थाकृत व देशकृत विकारके विना कालकी गणना असम्भव है, क्योकि प्रकृतिकी सास्यावस्थामें तो कालका सम्भव है नहीं। जब प्रकृति में कोई क्षोमरूप विकार उत्पन्न हो और प्रकृतिकी साम्यावस्था भन हो, तब उस क्षोभरूप विकारको आश्रय करके ही कालकी उत्पत्ति होती है। इससे सिद्ध हुया कि 'काल' की स्थिति भी निरपेक्ष व स्वतन्त्र नहीं है, किन्तु 'देश' व 'वस्तु' को श्राश्रय करके ही कालकी स्थिति है।
(१७) शङ्का --देवदत्तकी उत्पनिके साथ ही देवदत्तोत्पत्तिकाल उत्पन्न हुभा~-तुम्हारा यह कथन अनुभवमे नही आता, क्योकि काल ब्रह्माण्डव्यापी है, इसलिये देवदत्तकी उत्पत्तिसे पूर्व भी काल विद्यमान है। तथा जिस कालमें देवदत्तकी उत्पत्ति हुई उसी कालरूप-व्यक्तिमे असख्य विकार ब्रह्माण्डमें उत्पन्न हुए हैं, फिर 'देवदत्तकी उत्पत्ति के साथ ही काल उत्पन्न हुआ' यह कथन असङ्गत है । देवदत्त उत्पन्न न होता तब भी उस कालरूप व्यक्तिकी उत्पत्ति अवश्य होनी थी और उस कालके अधीन उन असंख्य विकारों ने भी उत्पन्न होता ही था।
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[ साधारण धर्म (१८) समाधान:-अयपि काल ब्रह्माण्डव्यापी है, तथापि जब ब्रह्माण्डरूप व्यक्ति देशकृत व वस्तुकृत विकारफो प्राप्त हुई, तब उसके साथ ही और उराको श्राश्रय करके ही ब्रह्माण्डव्यापीकाल उत्पन्न हुआ । ब्रह्माण्डरूप-वस्तु व ब्राह्माण्ड-देशकी उत्पत्ति से पूर्व काल स्वतन्त्र असिद्ध है और ब्रह्माण्डोत्पत्तिके पश्चात् जितने-जितने विकार देशकृत व वस्तुकृत ब्रह्माण्डमे उत्पन्न हुए, उन-उनको आश्रय करके ही कालकी गणना होती गई। किसी न किसी देश व वस्तुकृत विकारके बिना कालकी स्वतन्त्र स्थिति कहीं भी नहीं पाई जाती। आत्माके स्वरूपमें तो कालका प्रवेश है नहीं, वह तो कालातीत है। क्योंकि जब उसके स्वरूपमें कोई विकार है ही नहीं, तब उस निर्विकारसे काल कहाँसे आये, किसी न किसी विकारके माथ ही कातकी उत्पत्ति होती है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि काल व्यक्तिरूपने तो सर्वथा चञ्चल व अस्थिर ही है, केवल अपने कालल जातिरूपसे ही नित्य माना जा सकता है। भविष्यत्काल भूतकालमें बदल रहा है, वर्तमान काल तो किसी प्रकार पकड़ा ही नहीं जा सकता, केवल भविप्यत्व भूतकी सन्धिका नाम ही वर्तमान रख लिया गया है जो किती कालकी गणनामें नहीं आता; जैसे दो प्रामोकी सीमा देशके किसी भी अंशमे ग्रहण नहीं की जा सकती। इस प्रकार देवन्तकी उत्पन्तिके साथ ही जो कालरूप व्यक्ति उत्पन्न हुई, वह पूर्व प्रसिद्ध है। इसलिये कहना पड़ेगा कि देवदत्तकी उत्पत्तिके साथ ही देवदत्तोत्यत्ति-काल उत्पन्न हुआ और जब कि देवदत्तकी उत्पत्ति के साथ ही वह कालरूप-व्यक्ति उत्पन्न हुई, तब देवदत्तकी उत्पत्तिमें वह किसी प्रकार कारणरूपसे ग्रहण नहीं की जा सकती। क्योंकि देवदत्तकी उत्पत्तिसे पूर्व वह कालरूप-व्यक्ति असिद्ध है और प्राक् असिद्ध होनेसे वह कारणसामग्रीमें नहीं
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उत्पन्न हुए लप-व्यक्तिकी अत्याकही जा सकती हैं, जिनसे
आत्मविलास
[१६० द्वि० खण्ड आ सकती । यद्यपि उमी कालरूप-व्यक्तिमे ब्रह्माण्डमे असंख्य विकार उत्पन्न हुए हैं, तथापि उन-उन विकारोको आश्रय करके ही उम-उस कालरूप-व्यक्तिकी उत्पत्ति कही जा सकती है, काल की स्वतन्त्र उत्पत्ति कही भी नही कही जा सकती। बहुत क्या कहें। योगवासिष्ठले अनेक इतिहास और शान्त हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि देश व कालका कोई मूल्य नहीं और ये मायामात्र है । वसिष्ठ-ब्राह्मणकी सृष्टिमे वसिष्ठकी मृत्युको ८ दिन ही हुये थे, कि उस ब्राह्मणने मरकर अपने घरके किसी एक कोणमें ही जन्मान्तरमें राजा-पद्मका शरीर धारण किया और उस ८' दिनमें ही अखण्ड पृथ्वीका ६० हजार वर्षपर्यन्त राज्यभोगका अनुभव किया। फिर पद्म-शरीरसे मृत्यु पाकर वही ब्राह्मण जन्मान्तरमें अपने उसी गृह-कोणमें विदूरथ-राजाके शरीरसे उत्पन्न हुमा और ६० वर्ष राज्यका अनुभव किया, जहाँ इधर पनकी सृष्टिमे पद्मका मृत्यु-काल अर्द्ध-रात्रिका ममय ही बत रहा है । (देखो योगवासिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग १४ से ३६) वसिष्ठ-ब्राह्मण-सृष्टिके दिन = पद्म-सृष्टिफे ६० हजार वर्षे तथा पद्म-सृष्टिको १ घडी-विदूरथ-सृष्टिके ६० वर्प। .
(१६) शङ्का -~-वस्तुको उत्पत्तिके साथ ही काल उत्पन्न हुया हो, तो वस्तुके नाशके साथ ही कालका नाश हो जाना चाहिये, परन्तु ऐसा अनुभवसे सिद्ध नहीं होता। बल्कि वस्तुके अभाव होनेपर भी कालकी स्थिति पाई जाती है। जब ब्रह्माका एक दिन चारों युगोकी एक हजार चौकडीके व्यतीत होनेपर समाप्त हो जाता, तब ब्रह्माण्डका प्रतय हो जाता है और फिर एक हजार चौकशी युगपर्यन्त ब्रह्माकी रात्रि रहती है, उस काल में ब्राजी सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको अपनेमे लय करके निद्रित अवस्था । में रहते हैं, ऐसा शाख-प्रमागमे जाना जाता है । तव ब्रह्माण्डके
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१६१]
[साधारण धर्म अभावमे भी कालकी स्थिति पाई जाती है तथा घट-पटादि पदार्थोंके नाशमें भी कालकी स्थिति पाई जाती है । इदानी घटो नास्ति' (अब घट नहीं है ) इत्यादि ज्ञान-व्यवहारमे वस्तुके अभावमे भी कालकी स्थिति सबके अनुभव सिद्ध है।
(२०) समाधान :--'अभाव' श्रवन्तु नहीं बल्कि वस्तु है। जिस देश और जिस कालम घट है, उसी देश और उसी काल में घटाभाव नहीं रहता, किन्तु अपने प्रतियोगीसे भिन्न देशकालादिमे ही घटाभावकी उत्पत्ति होती है। नैयायिकोन 'अभाव' को पदार्थ माना है और प्रत्यक्ष-प्रमाणका विपय प्रिमेय ग्रहण किया है, वेदान्त तथा भट्ट-मतम भी 'अभाव' अनुपलब्धिप्रमाणका विषय प्रमेयरूपसे ग्रहण किया गया है। इस प्रकार जब कि 'अभाव' किसी देश व कालमे उत्पन्न होनेवाला है और प्रमा-ज्ञानका विषय प्रमय है, तव वह अवस्तु कैसे कहा जाय ? किन्तु वह तो वस्तुरूप ही है और सम्पूर्ण द्रव्य, गुण व कम वस्तुरूप ही हैं। इस प्रकार घटाभाव-काल घटाभावरूप वस्तु व देशके आश्रय ही स्थित रहता है और घटाभावके साथ ही उत्पन्न होता है, क्योकि कोई भी कालरूप व्यक्ति पूर्व स्थित नही है चल्कि नवीन ही उत्पन्न होती है। ब्रह्माण्डप्रलय तो ब्रह्माजीकी निद्रित अवस्था है, जो कि वस्तुरूप है और देशकाल-परिच्छेदचाली है, उस अवस्थारूप विकारके आश्रय ही प्रलय-कालकी
"जिस वस्तुका अभाव हो वह वस्तु अपने अभावका 'प्रतियोगी' कहलाती है, जैसे घटाभावका प्रतियोगी घट है और पटाभावका प्रतियोगी पर है।
प्रमाण (यथार्थज्ञान) का विषय जो पदार्थ वह प्रमेय' कहाता है।
यथार्यजानके साधनका नाम 'प्रमाण' है। वेदान्त-मतमें प्रमाण छ प्रकारका माना गया है.--प्रत्यक्ष, अनुमान, शन्द, उपमान, अर्थारत्ति और अनुपलब्धि। .. .
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[ १६२
आत्मविलास ] द्वि० खण्ड
स्थितिका सम्भव है, स्वतन्त्र नहीं । इस प्रकार यह निश्चित हुआ कि 'काल' की स्थिति निरपक्ष नहीं, किन्तु 'देश' व 'वस्तु' की अपेक्षा करके, 'देश' व 'वस्तु' के श्राश्रय ही 'काल' की स्थिति है।
(२१) यदि वस्तुका विचार करे तो वस्तुको तो देश व काल की अपेक्षा मर्व अनुभवसिद्ध है ही । वस्तु किसी देश व काल के आश्रय ही अपनी स्थिति रख सकती है। इससे सिद्ध हुआ कि 'देश' 'काल' व 'वस्तु' तीनो परस्पर वस्तु परिच्छेदवाले हैं, भिन्न-भिन्न जातिवाले है और तीनो परम्पर समदेशी व समकालीन हैं। अत तीनो विजातीय होते हुए भी प्रत्येकको अपनी स्थितिमें शेष दो की अपेक्षा रहती है। देशको काल व वस्तुकी अपेक्षा है, कालको देश व वस्तुकी अपेक्षा है और वस्तुको काल व देशकी अपेक्षा है। इस प्रकार तीनोकी परस्पर सापेक्ष व अन्योन्याश्रयरूपसे स्थिति है, निरपेक्ष व स्वतन्त्र किसीकी भी स्थिति नही है, इसलिये तीनो ही अन्योऽन्याश्रय होनेसे स्वसत्ताशून्य हैं। जो वस्तु अपनी कोई सत्ता नही रखती वह रज्जुमे सर्प
समान भ्रमरूप ही हैं, इस प्रकार यह तीनों ही अन्योऽन्याश्रय होनेसे और स्वसत्ताशून्य होनेसे अधिष्ठानचेतनमे भ्रममात्र हैं।
• (२२) शङ्का - तीनों परिच्छेद अन्योन्याश्रयरूपसे भले ही रहे, परन्तु यह तीनो ही अपने वृत्तिरूप ज्ञानके आश्रय रहते हैं, ऐसा क्यो न माना जाय ? क्योकि वृत्तिज्ञानद्वारा ही वस्तुका प्रकाश होता है।
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( २३ ) समाधान :- मान लो कि यह तीनो वस्तु अपने वृत्तिज्ञानके आश्रय स्थित है, परन्तु वृत्तिज्ञानका कोई अन्य आश्रय नहीं पाया जाता, ज्ञानकी स्थिति भी तो वस्तुके आश्रय हो माननी पड़ेगी । क्योंकि वस्तुसे पूर्व भी वस्तुका ज्ञान नही था और वस्तु नाश होनेपर भी वस्तु ज्ञान नहीं रहता। इसलिये
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[ साधारण धर्म वस्तुको अपने स्थितिरूप प्रकाशके लिये ज्ञान की अपेक्षा है और मानको अपनी स्थितिके लिये वन्तुकी अपेक्षा सिद्ध होती है।
(२४) शङ्का :-देवदत्तकी उत्पत्तिसं पूर्व यद्यपि देवदत्तज्ञान नहीं था, परन्तु देवदत्तकं नष्ट होनेपर देवदत्तज्ञान तो नष्ट नहीं हो जाता, किन्तु शेप रहता है। इसलिये 'वस्तुके नष्ट होने पर ज्ञान भी नष्ट हो जाता है। यह तुम्हारा कथन असङ्गत है।
(२५) समाधान :-'यह देवदत्त है। ऐसा ज्ञान देवदत्तकी विद्यमानतामे ही होता है और देवदत्तकी वर्तमान स्थितिको सूचित करता है। परन्तु देवदत्तके नाश होनेपर 'यह देवदत्त है। यदि ऐसा ज्ञान शेप रहे तब यह माना जा सकता है कि वस्तुके नाश होनेपर भी ज्ञानका नाश नहीं होता। किन्तु देवदत्तके नष्ट होनेपर यह देवदत्त है ऐसा ज्ञान किसीके भी अनुभवसिद्ध नहीं, उसके नाश होनेपर तो 'वह देवदत्त था' ऐसा ही ज्ञानका श्राकार शेष रहता है, जो कि देवदत्तके वर्तमान-अभावको ही बोधन करता है और वह देवदत्ताभावके आश्रय ही रहता है। इस प्रकार वस्तुकी स्थिति अपने वृत्तिज्ञानके आश्रय और वृत्ति-ज्ञान की स्थिति वस्तुके आश्रय, दोनोकी स्थिति अन्योऽन्याश्रयरूपसे ही सिद्ध होती है। सुषुप्ति-अवस्थामे इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाता है कि उस समय ज्ञान नष्ट हो जाता है तब वस्तुकी प्रतीति भी नही होती और वस्तु भी नष्ट हो जाती है, तथा वस्तु नष्ट हो जाती है तब देश-काल भी नहीं रहते। यदि वस्तुसे पूध देश-काल होते तो सुपुप्ति-अवस्थामे वस्तुके अभाव होनेपर देश-कालकी प्रतीति होनी चाहिये थी, परन्तु होती नहीं।
और यदि ज्ञानसे पूर्व वस्तु होती तो सुषुप्तिमें ज्ञानका लोप होने पर वस्तुको प्रतीति होनी चाहिये थी, परन्तु नहीं होती। इसलिये इन चारोकी अन्योऽन्याश्रयता स्पष्ट प्रमाणित होती है।
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श्रात्मविलास ]
[१६४ द्वि० खण्ड
(२६) इस प्रकार देश, काल, वस्तु व ज्ञानकी परस्पर सापेक्षता व अन्योऽन्याश्रयता सिद्ध हुई। जैसे रज्जुमे सर्प व सर्पबान परस्पर सापेक्ष, समकालीन और अन्योऽन्याश्रय होनेसे मिथ्या व भ्रमरूप हैं, सर्पके श्राश्रय सर्पज्ञान है, सर्पज्ञानके
आश्रय सर्व है, दोनों ही (ज्ञान व विषय) अविद्याके परिणाम हैं, दोनों ही कल्पित होनेसे अधिष्ठान-रज्जुके आश्रय प्रतीत होते हैं और अपने अधिष्ठानमे कोई विकार नहीं करते, बल्कि अपने अविष्ठान-रज्जुरूप ही हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण प्रपञ्च कल्पित होने से अविद्याका परिणाम है, वह अपने अधिष्ठान चेतनके आश्रय अधिष्ठान-चेतनको स्पर्श किये बिना ही प्रतीत होता है और अधिष्ठान चेतनरूप ही है। क्योंकि देश, काल,'वस्तु और वृत्तिमानसे भिन्न प्रपश्चका और कोई रूप पाया नहीं जाता, जो कि उपर्युक्त रीतिसे अन्णेऽन्याश्रय होनेसे कल्पित सिद्ध हुए। इस रातिसे सम्पूर्ण प्रपञ्च अविद्याका परिणाम और चेतनका विवर्त्त जाना गया।
(२७) उपर्युक्त विचारोके अनुसार कारण-कार्य, आधाराकारण-कार्यअभेट घेय, विशेषण-विशेष्य, धर्म-धर्मी एव भावअभावरूपमभी सम्बन्ध और सम्बन्धोके अनुयोगीय प्रतियोगी ..अपने उपादानसे गमानसत्ता और अन्यया स्वरुपको परिणाम' कहते है, जैसे दूध, दहीके सयम परिणामी होता है। दोनोंकी व्यवहारिक सत्ता होने से मममता है, परन्तु स्वरूपभेद है।
अपने अधिष्ठानसे विपरोतसाता व अन्यथा स्वरूपको वियत' कहते है, जमे कन्यितसर्प अविष्ठान-रज्जुका विवर्त है ! रज्जुकी व्यवहारिक-सत्ता और मर्पणी प्रातिमानिक-मता होनेसे मत्ताभेट और अन्यया स्वरूप भी है।
+जिमम सम्बन्ध रहै वह अपने सम्बन्धका 'अनुरोगी' और जिसका सम्पन्न हो वह 'अनियोगी' कहलाता है । जो घटका भूतलमे सयोग-सम्बन्ध है इन मम्मन्यका भनल अनुयोगी है और घट प्रतियोगी।
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[साधारण धर्म द्रव्य, गुण व कर्म, त्रिविध-परिच्छेदवाले होनेसे अधिष्ठान चेतन के विवर्त्त मिद्ध हुए और वह अधिष्ठान चेतन ही एकमात्र इन सबका विक्र्लोपादान-कारण सिद्ध हुआ। जो आप ज्यका त्यू रहे और अपने आश्रय अन्य कल्पित विकारोकी प्रतीति करावे वह 'विवोपादान-कारण' कहा जाता है, जैसे रज्जु अपने विवर्न वर्ग, दण्ड, माला आदिके प्रति विवर्तोपादान-कारण है।
(२८) इस दृष्टिसे घट-पटादि कार्योंके प्रति कपाल-तन्तु श्रादिको कारणता असिद्ध है। क्योंकि घट-पटादिके प्रति कपालतन्तु पाटिको कारणता तब सिद्ध हो जयकि कपाल-तन्तु आदि अपने कार्योंसे पूर्व सिद्ध हो । परन्तु उपर्युक्त विचारांसे देश-कालवस्तुपरिच्छेदवाले किसी भी पदार्थमे प्राक्सिद्वता है नहीं, किन्तु ज्ञान-समकालीन उनकी आमासमात्र नवीन ही उत्पत्ति होती है। जैसे दर्पणमें मुख और मुखका ज्ञान जब देखते हैं तब नवीन ही उत्पन्न होता है, 'कल देखा था वही यह मुख है। ऐसी प्रतीति दर्पणमें भ्रमरूप है। इसी प्रकार साक्षी-चेतनमें कपाल-तन्तु श्रादि वस्तु' और 'वस्तुज्ञान' अपनी दृष्टि-समकालीन आभासमात्र नवीन ही उत्पन्न होते हैं और दोनों परस्पर मापेक्ष हैं। इस प्रकार जब कि उपर्युक्त गतिमे कपाल-तन्तु आदिमे न अपनी कोई मत्ता है और न अपने कार्योंसे पूर्व उनकी सिद्वि है, तब वे अपने कार्योंके प्रति कारणरूपसे कैसे ग्रहण किये जा सकते हैं ?
(२६) इस रीतिमै मभी वृत्तिरूप ज्ञान व विपय धुद्धिके ही परिणाम हैं और सानी-चेतनके पानय बुद्धि ही भिन्न-भिन्न ज्ञान व विषयके श्राकारको धारती है, इनमे कारण-कार्यभाव रबकमात्र भी नहीं। जैसे स्वप्नमें बुद्धि हो जानाकार व विपयाकार परिणामको प्राप्त होती है, बाह्य कुछ भी नहीं, तैसे ही स्वप्न भमान इनकी प्रतीति केवल भ्रमरूप है। तथा जैने स्वप्नके पिता
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आत्मविलास]
[१६६ द्वि० खण्ड पुनमें और गो-वत्सादिमें कारण-कार्यता प्रतीत होती है, परन्तु वास्तवमें स्वप्नके पिता-पुत्रादि समकालीन ही होते है और उनमे परस्पर कारण कार्यताप्रतीति बुद्धिका ही भ्रमरूप परिणाम होता है। ठीक, इसी प्रकार जाग्रतके सर्व कारण कार्य बुद्धिके ही परिरणाम हैं और क्या बुद्धि व क्या बुद्धिके परिणाम सब अधिष्ठान
चेतनके विवर्त ही हैं। उनका अपने अधिष्ठान-चेतनमे रख्खक भी स्पर्श नहीं, जैसे मृग-तृष्णाका जल पृथ्वीको रखकमात्र भी गीला नहीं कर सकता।
(३०) शङ्का :- तुम कहते हो कि कपाल-तन्तु आदि कारण अपने कार्योंसे पूर्व प्रसिद्ध हैं, परन्तु यदि तुम्हारे इस कथनको सत्य माना जाय तो तुम्हारे वेदान्तसिद्धान्तकी ही हानि होगी। क्योंकि वेदान्तका कथन है कि शेयके अनुसार ही ज्ञान होता है, शेय बिना ज्ञान नहीं होता। अर्थात् शेय घट हो और ज्ञान पटका हो, यह असम्भव है, जब ज्ञेय घट है तो ज्ञान भी घट ही होना चाहिये, ज्ञान व जेय समान ही रहने चाहिये, ज्ञेयसे विपरीत ज्ञान नहीं हो सकता। इस सिद्वान्तके अनुसार कपाल-तन्तु
आदि कारणोमें यदि प्रामिद्धता न होती तो प्राक्सिद्धताकी प्रतीति भी न होती। परन्तु कपाल-तन्तु आदि कारणोंमें प्राक्सिद्धता सर्वके अनुभवसिद्ध है, इसलिये तुम्हारे इस सिद्धान्तके अनुसार प्राक्सिद्धताकी प्रतीति ही उनमें प्राकृसिद्धताको सिद्ध कर रही है कि वे अपने कार्य घट-पटादिसे पूर्व सिद्ध हैं।
(३१) समाधान : हाँ, वेदान्तका सिद्धान्त यही है कि जेय विना ज्ञान नहीं होता। वेदान्तका आशय तो यह भी है कि जिस कालमे रज्जुमे सर्पकी प्रतीति होती है उस कालमे सर्प भी उत्पन्न होता है, निर्विपयक ज्ञान नहीं होता । अर्थात् सर्पका केवल ज्ञान ही उत्पन्न नहीं होता, बल्कि बान-कालमे सर्गरूप
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[साधारण धर्म विषय मी उत्पन्न होता है । परन्तु जेय व नान मम-सत्तावाले ही हाग, जेय यदि भ्रमरूप है तो उसका ज्ञान भी भ्रमरूप ही होगा, नेय भ्रम हो और उसका ज्ञान यथार्थ हो ऐसा सम्भव नहीं। अस्तु, कपाल-तन्तु आदि कारणोंमें प्राक्मिद्धता प्रतीत तो अवश्य होती है, परन्तु कपाल-तन्तु आदि कारण विविध-परि
छेदवाले होनेसे वस्तुतः अपनी कोई सत्ता ही नहीं रखते, केवल भान-समकालीन उनकी प्रतीतिमात्र है. फिर उनमें अपनी प्राक्मिद्धता कहाँसे श्रावे ? और प्राक्सिद्धता हुआ यिना प्रतीत भी नहीं हो सकती, परन्तु यह प्राक्मिद्धता कपाल-तन्तु श्रादिमें अपनी नहीं, बल्कि अधिष्ठानचेतनस्थ प्रायमिद्धता उनमें इमी प्रकार दमक मारती है, जैसे जपा-पुष्पकी रतना जपा-पुष्पके अपर स्थित म्फटिकमें। इस प्रकार कपाल-तन्तु केवल अपने अधिष्ठान चेतनकी सत्तासे मत्तावान और उनीकी प्रालिद्वतामे प्राकसिद्ध प्रतीत होते हैं, वन्नुनः कपाल-नन्तु आदि कदापि प्रासिद्ध नहीं और न घट-पटादि कार्योके पनि फारण ही हैं। जैसे स्वप्नक पदार्थ वमनाशन्य होते हुए भी अपने अधिष्ठानचेतनशी सनाय प्राकमिनाले मन य प्रायगिद्ध प्रतीत होते है। तथा जैम राजुमें सर्प-भ्रम होता है. तर 'यह मां अगी उत्पन्न दामा जान नही होना, पल्कि 'इम मपंकी पूर्व यिनि ।
मा अमका आकार होता. मी शालयमें नो मर्पया निकालाभाय. मशापि प्रतिष्ठान-ग्लपी मनाने सपने मना और अभिधान-
सभी प्रारमिलान मपम प्रापनियतका महाना है, मी फार फायनान शादि कारणो प्रामिना भए
और पामिना-बान भी अमाप ही (६)भामा अपना मन नार R m मा मेगा मेल
द्वारा
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आत्मविलास
[१६८ द्वि० खण्ड जिस-जिस आकारको बुद्धिवृत्ति धारण करती है वैसा वैसा ही रूप अधिष्ठान-चेतनमें प्रतीत होता है । वास्तवम अधिष्टान-चंतन मे उन आकारोका न कोई स्पर्श है न उनकी कोई सत्ता है, किन्तु अधिष्ठान चेतनके आश्रय चुद्धि श्राप ही उन श्राकारोको धारती है और उन आकारोको अपनेसे भिन्न जानकर आप ही उन मिथ्या आकारोमें सत्यताकी भ्रान्ति कर लेती है, जैसे चञ्चल वानर दर्पणमें अपने ही श्राकारको अपनेसे भिन्न सत्यरूपमे ग्रहण कर लेता है। फिर उन मिथ्या अनुभवजन्य-संस्कारोंमे भी सत्यताकी भ्रान्ति करके बुद्धि उन संस्कारीको सत्यरूपसे अपने भीतर ले जाती है तथा उन संस्कारके उद्बोधद्वारा जव वृत्ति फिर उन्ही श्राकारोको धारती है, तब वही यह वस्तु है' ऐसा प्रत्यभिज्ञा-भ्रम होता है। वास्तवमे तो वस्तु वही कदापि नहीं और है ही नहीं, जैसे जब हम अपना मुख दर्गणम प्रथम देखकर पुनः-पुन. दर्पणमें देखते हैं, तब पूर्वानुभवजन्य सस्कारोकी भ्रान्ति से ऐसा भ्रम होता है कि 'वही यह मुख है, परन्तु वास्तवमें तो जब-जब हमने दर्पणमे अपना मुख देखा, तव-तत्र नवीन ही मुख वहाँ होता है, 'यही यह मुख है। ऐसा प्रत्यभिना-प्रत्यक्ष दर्पणम तो भ्रमरूप ही है।
(३३) इस दृष्टिसे जवकि कपाल-तन्तु आदि कारण प्राक्सिद्धरूपसे प्रसिद्ध हैं, तव चे घट-पटादि अपने कार्योंके प्रति कारण कैसे हो सकते हैं ? क्योकि कारण वे तभी हो सकते थे जबकि अपने कार्योंसे पूर्व उनकी विद्यमानता पाई जाती । परन्तु सम्पूर्ण प्रपञ्च त्रिविध-परिच्छेदवाला होनेसे भूत-भौतिक ऐसा
पजिस वस्तुका पूर्व प्रत्यक्ष हुआ हो, उस पूर्व प्रत्यक्षके संस्कारसहित उसी वस्तुकी पुन प्रतीतिको ‘प्रत्यभिना-प्रत्यक्ष' कहते हैं; उपर्युक्त रीतिसे सभी प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्ष'भ्रमरूप ही है।
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१६६]
[साधारण धर्म कोई भी पदार्थ प्रतीत नहीं होता जिसको प्राकृसिद्धम्पसे ग्रहण किया जाय और घट-पटादि कार्योक प्रति कारण माना जाय । हॉ, निर्विकार, अजर, अमर, परिच्छेदशन्य व भेदशन्य एक अधिष्टान-चेतन ही प्राकसिद्ध रूपसे ग्रहण हो सकता है और केवल यही सम्पूर्ण कारण-कार्यम्प प्रपञ्चके प्रति एकमात्र विवोंपादानकारण है । तथा क्या घट-पटादि कार्य, काा कपाल-तन्तु आदि कारण, क्या बुद्धिरूप ज्ञाता, वृत्तिरूप-ज्ञान व प्रपञ्चरूप शेय, ये सभी जरा परमउपादानके विवत्तरूप कार्य हैं, जो कि दर्पणके समान अपने अधिष्ठान चेननक पाश्रय प्रतीत होकर उसको स्पर्श नहीं कर सकते।
(३४) यह हमारी अपनी ही कपोल-कल्पना नहीं, अतिभगवती स्त्रय इम सिद्धान्तकी साक्षी देती है। छान्दोग्योपनिपत् छठे प्रपाठकके शासर-माप्यमे उहालक-श्वेतकेतुके सवादसे यही सिद्धान्त सुन्दर युक्तियोद्वारा प्रतिपादन किया गया है कि सम्पूर्ण कारण-कार्यरूप प्रपञ्च अपने अधिष्ठान चेतनका विवर्त्तमात्र है। संक्षेपसे जिसका आशय यह है :___ कारण-कार्यसम्बन्धमें नैयारिकोका 'आरम्भवाद', साख्यो का परिणाम-बाद' तथा वेदान्तका 'विवर्त्त-बाद' है। नैयायिकों का मत है कि उपादान कार्यरूप परिणामको प्राप्त नहीं होता जैसा सांस्यका मत है, बल्कि उपादान आप तो ज्य-का-त्यू ही रहता है और अपने उपाटानमें कार्य एक भिन्न ही वस्तु उपजती है। जैसे कपाल-तन्तु आदि उपादानमे घट-पटादि कार्योंकी उत्पत्ति हो जानेपर भी, कपाल-तन्तु अपने-आपसे ज्य-के-त्य ही रहते है और घर-पटादि कार्य अपने उपादान कपाल-तन्तुसे भिन्न नई ही वस्तु उत्पन्न होते हैं । क्योकि धारण व आच्छादनरूप व्यवहार कपाल-तन्तुद्वारा सिद्ध नहीं होता और घट-पटोदि
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आत्मविलास
[१७० द्वि० खण्ड द्वारा सिद्ध होता है, इसलिये कपाल-तन्तुसे घट-पटादि एक भिन्न ही वस्तु उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार कपाल-तन्तु प्रादिमें घटपटादिका श्रारम्भ होता है, परिणाम नहीं, ऐसा मानना चाहिये। यदि कपाल-तन्तु परिणामी हुये होते तो घट-पटादिकी उत्पत्ति हो जानेपर कपाल-तन्तु स्वस्वरूपसे न रहते, क्योकि स्वस्वरूपको त्यागकर अन्य रूपमे परिवर्तन होनेको 'परिणाम' कहते हैं, परन्तु कपाल-तन्तु तो अपने स्वरूपसे ज्य-के-त्य ही रहते हैं, इसलिये प्रारम्भ-वाद माननेयोग्य है और परिणाम-वाद असंगत है। चूंकि न्यायमतमे कार्यकी उपादानसे भिन्न नवीन उत्पत्ति मानी गई है, इसलिये न्यायमत 'असत्-कार्यवादी' कहलाता है, अर्थात् अपनी उत्पत्तिसे पूर्व कार्य असत् था।
(३५) परिणाम-वादी सांख्यका कथन है कि कार्य अपने उपादानमे एक सत्-वस्तु है, अर्थात् वह अपने उपाठानमें उत्पत्ति से पूर्व अनभिव्यक्त रूपसे रहता है। क्रियाद्वारा उस मत्-कार्यकी अपने उपादानमें केवल अभिव्यक्ति होती है और नाशके पश्चात् वह फिर अपने उपादानमें ही अनभिव्यक्तरूप हो जाता है। इस प्रकार उपादान कार्यरूपमे परिणामी होता है। यदि उपादान ज्यू-का-त्यू रहे और परिणामी न हो तो घट-पटादिकी उत्पत्तिके अनन्तर कपाल-तन्तुमे अन्य घट-पदादिकी उत्पत्ति होनी चाहिये। परन्तु कार्यकी प्रथम उत्पत्ति होनेके पीछे वे कपाल-तन्तु अन्य घट-पटादिके उपादान नही रहते, इसलिये परिणामवादका ही अंगीकार है और आरम्भवाद संगत है। चूंकि कपालमे घटको ही उत्पत्ति होती है पटकी नहीं, और तन्तुसे पेट ही निकलता है घट नहीं । इससे, जाना जाता है कि कपालमें घट ही रहता है
और तन्तुमे पट ही रहता है। इस प्रकार कार्य अपने उपादानम, नित्य रहनेसे सांख्यमत 'सत्-कार्यवादी' कहा गया है।
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१७१]
[ साधारण धर्म (३६) वेदान्त इन दोनोसे आगे बढ़कर कहता है किन उपादानसे भिन्न कार्य कोई दूसरी वस्तु ही उत्पन्न होता है और न उपादान कार्यरूप परिणामको ही प्राप्त होता है। यदि उपादान से भिन्न कार्य कोई दूसरी वस्तु हुई होती तो उपादानसे अधिक भिन्न देश-कालमे कार्यकी प्रतीति होती, परन्तु उपादानसे भिन्न देश-कालमे कार्यकी अनुपलब्धि है। जैसे घट-पटादि कार्यमेसे यदि मृत्तिका व तन्तुको निकाल लेवे तो घट-पटादि कोई वस्तु शेष नहीं रहते, यदि उपादानसे भिन्न घट-पटादि नई वस्तु उपजे होते तो कपाल-तन्तुके निकाल लेनेपर उनकी उपलब्धि होनी चाहिये थी, परन्तु होती नहीं, इसलिये आरम्भबाद मिथ्या है। तथा उपादान यदि कार्यरूप परिणामको प्राप्त हुआ हो तो कार्य के नष्ट होनेपर उपादान शेप न रहना चाहिये, जैसे दुग्ध दधीरूप में परिणत होनेपर फिर दुग्धरूपसे शेप नहीं रहता। परन्तु घटपटादि कार्योंके नष्ट होनेपर तो मृत्तिका व तन्तु उतनेके उतने संख्या व परिमाणमें शेष रहते है, रञ्चकमात्र भी न्यूनता नहीं होती,इसलिये परिणामवाद भी मिथ्या है।
(३७) वेदान्तका कथन है कि कार्य अपने उपादानसे भिन्न कोई वस्तु है ही नहीं, बल्कि उपादानरूप ही है। कार्य अपने उपादानका केवल विवर्त्त है और उपादानकी ही एक दूसरी सज्ञा है, वास्तवमे कार्यका उपादानसे भिन्न रूप कोई नहीं जैसे सर्प रज्जुमा विपत है, रज्जुसे भिन्न रर्षका और कोई रूप है ही नहीं, वह तो केवल प्रतीतिमात्र ही है। उपादन त्रिकाल-सत्य है, कार्यसे पूर्व, कार्यके पश्चात् तथा कार्यके मध्य उयादान ज्यू-का-त्यूँ है । अर्थात् उपादान आप ज्यू-का-त्य रहता हुआ अपने आश्रय कार्यको प्रतीतिमात्र कराता है, वास्तवमे तो कार्य अपने उपादान "में कल्पित है। कार्य अपने उपादानका विवर्त्तमात्र होनेसे
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१७२
श्रात्मविलास ] वेदान्तमत 'विवत कार्यवादी' कहलाता है। अर्थात् रज्जु-सर्पके समान कार्ग अपने उपादानमे कल्पित-सत् और वास्तव असत्रूप है। इस प्रकार उपादान व अधिष्ठानका अभेद सिद्ध हुआ। वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्
(छान्दोग्योपनिषत् ) अर्थात् कार्य कथनमान व नाममात्र ही है, उपादान ही सत्य है। सुवर्ण, मृत्तिका, तन्तु आदि जिनको लौकिकदृष्टिसे भूपण, घट,पटादिके प्रति उपादान कहा जाता है, वास्तवमे यह उपादानकारण नहीं केवल निमित्त-कारण ही है। चूंकि यह सम्पूर्ण भूतभौतिक प्रपञ्च उत्पनिवाता होनेसे कार्य है और जो आप कार्य है वह किसी अन्यका उपादान नहीं हो सकता, क्योंकि कार्य रज्जुम सर्पके समान मिथ्या व कल्पित ही होता है। इसलिये सम्पूर्ण प्रपञ्चका एकमात्र त्रिकालाबाध्य, सत्वस्तु, अधिष्ठानचेतन ही विवर्तोपाटान है। इस प्रकार क्या अविद्या, क्या बुद्धि, वृत्ति, पञ्चभूत तथा सुवर्ण-मृत्तिकादि अपने-अपने कार्योंकी उत्पत्तिमे निमित्तमात्र ही होते हैं, अविद्यादि व सुवर्ण-मृत्तिकादि के निमित्तसे वह अधिष्ठान चेतन ही भूपण-घटादिके रूपमे प्रतीत होता है और स्वप्रयत क्या निमित्त व क्या कार्य सभी अधिष्ठानचननके विवर्त और अविष्ठानरूप ही होते है।
सन्मूलाः सौम्येमाः मर्याः प्रजाः। (छान्दोग्य) अर्थात हे सौम्य ! इस सर्व प्रपञ्चका मूल वह मन ही है। ऐतदात्म्यमिदं सर्व तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि
(बान्दोग्य) अर्थ :-यह मर्य इस अपरोक्षसन यात्मावाला है, सो परमार्थ है. गो ग्रात्मा है, सो तू है।
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१७३.]
[ साधारण धर्म (२८) इस प्रकारसुवर्ण-मृत्तिकादि अधिष्ठान चेतनके विवर्त होनेसे आप ही नहीं तो भूपणादि कार्योंको कैसे उत्पन्न करें? तथा कल्पितरूप होनेसे जब कार्य बना ही नहीं तो सुवर्ण मृत्तिकादिमे कारणना कैसे सिद्ध हो ? इसी विचारमे न तो द्रव्यके थाश्रय गुण व क्रिया है और न धर्मीके श्राश्रय धर्म है। किन्तु सभी सम्बन्ध और अनुयोगी-प्रतियोगी अपने अधिष्ठान-चेतनके विवर्त्तमात्र हैं। क्योकि सभी आधार व श्राधेय त्रिविध-परिच्छेदवाले होनेसे स्वसत्ताशन्य भायमात्र हैं और अपने अधिष्ठानचेतनके आश्रय केवल प्रतीतिमात्र हैं। जैसे दर्पणमे प्रतीत हुआ तो मुखरूप-द्रव्य, श्वेत-पीतादिक मुखके गुण और हिलन-चलन श्रादि मुखकी क्रिया, ये सब दर्पणस्थ मुखकेाश्रय नहीं, किन्तु क्या मुख, क्या गुण व क्या क्रिया सभी दणके आश्रय हैं। दर्पणके अज्ञानसे मुखमे आश्रयता तथा गुण-क्रियामे आश्रितताप्रनीति भ्रम है।
(३६) जामनके क्षणिक-काल और कण्ठगत हितानाड़ीजात व स्वप्रयभेद ) नामा अल्प-देशमें ही यद्यपि स्वप्न-सृष्टि के दीर्घकान और विस्तृत-देशकी प्रतीति होती है, तथापि जाग्रत्के क्षणिक-काल व अल्प-देशको आधारता और स्वप्नके दीर्घ-काल व विस्तृत-देशको आधेयताका अगीकार नहीं और सम्भव भी नहीं। किन्तु एक अधिष्ठान-चेतनके आश्रय ही क्या जाग्रत व क्या स्वप्न दोनोकी अपने-अपने समयमे प्रतीति होती है, इन दोनों में परस्पर कारण-कार्यता व आधाराधेयता मिथ्या है। जैसे नाटकघरके प्लेटफार्मपर पहले भानमतीके खेलके पड़दे खुलते हैं पश्चात् हरिश्चन्द्रके, परन्तु इन दोनोंमेसे आधाराधेय-भाव किसी में भी नहीं, केवल प्लेटफार्म ही दोनोका आधारभूत हो सकता है।
(४०) जाग्रत्-देश-कालको स्वप्न-सृष्टिके प्रति आधारता व
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[१७४
आत्मविलास
द्वि० खण्ड कारणता तब सिद्ध हो, जब कि जाग्रत-देश काल स्वतन्त्र हो
और स्थिर हो । परन्तु जैना पीछे (अध ६ से २६ मे) विवेचन किया जा चुका है, जाग देशकाल जाग्रत पदार्थोके साथ अन्योऽन्याश्रयरूपसे समकालीन ही उत्पत्ति-नाशवान है, वे स्वतन्त्र नही और स्थिर भी नहीं । जो वस्तु अपने स्वरूपसे चलायमान है और स्वतन्त्र भी नहीं, वह किसी अन्यका आधारभूत कैसे बन सकती है। अर्थात् जाग्रत देशकाल जाग्रत-पढाथोंके प्रति ही जब कारणरूप सिद्ध न हुवे. तव स्वप्न-सृष्टिके प्रति वे कारण कैसे बन सकते है ? __ दूसरे, वेदान्त-सिद्धान्तमं भ्रमस्थलमें + अनिर्वचनीय-ख्याति का अङ्गीकार किया गया है, जिसका यह श्राशय है कि जो भी ज्ञान होता है वह सविपयक होता है, निर्विपयक-ज्ञान अलीक है। अर्थात् ज्ञानके साथ विपय भी उत्पन्न होता है, विषयके विना केवल ज्ञान ही नहीं होता। इरा सिद्धान्त के अनुसार स्वप्नज्ञानके विपय पदार्थ भी स्वकालमें उत्पन्न होते हैं। श्रुतिभगवती भी स्वप्नपदार्थोकी उत्पत्तिकी साक्षी देती है :'न तत्र स्थान रथयोगा न पन्थानो
__ भवन्त्यथ रथारथयोगान्पथः सृजते ।। इस श्रुतिमें व्यवहारिक रथ, अश्व व मार्गका निषेध करके
सत्व असत्से विलनणको 'अनिर्वचनीय' कहते हैं, ऐसा यह जाग्रत् जगत् है। तीनो कालमै जिसका प्रभाव न हो उसको ‘सन्' कहा जाता है, परन्तु यह जगत् ऐसा हे नहीं, इसलिये सत्से विलक्षण है। तथा तीनों काल ने जिसकी प्रतीति न हो उसको 'सत्' कहते है, जैमे शश, पन्ध्यापुत्रादि, परन्तु यह संसार प्रतीत होता है, इसलिये असत्से भी विलक्षण होनेसे 'अनिवचनीय' कहा जाता है।
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- १७५] .
[ साधारण धर्म , स्वप्नमे अनिर्वचनीय रथ, अश्व व मार्गकी उत्पत्ति वर्णन की है।
और जब कि स्वप्नपदार्थाकी उत्पत्ति मानी गई, तब उन पदार्थोके योग्य देश-कालकी अपेक्षा होनी चाहिये, जामत्के अल्प देशकालको उनके प्रति आधारताका असन्भव ही है। . (४१)वास्तव दृष्टिले तोक्याजाग्रत्-प्रपञ्च और क्या स्वप्न-प्रपञ्च दोनोंका परिणामी-उपादान मूलाविद्यारुप सुपुप्ति-अवस्था ही है । सुषुप्तिसे ही जाग्रन् प्रपञ्च निकलता है और सुषुप्तिसे ही स्वप्तप्रपञ्च, तथा दोनोका तब भी सुषुप्तिमें ही होता है। जाग्रत्के पश्चात् जब स्वप्न आता है तब जाग्रनका लय स्वप्नमे नही होता, किन्तु सुयुप्तिमे ही होता है और फिर सुषुप्तिसे ही स्वप्न-प्रपञ्च निकलता है। जाग्रत् और स्वप्न के मध्यमें सुषुप्तिका आना आवश्यक है, चाहे वह सुपुप्ति क्षणिक हो अथवा क्षणके किसी अशमे ही हो; परन्तु दोनोंके मध्य सुपुप्तिका होना जरूरी है। जैसे नाटकघरमे सानमतीके खेलके पड़दे जब खुल चुके और खेले जा चुके, तव हरिश्चन्द्रका खेल बारम्भ होनेसे पहले प्लेटफार्मको साफ कर लेना जरूरी है। इसी प्रकार जब जामत्के भोग अपना फल देनेसे उदासीन हो जाते हैं और स्वप्नभोग फलके सम्मुख होते हैं, तब जाप्रत्-अपञ्चका सुपुप्तिमें लय होना आवश्यक है, जिससे स्वप्न के भोगोको अवकाश मिले । क्योकि क्या जानतू-भोग और क्या रवन-भोग दोनोका कर्ता-भोक्ता सुयुप्ति-अवस्थाभिमानी प्राज्ञनामा जीव ही है और ये दोनो अवस्थाएँ इसके मोगकी सामग्री व भोगस्थल हैं। वहीं प्राज्ञ जाग्रत् और स्वपमें विश्व व तेजसरूपसे
जो वस्तु स्वयं कार्यरूगमे परिवर्तित हो, उसको परिणामी-उपादान' कहते हैं। सुपुष्ति-अवस्वाभिमानी जीवका नाम 'प्राज्ञ' है।
जायन्-श्रवस्माभिमानौ जीवका नास 'विध है। +स्वप्न-अवस्थाभिमानी जीवका नाम 'तेजम' है।
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आत्मविलास
[१७६ द्वि० खण्ड प्रकट होकर इन अवस्थामोमे कर्ता-भोक्ता होता है और वही इनके सचित-संस्कारोसे जन्मान्तरसे अपने भोगके लिये शरीर धारण करता है।
(४२) विचारसे देखा जाय तो जायत्-प्रपञ्चका लय स्वप्नमे सम्भव हो भी नहीं सकता। स्वामे तो जाग्रत्की लयरूपनिवृत्ति तभी मानी जा सकती थी, जब कि स्वप्नसे जाग्रत्की उत्पनि मानी जाती । क्योकि कार्यका लय अपने उपादानमे ही होता है, जैसे घटका प्रध्वंसरूप लय कपालोमे ही होता है और स्वासे जाग्रतकी उत्पत्ति किसीको इष्ट है नहीं, इसलिये परिणामीउपादानरूप सुपुप्तिमे ही जामत्की निवृत्ति माननी होगी। जब कि जाग्रत्का लय सुपुप्तिमे माना गया, तब जाप्रसे स्वप्नकी भी उत्पत्ति असम्भव है, क्योकि जाग्रत् जब अपने स्वरूपसे ही स्वप्नकालमे नहीं रहता, तब वह स्वप्नका कारण कैसे हो? वस्तुतः स्वप्नकालमे न जानदेह ही रहता है, न जाग्रतहन्द्रियाँ और न मन-बुद्धयादि जाग्रत्अन्तःकरण ही शेष रहता है, बल्कि वहाँ सारी त्रिपुटी नवीन ही होती है । इस प्रकार न जायतका कारण स्वप्न है और न स्वप्नका कारण जाग्रत, बल्कि क्या स्वप्न और क्या जाग्रत् दोनोका परिणामी-उपादान सुपुप्ति ही स्वतः सिद्ध है, क्रम-क्रमसे दोनो ही अपने उपादान सुषुप्तिमे लग होते है और सुषुप्तिसे ही निकलते है।
(४३) शङ्का:यदि जागत् और स्वप्न दोनोका परिणामीउपादान सुयुप्ति ही है तो वनसे जागे मनुष्यको स्वप्न-प्रपञ्चमे मिथ्यात्व तथा जाग्रतमे सत्यत्वप्रतीति नहीं होनी चाहिये। क्योकि एक ही उपादानसे- एक कार्य सत्य तथा एक मिथ्या हो नहीं सकता, या तो दोनों ही सत्य प्रतीत होने चाहिये अथवा दोनों ही मिथ्या। किन्तु इन दोनोंमें सत्यता व मिथ्यात्व विलक्षण
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१७७]
[ साधारण धर्म प्रतीति है, इसलिये दोनोका एक उपादान अनुभवानुसारी नहीं।
(४४) समाधान :-वास्तवमें तो सत्यता न जाग्रत्-प्रपञ्च में अपनी है और न स्वप्न-प्रपञ्चमें ही अपनी, किन्तु अधिष्ठानचेतनकी सत्यता ही अपने-अपने समयपर दोनोमे प्रतीत होती है
और उसकी सत्तासे ही ये दोनो असत् हुए भी सत्तावान् प्रतीत होते हैं। इसलिये जैसा अपने कालमे जाग्रत्-प्रपञ्च सत् भान होता है, वैसा ही अपने कालमे स्वप्न-प्रपञ्च भी सत् प्रतीत होता है । 'यह स्वप्न-प्रपञ्च मिथ्या है और यह स्वप्न है। ऐसी प्रतीति तो स्वप्न कालमे किसीको भी होती नहीं है, अतः दोनोंमें ही सत्यताप्रतीति अधिष्ठानके अज्ञान करके ही है। अधिष्ठानके ज्ञान विना कभी 'वह प्रपञ्च सत्य है और कभी 'यह प्रपञ्च सत्य है' ऐसी सत्यताप्रतीति दोनोके परस्पर विरोधी ज्ञान करके ही होती है। जैसे रज्जुमे रज्जुके अज्ञानसे कभी 'यह सर्प है। ऐसी प्रतीति होती है और कभी 'यह दण्ड है। ऐसा ज्ञान होता है। तहाँ रज्जुके ज्ञान विना ही सर्पप्रतीतिसे दण्डप्रतीति और दण्डप्रतीतिसे सर्पप्रतीतिकी निवृत्ति हो जाती है तथा दोनो प्रतीतियाँ भ्रमरूप ही होती हैं । इस प्रकार अधिष्ठान-रज्जुके अपरोक्ष विना एक भ्रम-ज्ञानसे दूसरे विरोधी भ्रमज्ञानकी निवृत्ति हो जाती है, सो अधिष्ठानके ज्ञान बिना परस्पर विरोधी ज्ञानोसे ही होती है। इसी प्रकार जाग्रत्-प्रपञ्चकी प्रतीतिसे स्वप्नप्रतीति मिथ्या हो जाती है और स्वप्नप्रतीतिसे जाग्रत्प्रतीति मिथ्या हो जाती है तथा दोनों ही भ्रमरूप हैं। अपने स्वरूपसे असत् हुए भी अधिष्ठान चेतनकी सत्तासे अपने-अपने कालमें दोनो ही सत् प्रतीत होते हैं और अधिष्टान-चेतनके अपरोक्ष होनेपर दोनो ही मिथ्या हो जाते हैं । इस प्रकार इन दोनोंका परिणामी-उपादान सुषुप्ति. अवस्थारूप मूलांज्ञान ही जानना चाहिये। ..
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आत्मविलास]
[१७८ द्वि० खण्ड
(४५) शङ्का --जाग्रतमे स्वप्नकी स्मृति होती है, क्योंकि स्वप्नके अनुभवजन्य-सस्कार जाग्रत्मे रहते है और यह नियम है कि जिसने अनुभव किया हो उसीमे अनुभवजन्य-सस्कार रहने चाहिये और स्मृति करनेवाला भी वही होना चाहिये। अनुभव करनेवाला और हो तथा स्मृति करनेवाला कोई और, यह असम्भव है। इस प्रकार स्वप्नकी स्मृति जाग्रतमे रहने से जाग्रत् ही स्वप्नका कारण सिद्ध होता है और स्वानको जामत्के प्रति कार्यता सिद्ध होती है।
अन्य शङ्का :-स्वप्नमें जाग्रत्की स्मृति होती नहीं, बल्कि जाप्रत्के संस्कारोसे स्वप्नमें कभी-कभी जाग्रत्-पदार्थोंका प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्ष तो होता है, परन्तु स्मृति कभी नहीं होती। इससे भी जाप्रत्को ही स्वप्न-सृष्टिके प्रति कारणता सिद्ध होती है, क्योकि जामत्के संस्कार उन पदाथोंके कारण हैं।
(४६) समाधान :-यद्यपि जाग्रत् व स्वप्न दोनो अवस्थाओ का अनुभव करनेवाला एक ही है, परन्तु वह अनुभव-कर्ता जाग्रत्-अन्तःकरण अथवा स्वप्न-अन्त'करण नहीं हो सकता, क्योकि जाग्रत् अवस्था और स्वप्न अवस्थामे अन्तःकरण एक नही है, किन्तु दोनों अवस्थाओमें अन्तःकरण भिन्न-भिन्न हैं। जाग्रत् अवस्थामें जिम पुरुषके अन्त करणने 'मैं राजा हूँ' ऐसा राज्यका अहकार धारण किया हुआ है तथा हस्ति-अश्वादि जिन पदार्थोंमें सुखबुद्धि धारी हुई है, उसी पुरुपका स्वप्न-अन्तःकरण स्वप्नमे अपने-आपको चाण्डाल देखता है, चाण्डाल-वृत्ति में ही सुखवुद्धि करता है, जाग्रत्-पुण्यको पापरूप व जाग्रत्-पाप को पुण्यरूप जानता है, कभी पक्षी के समान मनुष्य-शरीरसे ही 'अपनेको उडता हुआ देखता है, कभी अपना सिर कटा हुआ देखता है, कभी चितामें अपने आपको भस्म होता हुआ देखता
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Fe]
[ साधारण धर्म है और कभी अग्निको शीतलस्वभाव तथा जलको उष्णस्वभाव जानता है, जो कि जाग्रत्-अन्तःकरणकी मर्यादासे विलक्षण है और जाग्रतमें ऐसा अनुभव कमी नहीं हुआ। इस प्रकार जाति व रूपकी विलक्षणता, सुख-दुःखकी विलक्षणता, पुण्य-पापकी मर्यादाकी विलक्षणता, भूतोंके गुणोंकी विलक्षणता और नीति की विलक्षणता होनेसे यह स्पष्ट है कि दोनो अवस्थाओमे अन्तःकरणकी एकता नहीं है । क्योकि रूप, जाति, गुण, पुण्य, पाप, सुख, दुःख, मर्यादा व नीति इन सबका वोध केवल अन्तःकरण मे ही है। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि सुपुप्तिमे अन्तःकरणके लीन हो जानेपर रूप, जाति व गुणादिके सब ज्ञान अन्तःकरण में ही लीन हो जाते हैं और फिर अन्तःकरणका विकास होनेपर यह सब ज्ञान उसीसे निकल पड़ते हैं। इसीलिये सुपुनि-अवस्थामे इनका कोई भेदभाव नहीं रहता, वल्कि वहॉअन्तःकरणके अभाव से क्या चाण्डाल, क्या राना, क्या पशु, क्या पक्षी सबका ही अभेद हो जाता है, इससे स्पष्ट है कि यह सब भेद अन्तःकरणमें ही हैं। इस प्रकार जबकि सुख-दुःख, पुण्य-पापादि व जातिगुणादि सत्र मर्यादाओंका सम्बन्ध केवल अन्तःकरणसे ही है, तब यदि दोनो अवस्थाओंमें एक ही अन्तःकरण हो तो इस प्रकारकी विचित्र विलक्षणता नहीं होनी चाहिये । क्योंकि पदार्थों का स्वरूप, गुण, पुण्य-पाप और सुख-दुःखादिकी मर्यादा व नीतिका निर्णय करनेवाला जव कि अन्तःकरण ही है तो फिर जिस अन्त.करणने जाग्रत्मे जैसा रूप-गुणादिका निश्चय किया है, उसके अत्यन्त विरुद्ध वहीं स्वप्नमे कैसे निश्चय कर सकता है? इसलिये मानना पड़ेगा कि दोनो अवस्थानोंमे अन्तःकरणकी एकता नहीं है। इस प्रकार दोनो अवस्थाओंमे अन्तःकरणोंका भेद होनेसे और दोनों अवस्थाओका अनुभव कर्ता कोई एक
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आत्मविलास
[१८० द्वि० खण्ड अन्तःकरण न होनेसे प्रानरूप-जीवको ही इन मवका अनुभवकर्ता मानना होगा। वही राजाधिराजके समान कमी अपने भीतरसे जाग्रत् अवस्थारूपी दरवारको निकालता है और त्रिपुटीरूप अपनी लीलाओको देखता है। और जब यहाँसे थकता है तब अपने इस दरबारको भन करके स्वप्न अवस्थारूपी रनिवासमे प्रवेश करता है और कभी सवको लयकर अपने निजी महल सुपुप्ति-अवस्थामे विनाम करता है।
(४७) 'अन्त'करण' शब्दका अर्थ है 'अन्तर्ज्ञानका साधन', और जो ज्ञानका साधन है वह ज्ञानका कर्ता नहीं हो सकता। जिस प्रकार खड्ग छेदनरूप व्यापारका साधन होनेसे का नहीं हो सकता। साधनसे कर्ता सदैव भिन्न ही होता है, छेदन-व्यापार का कर्ता तो वह पुरुप ही हो सकता है जिसके हाथमें खड्ग है। इसी प्रकार ज्ञानका साधन होनेसे अन्तःकरण ज्ञानका क्र्ता नहीं हो सकता, ज्ञानका कर्ता तो केवल प्राज्ञ जीव ही हो सकता है। क्या जाग्रत्-अन्तःकरण व जामत्के सस्कार और क्या स्वप्नअन्तःकरण व स्वप्न-सस्कार अपने-अपने कालमे उसीमें लय होते हैं और उसीसे निकलते हैं तथा मरण-अवस्थामे तो जाग्रत् व स्वप्न दोनों ही अन्तःकरण संस्कारोसहित उसीमें स्वरूपसे ही लीन हो जाते हैं। इसीलिये सर्व सस्कारोंका सश्चितरूप कोष वह प्राज्ञ ही है और उसमेंसे ही जो संस्कार प्रारब्धरूपसे उबुध होते हैं, वे ही जन्मान्तरके भोगकी सामग्री बन जाते है और पुनजन्मके हेतु होते हैं।
(४८) उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि:-(१) जाग्रत् व स्वप्नमें अन्तःकरण एक नही किन्तु भिन्न-भिन्न है। (२) अन्तःकरणरूप-प्रमाताका ही भेद नही किन्तु इन्द्रियरूप-प्रमाण तथा
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[साधारण धर्म अप्रमेयका भी भेद है। स्वप्नमें इन्द्रियाँ नवीन ही अन्तःकरणके साथ उत्पन्न होती हैं, उस समय जाग्रत्इन्द्रियों अपने अन्तःकरण में लीन होकर रहती हैं। (३) और यह भी सिद्ध हुआ कि जामन् तथा स्वप्नके अनुभवजन्य सस्कारोंका आश्रय एकमात्र प्राज्ञ ही है, न जाप्रत्-अन्तःकरण ही संस्कारोका आश्रय हो सकता है और न स्वप्न-अन्तःकरण । क्योकि आधारभूत अन्तःकरण ही जब लयको प्राप्त होता है, तब वह श्राधेयरूप संस्कारों का आश्रय कैसे रह सकता है ? जिस प्रकार देह य इन्द्रियॉ जब आप ही अपने स्वरूपसे लय होते हैं वय वे सस्कारोके आधारभूत नहीं रहते, इसी प्रकार अन्तःकरण भी लयस्वरूप होनेसे
और गुणोंका कार्य होनेसे संस्कारोका आधारभूत नहीं हो सकता। यद्यपि इसमे संस्कारोका उद्बोध होता है, तथापि संस्कारोका आश्रय तो यह कारणरूप-प्राज्ञ ही होगा जिसमें अन्तःकरणका लय होता है।
वह प्राज्ञ ही जब अपने निजालय-हृदयाकाशसे निकलकर नेत्रोमे अपना श्रासन लगाता है, तब वही अपनेमेसे अन्तःकरण और इन्द्रियादि-त्रिपुटी निकालकर जाग्रत्-अपञ्चको देखता है और 'विश्व' नामसे पुकारा जाता है । जब यहाँसे उपराम हो कण्ठगत हितानामा नाड़ीमें प्रवेश करता है, तब जाप्रत्-प्रपञ्च व निपुटीको अपनेमे लय कर स्वप्न-त्रिपुटीको अपनेमेसे निकालता है और स्वप्न-प्रपञ्चको देखता है तथा 'तेजस' नामसे कथन किया जाता है, वास्तवमे इन सबका अनुभव-कर्ता वह एक ही है। और वही सुषुप्तिमे दोनो अवस्थाओंके संस्कारोको, अनुभवके साधन अन्तःकरण-इन्द्रियादिको तथा उन अवस्थाओके श्योंको अपनेमें लय करके हृदयाकाशमें निजस्वरूपसे स्थित रहता है।
इन्द्रियादि-प्रमाणद्वारा जिस वस्तुका मन हो वह 'प्रमेय' कहलाता है।
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आत्मविलास]
[१२ द्वि० खण्ड जैसे नटवा एक स्वाँग अपने अन्दरसे निकालकर लाता है और उस स्वॉगको अपनेमे लय कर दूसरे स्वाँगमें प्रकट होता है तथा जव अपना खेल कर चुकता है तब सव स्त्राँगोको अपनेमे लय कर अपने स्वस्वरूपमे स्थित रहता है।
जाग्रत्मे स्वप्नकी स्मृति होनेका कारण यह है कि जाग्रतअवस्थामे वह प्राज्ञ सत्त्वगुणसम्पन्न होता है, जिससे जाग्रत्अवस्थाके ज्ञान व व्यवहार टिकाऊ प्रतीत होते हैं और अवस्था टिकाऊ होनेसे संस्कारोका उद्बोध भी होता है। परन्तु स्वप्नअवस्थामें वह प्राज्ञ रजोगुण करके आच्छादित रहता है, इसीलिये उस कालमें अवस्था बड़ी चञ्चल रहती है और उस चम्बल दशामें अन्य अवस्थाके संस्कारोंका उद्बोध असम्भव हो जाता है । जैसे तीव्र वेगसे वहते हुए जलमे जलके अन्तःस्थित मृत्तिका के परमाणुओको यदि बालोडन किया जाय तो वे जलके ऊपर श्राकर स्थिर रूपमे नहीं रह सकते, तत्काल बह जाते हैं, परन्तु स्थिर तालजलमें परमाणु ऊपर आकर कुछ कालके लिये टिके हुए रहते हैं। इसी प्रकार स्वप्न अवस्था चञ्चल होनेसे उसमें संस्कारोका उद्बोध नहीं होता, उद्वोध भी हो तो स्थिरता नहीं होती, परन्तु जाग्रत् अवस्थामे सत्त्वगुणकी प्रधानतासे संस्कारो का उदबोध व स्थिरता दोनो होते हैं।
(४६) इम प्रकार जाग्रत्मे स्वप्नकी स्मृति होनेसे जाग्रत्को स्वप्नके प्रति कारणता किसी प्रकार सिद्ध नहीं होती, क्योकि स्वप्न का अनुभव कर्ता जाग्रत् अन्त'करण नहीं पाया गया, किन्तु जाग्रत् व स्वप्न दोनों ही इस प्राज्ञके खेलनेकी रङ्गभूमियाँ जानी गई। एक रङ्गभूमिमें बैठकर उसने देखा और दूसरीमें आकर स्मृति की, तो इससे उन भूमियोमे कारण-कार्यता नहीं हो सकती, किन्तु कारणरूप तो वह खेल करनेवाला ही हो सकता है। तथा
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१८३]
[साधारण धर्म जाग्रत्के संस्कारोसे यदि स्वप्नमे कोई पदार्थ जाग्रत् जैसे देखे गये तो भी जाग्रत्को कारणता सिद्ध नहीं होती, क्योकि जाग्रत्-अबस्था भी उस प्राजके खेलनेकी एक भूमि ही है। जाग्रतके सादृश्य कोई पदार्थ स्वप्नमें देखे भी गये, तो भी इसीसे जाग्रत्भूमि कारणरूप नहीं हो जाती, बल्कि कारणरूप तो वह अनुभव कर्ता प्राज्ञ ही हो सकता है। इसके इलावा पूर्वपक्षीने जो स्वश्मे जाग्रतपदार्थों की प्रत्यभिज्ञाकी शङ्का की, सो तो सर्वथा निर्मूल ही है, क्योकि जाग्रत्मे जिन पुरुपोको देखा वही पुरुप यदि स्वप्नमे आते तो प्रत्यभिज्ञा हो सकती थी। परन्तु स्वप्नसे जागकर जाग्रत्मे उन्हीं पुरुषोसे स्वप्नके लेत-देत व्यवहारकी चर्चा करे तो कोई भी अपनी कुछ भी साक्षी नहीं देता। इसलिये उस समय प्रत्यभिज्ञा. प्रत्यक्ष नहीं, किन्तु प्रत्यभिज्ञा-भ्रम होता है और जाग्रत्-पदार्थोके सादृश्य अन्य पदार्थाकी उत्पत्ति होती है। सारांश, जाग्रत्मे स्वप्नकी स्मृति होनेसे, अथवा स्वप्नमे जाग्रत्के सादृश्य पदार्थोकी प्रतीति होनेसे जाग्रत्को स्वप्नके प्रति कारणता प्रसिद्ध है। किन्तु यह दोनो ही कार्य है और इन दोनोका कारण वह प्रान ही है। जाग्रत् व स्वप्न दोनोमें परस्पर कारण-कार्यभाव मिथ्या है, क्योंकि जाग्रत्में स्वप्न-अन्तःकरण नहीं और स्वप्नमे जाग्रत्-अन्तःकरण नहीं; फिर उनका कारण-कार्यभाव कैसे हो?
(५०) वास्तवमे बात तो है कि स्वापसे जागकर जब हम जाग्रत्मे आते हैं, तब वर्तमान-जाग्रत्के पदार्थ वही कदापि नहीं हो सकते जो कि पूर्व-जाग्रत्मे थे, किन्तु पूर्व-जावतके मजातीय अन्य ही पदार्थ वर्तमान-जाग्रन्में होते हैं। क्योकि देश, काल व वस्तु अन्योऽन्याश्रयरूप होनेसे व ज्ञान-समकालीन होनेसे उनमे स्थिरता कदाचित होती नहीं है. इसलिये वही ये पदार्थ कदाचित नहीं रह सकते, परन्तु उन पूर्व-जामतके सजातीय वर्तमान
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[ १८४
आत्मविलास 1 द्वि० खराड
पदार्थों में प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षका भ्रम हो जाता है कि वही ये पदार्थ हैं जो पूर्व जाग्रत्मे थे । वास्तवमे तो सब ही प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्ष भ्रमरूप ही हैं, परन्तु निरन्तर प्रतिदिन भ्रमको दृढ़ता करके कि 'वही ये पदार्थ हैं, वही ये पदार्थ हैं, इस प्रत्यभिज्ञा-भ्रममें ही सत्यत्वबुद्धि स्थिर हो जाती है। इसका रहस्य यह है :
अज्ञानद्वारा मिध्या जायतअनुभव में सत्यबुद्धि धारकर जब हम अन्य अवस्थामे जाते हैं, तब उन अनुभवजन्य संस्कारोको सत्यरूपसे ग्रहण करके अपने अन्तर ले जाते हैं । उस अवस्थासे उठनेके उपरान्त उत्तर- जाग्रत्में फिर वे ही संस्कार उद्बुध होकर उन पूर्व पदार्थोंके सजातीय अन्य पदार्थ सम्मुख खड़े कर देते हैं, क्योकि संस्कार ही उन पदार्थोके हेतु हैं। अधिष्ठानरूप परमात्मा तो सम व चेतन है और सर्वसाक्षी है, इसलिये जैसा - जैसा संस्कारोका उद्बोध होता है, वैसी वैसी ही प्रतीति वह अपने आश्रय करा देता है । जैसे जब-जब दर्पण में हम अपना मुख देखते हैं तब-तब उसमे सजातीय मुख ही प्रतीत होता है, परन्तु ' दर्प के अज्ञान से पूर्व संस्कारोंके आवेशमे श्राकर सजातीय मुख मे तत्ता-भ्रम हो जाता है कि यही यह मुख है जो कल देखा था । तैसे ही अधिष्ठान चेतन के अज्ञानसे पूर्व संस्कारोके आवेशमे सजातीय जाग्रतमे जीवको सत्ताका भ्रम हो जाता है कि वही यह जाग्रत्-प्रपञ्च है जो कल देखा था, क्योकि जैसा जैसा उस afragran ear संकल्प होता है तथा जैसा जैसा संस्कारोका उद्बोध होता है, वैसा-वैसा ही सिद्ध होता है। इस रीविसे अनुभबमे सत्यत्वबुद्धिसे संस्कारोंमे सत्यता और संस्कारोमे सत्यत्वसे अनुभवमें सत्यताफा प्रवाह चत पड़ता है। इस प्रकार अनुभवजन्य उदद्बुध-संस्कार मिथ्या पदार्थोंमे सत्यबुद्धि और भी कराते चले जाते हैं । प्रकृतिमें यदि संस्कारोंका उद्बोध
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१८५]
[ साधारण धर्म
न होता तो पदार्थोंमे सत्यता-प्रतीति ही न होती, परन्तु संस्कारों के उद्बोध करके ही 'वही ये पदार्थ है' ऐसा सजातीय वस्तुओं मे प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षका भ्रम होता रहता है। इससे स्पष्ट हुआ कि सजातीय वस्तुओं में प्रत्यभिज्ञा- प्रत्यक्षका भ्रम ही जीवके श्रहंममत्व रूपसे वन्धनका मूल है। यदि श्रहन्ता ममता के विषय सजातीय पदार्थमै प्रत्यभिज्ञा-भ्रम न होता तो जीवके लिये कदापि कोई बन्धन ही नहीं था ।
(५१) इस प्रकार जामत्-प्रपञ्चमे सत्यताकी भ्रान्ति दृढ़ हो जानेसे इसके विपरीत स्वप्न-प्रपञ्च में भ्रमत्व-निश्चय स्वाभाविक हो जाता है। भ्रमत्व-निश्चयके कारण ही स्वप्नके अनुभवजन्य संस्कार दृढ़ व स्थिर नहीं रहते और इसीसे न पुण्य-पापके जनक ही होते हैं। इसी कारण स्वप्नसे जागकर स्वप्नकी स्मृति कुछ कालके लिये तो रहती है फिर विस्मृत हो जाती है। जिस प्रकार बाल्याबस्थासे लेकर वृद्धावस्थापर्यन्त प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवनकी चेष्टाओंकी स्मृति ज्यूँ-की-त्यूँ रहती है, उसी प्रकार ऐसा मनुष्य कोई नहीं जो एक मासके स्वप्नोकी भी स्मृति रखता हो ।
(५२) इस रीति से जाग्रत व स्वप्नमें कोई भेद नही है। जिस प्रकार स्वप्रके कर्ता-भोक्ता व भोग्य मिथ्या हैं और इस जीवके स्वरूपमें कोई विकार नहीं करते, उसी प्रकार जाग्रत्के कर्ता-भोक्ता, भोग्य व पुण्य-पापादि अत्यन्त सत्य है । परन्तु केवल उन सृजातीय वस्तुओंमें प्रत्यभिज्ञात्व-भ्रम करके कि 'वही मैं हूँ और वही ये पदार्थ हैं' असत्यमें सत्य-बुद्धिके कारण ही यह जीव कर्तृत्व- भोक्तृत्व के बन्धनमें बन्धायमान हो जाता है और मिथ्या कर्तृत्व-अभिमान करके मिध्या कर्म संस्कारो से बँधा हुआ आप
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आत्मविलास ]
[१६ द्वि० खण्ड ही 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्' के चक्रमे पड़ जाता है। आप ही संसारको अपने अन्दरसे निकाला परन्तु इसको न जानकर कि यह संसार मेरा ही चमत्कार है, अपने अज्ञानद्वारा आप ही इसमे भेदबुद्धि की तथा उस भेद-बुद्धि के प्रभावसे अनुकूल प्रतिकूल ज्ञानद्वारा राग-द्वेप व पुण्य-पापके चक्रमे भ्रमने लगा जैसे मकड़ी आप ही अपने अन्दरसे जाला निकालकर श्राप ही उसमें फंस मरती है। धन्य है ! इस मायाको विचित्रताको जिसने बाजीगरके बन्दरकी भाँति अजर-अमरको जरा-मरणके कल्पित-बन्धनमे वाँध लिया। जाग्रत् व स्वप्नमें भेद तो तब हो जब कि जामत् प्रपञ्च कुछ बाहर धना हो; परन्तु वस्तुत: बाह्य कुछ भी नहीं है, केवल फलोन्मुख सूक्ष्म-संस्कार ही साक्षी-चेतनकी सत्तासे स्थूलाकारमें वाय प्रतीत होते हैं। जैसे सिनेमाके खेलमें फिल्मके ऊपर अङ्कित सूक्ष्म आकार, विद्युतकी सत्तासे बाहर पड़देपर स्थूलरूपमें बिना हुए ही प्रतीत होते हैं तथा जैसे स्वप्न-अपश्च अपने संस्कारोंके अनुसार अन्तःस्थित ही अपनेसे भिन्न बाह्य प्रतीत होता है। सारांश, जाग्रत् व स्वप्नमें कोई भेद नहीं है,यह जीवात्मा श्राप ही अपनी कल्पित अविद्यासे बन्धायमान हुआ श्राप ही जामत्-स्वप्न प्रपश्चकी रचना करता है
और अपने अज्ञान करके इनमें सत्य-असत्यकी कल्पना करता है तथा अपनेसे भिन्न जान असत्यमे सत्यबुद्धि करके मिथ्या कर्तृत्वाभिमानद्वारा अपनी प्रकृतिसे बंधा हुआ जन्म-मरणके प्रवाहमें थहा चला जाता है। परन्तु जब सद्गुरु व सच्छाखकपा और अपने पुरुषार्थद्वारा अपने वास्तविक स्वरूपका साक्षात्कार कर लेता है, तब अविद्याके बन्धनसे मुक्त हुआ ज्यूं-का-त्यू शिवस्व. रूप ही रहता है और आकाशके समान अपनेमें किसी प्रकार कोई लेप नहीं देखता।
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१८७]
[ साधारण धर्म (५३) इस प्रकार यह जीव वस्तुत: शिवरूप होते हुए भी अज्ञानरूपी मदिराको पान करके मिथ्या पुण्य-पापके आवेशसे वसिष्टमत, वाचस्पतिमत ) आप ही अपने लिये स्वर्ग-नरककी रचना
और एक जीववाद निर। पण तथा उक्त तीनों करता है। यहाँ प्रश्न होता है कि जब मताको परस्पर संगति, J सर्व कर्ता-धर्ता यह आप ही है, तब दुःख की इच्छा तो कोई भी नहीं करता, इसलिये सादि नीच योनियों की प्राप्ति तो किसीको भी नहीं होनी चाहिये । यद्यपि यह सत्य है, तथापि जैसे बड़े-बड़े धनी पुरुप मदिरादिके आवेशमें श्राये हुये न करनेयोग्य भी अपने लिये करना पसन्द करते हैं, उसी प्रकार यह आत्मदेव मिथ्या कर्तृत्वाभिमानद्वारा अनिष्ट कर्मोंके प्रभावसे अपने लिए न करनेयोग्य भी करना पसन्द करता है
और अरुचिकरमे भी रुचि करता है। यह सब हमारी अपनी ही कल्पना नहीं स्वयं भगवान्के वचन इसकी साक्षी देते हैं:
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥
(गी अ. ५. श्लो. १४-१५) अर्थ:-परमेश्वर तो वास्तवमें भूत-प्राणियोंके न कर्तापनको, न कर्मोको और न कर्म-फल-संयोगको ही रचता है, किन्तु परमामाकी साक्षीमें स्वभाव (प्रकृति) ही इन सब व्यापारोंमे वर्त रहा है। सर्वव्यापी परमात्मा तो न किसीके पाप कर्मको ही ग्रहण करता है और न शुभ कर्मको, किन्तु अज्ञानद्वारा वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा ढका हुआ है, इसी अज्ञानसे सर्व जीव मोहित हो रहे है (और कर्ता-कर्तव्यादिके चक्रमें पड़े भ्रमते हैं)। .. :
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आत्मविलास]
[१८ द्वि० सण्ड
इम अज्ञान करके ही जीव अपनको कर्माका कर्ता और भगवान्को फलप्रदाता मानता है । वास्तवमे तो अपने मान करके क्या प्रमाता, क्या प्रमाण, क्या प्रमा और पया देश-कालवस्तुरूप प्रमेय, सर्व प्रपञ्चको स्वप्नवत्त एक मात्र अपने भीतरसे ही निकालता है, इनमे कारण-कार्यभाव कोई नही। परन्तु इम तत्त्वको न जान अपनेसे भिन्न ईश्वारूप व्यक्ति विशेषको म मर्य प्रपञ्चका रचयिता मानता है और मैं और हूँ यह और है। इस भेदबुद्धि करके अनहुए कर्तृत्व-भोक्तृत्व-अभिमानको अपनेमें धार लेता है। प्रकृतिमें यह नियम है कि कर्तृत्व-अभिमानके माथ ही पुण्य-पापका बन्धन होता है, कर्तृत्वाभिमान पाया कि विधिनिषेध व पुण्य-पापका बन्धन उसपर लागू हुना। इस प्रकार अपनी ही रची हुई नीतिसे वधायमान हुआ यह यात्मदेव श्राप ही घटीयन्त्रके समान अध-ऊर्च भटकता फिरता है। सो मायावश भयउ गुसाईं । बध्यो कीर मरकटकी नाई ।।
अर्थात् सो जीवात्मा श्राप हो अपनी मायाके वश होकर इसी प्रकार वन्धायमान हो गया है जैसे +चन्दर और तोता अपने अज्ञान करके आप ही बंध जाते हैं।
+ अन्त करणविशिष्ट चेतनका नाम 'प्रमाता' है।
+ इन्द्रियादि ज्ञानको सामग्रीको 'प्रमाण' कहते हैं, अर्थात प्रमा-शानके साधनको 'प्रमाण' कहते हैं।
न्यवहारिक सत्ताके यथार्थ ज्ञानका नाम 'प्रमा' है। +बन्दर जिस प्रकार अपने अजानसे अन्धायमान होता है, वह प्रखं.पृ.६०, ६१ पर देखो।
- तोतेको चिड़ीमार इस युक्तिसे पकहते हैं कि एक योथे बाँसकी पोरी पारीक रस्सीमें पिरोकर रस्सी के दोनों भाग वृक्षोंसे घाँध देते हैं और पोरीके अपर पुछ रुचिकर चुग्गा रख देते हैं। तोता उसको खानेके लिए जब बाँस की पोरीके ऊपर पैठता है, तब उसके भारसे पोरी धूम जाती है और ऊपरका. भाग नीचेको पा जाता है। तोता तय भय करके पोरीके साथ नीचेको लटक
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[ साधारण धर्म ... (५४) उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि अनुभवसे संस्कार
और संस्कारसे अनुभवकी सत्यताका प्रवाह अज्ञान करके चल पड़ता है और इस सत्यबुद्धिले कर्ता-भोक्तापन तथा कर्ता-भोक्तापनसे सत्यबुद्धि परस्पर दृढ़ होती चली जाती है। इस प्रकार अनहुए कर्तृत्वाभिमान करके इस मिथ्या प्रवाहमे पड़ा हुआ यह जीव तृणके समान भटकता फिरता है, कहीं विनाम नहीं पाता। इस स्थलपर फिर स्वाभाविक ही यह प्रश्न होता है कि मिथ्यामें सत्यबुद्धि हुई तो क्योंकर ? और आप ही अपने गलेमें यह बन्धन डाला गया तो क्योंकर ? इसका रहस्य यह है कि मायाके राज्य में द्रष्टा-जीव (अविद्या विशिष्ट चेतन) ही दृश्यरूप परिणामको प्राप्त होता है, जैसे मृत्तिका ही घटादि परिणामको प्राप्त होती है। आप ही देखनेवाला होता है और आप ही देखे जानेवाला, श्राप ही ज्ञाता होता है और आप ही ज्ञेय । जैसे रज्जुमेअविद्यावृत्ति पाप ही सर्पाकार और श्राप ही ज्ञानाकार परिणामको प्राप्त होती है, अथवा जैसे स्वप्नमें यह जीव आप हो जानाकार व विषयाकार रूपको धारण करता है, अथवा जैसे दर्पणमें वृत्ति श्राप ही मुखाकार व ज्ञानाकार होती है। ठीक, इसी प्रकार यह द्रष्टा-जीव ही जाप्रतमें ज्ञानाकार व विषयाकार परिणामको प्राप्त होता है। अर्थात् यह 'प्राज्ञ' जीव ही 'विश्व' रूपमे परिणत होता है और अपनी दृष्टिमानसे अन्तःकरणको प्रमाता और इन्द्रियों को प्रमाणता का प्रमाणपत्र देता है। सूर्यको प्रकाश, चन्द्रमाको शीतलता, अग्निको उष्णता और जलको द्रवता प्रदान करता है । आकाशमें शून्यता, वायुमें स्पन्दता, पृथ्वी व पहाड़ोमें जड़ता सिद्ध करनेवाला यह श्राप ही है । रूपोंको सौन्दर्य, फूलोंको सुगन्ध, • जाता है, अपने पोंसे श्राप ही पोरीको पकड़ लेता है और जानता है कि
मुझे किसीने पकड़ लिया है। इतनेमें चिड़ीमार आकर उसको पकड़ ही लेता है।
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श्रामविलास 1
[१६० वि० खण्ड शब्दो व रसोंको माधुर्य और स्पशोंको कोमल आप ही बनाता है। रेलोको सरसर, जहाजोंको झर-झर और तारोको फर-फर
आप ही उड़ाता है। बुल्बुलोंमें चहचहाट,सिंहोंमें दहाड़, हाथियो में चिंहाड़ देने-दिलानेवाला भी यह आप ही है। इस प्रकार अपनी दृष्टिमानसे सवको सब कुछ लुटा देनेवाला तो यह आप ही है, परन्तु अपने अज्ञान करके आप ही अपनी दृष्टिपर मोहित हो गया। शोक । महाशोक !!
तेरी ही तेग तुझे दे गई चिरका कातिल ।
हो गया तू अपनी ही आपदा पे बिस्मिल ।। आया तो था इन सब रूपोंमें 'सोऽहं' 'सोऽह' का गीत गाने, परन्तु अज्ञानके नशेमें अपने आपको भूल 'कोऽहं 'कोऽहं का स्यापा करने लग पड़ा। जो कुछ देखता है वह सब श्राप ही बना है, परन्तु उस सब दृश्यको अपनेसे भिन्न जान विस्मयको प्राप्त होता है।
आइना मुनाविले रुख जोरखा, मट बोल उठा यूँ अक्स उसका । क्यों देखके हैरान यार हुआ ' तुम और नहीं हम और नहीं । ___इस प्रकार जब अपने जाग्रत् व स्वपके स्यापेसे थक पड़ता है, तव अपने निजालय सुपुप्तिमे आप ही अपनी सब दृष्टियो व दृश्योंको लयकर अपने-श्रापमें विश्राम करता है। यही प्रकृतिकी साम्यावस्था है जिससे विषमरूप त्रिगुणमय संसार निकल पड़ता है । यही मुलाज्ञान है, यही कारण-शरीर है, जिससे स्थूलसूक्ष्म प्रपञ्चकी उत्पत्ति होती है। वास्तवमे तो यह प्राज्ञ चेतनस्वरूप साक्षी ही है, परन्तु अविद्यमान अवियाके सम्बन्ध करके साक्ष्यरूप परिच्छिन्न-अहङ्कारमें श्राप ही आत्मबुद्धि करने लगा
* दर्पण। । सम्मुख । मुंह। प्रतिबिन्न ।
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१६१]
[ साधारण धर्म और इसको सत्य जानने लगा। चूंकि आप ही 'अहं' से 'त्वं रूप दृश्यमें परिणत होकर आया है, इसलिये कारणरूप परिच्छिन्नअहमें सत्यबुद्धि होनेसे कार्यरूप दृश्यको भी सत्य मानने लगा। दृश्यमें सत्यता कहीं बाहरसे नहीं आई, अपने परिणाम करके दृश्यको सत्यता प्रदान करनेवाला यह श्राप ही है और जब मनोनाश, वासनाक्षय व तत्त्व-विचारद्वारा कल्पित-साक्ष्यरूप परिच्छिन्न-अहंसे निकलकर अपने साक्षी-स्वरूपमे झंडे जमा देवे तव न अहं रहे न त्वं, न पा रहे न दृश्य ।
(५५) अब हम इस सिद्वान्तपर आये हैं कि 'जो कुछ तू देखता है वह तू ही है । भगवान् वसिष्ठ हमारे इस सिद्धान्तकी सत्यतामें मुक्तकण्ठसे अपनी साक्षी देते हैं और अपने ग्रन्थ योगवासिष्ठमें स्थान-स्थानपर पुकारकर कहते हैं :___ "हे राम ! पृथ्वीके परमाणु असंख्य हैं। उन परमाणुवोकी संख्या चाहे कोई कर भी लेवे, परन्तु सृष्टियोकी संख्या करनेमें कोई समर्थ नहीं । जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है, नितने जीव है उतनी ही सृष्टियाँ हैं। अनन्त-चेतनका ऐसा कोई अणु नहीं जहाँ सृष्टि न हो । जैसे जहॉ जल है वहाँ तरङ्ग भी है, तरङ्गायमान होना जलका स्वभाव है, तैसे ही चेतनके आश्रय सृष्टिरूप तरंगे स्वाभाविक फुरती है। परन्तु जैसे जलसे भिन्न तरङ्गका और कोई रूप नहीं है, अपनी फुरना ही भ्रम करके तरङ्गरूप हो भासती है, तैसे ही आत्मासे भिन्न सृष्टिका और कोई रूप नहीं है । अपनी फुरना ही अज्ञान करके संसाररूप हो भासती है, वास्तवमे सृष्टिरूप संसार कुछ उपजा नहीं ।"
(५६) वाचस्पति-भित्र भी हमारे इसी सिद्धान्तकी साक्षी देते हैं। उनका मत है कि जितने जीव है उतने ही ब्रह्माण्ड हैं 'और उतने ही ईश्वर हैं। आशय यह है कि ब्रह्माण्ड-रचना जीव
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आत्मविलास
द्वि० खण्ड की अपनी कल्पना है। वह आप ही ब्रह्माण्डकी कल्पना करता हुश्रा, इसको न जानकर कि यह सब मेरा ही खेल है, अपनेसे भिन्न किसी व्यक्तिविशेष अन्य देवको इसका रचयिता जानता है।
विवरणकारका मत है कि जैसे दर्पणके सन्निधानसे मुखका प्रतिबिम्ब दर्पणमें प्रतीत होता है और दर्पणस्थ-मुखमें प्रतिबिम्बत्वधर्मकी कल्पना करके ही ग्रीवास्थ मुखमे विन्धत्व-धर्म कल्पना किया जाता है, अर्थात् एक ही मुखमें बिम्बत्व-प्रतिविम्यत्व धर्म की कल्पना दर्पणके सम्बन्धसे है, दर्पणके बिना शुद्ध मुखमें न बिम्पत्व है और न प्रतिबिम्बत्व, केवल ज्यू का-त्यू मुख ही है। इसी प्रकार एक ही चेतनमे जो जीवत्व और ईश्वरत्व-धर्मकी प्रतीति होती है, सो दर्पणस्थानीय अज्ञानकी उपाधिके सन्निधानसे ही है, वस्तुतः जीवत्व व ईश्वरत्व-धर्म दोनो ही मिथ्या हैं। अज्ञानरूप उपाधिके बाध हुए न जीवत्व-धर्म रहता है और न ईश्वरत्व, केवल शुद्ध चेतन अपने-आपमें ज्यू-का-त्य ही शेष रहता है। इस रीतिसे अज्ञानरूप उपाधिके सद्भाव करके अज्ञानदेशमें प्रतिविम्बित चेतन ही अपनेमे जीवत्वकी कल्पना करता हुआ, विम्बरूप-वेतनमें ईश्वरत्वकी कल्पना करता है।
(५७) शङ्का :--तुमने यह तो विचित्र वार्ता कथन की, तुम कहते हो जितने जीव हैं उतने ही ब्रह्माण्ड हैं और जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है। तुम्हारे यह वचन तो किसीके भी अनुभवमे प्रारूद नहीं हो सकते । वर्तमान ब्रह्माण्डमें असंख्य जीव हैं, फिर तुम्हारे कथनके अनुसार तो असंख्य ही ब्रह्माण्डों की प्रतीति होनी चाहिये । परन्तु सभी जीव एक मुख होकर एक ही ब्रह्माण्डको सम्मुख देख रहे हैं। तथा तुम कहते हो 'जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है, यदि ऐसा ही हो तो यह घट जो सम्मुख देशमें रक्खा है और सभी मनुष्य इस एक ही घटकी
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[साधारण-धर्म स्थितिको सिद्ध कर रहे हैं, ऐसा-नहीं होना चाहिए, बल्कि जितने द्रष्टा है-उतने ही घट मिलने चाहिये। इस प्रकार घटके दृष्टान्तसे सभी वस्तुओको जान लेना। :(५८) समाधान :-हमारे ये वचन सर्व साधारण के लिए नहीं हैं। सर्व साधारण इन वचनोके अधिकारी नहीं हो सकते, किन्तु जो साधन इस लेखमें प्रारम्भसे निरूपण किये गये हैं वे भली-भाँति जिनके हृदयमें उतरे हैं, इस प्रकार जिनके अन्तःकरणसे मल-विक्षेप निवृत्त हुए हैं, नो साधन-चतुष्टय-सम्पन्न हैं
और जिनकी वैराग्यवती बुद्धि कुतर्क, दुराग्रह व मन्दतादि दोषी से निर्दोष, होकर तीक्ष्ण हुई है, ऐसे उत्तम अधिकारी ही इन वचनोंके पात्र हो सकते हैं। इन पचनो करके वे शोभायमान होगे और उन करके ये वचन शोभायमान होगे।
'अव देखो, संसारमे 'प्रकृतीनां वैचित्र्यम्' व 'रुचीनां वैचिध्यम् तो प्रसिद्ध है ही, अर्थात् अपनी-अपनी प्रकृति और अपनीअपनी रुचि भिन्न-भिन्न होती है। संसारमे चिउँटीसे लेकर ब्रह्मापर्यन्त वृक्ष, तिर्यक् , मनुष्य, देव, पितर सम्पूर्ण योनियोमे प्रकृति व रुचिको भेदं व्यक्तिगत देखनेमें आता है। अर्थात् तिर्यक्मनुण्यादि सम्पूर्ण योनियोंमें चाहे अपनी-अपनी जातिका भेद न हो, जाति उनकी एक ही हो, तथापि समान जाति रहते हुए भी व्यक्तिगते प्रकृति व रुचिका भेद अवश्य रहना चाहिए, जिससे जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि होना ही प्रमाणित होता है। संसारभरको खोज देखो, ऐसी कोई दो व्यक्ति न मिलेंगी जिनमें आकृति, प्रकृति व रुचिंकी समता देखनेमें श्रावे, किन्तु व्यक्ति आत भेद अवश्य रहना ही चाहिये। * (E) एक जाति रहते हुए प्राकृति वप्रकृतिका भेद उद्भिजयोनिमें भी पाया जाता है। श्राकृतिभेद् तो, स्वाभाविक ही है
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श्रामविलास ]
[ १६४ __द्वि० खण्ड किन्ही भी दो उद्भिजोंका रूप एक जैसा न हुआ है, न होगा। प्रकृति-दृष्टि से भी कोई आम्रफल खट्टा है तो कोई मीठा, कोई घडा कोई छोटा, कोई अधिक उपए कोई सामान्य उष्ण । इस प्रकार सब जातिवाले उद्भिज्जोंमें प्राकृतिक वं प्राकृतिक भेद प्रमाणित हो सकता है । जब कि उन योनियोमें भी, जिनमें केवल अन्नमय कोशका ही विकास है और प्राणमय-मनोमयादि कोशका अभी विकास नहीं हुआ, प्राकृतिक व प्राकृतिक भेद पाया गया, तब जिन योनियोंमें प्राणमयं व मनोमयादि कोश भी विकसित हुऐ हैं, उनमें व्यक्तिगत श्राकृति, प्रकृति व रुचिका भेद हो, इसमें श्राश्चर्य ही क्या है ? अण्डज-योनिवाले कपोत-मयूरादिमें व्यक्तिगत प्रकृति व रुचिका भेद स्पष्टरूपसे प्रमाणित होता है। प्राकृति का भेद तो निर्विवाद है ही, मनुष्य उनके मुण्डके भुएड पालते हैं, उस झुण्डमें देखा जाता है कि किसीमे प्रेमका विकास अधिक होता है, कोई अधिक पालतू होते हैं कोई न्यून । कोई-कोई साधने से ऐसे भी सब जाते हैं, जिनके द्वारा दूतकार्य भली-भाँति लिया जाता है। तोते, मैना श्रादि पक्षियोंमें देखा जाता है कि किसी की प्रकृति स्वभाविक क्रूर होती है और किसीकी शान्त । जरायुज-योनिम जहाँ कुछ बौद्धिक विकास हो पाता है, वहाँ कुत्ते, गौ, अश्वादिम तो प्रकृति व रुचिका व्यक्तिगत भेद स्पष्ट ही है। किसीम कोष, किसीमें शान्ति, किसीमें राग, किसीमे द्वप, किसी में कला-कौशलकी न्यूनता और किसीमें अधिकतास्पष्ट रूपसे पाई जाती है। तथा मनुष्य, देव, पितरादिमें जहाँ बुद्धिका पूर्ण घिकान है. यहाँ तो श्राकृति, प्रकृति व रुचिका भेद निर्विवाद ही है, क्योकि गर्व मेदोके मूलमें निमित्तरूप विकासको प्राप्त हुई ससारी बुद्धि ही है। . (६०) शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध पश्च वियरूप ही
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१५]
[साधारण-धर्म संसार है। पञ्च विषयोको छोड़कर देखें तो संसारको गन्धमान भी नहीं मिलती। इन पञ्च विपयोंमे भी विलक्षणताप्रतीति स्वाभाविक है। सूर्य जो सबके लिए प्रकाशरूप व तेजपुञ्ज है, उलूक
और चमगादड़ आदि पक्षियोके लिए अन्धकारका गोला है । सर्व साधारणके लिये सूर्य सुखदाई है, परन्तु सिंह-व्याघ्रादि व चोरादिके लिये दुःखदाई है। चन्द्रमा जहाँ सबको सुखदाई व शीतल है, वहाँ चकवा-चकवी पक्षीको दुःखदाई और विरही पुरुषों के लिये दाहक है। अग्नि सवकी दृष्टिसे उष्ण स्पर्श है, परन्तु अग्निकीटके लिये शीतल है। निम्ववृक्ष जो सबके लिये कटु है, ऊँट-बकरी के लिये मधुर है। मल-मूत्रादि जो सबके लिये दुर्गन्ध है, वही विष्टाकीट और चाण्डालके लिये दुर्गन्धरहित सिद्ध होता है। जो शब्द एकके लिये प्रिय है वह अन्यके लिये भयङ्कर वन जाता है। सिंहका शब्द सिंहके लिये प्रिय है, परन्तु दूसरोके लिये भयकर। सम्मुख देशमें स्थित घट चिउँटीके प्रत्यक्ष-प्रमाणमें पर्वततुल्य है, परन्तु हाथीके प्रत्यक्ष-प्रमाण अत्यन्त तुच्छ है। इसी प्रकार शब्दभेद, स्पर्शभेद, रूपभेद, रसभेद व गन्धभेद स्पष्ट प्रमाणित होता है।
(६१) यदि सृष्टि एक ही होती तथा किसी एक ही व्यक्ति द्वारा रची गई होती, तो इस प्रकारकी विलक्षणता प्रकट न होनी चाहिये थी । उष्ण वस्तु उष्ण ही रहनी चाहिये थी, शीतल शीतल ही, प्रकाश प्रकाश ही रहना चाहिये था, अन्धकार अन्धकार ही, कटु कटु ही रहना चाहिये था, मिष्ट मिष्ट ही। परन्तु इसके विपरीत जो एकके लिये उष्ण है वह दूसरेके लिये शीतल, जो एक के लिये प्रकाश है वह दूसरेके लिये अन्धकार, जो एकके लिये कटु है वह अन्यके लिये मिष्ट और जो वस्तु एककी दृष्टिमें पर्वत*परिमाण है वह दूसरेको दृष्टिमें तुच्छ-परिमाण । प्रमाज्ञानके
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श्रामविलास द्वि० खण्ड साधन प्रत्यक्ष-अनुमानादि पट प्रमाण ही शास्त्रकारोने अङ्गीकार किये हैं, जिनमे प्रत्यक्ष-प्रमाणको सब शानकारोंने शेष सव प्रमाणोंका राजा अङ्गीकार किया है। अर्थात् प्रत्यक्ष-प्रमाणके बिना अन्य किसी भी प्रमाणकी सिद्धि हो नहीं सकती। परन्तु उपयुक्त रीतिसे श्रौत, चातुष, त्वाच, रासनादि सभी प्रत्यक्ष अनिश्चित हैं। एकके प्रत्यक्ष-प्रमाणमे जो वस्तु जैसी अनुभव हुई, अन्य अपने प्रत्यक्ष-प्रमाणमें ही उसी वस्तुको अन्य रूपसे प्रमा णित करता है। जो एक ही रचयिता एक ही सृष्टि इतनी विचित्र स्वभाव रचना करे, ऐसा रचयिता प्रमादी ही कहा जायगा। इस प्रकार प्रत्येक जातिगत व व्यक्तिगत प्राकृति, प्रकृति व रुचि का भेद तथा द्रव्य व गुणकी विलक्षणता ही जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टिको सिद्ध कर रही है। जो चेष्टा एकके लिये पुण्य है वह दूसरेके लिये पाप और जो एकके लिये पाप है वह दूसरेके लिये पुण्य सिद्ध हो जाती है । कोई धनमे सुख ढूँढ रहा है तो कोई पुत्र-त्रीमें, कोई राज्यमें सुख ढूँढ रहा है तो कोई त्यागमें । इस प्रकार कोई एक वस्तु सबके लिये सुखरूप व दुःख रूप प्रमाणित नहीं होती। कहावत है, किसीको बैंगन भेपज है और किसीको कुपथ्य ! अजी सृष्टिका और तो कोई निमित्त है ही नहीं, केवल अपने-अपने कर्म-संस्कार ही भोगके लिये स्थूल
आकार धारकर सृष्टिके रूपमें प्रकट होते हैं तथा कोंके अनुसार हीप्रकृति और प्रकृति के अनुसार ही कर्म होते हैं । इस प्रकार जब कि जीव-जीवकी प्रकृति भिन्न-भिन्न है और कर्म भिन्न-भिन्न हैं तब सृष्टिकी एकता कैसे सम्भव हो सकती है ?
(६२) एक ही स्त्री पतिके लिये पत्नीरूपसे, पुत्र के लिये मातारूपसे; माताके लिये पुत्रीरूपसे, भाईके लिये भगिनीरूपसे, श्वसुर' के लिये पुत्रवधूरूपसे ग्रहण होती है। एक ही पुरुष पत्नी के लिये
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[ साधारण धेर्म पतिरूपसे, पुत्रके लिये पितारूपसे, माताके लिये पुत्ररूपसे, भाई के लिये भ्रतारूपसे, श्वसुरके लिये जामातारूपसे इत्यादिक अनेक सम्बन्धोंसे एक ही वस्तु ग्रहण होती है। एक ही वस्तुमे भिन्न-भिन्न सम्बन्धोंके भेद, रूपभेद, गुणभेद, व्यवहारभेद, मात्राभेद, अनुकूलता-प्रतिकूलताभेद, पाप-पुण्यभेद, रुचिभेद, राग-द्वेपादिभेद जीव-जीय प्रति अपनी-अपनी सृष्टिको ही स्पष्ट प्रमाणित करते हैं। एक ही स्त्रीके साथ पिताका कुछ व्यवहार है और पतिका कुंछ और, तथा एक ही व्यवहार एक ही वस्तुमें एकके लिये अनु. कून व पुण्यरूप है तो दूसरेके लिये प्रतिकूल व पापरूप । कहाँ तक स्पष्ट किया जाय, इत्यादि वातोसे अपनी-अपनी सृष्टिकी विलक्षणता सिद्ध नहीं होती तो और क्या सिद्ध होता है ? एक ही क्षणमें कोई हस रहा है, कोई गा रहा है, कोई लड़ रहा है, कोई झगड़ रहा है, कोई रो रहा है, कोई सो रहा है, कोई सोच रहा है, कोई खाता है, कोई पीता है, किसीकी दृष्टि किसीसे लड़ी है और किसीकी कहीं अड़ी है । एक ही क्षणमें जव असंख्य भिन्न-भिन्न विलक्षण क्रियाएँ होरही है, फिर सृष्टि एक कैसे हुई ? ' (६३) उपर्यक्त व्याख्यासे कमसे कम अपनी-अपनी मानसिक सृष्टिकी विलक्षणता तो स्पष्ट हो चुकी। अब अधिभौतिकसृष्टिके सम्बन्धमें तुम्हारी यह शङ्का भी कि 'यदि सृष्टि अपनीअपनी होती तो सम्मुख देशमें स्थित एक ही घटकी सबको उपलंधिं न होती, किन्तु जितने द्रष्टा हैं उतने ही घट सम्मुख देशमें मिलने चाहिये सर्वथा निर्मूल है। यदि हमारे मतमें सृष्टिकी उत्पत्ति होती तवं तुम्हारी इस शक्षाका कुछ मूल्य हो सकता था, क्योंकि यदि सृष्टिकी उत्पत्ति अङ्गीकार होती तो जो देश एककी सृष्टिस निरुद्ध है, उसी देशमें अन्यकी सृष्टिको अवकाश नही, मिल सकता था, इसलिये जितने द्रष्टा है उतनेहीघटोंकी उपलब्धि
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[ १६८
श्रात्मविलास - ] द्वि० खण्ड
सम्मुख देशमें असम्भव थी । परन्तु हमारे मतमे तो सृष्टि की उत्पत्तिका अङ्गीकार ही नहीं, उत्पत्तिस्वरूप सृष्टि नहीं किन्तु प्रतीतिमात्र ही सृष्टि है। अर्थात् किसी श्रारम्भ परिणाम करके सृष्टिकी उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु दृष्टिमात्र ही सृष्टि होती है । इस प्रकार सम्मुख देशमें स्थित जो घट है वह उत्पन्न नहीं हुआ, वल्कि द्रष्टा-पुरुपों की अपनी-अपनी दृष्टि ही घटाकार हो रही है और स्वप्नवत् उनकी अपनी दृष्टिमात्र ही घट है। क्योंकि पाचभौतिक सर्व सृष्टियाँ देश-काल- वस्तुपरिच्छेद्य हैं और जैसा पीछे अङ्क ६ से २६ में निरूपण किया गया है, इन त्रिविध-परिच्छेदों की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हुई, किन्तु ये प्रतीत्तिमात्र ही पाये गये । इसीलिये सम्मुख देशमें स्थित जो घट है वह उत्पन्न नही हुआ, किन्तु अपनी-अपनी सृष्टिमें दृष्टिमात्र ही घट जाना गया। और यह नियम है कि एककी दृष्टिका दूसरेकी दृष्टिसे कोई विरोध नही होता; जैसे दस पुरुष किसी एक ही स्थानमे सोये हुए हों और अपने-अपने स्वप्न विरोधी स्वभावकी भिन्न-भिन्न एष्टियाँ र रहे हों, तो एककी सृष्टि दूसरेकी सृष्टिका न देश निरोध करती है. और विरोध ही करती है, क्योंकि वह दृष्टिमात्र ही सृष्टि है । एक की सृष्टिमें प्रचण्ड अग्नि लग रही हो, दूसरेकी सृष्टिमे प्रचण्ड पवन चल रहा हो और तीसरेकी सृष्टिमें प्रलय कालका जल उमड रहा हो, तो एक सृष्टिकी वायु दूसरी सृष्टिकी अनिका न सहायक है और न तीसरी सृष्टिका जल उस अग्निका बाधक । अपनी दृष्टि तो अपने लिये बाधक है। हमारी दृष्टिमें जो देश घट से निरुद्ध है उसी देशमे हमारी दृष्टिके लोष्ठादिके लिये अवकाश नही है, परन्तु हमारी दृष्टि दूसरेकी दृष्टिको बाधक नहीं हो सकती इस रीति से चूँकि उत्पत्तिस्वरुप घट नहीं केवल दृष्टिमात्र ही घट है, इसलिये एककी घटाकार -दृष्टि दूसरेकी घटाकार-दृष्टि अथवा
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१६६]
[ साधारण धर्म अन्याकार-दृष्टिका किसी भी रूपसे प्रतिवन्धक नहीं हो सकती। जिस प्रकार सूर्यमें सब प्राणियोंकी प्रकाशमय-दृष्टि उलूककी अन्धकारमय-दृष्टिका विरोध नहीं करती। इस प्रकार सम्मुख देशमें अनेक घट अनुपलब्धिकी शङ्का सर्वथा निर्मल है और सिद्धान्तको न जान करके ही है। जितने द्रष्टा हैं उतने ही घटो का सम्मुख देशमें सम्भव है और प्रत्येक द्रष्टाकी अपनी दृष्टिमें श्राभासंरूप ही घट है, आभासरूप होनेसे वे सब घट परस्पर देशका निरोध नहीं कर सकते।
(६४) अथवा जैसे किसी विशाल दर्पणमे पर्वतादिका प्रतिविन्ध पड़ रहा हो तो दर्पणमे पर्वतादिक उत्पन्न नहीं होते, अधिधानरूप दर्पणमें केवल देखनेवालोंकी अपनी-अपनी दृष्टिमात्र ही पर्वतादिक होते हैं। जितने मनुष्य उन पर्वतादिक प्रतिविम्योंके 'द्रष्टा है, अधिष्टानरूप दर्पणमें उतने ही पर्वतादिककी उपलब्धिकी
आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि अधिष्ठान-दर्पणके आश्रय "अपनी-अपनी दृष्टिमें ही उनकी स्थिति है, वास्तवमें तो दर्पणमें
एक भी पर्वतादि नहीं, हुए ही नहीं और हैं ही नहीं। तैसे ही 'चेतनरूपी महान आदर्शमे घट-पटादि पदाथोंका आभास होता है, सो देखनेवालोंका अपना-अपना संकल्प ही घट-पटादिरूप होकर चेतनके श्राश्नय फुरता है। चेतनमे घट-पटादिकी उत्पत्तिरूप सृष्टि नहीं, किन्तु दृष्टिमात्र ही सृष्टि है और क्या द्रष्टा व क्या घश्य सव आमासमात्र ही हैं और सब दृश्य ही हैं। इस प्रकार जितने जीव हैं उतने ही ब्रह्माण्ड प्रतीत होने चाहिये और जितने द्रष्टा हैं उतने ही घट-पटादिकी उपलब्धि होनी चाहिये, यह आपत्ति तत्वके अज्ञान करके ही है। वास्तवमें तो एक भी ब्रह्माण्ड वा एक भी घट-पदादिकी उत्पत्ति नहीं हुई, किन्तु द्रष्टाओं की अपनी-अपनी संकल्पहप राष्टियोंमें ही पदार्थों की पुष्टि होती
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श्रामविलास ]
[२०० द्वि० खण्ड है। इस रीतिसे जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि भी सिद्ध हो जाती है और 'जितने द्रष्टा हैं उतने ही ब्रह्माण्डोकी उपलब्धि होनी चाहिये' यह आपत्ति भी नहीं रहती, क्योकि सभी उत्पत्ति, सभी स्थिति और सभी लयादिरूप द्रव्य, गुण व किया दृष्टिमात्र ही है।
(६५) शङ्का:-तुम्हारे इस विवेचनसे जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि क्या मानसिक व क्या पाश्चभौतिक तो भलीभाँति प्रमाणित हुई । परन्तु जीव भी तो असंख्य हैं और अपनीअपनी सृष्टिके स्रष्टा हैं। तथा जो स्रष्टा है वह सृष्ट नहीं होना चाहिये । इसलिए अनेक स्रष्टा-जीव स्वस्वरूपसे ही रहे, फिर इस अनेकतामे एकताका आनन्द कहाँ। इस प्रकार जब असंख्य स्रष्टा-जीव प्राकृतिक रूपसे ही रहे, तब चेतनमे तो खलबली ज्यूकी-त्यू ही रही, 'आत्मा नित्य मुक्त है। इसका सुस्वाद तो प्राप्त न हुयी।
(६६) समाधान :-वेदान्त-सिद्धान्त-मुक्तावलीका मत है कि मुख्य जीव एक ही है, अन्य सब जीव जीवाभास है, मुख्य नहीं। जैसे स्वप्नमें मुख्य एक ही जीव होता है अन्य सब स्वप्न-जीव जीवाभाम होते हैं । उस एक मुख्य-जीवके सकल्पमें ही सम्पूर्ण स्वप्न-प्रपञ्च होता है और उसके जाग्रत् होनेपर सम्पूर्ण स्वाम-संसार का अत्यन्ताभाव हो जाता है। इसी प्रकार इस जाग्रत्-प्रपञ्चकी स्थिति भी एक मुख्य-जीवके संकल्पमे ही है। वह आप ही तत्त दूप हुश्रा अपने आपको स्वप्नवत् नानारूप देखता है और अपुरे अंज्ञानसे वन्ध-मोक्ष, गुरु-शास्त्र व स्वर्ग-नरकादिकी कल्पना करत है। उसकी ज्ञान-जागृति व मुक्ति होनेपर अखिल संसारका मोक्ष हो जाता है । इस मतमें ऐसी शङ्का उत्पन्न होती है :- . . : 'यदि मुख्य एक ही जीव माना जाय तो, शुक्-वामदेवादिक
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[साधारण धर्म अभी मोक्ष नहीं होना चाहिये और आजतक किसीकी भी मुक्ति न होनी चाहिये । इसमे तो शुकादिका मोक्ष-प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र-वचन भी अमंगत हो जाएंगे तथा मोक्षनिमित्त जीवोंका पुरुषार्थ भी निष्फल ही रहेगा। क्योंकि मुख्य-जीवका मोक्ष हुए बिना तो किसी की भी मुक्ति असम्भव ही है और जब उसकी मुक्ति होगी तब स्वतः ही दूसरोका मोक्ष हो जायगा। संसार अभी विद्यमान है ही, इससे सिद्ध होता है कि मुख्य-जीव अभी मुक्त नहीं हुआ तथा शुकादि किसीकी भी मुक्ति नहीं हुई।
यद्यपि ऐसी शङ्काका सम्भव है, तथापि अब हमको इस विषयकी खोज करनी चाहिये कि वह मुख्य-जीव कौन है ? इसका निर्णय होनेपर ये सभी शङ्काएँ निवृत्त हो सकती है।
(६७) 'मुख्य एक जीव है। इस वचनका तात्पर्य किसी एक जीवको अमुकत्व रूपसे मुख्य-जीव निर्देश करनेमे नहीं है । किन्तु इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक द्रवा-जीव अपनी-अपनी दृष्टिमे अपनी-अपनी सृष्टिका मुख्य-जीव है और अन्य दृश्य-जीव जीवाभास हैं । परन्तु वह द्रष्टा-जीव अपने अज्ञान करके जीवाभासोमे भी अपने ममान मुख्य-जीबोकी कल्पना करता है और ज्ञानसे पूर्व उन जीवाभासोमेसे किसी-किसीको मुक्त मानता हुआ दुसरो मे अपने समान बद्धकी कल्पना करता है तथा अपने और दूसरो के मोक्षमे संशय करता है कि यह भी मेरे समान द्रष्टा-जीव ही है
और अपने-अपने कर्मों करके बंधे हुए हैं। यह सव अज्ञानकी महिमा है, ज्ञान हुए पीछे निश्चय करता है कि मुझ साक्षीसे भिन्न न कुछ था, न है और न होगा। जैसे देवदत्तकी सृष्टिमे देवदत्त मुख्य-जीव है और यज्ञदत्त-सोमदनादि जीवाभास हैं, यज्ञदत्तकी सृष्टिमे यज्ञदत्त मुख्य-जीव है, देवदत्त-सोमदत्तादि जीवाभास हैं तथा सोमदत्तकी सृष्टिमे सोमदत्त मुख्य-जीव है, यज्ञदत्त देवदत्तादि
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श्रात्मविलास]
[२०२ द्वि० खण्ड जीवाभास है । यद्यपि इनमेसे प्रत्येक अपनी-अपनी सृष्टिके मुख्यजीव हैं और अन्य दृश्य-जीव जीवाभास हैं, परन्तु अज्ञानकी दृढ़ता करके अन्य जीवाभासोंमे भी वे वे मुख्य-जीवोकी कल्पना फरते है और उनका भी अपने समान बद्ध देखते हैं। परन्तु इनमें से जब-जब जिस-जिमका अज्ञान ज्ञानद्वारा वाधित होकर साक्षीचेतनसे अभेद हो जाता है, उस-उसकी दृष्टिमे अज्ञान, जीर, जगत् और ईश्वरका अत्यन्ताभाव सिद्ध हो जाता है और वह निश्चय करता है कि अहं-त्वं रूपसे कदाचित् कुछ बना ही नहीं था, यह सब मेरी ही कल्पना थी।
(६८) इस रीतिसे देवदत्त, यज्ञदत्त, सोमदत्तादिमेसे प्रत्येक दूसरेकी दृष्टिरूप सृष्टि में तो आभासरूपजीव है ही, केवल अपनीअपनी सृष्टि में ही वे मुख्य-जीव होते है, सो मुख्यता अज्ञानकल्पित है, वास्तवमे तो सभी आभासरूप है। इनमेंसे जिस-जिसकी अज्ञानरूप उपाधि निवृत्त हुई, उस-उसका साक्षी-चेतनसे अभेद हुआ। अभेद कोई बनाना नहीं था, अभेद तो स्वतःसिद्ध था, केवल अज्ञानकी उपाधि करके ही सोपाधिक भेद बन रहा था
और जब कल्पित-उपाधिकी निवृत्ति हुई तो न कोई मुख्य-जीव रहा और न जीवाभास रहे। इस रीतिसे द्रष्टा-जीवकी सृष्टिमें शुक्र-वामदेवादि जीवाभासोंका मोक्ष सम्भव है, अपने समान
*माया-विशिष्टचेतन, जो अपनी मायाद्वारा सृष्टिकी रचना करता है, 'ईश्वर' कहाता है । जबतक सृष्टिकी उत्पत्ति-स्थितिमें सद्बुद्धि रहती है, तब तक उसके रचयिता ईश्वरमें भी सद्बुद्धि बनी रहती है। परन्तु ज्ञानद्वारा सृष्टिका त्रिकालाभाव सिद्ध हो जानेपर कार्यके अभावसे ईश्वरसना भी वावित हो जाती है और शुद्ध चेतन ही शेष रह जाता है। क्योंकि मायाके सम्बन्ध करके ही माया-दृष्टि करके उसमें ईश्वरता कली हुई थी, सो माया । शानद्वारा बाधित हो चुकी ।
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२०३]
[ साधारण धर्म अन्य जीवाभासोका बन्ध सम्भव है, मोक्षप्रतिपादक शास्त्र सफल हैं और मोक्षनिमित्त पुरुषार्थ भी सफल है। अपने पुरुषार्थद्वारा इस द्रष्टा-जीवके ज्ञान प्राप्त कर लेनेपर सब संसारकी मुक्ति निर्भर है और बद्ध-मुक्तकी सव कल्पनाएँ असत्य हो जाती हैं। प्रश्नकर्ताके इस प्रश्नका कि 'मुख्य-जीव कौन है ?? स्पष्ट उत्तर यही है कि 'वह मुख्य-जीव तू ही है और नेरे ही मोजसे संसारकी मुक्ति है। वस्तुतः तो संसारका त्रिकालाभाव है, परन्तु तूने ही अपने संकल्पसे ससारको खड़ा किया हुआ है। तू ही अपने अज्ञानस्वप्नमें संसारकी रचना कर रहा है, तेरी ज्ञानजागृति हुई कि संसार तो पहले ही नित्य-निवृत्त है, संसारकी उत्पत्तिका तो सम्भव है ही नहीं।'
(६) योगवासिष्ठ भापा, निर्वाण प्रकरण, उत्तरार्द्ध सर्ग १८३ में भगवान् वसिष्ठ इसी आशयको यू पष्ट करते हैं :___ "हे रामजी! जीवोको औरकी सृष्टिका ज्ञान नहीं होता, अपनी ही सृष्टिको जानते और देखते हैं, क्योकि संकल्प भिन्न-भिन्न है। कितनोंके (अज्ञान) स्वपमें हम स्वप्न-नर (जीवाभास) हैं और कितने हमारे (अज्ञानरूपी) स्वप्नमें स्वप्न-नर (जीवाभास) हैं। वे और सृष्टिमें सोये है और हमारी सृष्टि उनको अपने स्वप्नमे भास आई है, तिनके हम स्वप्न-नर (जीवाभास) हैं। और जो हमारी सृष्टिमें सोये है, हमारे स्वप्नमे उनकी और सृष्टि हमको भास आई है, सो हमारे स्वप्न-नर (जीवाभास) हैं। हे रामजी ! इस प्रकार आत्म-तत्त्वके श्राश्रय अनन्त सृष्टियाँ भासती हैं, जो जीव सृष्टि को सत् जानकर विचरते हैं वे मोक्षमार्गसे शन्य हैं।"
(७०) इस स्थलपर पहुँचकर तीनो मतोकी सङ्गति भलीभॉति हो जाती है।
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श्रामविलास]
[२०४ द्वि० खण्ड ___ (१) भगवान् वसिष्ठके मतमे 'जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है।
(२) वाचस्पति मिश्रके मतसे 'जितने जीव हैं, उतने ही ब्रह्माण्ड है और उतने ही ईश्वर हैं।'
(३) एक-जीववादीके मतसे 'मुख्य एक जीव है, अन्य सब जीवाभास हैं।'
उपर्युक्त तीनो मतोंकी संगति इस प्रकार है :(१) वसिष्ठ-मत और वाचस्पति-मतकी संगति तो स्पष्ट ही है।
(अ) जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है। (इ) जितने जीव हैं, उतने ही ब्रह्माण्ड हैं और उतने ही
ईश्वर हैं। इन दोनो मतोंसे तो प्रत्येक जीवकी अपनी-अपनी कल्पित ही ब्रह्माण्डादिकी सृष्टि
सिद्ध होती है। (२) एक-जीववादीका तात्पर्य भी यही है कि दृश्यका द्रष्टा ही मुख्य एक जीव है। द्रष्टा ही अपनी दृष्टिसे दृश्यकी सृष्टि करता है और वे दृश्यरूप जीव ही जीवाभास है तथा प्रत्येक जीव अपनी-अपनी सृष्टिका द्रष्टा-जीव है । जवकि प्रत्येक जीव अपनीअपनी सृष्टिका मुख्य-जीव व द्रष्टा-जीव पाया गया, तब उपर्युक्त मतोके अनुसार जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है अथवा मुख्य एक जीव है, इसमे केवल शन्दोका ही भेद है अर्थका कोई भेद नहीं पाया जाता, क्योकि जीव तथा सृष्टि अवियाकल्पित ही है परमार्थ से नहीं है। अविद्याकी उपाधि निवृत्त होनेपर उस टाकी मुक्ति से दृश्यकी स्वाभाविक मुक्ति हो जाती है, क्योकि अविद्याद्वारा दृश्यका परिणामी-कारण वही था, अर्थात् वह आप ही स्वप्नवत् , श्यके स्वरूपमे परिणामी होकर दृश्यका दृष्टा बन रहा था।
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२०५]
[ साधारण धर्म कारणरूप द्रष्टा ही जब चेतनका विवर्त सिद्ध हुश्रा, तब कार्यरूप दृश्यका अत्यन्ताभाव स्वतःसिद्ध है । इस रीतिसे चेतन नित्यमुक्त है और उसमें किसी भी द्रष्टा, दर्शन व दृश्यका कदाचित् कोई लेप नहीं होता। __इस रीतिसे पवित्र विचारोने हृदयम अपना घर बनाया, उपसंहार } विरोधी विचारोके लिये कोई अवकाश न रहा और अहङ्कारका बेड़ा गरक हो गया। इस प्रकार हमारा आत्मदेव 'त्वमेवाहम्' (तू ही मैं हूँ) भावसे निकलकर 'शिवोऽहम्' (मै शिवस्वरूप हूँ) भावमें प्रारुढ हो गया और सत्त्वगुणसे निकलकर गुणातीत पदमें जा टिका। इस स्थलपर पहुँचाकर और अपने वास्तविक लक्ष्यको प्राप्त कराकर धर्म अपने ऋणसे उऋण हुआ। सब कर्तव्यों और सब विधि-निषेधोको छुट्टी मिली, अपने लक्ष्य पर पहुँचाकर उन्होने अपनी कमर खोल दी और अपने निजस्वरूपमे विश्राम पाया । वैताल व प्रकृति अपनी ही छाया सिद्ध हुए और अपने निज प्रकाशमे देखा गया तो उनका पता भी न चला फि कहाँ गये ? त्यागको भेटोकी पूर्णाहुति हुई और त्याग का भी त्याग सिद्ध हुआ। सब कुछ करके भी कुछ न करना ही मनको भाया । अहंभावकी स्थितिमे प्रकृति जहाँ नाक चने चया रही थी और नाकमे नकेल डालकर नचा रही थी, उसको ज्यों-कात्यों जाना तो अब दासीके समान चरणसेवा करती है।
भीपास्माद्वातः पवते भीपोदेति सूर्यः।
भीपास्मादग्निरचन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः॥ अर्थात् हमारे भयसे ही वायु चलता है, हमारे भयसे ही सूर्य उदय होता है और हमारे भयसे ही अग्नि, इन्द्र व मृत्यु यह पाँचों भागे फिरते हैं।
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आत्मविलास]
[२०६ द्वि० खण्ड
इस प्रकार परमार्थरूपी वृक्ष ऐसा फला-फूला कि कुछ न पूछो। सब ओर श्रानन्द ही श्रानन्द टपकने लगा, सब वस्तुएँ अानन्दकी ही झाँकी देने लगी और दुखरुप संसार आनन्दस्वरूपमें बदल गया । मोतीमे अपनी ही झलक, हीरेमे अपनी ही दमक, सूर्य-चन्द्रमामें अपनी ही चमक, वायुमे अपनी ही रमक, नेत्रोमें अपनी ही खटक आनन्द देने लगी। सब सुन्दरोमें अपना ही सौन्दर्य प्रास्वादन होने लगा, सब वस्तुएँ अपने ही सौन्दर्य के याचक प्रतीत हुए और सब अपने ही सौन्दर्यके भिन्न-भिन्न चमकार भान होने लगे। अपना निजानन्द मैला न हो जाय, इस निमित्त अनेक नाम-रूपके दृष्टिरूपी पडदोंके नीचे उसको छुपाना चाहा, परन्तु न छुपा और अपने यौवनमे ऐसा मचला कि किसी प्रकार दवाये न दवा।
नहीं छुपती छुपाये वू छुपाओ लाख पडदोंमे । मजा पडता है जिरा गुलपैरहन को वेहिजाबीका ।।
रात्रिके घोर अन्धकाररूपी पडदे उसके मुखपर डाले गये तो उस कृष्णरूपमें ही फूट निकला और तारोमें ऑखे फाड़-फाड़कर देखने लगा । गहन पर्वतोकी चादरोके नीचे उस सौन्दर्यको दबाना चाहा, परन्तु दवा कहाँ ? वह देखो ! अणु-अणु में अपनी सत्ता के दर्शन दे रहा है और अपनी जड़ताकी चादरोमे आनन्दके खर्राटे मार रहा है । गम्भीर समुद्रोमे उस निजानन्दको रूपोश करना चाहा, परन्तु रूपोश कहाँ ? वह देखो | उछल-उछलकर आनन्दकी बलइयों ले रहा है । पश्च-कोशोके पाँच-पाँच गिलाफ भी उसके मुँहपर डाले गये, तब भी क्या हुआ ? वह देखो! नीली-नीली आँखोमे अपना जल्वा दे रहा है और असंख्य मनोवृत्तियोमें नृत्य कर रहा है। फिर सूर्यादिके चमकीले पतले पड़दों
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२०७]
[साधारण धर्म मे तो वह छुप ही क्या सकता था' बल्कि उल्टा अपने हुस्नके जोशसे तपाने लगा। सत्य है :-दिया अपनी खुदीको जो हमने उठा!
वो जो परदा-सा वीचमे था न रहा ।। रहे परदेमे अब न वा परदानशी।
कोई दूसरा उसके सिवा न रहा। प्यारे आनन्द । थोड़ा दम लो, शान्ति पकड़ो, निचले रहो, आखिर तुम ही तुम हो, दूसरा तो कोई है ही नहीं, फिर यह नाच-कूद कैसा? उत्तर मिला :-जाना आखिरन यह कि फोड़ेकी तरह फूट वहे । __ हम भरे बैठे थे क्यो आपने छेड़ा हमको । __ इतनेमेहमारे आत्मदेवने एक छलाँग मारी, 'दीवारे कहनहा' पर जा चढ़ा और हॅसता-हँसता झट परले पार । 'न हम न तुम, दफ्तर गुम। हैं हम तुम दाखिले दफ्तर, खिमेमय में है दफ्तर गुम । न मुजरिम मुहई याक्ती, मिटे क्या खुश बखेड़े जा॥
करवट बदली तो आँखें खुल गईं !!!
दीवार कहकहा चीन देशमे एक दीवारका नाम है । कहावत है कि जो मनुष्य उसे दीवारपर चढ जाता है, वह परली तरफको देखकर हंसने लगता है, परली औरका कुछ हाल नहीं कह सकता और परली श्रीरको छलॉग मार जाता है फिर वापिस नहीं आता। + आनन्दमय-कोश। मदिरा पात्र, अर्थात् निजानन्द ।
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मनकी एकाग्रता मनका क्या स्वरूप है ? इस विषयमें यदि विचार किया जाय तो यह सिद्ध होगा कि भावात्मक ही मन है। अर्थात् भावोंसे भिन्न मनका और कोई रूप पाया नहीं जाता, क्योंकि जिस कालमें मन भावशून्य हो जाता है, उस काल में वह अपने स्वरूपसे कुछ भी नहीं रहता। मनकी भावशून्य अवस्था सुपुप्ति अथवा लय ही है। यदि 'भावोंके विना मनका अपना कोई स्वतंत्र रूप होता तो इसका पता उम कालमे भी मिलना चाहिये था जव कि भावोंका अभाव हो जाता है। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि जब जाग्रत् व स्वप्नमें मन अनेक भावरूप तरङ्गोंमें तरजायमान होता रहता है वमी उसका स्वरूप भी पाया जाता है। परन्तु सुपुप्त अवस्थामे भावोंका लय हो जाता है तो उसका भी कुछ स्वरूप नहीं मिलता। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि 'मन भावात्मक ही है' और भावके विना मनका अपना कोई स्वरूप नहीं है। . . .' . भाव क्या है ? किसी भी आकार, विचार अथवा सङ्कल्प के रूपमें मनका स्फुरण होना,तरजायमान होना 'भाव'कहा जाता है। इधर यदि संसारके विषयमें विचार करे तो भावोंसे भिन्न संसारका भी अपना कोई स्वतन्त्र रूप नहीं मिलता । जैसेजैसे जिसके भाव होते हैं वैसा-वैसा ही उसका अपना भव (संसार) होता है । वल्कि कहना पड़ेगा कि यह लोक ही नहीं, किन्तु क्या लोक,क्या परलोक सभी लोककी सृष्टि जीवके अपनेअपने भावोंके अधीन ही होती है । जीवके अपने भावोंके विना न लोककी सिद्धि होती है न परलोककी। उद्भिज,स्वेदज,अएंडज व
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( २ ) जरायुज इन चारों खानियोंमे क्रमशः जैसे-जैसे भावोंका विकास होता जाता है वैसे-वैसे ही उनका अपना-अपना भव (संमार) विकसित होता जाता है। भावोंकी उत्तरोत्तर न्यूनताकी ही दृष्टि से मनुष्यकी अपेक्षा पशु, पक्षी व कीटादिका संसार क्रमक्रमसे तुच्छ होता है और भावोंकी न्यूनतासे ही देवोंकी अपेक्षा मनुष्यका संसार तुच्छ होता है। अर्थात् मनुष्यका मंसार अमरीका, यूरोपतक ही विस्तृत है, परन्तु देवताओका संसार सात समुद्र व सात द्वीपोतक विकसित है। वर्तमान संसारमें जितने भी द्रव्य, गुण व क्रियादि हैं उन सबकी सिद्धि अपने-अपने भावोंके अधीन ही होती है। अर्थात् वे.द्रव्य-गुणादि पदार्थगत नही हैं, किन्तु अपने-अपने भावानुसार भावगत ही हैं। इसीलिये एक ही वस्तु एकके लिये कटु दूसरेके लिये मिष्ट, एकके लिये उष्ण अन्यके लिये शीतल तथा एकके लिये शुभ व पुण्यरूप और दूसरेके लिये अशुभ एवं पापरूप सिद्ध हो जाती है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि इन सब विलक्षणताओंमे केवल भावोंकी विलक्षणता ही हेतु है। (विस्तारके लिये देखो आत्मविलास द्वि. खं पृ. १६३-१९७ ) | इसी लिये कहा भी है कि:
भवोऽयं भावनामात्र न किञ्चित् परमार्थतः । - अर्थात् भावनामात्र ही संसार है, परमार्थसे संसारका कोई रूप नहीं है।
इसी लिये अपनी-अपनी भावनाके अनुसार संसारका स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकारका होता है । सकामीके लिये यह भोगरूप, निष्कामीके लिये उद्धाररूप, भक्तिमानके लिये भगवानकी छविरुप, वैराग्यवानके लिये अग्निकाण्डरूप और ज्ञानवानके लिये यही संसार परमानन्दरूप सिद्ध होता है। अर्थात् 'यह संसार हमारे भोगके लिये ही रचा गया है, इसलिये
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भोग भोगलेना हो हमारा कर्तव्य है। ऐसी सकामीकी दृष्टि होती है और इसी भावसे वह संसारको देखता व वर्तता है। 'यह संमार विगड़ा हुआ है. इसका सुधार करना हमारा कर्तव्य है। ऐसी निष्कामीको दृष्टि होती है और इसी भावसे वह संसार को ग्रहण करता है। यह संसार भगवानकी ही छविरूप है, इन मव रूपोंमें वह छैल-छवीला ही अपनी मॉकी दिखला रहा है। ऐसी निष्काम-भक्तकी दृष्टि होती है और इसी भावसे वह संसारको देखता है। यह संसार अत्यन्त दुःखरूप है और प्रलय कालकी अग्निके समान तप रहा है, बारम्बार जन्म-मरण के चक्रमें पड़ना महान् दुःख है किसी प्रकार मैं इससे छूट ऐसी वैराग्यगन्की दृष्टि होती है और इसी भावसे वह संसार को देवता है। यह संसार अपने स्वरूपसे कदाचित् कुछ हुआ ही नहीं, किन्तु यह तो मेरे आत्माका चमत्कार ही है, अथोत् मेरे श्रात्माका विवत है और परमानन्दस्वरूप ही है ऐसी मातात्कारवान् तत्त्ववेचाकी दृष्टि होती है और इसी भावसे वह संसारको देखता है । (विस्तारके लिये देखो गीतादर्पणप्रस्तावना पृ० १२० से १२०)।
इस प्रकार हम इस परिणामपर पहुँचते हैं कि 'भावके विना न मनका ही कोई स्वरूप मिलता है और न भव (संसार) का ही अर्थात् ये कह लीजिये कि मन और संसारके बीचमे एकमात्र भाव ही है, जो दोनोंको सिद्ध कर रहा है, जिसके द्वारा दोनोंका संयोग होता है और जिसके लय हुए दोनों (मन व भव) लय हो जाते हैं।
अव आयो विचार करें कि मनकी एकाग्रता क्या है, वह किस प्रकार सम्पादन की जानीचाहिये और उसका फल क्या है? लेखकके विचारसे किसी प्रकारकी प्राण-निरोधादिरूप क्रियात्मक चेष्टाओंद्वारा मनको भावशून्य कर देना, मनकी एकाग्रता नहीं
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कहलाती। किन्तु ऐसी अवस्था तो मनकी सुपुप्त व लयावस्था ही होगी, जो कि किसी वास्तविक फलका हेतु नहीं हो सकती। क्योंकि शुद्वभावोद्गार के बिना केवल क्रियात्मक मनोनिगेध तो ऐसा ही होगा; जैसे किसी फोड़ेके भीतर पीप भरी रहनेपर भी ऊपरसे वह चमडा लाल-लाल टीम पड़े। बुद्विमान डॉक्टर की दृष्टिमे यह चमड़ेकी उत्तम अवस्था नहीं मानी जाती, किन्तु यह तो भयङ्कर अवस्था ही समझी जाती है।
मनकी वास्तविक उत्तम अवस्था तो वहा है कि स्वार्थत्यागमय शुद्ध श्राचार व विचारद्वारा प्रथम सकाम-भावांको दूर किया जाय और निष्काम-भाषाका प्रयाह चलाया जाय । तदनन्तर निष्काम-भावोंके प्रभावसे जीवनका लक्ष्य संमार न बनाकर ढ़तासे परमार्थ ही जीवनका निशाना स्थिर क्यिा जाय । इस प्रकार सांसारिक कासना व बासनासे पल्ला छुड़ाकर शुद्ध प्रेमामक्तिके भावोंका प्रवाह चलाना और किसी एक भाव पर मनका अचल हो जाना, यही वास्तवमै मनको एकाग्रता है, जिसके द्वारा मल-विक्षेपादि दोप वस्तुत. निवृत्त होजाते हैं, और इन दोपोंके निवृत्त हुए स्थिर शान्ति इसी प्रकार प्राप्त होती है, जिस प्रकार फोडेसे पीप निकल जानेपर विश्राम मिलता है। विपरीत इसके इस मार्गसे मुँह मोड़ कर यदि क्रियात्मक चेष्टाओद्वारा ही मनोनिरोध किया गया तो मल-विक्षेपादि दोपोंके विद्यमान रहते हुए वह सारी चेष्टा ऐसी ही होगी, जिस प्रकार घावको न धोकर पट्टीको ही धोते रहे तो इससे भीतरका रोग साफ न होने के कारण धावके अच्छे होनेकी आशा नहीं की जा सकती। ऐसी क्रियात्मक चेप्टाबोंद्वारा यद्यपि कुछ कालके लिये मनका निरोध (अर्थात् मनका लय) सम्भव है, परन्तु उत्थान कालमे मलविक्षेपादिके ज्यों के त्यों बने रहनेके कारण वे किसीप्रकार स्थिर शान्ति प्रदान नहीं कर सकतीं। क्योंकि शुद्ध भावोद्गारके बिना
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केवल प्राणनिरोधके द्वारा मनको इसी प्रकार रोक दिया गया था, जिस प्रकार दौड़ते हुए घोड़ेको पकड़ कर सवारको रोक दिया जाय । इस प्रकारका मनोनिरोध न मूलमें शान्ति ही देता है, न मल-विक्षेपाढि ही निवृत करता है और न संसारका मूल जो परिच्छिन्न अहङ्कार है, उसको ही किसी प्रकार निवृत्त कर सकता है। बल्कि बहुत करके सम्भव है कि मल-विक्षेपादिके रहते हुए शुद्ध भावोद्गार विना वह मनोनिरोध अपने व्याज मे मनोनिरोधके अहङ्कारको और पुष्ट कर दे। ऐसा अहङ्कार फिर परमार्थका मार्ग ही वन्द कर देता है; न यह सन्तजन व सच्छास्त्रके वचनों में ही विश्वास करता है और न उनकी युक्तिको ही मानता है, किन्तु बिलाड़ निकालकर अन्दर ऊँट घसा लेनेकी कहावत मिद्ध हो जाती है ।
इसके विपरीत शुद्ध प्रेमा-भक्तिके भावोंके प्रवाहमें ही एक ऐसी शक्ति है जो अपने प्रभावसे इधर मल-विक्षेपादि दोपों को हृदयसे निकाल फेंकता है और उधर परिच्छिन्न-अहङ्कारकी मूलको मी हिला देता है तथा स्थिर शान्ति प्रदान करता है।
संसारमें प्रेम ही एक ऐसी वस्तु है जो आपेकी चलि लेने में समर्थ है, दूसरी किसी वस्तुमे ऐसा मामर्थ्य नहीं है। अपने भोग-कालमें स्त्री-पुत्रादिका तुच्छ प्रेम ही जव आपा खो देता है, तक परमार्थसम्बन्धी शुद्ध-सात्त्विक प्रेम परिच्छिन्न-अहङ्कारकी समूल बलि ले लेवे तो इसमे आश्चर्य ही क्या है ? दृष्टान्त स्थल पर देख सकते हैं कि रासलीलाके समय जब भगवान् गोपियोंकी (दृष्टिसे ओझल हो गये तव उनके हृदयसे वह प्रमा-भक्तिके भाव फूट निकले जिनके प्रभावसे उनको अपना-आपा ही विस्मरण हो गया और नाना प्रकारकी लीलाओंमें वे अपने-आपको कृष्णरूपमें ही देखने लगी । कोई कृष्णरूपसे कालिय नागको दमनकरती थीं, कोई अपने ही वनोंकी बॉसुरी बना-बनाकर वंशीनाद. निकालती
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थीं इत्यादि । यही भावरूप समाधि है जो अन्य सव समाधियोंका फल है। यही वास्तविक चित्तवृत्ति-निरोध है,यही सांसारिक रागद्वे पसे हृदयको धोकर सच्चा सुदृढ़ वैराग्य हृदयमें भरपूर कर सकता है। इसी वैराग्यके द्वारा तत्व-विचारोंका प्रवाह हृदयम उमड़ आता है और तभी 'यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः' के रूपमें सहज-समाधि प्राप्त होती है। उपर्युक्त भाव-ममाधिके बिना यह सहज-समाधि दुष्कर है। इस भावरूप समाधिमें ही यह बल है कि यह अपनेको और अपने संसर्गमे आनेवालोंको द्रवीभूत कर देती है । उद्धवजी जब गोपियोंको ज्ञानोपदेश देनेके लिये ब्रजमें गये तो वे गोपियोंके शुद्ध प्रेमा-भाक्तिके भावोद्गार में पानी-पानी हो गये और उनका सव ज्ञान-ध्यान चल बसा। प्राण-निरोधादि स्वप्नमें भी ऐसे प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकते। यही कारण है कि क्या वेद, क्या उपनिषत, क्या स्मृति, क्या पुराण सभी सच्छास्त्र इस क्रियात्मक प्राण-निरोधादिकी चचो करनेसे उदासीन हैं। यदि यह क्रियामक चेष्टा परमार्थमे सुदृढ़ माधन हो और फिर भी वे सच्छास्त्र उसकी चर्चा न करें तो यह उन शास्त्रोकी अपूर्णताको ही सिद्ध करेगा। परन्तु सच्छास्त्रोंको वर तुतःपरमार्थमें यह सुदृढ़ साधन मन्तव्य ही नहीं है। यूं तो संसारमें निष्फल कोई भी पदार्थ नहीं है, जो अत्यन्त वहिमुखी मन है मुंहजोर घोड़ेके समान उसको दमन करनेके लिये यह क्रियात्मक चेष्ठा भी सफल हो सकती है परन्तु दमन होनेके पश्चात् शुद्ध भा. चोद्गार ही उसका फल है,स्वतन्त्र दमन फलरूप नहीं हो सकता। मारांश, भावांकी शुद्धि विना मनकी शुद्धि नहीं होती और शुद्ध मावोद्गारद्वारा भावोंकी एकाग्रता विना मनकी एकाग्रता नहीं हो सकती । जिस प्रकार लोहसे ही लोहा काटा जा सकता है, इसी प्रकार उपयुक्त रीतिसे भावोंकी शुद्धि व एकाग्रताद्वारा तत्त्व निर्णायक भावोंको जाग्रत् करके ही यह भावात्मक संसार निवृत्त
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किया जा सकता है। मुक्तिके लिये अन्य कोई मार्ग है ही नहीं।
'नान्यः पन्था विद्यते ऽयनाय' (श्रुति) ... सत्यके जिज्ञासुओंको इन पंक्तियोंपर गम्भीर विचार करनेके पश्चात् अपना मार्ग निश्चित करना चाहिये । इस प्रकार भावोद्गार व भावशुद्धिको मुख्यताको लक्ष्य करके भावोद्गारमे उपयोगी व सहायक विभिन्न अधिकारियोंके अधिकारानुसार विभिन्न प्रकारके विचार व प्रार्थनाएँ नीचे उद्धृत की जाती हैं । अपने-अपने मनकी परिस्थितिको ध्यानमें रखकर यदि पाठक सचाईसे अपने-अपने अधिकारानुसार इनका क्रमसे सेवन करेंगे तो एक बड़ी मात्रामे भावशुद्धि इनका फल होगा, ऐसी आशा की जाती है। इन सब प्रार्थनाओंमेंसे जो-जो अपने चित्त के अधिकारानुसार रूचिकर हो उस-उसको कण्ठ कर लेना चाहिये । प्रभात जागकर और रात सोते समय स्थिरचित्तसे इष्टदेवकी मूनिका हृदयमें ध्यान करके दोनों हाथ जोड़े हुएशनैः शनैःविचारपूर्वक उस-उसकामन ही मन में मनन करना चाहिये और जिस स्थानपर मन स्थिर हो जाय वहीं रुक जाना चाहिये । हृदयमें जो अन्य निष्काम-भाव अधिक फुरे वे सचाईके साथ अधिकाधिक निकालने चाहिये ।।ॐ।। विभिन्न विचार और प्रार्थनाएं
(१),भोगहरण-प्रार्थना हे भगवन् । इस मनुष्यजन्मका फल यह भोग नहीं किन्तु चित्तकी शान्ति ही इस जीवनका मुख्य फल है। यह जन्म
आपने अपनी अपार कृपा करके अपनी प्राप्तिके लिए एक चिन्तामणिरूप हमको वखशीश किया था, जो कि वास्तवमें मोक्षद्वार है। परन्तु शोक कि हमने अबतक विषयभोगरूपी विषके बदले इसे लुटा दिया। हे प्रभो! यह भोग वास्तवमे
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(८) धोकेकी टट्टी हैं। ये देखनेमें भले ही सुन्दर लगे, परन्तु वस्तुत ये रोगरूप हैं । इसमे तो कोई सन्देह नहीं है कि बारम्बार जन्म लेना, जीवन-भर अनेक प्रकारके दुःखोंको सहना और बारम्बार दारुण मरणदुःखको भोगना इन सब दुखोके मूलमें इसके सिवाय और कोई कारण नहीं बनता कि इस जीवने पहले कभी न कभी इन दु.खरूप विपयोमे सुखबुद्धि धार करके अवश्य मन फंसाया था। वही विप इन नाना दुःखोंके रूपमें फूट-फूटकर निकल रहा है और कोई निमित्त नहीं बनता। इस अविनाशी जीवके इन दु.खोंके साथ बाँधे जानेमे यह भोग अपनी इच्छाकालमे भी इस जीवको तड़पाते हैं और अपनी निराशाकालमें भी महाकष्ट देते हैं यदि किसी प्रकार इनकी प्राप्ति हो भी जाय तो भोग चुनेपर भी यह विपय विषरूप ही हो जाते हैं और किसी तरह हमारे लिये सुखरूप नहीं ठहरते। इस प्रकार इनकी तीनों हालतें दु.खरूप ही हैं।
इस प्रकार हे स्वामी शोक है कि हम अबतक विषको. अमृतरूप जानकर सेवन करते रहे और अमृतरूप आपके चरणकमलोंसे विमुख रहे, स्वर्गके बदले नरकको मोल ले लिया। जिस प्रकार कॉच भले ही सुन्दर प्रतीत हो, परन्तु पेटमें जाकर अतडियोंको फाड़ डालता है, ठीक यही अवस्था जीवकी विपयोंके सम्बन्धसे होती है। जिस प्रकार मृगतृष्णाकी नदी देखनेमे सुन्दर प्रतीत होती है, परन्तु किसी तरह उससे प्याम नहीं मिटतो, बल्कि उसके पीछे दौडनेसे प्यास अधिक अधिक घढ़ती जाती है, इसी तरह इन झूठे सुखोंको सच्चा जान सुखी होनेके बजाय हम अपने दुःखोंको बढ़ाते रहे।
झूठे सुखको सच कहें, · मानत हैं मन मोद। जगत घवेना कालका, कुछ मुखमें कुछ गोद ।।
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शोक है हम प्रशान्तिम शान्ति हूँढते रहे और शान्तिस्वरूप आपके चरणकमलोंसे विमुख रहे। अब हम सब तरफ से हारकर आपके द्वारपर आ पड़े हैं। आप दयालु हैं हम दीन हैं, पिताके समान आप हमारे अपराधोंको क्षमा करें और हमको अग्ना वह सच्चा बल निमसे सुखस्वरूप आपके चरणकमलोंका सहारा पकड़ दुखरूप संसार-समुद्रसे तर जाएँ।
हे भक्त वत्सल । श्राप शरणागत प्रतिपाल है,हम आपकी शरण हैं। हम पतित है आप पतितपावन हैं। हमारे अवगुणोंकी
और देखकर न भागो, बल्कि अपने पतितपावन नामको सफल करो। हमारी ओर देखनेसे हमारा उद्धार न होगा, आप समदी हैं अपनी ओर देखें । जिस तरह गन्दे नालेको शरणगत जान गगा अपनेमे मिलाकर गङ्गा ही बना लेती है, जिस तरह पारस खोटे-खरं लोहेका विचार न कर उसे छूते ही खरा सोना वना देता है, इसी तरह अाप अपनी ओर देख हमारा उद्धार करें। हे नाथ | अब आपकी कृपा से हमने यह जाना है कि संसारमें दुःखका कारण और कुछ नहीं, केवल पदार्थोकी ममता ही हमारे दुःखका कारण बनती है। धन, पुन, घी आदि जो कि वास्तवमें हमारे नहीं है हमारे इस शरीरमें पानेसे पहले भी यह किसी न किसी रूपमें थे और आपके ही थे। जव हम इस शरीरमें न रहेंगे तब भी यह किसी न किसी रूपमें रहेगे और आपके ही होंगे। वीचमे ही इन पदार्थोंको अपना मानकर हमने अपनेको दुःखी किया है। जो चीज़ पहले भी हमारी न हो और बादमे भी हमारी न रहे, वह वीचमे ही हमारी कैसे हो सकती है । वीचमें भी यह उसीकी होनी चाहिये जिसकी आदि व अन्तमे रहे। वीचमें यह पदार्थ केवल हमको अमानतमे दिये गये हैं हम अपनी भूल से वीचमें ही अमानतमें खियानत करके आपके अपराधी वन बैठे हैं । अव इम सच्चे दिलसे आपकी चीज आपके
कारण बनती है । धनानसे पहले भी बन रहेंगे
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चरणोंमें भेट करते हैं। आप हमको वह बुद्धि बल दे कि फिर कभी इनको अपना न मान बैठे और श्रापके आज्ञाकारी मुनीमकी भॉति आपके कुटुम्बकी सेवा करे । जो आज्ञा श्राप हमको हमारी बुद्धिमें देवे उसका सचाईसे पालन करे। जो खावें वह आपका प्रसाद हो, जो पीवे वह आपका चरणामृत हो, पावोंसे चलें वह आपकी परिक्रमा हो, हाथोंसे जो कुछ करें वह आपकी ही सेवा हो, आँखोंसे आपका रूप ही देखे और कानो से सुने वह आपका गुणनवाद ही हो। मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान !
अपहुँ दोउ कर जोरे मैं श्रीभगवान् ! ॥१॥ स्वीकारह हाथन को हे श्रीमहाराज !
तव सेवा के कारणे मैं अपं आज ॥२॥ नयन मोर स्वीकारहु है श्रीजगदीश !
भक्ति धुन्ध है जावें मैं नाऊँ शोश ॥३॥ चित्त मोर स्वीकारहु तुम अहो सुजान !
मन्दिर होय तुम्हारो कछु हेतु न पान ॥४॥ हिय मोर स्वीकारहु हे अति निष्काम् !
तव मूरति हिय वसे सब सुख की धाम || अस न रहे कछु मोपे जो होवे मोर ।
फुरे मोर सब तुममें नाहीं दूसर ठौर ॥६॥ १. ऐसी कोई वस्तु मेरे पास न हो जिसको मैं अपने भ्यक्रिगत
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( ११ ) (२) रागहरण-प्रार्थना हे भगवन् ! आप दयालु हैं, दयाकी मूर्ति हैं । यद्यपि आप के हम अपराधी हैं, परन्तु हैं आपके ही वालक । आप पिताके समान हमारे अपराधोंको क्षमा करें। हमसे भूल हुई कि धनपुत्रादि आपके पदार्थोंको हम अपना मानते रहे । जिस प्रकार रात्रिको मुसाफिर सरायमें इकट्ठे हो जाते है,उसी प्रकार यह आप का परिवार इकट्ठा हो गया है,प्रभात होते सब अपने-अपने रास्ते लगेंगे। परन्तु इस मूर्ख मनने इनपर ममत्व करके कब्जा कर लिया है और इसी अपराध करके यह तप रहा है। अब मैं सच्चे दिलसे श्रापकी चीज़ आपके चरणों में भेट करता हूँ। जब मैं इस शरीरमें नहीं था,तब भी ये पदार्थ किसो-न-किसी रूपमें थे और
आपके ही थे और जब मैं इस शरीरमें न रहूँगा, तब भी ये श्राप के ही रहेंगे। बीच में ही इनको अपनानेका भारी अपराध मेरे से हुआ है। ..अरे मन ! अब तो चेत कर । अरे मूर्ख ! तूने मुझे बहुत दुखी किया है। बन्दरकी भॉति आप ही पदार्थोसे मुट्ठी भरकर तूने आप ही अपनेको वन्धायमान किया है । अव तो इनसे छूटकर सुखसागर भगवान्की शरणमें चल, जिससे तू और मैं दोनों शान्ति पावें। अब तो प्रभात होनेको आई सफर सिरपर सवार है। शरीरके नातेसे अपनी जान, किन्तु सर्व ममतारूप व्यवहार भापके नातेने फुरे। जिसप्रकार सेवक अपने स्वामीके पदार्थोंमें ममताका व्यवहार करता है,मर्यात् भाप स्वामीका वनकर स्वामीके पदायाँको स्वामी नावेसे अपना मानता है, अपने व्यक्तिगत पारीरके नातेसे कदापि नहीं। इसीप्रकार मेरा सर्व ममतारूप व्यवहार भापमें फुरे, मन्यन्न नहीं। "देखो टिप्पण अरमाविलास प्र, खं-पृ. ६०-६१
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( १२ । "काल चिरैयाँ चुग रही निशिदिन आयुखेत'
हे स्वामी ! संसाररूपी दलदलमे मै धस रहा हूँ, पॉव टिकने का कोई आधार नहीं पाता । आप अपने चरण-कमलोंका सहारा दीजिये, नहीं तो अपने पतित-पावन नामके निष्फल होनेपर फिर आपको भी पछताना पडेगा। दया करो, अपना बल दो
और बुद्धिको निर्मल करो, जिससे फिर कभी आपके पदार्थोंको अपना न मानें । हे नाथ ! ये भोग तो नीच योनियोंमे भी हमको प्राप्त थे, इस लिये इस मनुष्य-योनिका फल ये भोग नहीं, किन्तु आपके चरण-कमलोंकी प्रीति ही इस जन्मका मुख्य फल हो सकता है, जिससे हम अभीतक ठगे हुवे रहे। अब आप हमारी नौकाको पार लगावें। हमारे मुफेद बालोंकी ओर देखें और वह शक्ति दे कि जो कुछ हम करें आपकी सेवाके निमित्त ही हो जो खावें वह आपका प्रसाद हो । जो पीवे वह आपका चरणामृत हो, जो ऑखोंसे देखें उसमें आपका रूप ही देखें,जों कानोंसे सुनें वह आपका गुणानुवाद हो । पापोंसे चलें वह आपकी परिक्रमा हो और हाथोंसे जो कुछ करे वह आपकी ही सेवा हो। हे प्रभो। यह सव परिवार तो शरीरके साथ ही है , जब इस शरीरने ही साथ नहीं देना, तब इस परिवारने तो क्या साथ देना है । सथा नाता तो आपका ही था, उसे हम मुला बैठे। हाय ! मैं अनाथ मारा गया, इस मनने मुझे धोखा दिया । हे नाथ ! आपकी दुहाई है इस पापीसे मेरी रक्षा करो।
मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपहुँ दोउ कर जोरे मैं श्रीमगवान् ! ॥१॥
(शेष पृ. १० पर देखो)
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( १३ )
(३) निष्काम-प्रार्थना हे भगवन् । इस मनुष्य जन्मका फल ये भोग नहीं, किन्तु चित्तकी शान्ति ही इस जीवनका मुख्य लक्ष्य है। हे प्रभो! ये विपय-भोग तो अनन्त योनियोंसे हमको प्राप्त होते आये हैं, प्रव तक इनके संयोगसे शान्ति नहीं मिली, बल्कि अग्निमें घृतकी
आहुतिके समान इन्होंने चित्तको अधिकाधिक चञ्चल ही किया। फिर आगे इनके सम्बन्धसे शान्ति प्राप्त होगी, इसकी क्या बाशा की जा सकती है ? शोक है कि हम अशान्तिमे शान्ति ढूंढते रहे
और शान्तम्बरूप आपके चरण-कमलोंसे विमुख रहे । आप दयालु हैं हम दान हैं, पिताके समान आप हमारे अपराधोको क्षमा करें और हमको अपना पल दे,जिससे हम सुखस्वरूप श्राप के चरण कमलोंका आश्रय पाकर दुःखस्वरूप संमार-समुद्रसे तर जाएँ और अक्षय शान्तिको प्राप्त हों।
हे नाथ ! आपकी कृपासे हमने अब यह जाना है कि संसारमे अशान्तिका कारण और कोई नहीं है, केवल पदार्थोका ममत्व ही हमारे दुःखका कारण बनता है । घर वार, कुटुम्ब-परिवार आदि वास्तवमे हमारे नहीं हैं, हमारे इस शरीरमे आनेसे पहले भी ये किसी न किसी रूपमें थे और आपके ही थे तथा जब हम इम शरीरमें न रहेंगे तब भी ये हमारे न रहेंगे, आपके ही होंगे। जो वस्तु पहिले भी हमारी न हो और पीछे भी हमारी न रहे, फिर बीचमे ही वह वस्तु हमारी कैसे हो सकती है ? वीचमे ही उस वस्तुको अपना मान वैठना चोरी है और श्रमानतमें खयानत । जो वस्तु पहले जिसकी हो और पीछे जिसकी रहे,बीचमें मोव्ह उसीकी रहती है । बीचमे जो कोई दूसरा उसपर अपना अधिकार जमाता है वह बराबर चोर है। वीचमे ही अपना कब्जा करनेसे वह वस्तु अपनी हो नहीं जाती बीचमे धनपर अधिकार जमानेग्ने
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( १४ ) जो धन हमारा हो सकता हो तो कैशियर (Cashier ) के अधिकारमें आया हुआ सेठका धन कैशियरका होना चाहिये। पुत्रादि बीचमे अधिकार जमानेसे जो हमारे हो सकते हो तो जागीरदारकी भूमिमें उसके कृपिकारद्वारा प्रारोपण किये हुए बीजकी पैदावार पिकारकी होनी चाहिये । बीचमें अधिकार जमानेसे जो स्त्री हमारी हो सकती हो तो गोपालके अधिकारमें आई हुई मालिककी गौ गोपालकी होनी चाहिये । वास्तव में ये पदार्थ तीनों कालमे आपके ही हैं. वीचमें ही इनको हमने अपनाकर अपनेको दुखी किया है। अब आप कृपाकर हमें वह बुद्धिवल दें कि जिससे फिर कभी इन पदाथोंको अपना करके न जानें, आपके आज्ञाकारी सेवककी भॉति निष्काम-भावसे
आपके परिवारकी सेवा करें और हानि-लाभ अपना करके न जानें । जो श्राज्ञा आप हमको हमारी बुद्धिद्वारा देवें उसका सत्यतासे पालन करें जो कुछ मुंहसे बोलें वह सत्य बोलें, जो कुछ हमारे द्वारा हो वह सबकी भलाई के लिये हो, जो खावें वह आपका प्रसाद हो, जो पोवें वह आपका चरणामृत हो, हाथोंसे जो कुछ करें वह आपकी सेवा हो,पॉवोंसे चले वह आपकी परिक्रमा हो, जो ऑखोंसे देखें वह आपका रूप ही देखें और कानों से सुनें वह आपका गुणानुवाद हो।
मम सर्वस्व स्वाकारह है कृपानिधान ! अपहुँ दोउ कर जोरे मैं श्रीभगवान् ! ॥१॥
(शेष पृ.१०पर देखो) (४) विक्षपहरण प्रार्थना हे भगवन् ! हमारे अपराधोंको क्षमा करें, हमसे भूल हुई कि हम अापके पदायोंको अपना करके जानते रहे और उनपर
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कन्जा जमाते रहे । अब हम सच्चे दिलसे आपकी चीज घर-बार, कुटुम्ब-परिवार आपके चरण-क्रमलोंमें भेट करते हैं। जब हम इस शरीरमें न थे तब भी ये पदार्थ किसी-न-किसी रूपमे मौजूद थे और आपके ही थे। तथा जब हम इस शरीरमें न रहेगे, तब भी ये पदार्थ किसी-न-किसी रूपमे रहेगे और आपके ही होकर रहेंगे । वीचमे ही हमने इनको अपना माननेका भारी अपराध किया है। जो चीज़ पहले भी हमारी नहीं थी और बादमे भी हमारी न रहेगी, बीचमे ही उसको अपना मान बैठना अमानत में खयानत है। अब आप हमपर दया करें, हमारी बुद्धिको निर्मल करें, हमको अपना वह वल दें कि जिससे फिर कभी इस अपराधके अपराधी न बने । दुःख केवल यही है कि करने करानेवाले जो आप हैं, उन आपको हमने अपने हृदय सिंहासनसे नीचे उतारकर हम खुद करने करानेवाले (स्वयं प्रमु)वन बैठे हैं। जो कुछ हम चाहते हैं वह कभी नहीं होता, होकर तो वही रहता है जो आपको मजूर होता है ।यह मन मूर्ख है जो अपनी भूल करके आपकी मर्जीपर सन्तुष्ट नहीं रहता और बीचमे ही अपनी टॉग अड़ाकर आप ही चिन्तारूपी अग्निमें जलता रहता है। अरे मूर्ख मन ! तू क्यों नहीं अपने प्रभुपर भरोसा करता ? वह विश्वम्भर जो संसारका भरण-पोषण करनेवाला है, क्या तुझे ही नहीं भरेगा ? इस अपराध करके ही हे पापी ! तूने आप ही अपने गलेमे बन्धन पाया हुआ है,औरतो कोई तुमको बाँधने वाला है नहीं। तेरे इस दोष करके न यहाँ ही तुझे विश्राम मिलता है और न वहाँ हो। काहेको सोच करे मन मूरख ! चोंच दई सोई चिन्त' करेगी। पॉव पसार पड़ो क्यों न सोवत, पेट दियो सोई पेट भरेगो।। जीव जिते जलके थलके, पुनि पाहनमें पहुँचाय धरेगो। मूखहि भूख पुकारत है नर, सुन्दर तू कहा भूख मरेगो॥
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हे प्रभो ! इस मनरूपी बन्दरने हमारे इन शरीररुपी घृतको हिला रक्खा है, एक क्षणके लिये भा यह टिकने नहीं देता । चश्चल मन निशदिन भटकत है ।एजी भटकत है मटकावत है। ज्यों मर्कट तरु ऊपर चढकर । डार डार पर लटकत है ।। रुकत यतन से क्षण विषयनते । फिर तिन्हीमें अटकत है ।। कॉपके हेत लोम कर मूरख । चिन्तामणिको पटकत है ।३। ब्रह्मानन्द समीप छोड़कर । तुच्छ विषयरस गटकत है ।४। __ यही एक ऐमा पिशाच हमारे पोछे लगा हुआ है, जिमने हमको आपके चरण-कमलोंसे विमुख कर रखा है। हेम इसके आगे हार पड़े है और आपके चरणकमलोंमें दुहाई है, श्राप अपनी इस मायाको समेटिये । वास्तवमे तो दुःख भी आपका भेजा हुआ एक दूत है, जोकि हमारे कल्याण के लिये ही है।
और यदि हम ठोक-ठीक आपकी आज्ञाका पालन करने लग पडे, तब फिर तो दुःखका कोई निमित्त ही नहीं बन पड़ता। दुःखके मूलमे केवल ससारको अता-ममता ही है, जबकि अहंता-ममता सचाईसे आपके चरण कमलोमे भेट कर दी जाय तो दुःखका कोई प्रयाजन ही नहीं रहता हमारा प्रयोजन तो केवल आपकी मरजापर मन्तुष्ट रहकर आपसे अभेद रहने में ही है। आप परम दयालु है, जो हमारी करणोपर ध्यान न देकर अपनी करणीसे नहीं चूकते हैं। हे प्रभो । ये संसारके भोग जिनमे, हम फैसे पड़े हैं, नीच योनियोंमे भी हमको प्राप्त थे। इस लिये इस मनुष्य जन्मका फल ये भोग नहीं, किन्तु आपके चरणकमलोकी प्रीति हो इस जन्मका मुख्य फल था, जिसमें हम अब ' तक वञ्चित रहे । अव आप दया करें हमारी डूबती नावको पार
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( १७ ) लगावें और अपना वह सच्चा बल हमको प्रदान करें कि जिससे इस संसारके किसी पदार्थको हम इस शरीरके नातेसे ग्रहण न करे, किन्तु प्रत्येक वस्तुको सीधा आपके नातेसे ही धारण करें। इस प्रकार जो कुछ भी हम करें वह आपकी भक्तिके लिये हो, जो खावे वह आपका प्रसाद हो, जो पीवें सो आपका चरणामृत हो, ऑखोंसे जो कुछ देखें आपका रूप ही देखें, कानोंसे जो कुछ सुनें आपका गुणानुवाद ही हो, पांवोंसे चलें वह आपकी परिक्रमा ही हो और मुखसे बोलें वह आपका कीर्तन ही हो। इसप्रकार संसारके कष्टोंसे किसी प्रकार चित्तमें कायरता न लावें।
मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपहुँ दोउ कर जोरे मैं श्रीभगवान् ! ॥१॥
(शेष ट १० पर देखो) (५) शोकहरण-प्रार्थना हे भगवन् । आप कल्याणस्वरूप हैं, कल्याणमूर्ति हैं और कल्याणके समुद्र हैं। आप कल्याणस्वरूपसे कोई बुराई कैसे निकल सकती है ? सूर्यसे अन्धकार कैसे प्रकट हो सकता है ? सच मुच बुरे हम हैं, जो आपको करणीमें बुराई-भलाईकी कल्पना करके तपते रहते हैं। जिस प्रकार बच्चे के शरीरमें उत्पन्न हुए फोड़ेको जर्राह चीरा लगाकर उसकीपीप निकाल देता है,परन्तु मूर्ख बालक जर्राहके उपकारको न समझ उल्टा रुदन करता है, इसी प्रकार हे स्वामी ! आप भी हमारे संसाररूपी रोगकों दूर करनेके लिये करुणा करके समय-समयपर हमारे हृदयमें चीरा लगानेकी
कृपा करते हैं, परन्तु हम अपनी मूर्खता करके आपके उपकारको ..अनुपकार करके मान लेते हैं और उल्टा आपके अपराधी वन
जाते हैं।
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हे प्रभो! आपकी कृपासे अब हमको यह ममम पाई है कि आपको अपने सिवाय अन्य किसी ससारी पदार्थाका ममत्व नहीं रुचता। अर्थात् आपनहीं चाहते कि आपको छोड किसी अन्य पदार्थमें मन फँसाया जाय,क्योंकि सुखस्वरूप केवल आपके चरणकमल ही हैं। परन्तु जीव अपनी भूल करके सुखस्वरूप आपके चरण-कमलोंको छोड, जब मंसारके किसी भी पदार्थको सुखबुद्धि करके ग्रहण करता है और उसमें अपना ममत्व देता है, तब तब ही उसको दुखकी प्राप्ति होती है। वास्तवमे पदार्थ यदि हमारे होते तो हमको कभी धोखा न देते परन्तु उन पढाथोंसे धोखा ही इस वातको सिद्ध कर देता है कि हमने अपनी भूल करके उनको अपना मान लिया था,इसी लिये हमको धोखा लगा। हमारे इस शरीरमे आनेसे पहले भी वे पदार्थ हमारे नहीं थे किन्तु आपके ही थे और जब हम इस शरीरमें न रहेगे तब भी वे हमारे न होंगे आपके ही होकर रहेंगे बीचमें ही उनको अपना मान बैठना, यही आपकी चोरी है और यही अमानतमें खयानत। जो चीज पहले भी हमारी न हो और पीछे भी हमारी न रहे, फिर बीचमें ही वह हमारी कैसे हो सकती है। सचमुच वे पदार्थ सदा आपके ही हैं, आपसे वे कभी कहीं विछुड़ते। यद्यपि हमसे उनका विछोह हुवा है, परन्तु आपके राज्यसे तो वे अब भी कहीं बाहर नहीं गये । इस प्रकार वास्तव में हमारी चीज तो नष्ट हो जाती है, परन्तु आपकी चीज़ कभी नष्ट नहीं होती।
इस प्रकार हे भगवन् ! हम सब ओरसे निराश हो अब आपके द्वारपर आ पड़े हैं, जहाँ आपने चीरा लगाया है वहाँ कृपाकर फोहा मी रक्खो। और शान्तस्वरूप अपने चरण-कमलों की पवित्र भक्ति दो तथा वह सच्चा बल हमारे हृदयमें भर दो जिससे फिर कभी हम ऐसी भूल न करे और आपके चरण-कमलों के सिवाय और किसी पदार्थमें अपना ममत्व न दे बैठे। आपके
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( १८ ) कुटन्त्र-परिवारकी आपकी धाय वनकर सेवा करें और ममत्व करके किसी प्रकार कुटम्बके सुख-दुःखसे लेपायमान न हों। मंसारके भोग रोगरूप हैं,ऐसी कृपा करो कि आपकेचरण-कमलों मे कदापि विमुख न हों और फिरकमी ऐसे दुःखोंका मुँह न देखें। शरीरसे जो कुछ करें वह आपकी ही सेवा हो, पॉवोंसे चलें वह मव आपकी परिक्रमा हो, आँखोंसे जो कुछ देखें उसमें आपका रूप ही निहारें, कानोंसे जो कुछ सुनें वह सब आपका गुणानुवाद ही हो, जो कुछ खावें वह आपका प्रसाद हो और जो कुछ पीवें वह सब आपका चरणामृत ही हो।
मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपहुँ दोउ कर बोरे मैं श्रीमगवान् ! ॥१॥
(शेष पृ.३० पर देखो)
(६) क्रोधदमन-प्रार्थना । हे भगवन् ! इस मनुष्य-जन्मका फल यह भोग नहीं, किन्तु चित्तको शान्ति ही इस जीवनका मुख्य लक्ष्य है। हे प्रभो ! ये विषयभोग तो अनन्त योनियोंसे हमको प्राप्त होते आये हैं अब तक इनक संयोगसे शान्ति न मिली । वल्कि अधिकाधिक अग्निमें घृतकी आहुतिके समान इन्होंने चित्तको चञ्चल ही किया, फिर आगेको इनके सम्बन्धसे शान्ति प्राप्त होगी इसकी क्या आशा की जा सकती है ? शोक है कि हम अशान्तिमें शान्ति हूँढते रहे
और शान्तस्वरूप आपके चरणकमलोंसे विमुख रहे । आप दयालू हैं हम दीन हैं, पित्ताके समान आप हमारे अपराधोंको क्षमा करें और हमको अपना बल दें कि हम सुखस्वरूप आपके चरण-कमलोंका आश्रय कर दुःखस्वरूप संसार-समुद्रसे तर जावें और अक्षय शान्तिको प्राप्त हों।
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हे नाथ ! आपकी कृपासे हमने अब यह जाना है कि संसार मे अशान्तिका कारण और कोई नहीं हे केवल पढाथोंका ममत्व ही हमारे दुःखोका कारण बनता है । घर वार कुटुम्ब-परिवार
आदि वास्तवमे हमारे नहीं है, क्योंकि हमारे इम शरीरमे श्रानेसे पहले भी ये किसी-न-किसी रूपमे थे और आपके ही थे तथा जब हम इस संसारमे न रहेगे तब भी यह हमारे न रहेगे, आपके ही होंगे। बीचमे ही इनको हमने अपनाकर अपनेको दुखी किया है। अब आप कृपाकर हमे वह बुद्धिवल दे कि जिससे फिर कभी इन पदार्थोंको अपना करके न जाने, वरन् आपके श्राज्ञाकारी सेवक की भॉति निष्काम-भावसे आपके परिवारकी सेवा करें और हानि-लाम अपना करके न मानें । जो आज्ञा आप हमको हमारी बुद्धिद्वारा देवें उसका सत्यवासे पालन करें। जो कुछ मुंहसे बोले यह सत्य बोले । जो कुछ हमारे द्वारा हो वह सबकी भलाईके लिये हो । जो खावें वह आपका प्रसाद हो, जो पीवें वह आपका चरणामृत हो, हाथोंसे जो कुछ करे वह आपकी सेवा हो, पॉवों से चलें वह आपकी परिक्रमा हो, आँखोंसे देखे वह आपका ही रूप देखें और कानोंसे सुने वह आपका गुणानुवाद हो। - हे भगवन् । यह क्रोधरूपी चाण्डाल जब हमारे हृदयमें प्रकट होता है तब हम वन-मनसे अपवित्र हो जाते हैं। इसके आगे हम हार पड़े हैं आप इससे हमारी रक्षा करें हम आपकी शरण है । अरे मन !जब कभी तू इस भूतके प्रभावमें आया हुआ होता है उस समय अवश्य तू अपने सद्गुरुसे विमुख और नास्तिक हो जाता है।
(१) यदि किसी प्रकार हानि समझकर तू इस पिशाचके प्रभावमे आता है तो तू परम नास्तिक है। क्योंकि प्रथम तो हानि-लाम तेरा अपना कुछ है ही नहीं, जब कि कोई पदार्थ तेरे अपने रहते ही नहीं हैं। तू तो केवल अपने कर्तव्यका पालन
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( २१ ) करनेवाला है, सोनू कर । किर यदि किमाने व्यर्थ इस परिवार की हानि को है तो उसका हिमाव वे सत्गुरु परमात्मा श्राप कर लेंगे। उन त्र्यम्बककी ऑखोंमें कोई लण नहीं डाल सकता। तुझे क्या जरूरत पड़ी है कि तू अपनी ड्यटीसे आगे बढ़कर उल्टा अपने मनरूपी अमूल्यं रत्नको इन कौडियोंके वदले मलिन कर लेवे और कुटुम्बकी ममता जोड़कर उन सद्गुरुसे भी विमुख हो जावे । क्योंकि ममता विना क्रोध नहीं होता। दूसरे,यदि विचारसे देखा जाय तो इस हानिका कारण केवल यही है कि तू पहले कभीनं-कभी इन विषयोंमें मन फँसाकर अपने परमात्मासे अवश्य ही विमुख रहा है, जिसके बदलेमें उस परमात्माने इस रूपमे प्रकट हो तुझे चावुक लगाया है । अव तू फिर उन विरोधीसे बदला लेनेको दौड़ता है । जरा होश कर, अपनी भूलको फिर दुगनीचौगुनी कर रहा है और फिर चावुक खानेका सामान पैदा कर रहा है।
(२) यदि अपमान समझकर तू क्रोधित होता है तो प्रथम तो अपमान तभी होता है जब तू इस चमड़ेको पापा करके जानना है और इसका अभिमान करता है। चमडेका अभिमान करनेवाले तो नीच जाति होते हैं। और सद्गुरुने तो अपने अनुभवसे बारम्बार हमको ऐसा उपदेश किया है कि तुम देह नहीं हो बल्कि आत्मा हो,फिर इसके विपरीत तेरा देहरूप बनना और देहरूप वनकर क्रोध करना सत्गुरुके बचनोंका अनादर करना है,जो महान काफिरपन है 1 इस तेरी दुष्टताके कारण तो तुझे तपना ही चाहिये। फिर उल्टा उस विरोधीसे बदला लेनेको दौड़ता है। जरा सम्हलकर देख कि ऐसे पवित्र वचनोंका अना
दर करके अधोगतिको प्राप्त होगा। . हे प्रभू आपके चरण-कमलोंकी दुहाई है इस पापीसे
हमको बचाओ और अपना वह आत्मिक बल हमको प्रदान करो
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( २२ ) हम जिससे इस शत्रुको जीते और इस चाण्डालसे हमारा पर्श न हो।
मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपंहुँ दोऊ कर जोरे मैं श्रीभगवान ! ॥१॥
(शेष पृ० १० पर)
(७) सर्वत्याग-प्रार्थना हे भगवान् ! यह अपनी मायाफा गोरख-धन्धा तो आपने विचित्र फैलाया है, यह तो किसी प्रकार सुलझनेमें ही नहीं
आता। ज्यूँ-ज्यू सुलझाने जाते हैं उल्टा-उल्टा उलझवा जाता है, हम तो वेढव फंसे हैं। आपको मायाने वो बन्दरकी भॉति बड़ा नॉच नचाया है। अब तो हमसे यह नॉच नहीं नॉचा जाता, हम तो थक चुके । आपकी कृपासे थाडी ऑखे टिमटिमाई तो मालूम हुआ कि हम तो अभीतक ठगे ही पड़े थे, जिनको भोग समझते थे वे तो रोग निकले,जिनको अमृत समझा था वे तो विष निकले। आपकी मायाका तो कहीं पार ही नहीं, जन्ममरणके चकका कहीं अन्त ही नजर नहीं आता । अब कृपा करो अपनी मायाका ममेटो, आपका तो खेल होगया परंन्तु हमारा तो मरना । आपकी तो यह हंसी हुई परन्तु हमारा तो जलना और रोना । यह तो हाँसी में खॉसी निकल पड़ी। के विरहनिको मीच दे के आपा दिखलाय ।
आठ प्रहरका दामना मोपे सहा न जाय ।। कृपा करो, यदि आपको अपना खेल खेलना ही मजूर है वो हमको भी वह दृष्टि प्रदान करो, जिससे हम भी तमाशा देवनगाले बनें। अब तो हमसे इस संसाररूपी नाटकघरमें एस्टर (Acian) बनकर पिटने-पिटानेका झगड़ा नहीं सहा
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जाता। अपना वह गीता-ज्ञान हमको भी प्रदान करो जो अर्जुनको दिया था, जिससे हम भी सब कुछ करते हुए कुछ न करनेवाले वनकर रहें। इतने कृपण क्यों होते हो ? मर्यको वारह (१२) महीने प्रकाश बख्श दिया, हमको आठों प्रहर निजानन्द देनेसे आप भूखे तो नहीं हो जाते।
हे प्रभो! अब तो हम आप उस मायावीको देखनेके लिये तड़पते हैं, जिस अनन्तके श्राश्रय यह तुच्छ माया भी अनन्त हो रही है । अब तो मुमसे दो-दो बातें नहीं हो सकती कि आपके कुटुम्बकी भी देग्य-रेख रक्यूँ और आप दुलारे-प्यारेके मुखको भी निहारू । अब तो मेरी मधुकरी हो तो तुम, मेरी कुटी हो तो तुम और लकुटिया हो तो तुम । आपकी इच्छा हो तो भले अपने कुटुम्बकी देख-भाल रखो, मेरा क्या इनसे गुजारा होता है ? कृपा करो, अपना वह बुद्धि-बल दो कि जिससे हम आपके सर्वरूपको ज्यू -का-त्यू जानें। हाथोंसे जो कुछ करे वह आपकी सेवा हो, पाँचोंसे चले वह आपकी परिक्रमा हो, ऑखोंसे' जो कुछ देखें वह आपका रूप देखें, कानोसे जो कुछ सुनें वह आपका गुणानुवाद हो, जो कुछ खावें वह आपका प्रसाद हो और जो कुछ पीवें वह आपका चरणामृत ही हो।
मम सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपहुँ दोउ कर जोरे मैं श्रीभगवान् ! ॥१॥
(शेष पृ १० पर देखो)
(८) अहङ्कार-दमन प्रार्थना हे भगवान् ! आप कल्याणस्वरूप हैं, कल्याणमूर्ति हैं, कल्याणके समुद्र हैं। आप कल्याणस्वरूपसे कोई बुराई कैसे निकल सकती है ? सूर्यसे अन्धकार कैसे प्रकट हो सकता है ?
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( २४ ) सच-मुच बुरे हम हैं, जो आपकी करणीमे भलाई बुराईकी कल्पना करते रहते हैं और तपते हैं। जिस प्रकार बच्चेके शरीरमें उत्पन्न हुए फोड़े को जर्राह चीरा लगाकर उसकी पीप निकाल देता है, परन्तु मूर्ख बालक जर्राहके उपकारको न जान उल्टा रुदन करता है। इसी प्रकार हे स्वामी ! आप भी हमारे संसाररूपी रोगको दूर करनेके लिये करुणा करके समय-समय पर हमारे हृदयमें चीरा लगानेकी कृपा करते हैं, परन्तु हम अपनी मूर्खतासे आपके उपकारको अनुपकार करके मान लेते हैं और उल्टा आपके अपराधी वन जाते हैं।
हे प्रमो! चारों ओरसे टकरें खा-खाकर अब हमने यह अटल निश्चय कर लिया है कि मंसारमें और दुःख कोई नहीं, केवल इस तुच्छ अहङ्कारका किसी भी रूपमे उदय होना, यही दुःख है और कालीय-दमनकी भाँति इसके फोंको मसलते रहना, यही एक सुख है । यहो सब दुःखोंकी ग्वानि है, जिससे जन्म-मरणरूपी आपदा निकलती रहती है। आप अनन्त शान्तसमुद्र में मसाररूपी भेवर उठानेवाला और जीवको उनमें डुवा देनेवाला यही एक जीवका परम शत्रु है। पहले यह अपने अज्ञान करके आपके स्वरूपसे भिन्न 'श्रहं रूपसे कुछ वन बैठता है, शेष प्रपंचको अपनेसे भिन्न करके जानता है और इस भेदबुद्धि करके किसीमें अनुकूलता, किमीमे प्रतिकूलता ठानता है। इसप्रकार अनुकूलमे रागवुद्धिसे चिमटनेके लिये और प्रतिकूलमें द्वेपबुद्धिसे त्यागके लिये मटपटाता है। इसी राग-द्वपके कारण यह कर्ता-बुद्धि करके पुण्य-पापके बन्धनमे बँधा हुआ घटीयन्त्रक समान जन्म-मरणके चक्करमें पड़ा हुआ ऊपर-नीचे भटकता फिरता है। वास्तवमें यदि विचारसे देखा जाय तो कोपन
रज्वकमात्र भी इसका कुछ नहीं, सब कुछ कता-धर्ता तो श्राप • ही हैं। जो काम इसकी जानकारीमें होते हैं उनमें भी केवल
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२५ )
बीच में ही अपनी टॅगड़ी अड़ाकर मैं कर्ता हूँ' इस अभिमान करके वृथा अपने गलेमें फॉसी डाल लेना ही इसका प्रयोजन रह जाता है और कुछ नहीं ! शरीरमें भोजन खानेके पीछे मल, मूत्र, सप्त धातु आदि । वननेपर्यन्त असंख्य अवस्थाएँ भोजनकी बनती हैं और लखोखा क्रियाएँ प्रत्येक घड़ी शरीरमें वर्त रही हैं जिनका इसको प्रत्यक्ष भी नहीं । परन्तु उन प्रत्येक अवस्था व क्रियाके ऐन नीचे तरङ्गोंमें जलके समान आपकी सत्ता हाजिर है, आपकी सत्ता विना किसी भी क्रियाका उद्बोध सम्भव नहीं। फिर जो काम इसकी जानकारीमें हो रहे हैं, उनमें भी इसका अभिमान धार लेनेके सिवाय और कोई लगाव नहीं। पॉवके चलनेमें, हाथके हिलनेमें, नेत्रादिके देखने में, मन-बुद्धिके सोचने में शरीर व दिमाराके अन्दर असंख्य नाड़ियोंमें असंख्य चेष्टाएँ होती हैं जिनसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं, परन्तु आप उन प्रत्येक चेष्टाके ऐन नीचे विराजमान हैं, प्रत्येक बौद्धिक विकासमें आपकी हो ज्योति है। .
अरे तुच्छरूप अहङ्कार ! अव मैंने जाना है कि तू निस्सार है और तू मेरे अनर्थके लिये है। तेरा होना मेरे व्यवहार व परमार्थक नाशके लिये ही है, तू आया कि सभी आपदाएँ व विघ्न हाजिर हुए। इस शरीररूपी विलमें सर्पके समान बैठा हुआ तू ही अपनी फुत्कारसे मुझे तपानेवाला है, अब मैंने अपना चोर पकड़ा है, मेरे आत्मधनको चुरानवाला तू ही है।
हे प्रभो! अपना वह बल प्रदान करो जिससे हम इस शत्रुको जय करें, आपके चरण-कमलोंके अनुरागी हों और सच्ची शान्तिके भागी बनें हाथसे जो कुछ करें वह आपकी सेवा हो,पॉवों से चलें वह आपकी परिक्रमा ही हो, जो देखे आपका रूप देखें, जो खावें वह आपका प्रसाद हो और जो पीवें वह आपका चरणामृत ही हो । सवको अपनी आत्मा जानें किसीको तुच्छ
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न समझे । जब हम किसीको तुच्छ जानते हैं तब आप तुच्छ हो जाते हैं, क्योंकि वास्तवमें वहाँ आप ही विराजमान होते हैं और वह आपकी ही एक मॉकी होती है। अपने अज्ञान करके वास्तवमे उस वस्तुका अनादर नहीं होता, बल्कि अपनी प्रति. क्रियासे हम आपके ही अपमानके अपराधी वन बैठते हैं। हरेहरे, हे प्रभो ! हमसे ऐसी भारी भूल फिर कभी न हो।
म्म सर्वस्व स्वीकारहु हे कृपानिधान ! अपहुं दोउ कर जोरे मैं श्रीमगवान् ! ॥१॥
(शेप पृ१० पर देखें) (६) मनोवल-वर्धक-प्रार्थना हे अन्तर्यामी देव ! हे मेरे साक्षीस्वरूप! हे मेरी आत्मा! हे सर्वात्मा! सर्व कर्ता तू ही है । तेरे सिवाय इस संसारमें है ही कौन, जिसको कर्तारूपसे ग्रहण किया जाय ? दुःख-सुख सबका दाता तू ही है और तेरो सव चेष्टा हमारी भलाई के लिये ही है। दुःख तेरा महाप्रसाद है, जो तू अपने प्रेमियोंके लिये ही कृपा फरता है। जिस प्रकार कुम्हार धड़ोंको अवेमें रखकर पकाता है, कञ्चे घट तो किस कामके, वे तो जलको धारण ही क्या करेंगे, जरा-सी ठोकर लगते ही फूट पड़ते हैं। इसी प्रकार हे मेरे निजामन् ! तू भी हमारे ऊपर दया करके हमारे हृदयरूपी घटोंको दुःस-सन्तापम्पी अवेके भीतर रखकर पकानेका कष्ट कर रहा है, जिससे ये हृदय जरा-जरा-सी ठोकरोंसे फूट न जावें और परमानन्दरूप अमृतको धारण करनेमें समर्थ हो। धन्य है, हे कल्याणस्वरूप! तेरी चतुराईको वारम्बार धन्य है ! परन्तु हे मर्वमाक्षी थोड़ी धीमी-धीमी अग्निसे सेको, बहुत तेज अग्नि में घटोंके फूट जानेका भी भय है। हम अभी तेरे नन्हे बालक
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( २७ ) है, तेरी परीक्षामें पूरे उतरनेके योग्य नहीं। हाँ! इसी प्रकार तेरी कृपा बनी रही तो कोई बड़ी बात नहीं कि हम 'बावन तोला पाव रत्ती ठीक-ठीक उतरें। तु अपना रहम कर, तेरी दयासे सब कुछ सिद्ध होता है। हनुमानने तथा ग्वालोंने तेरी कृपा-कटानसे जव पर्वतको गैंदकी ममान नचा डाला तो ये दुःख तो तुच्छ हैं। तेरी मेहर हो तो ये तो हमारे लिये फूल हैं, ये तो तेरी एक प्रकारसे प्रेम-ठठोली बन सकते हैं । लाल-लाल आँखोंमे, चतुल्य वचनोंमे क्या तू विराजमान नहीं है ? यदि है, तो फिर हमारे लिये दुःख क्यों? हमको वह दृष्टि क्यों नहीं प्रदान करते, कि हम वहाँ आपको मॉकी कर सकें। सब करने करानेवाले तो तुम हो, मव नाच तुम हो तो नचाते हो, हम तो केवल काठकी पुतली हैं। जो शस्त्र रण-संग्राममे ही नहीं चलाया गया तो खाली वीर बनने से क्या ? सर्व कर्तापनेका अभिमान धारके बैठे हो, जो समयपर * ही वहाँ अपने देखनेकी दृष्टि न दी, तो कोपन तुम्हारा किस काम का ? लाल-लाल आँखोंमें छुपकर चोट मारनेका क्या काम ? खुले मैदानमे आओ, क्या सामने आनेमे तुझे लाज आती है ? क्या तेरी सुन्दरतामें बट्टा लग जायगा ? क्यों श्रोहले वह वह झाँकीदा। यह पड़दा किस तो राखीदा।।
राजा दिलीप जब बनमें नन्दनीकी सेवा कर रहे थे, तव उनकी परीक्षाके लिये धर्मने सिंहरूप धारणकर नन्दनीको पकड़ लिया। दिलीपने तत्काल सिंहके सम्मुख अपना शरीर खड़ा कर दिया कि पहले इसका भक्षण कर । यह साहस देख सिंह तत्काल सौम्यरूपमे प्रकट हो आया । इसी प्रकार हे अन्तर्यामिन् ! आप मुझ नन्दनीके लिये साहसरूपी दिलीप भेजें, जिससे आपका यह नृसिंहावतार मेरे लिये आनन्दरूप बन जाय। 'अर्जी हमारी आगे मी तुम्हारी है।
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( २८ ) इष्टदेवकी प्रार्थनाके अनन्तर
मनके साथ विचार अरे मन | आज ईश्वरस्वरूप अपने इष्टदेवको सातो देकर सत्य-सत्य तेरेसे तेरे इस जीवनका लेखा माँगता हूँ। निष्कपटता से मुझे आज बता कि तेरा पाना इस संसारमै और इस योनिमें किस लिये हुआ था और जिस निमित्त तू आया था उसमेसे क्या कुछ तूने किया है ? यह तो हमे तत्काल ही फनूल कर लेना पड़ेगा कि केवल सुख प्राप्त करनेके लिये और ऐसा सुख प्राप्त करने के लिये कि जिसका कमी क्षय न हो, केवल यही निमित्त तेरे संसारमें आनेका है।
अच्छा! अव यह बतला कि अवतक इस लक्ष्यकी पूर्तीमें तू कहाँतक आगे पढ़ा या पीछे हटा ? मैं जो हड़काये कुत्ते के 'समान इस भोजन (परंसुख)का मूखा आया था, अबतक मेरी भूख मिटानेके लिये क्या तो तू ने:
(१) भोगरूपी हड्डियाँ ही मेरे सम्मुख डाली, जिनमें तेरे करके भरमाया हुआ मैं अपना ही मसोड़ा फोड़ अपना ही खून 'पीता रहा । परन्तु मेरी भूख तो अभीतक एक मासके बरावर
कुत्ते हड्डीको धवाते हैं जिससे उनका मसोढा फुटकर खून निकल आता है । अपने ही खूनका पान करके जो मिठास उनको प्रतीत होता है, वह मिठास हडोमेसे पाया जान वे बारम्बार उसको चबाते हैं। इसी प्रकार जो सुन्न विषयसम्बन्धसे जीषको प्राप्त होता है वह विषयों में नहीं, किन्तु मनुष्य के अन्तरारमाके ममासमन्य हो यह सुख होता है, 'जेसा भास्मविलास प्र.ख.पू.७७ से ८२पर स्पष्ट किया जा चुका है परन्तु मनुष्य अपने भज्ञान करके विषयोंको ही सुखस्वरूप जान बारम्बार उनका सेवन करता है और दुखी होता है।
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भी पूरी न हुई और मै नो सारे संसारके सुखको हड़प करनेके लिये तड़प रहा हूँ, कि जिससे ऊँचा और कोई सुख दुनियॉमे न मिले। परन्तु सुखके बजाय तूने तो उल्टा तृष्णाकी अग्निमें जलाया, जिसकी स्मृतिसे अब भी कलेजा जलता है और इसका कलङ्क तो इतना काला है कि इमकी त्याही अनेक जन्मोंमे भी नहीं धुल सकती!
(२) अथवा तूंन मान-बड़ाई पानेमें अबतक मुझे फंसाया और यह चिरका दिया कि इससे मैं सुखी होऊँगा। परन्तु सुम्वी होनेके बजाय उल्टा राग-द्वेपकी अग्नि भड़की और दीनका दीन ही रहा।
(३) अथवा तूने मेरेमे यह अभिमान भरा कि मैं बुद्धिमे निपुण हूँ। परन्तु यह बुद्धिको चतुराई तो संसारके लिये नहीं थी, इस चतुराईका उद्देश्य तो केवल यही था कि जड़-चेतनमिश्रित इस संसारमेंसे हंस-वृति करके दूधके समान परम सार वस्तु को (ढ निकाला जाता। न यह कि इस चतुराई करके आप ही अपने गलेमे जन्म-मरणकी फांसी लगा ली जाती।
हाय ! इस हिसावसे तो पाया कुछ नहीं,सर्वस्व खोया कमाया कुछ नहीं, श्वासोंकी पूँजी ही गंवा बैठा। तृप्ति कुछ न हुई, उल्टा रोग बढ़ा। अरे दुहाई है। मैं तो लुट गया, मेरी गति तो इसके हाथोंमे वही हुई जो एक गौकी कसाईके हाथो में होती है। अरे दुष्ट ! बछड़े के समान दूध ग्रहण करनेके बजाय तू तो जोककी भॉति मेरे खूनका प्यासा हुआ। हंस बननेके बजाय तू नो मांस-विष्टा ग्रहण करनेवाला काक निकला।
हे प्रभो दुहाई है आपके चरण-कमलोंकी, मैं अनाथ आपकी शरण हूँ, मित्रके स्वॉगमे इस शत्रुसे मेरी रक्षा करो। मेरे घर विच चोर उचक' । केई दुश्मन लागे पक्के ।
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( ३० ) घर चोर न फड़िया जाई । मेरो तेरे पास दुहाई ॥ मैं दीन दुखी तब टेका । तुम बांझ न सहुरा पेका ।। मेरा उजरा धाम वसावो । 'मेरा' 'मैं नूं मार मुकावो॥ बिन दर्श तुम्हारा देखे । मेरा जोवन केहिरे लेखे । अब नाथ देर नहीं कोजे। मेरी दुपदी नाव कढोजे।।
अरे मन | तू आप अपना शत्रु मत बन, अपना मित्र बन । इन पाचारणोंसे तू भी सुखी कहाँ ? हाय । तू इतना प्रमादी क्यों हो गया, जिससे आप ही अपनेको बन्धन कर अपने संगसे मुझ चेतन-पुरुषको भी अनर्थका पात्र बनाता है। मालूम होता है तू जातिसे कोई चाण्डाल है, जिसने केवल अपने सम्बन्धसे मुझ निष्पाप-निष्कलङ्कको भी पापी कलङ्की बना डाला । अव तो चेत कर, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा । सोना यदि कीचड़में मिल जाय नो उमके अन्दर कुछ विकार नहीं चला जाता, वह धोनेसे ही शुद्ध है। अब तू अपने-आपको शुद्ध कर और अपने सम्बन्धसे मुझ चेतन-पुरुपको मलिन करनेके बजाय मेरे सम्बन्धसे तू निर्मल हो। पुत्र कलत्र सुमित्र चरित्र, धरा धन घाम है बन्धन जी को। चारहिं बार विपय-फल खात, अघात न जात सुधारस फीको। धान श्रीसान तजो अभिमान, सुनो धर कान भजो सिय पी को। पाय परमपद हाथ सुजात, गई सो गई अब राखरही को। एक श्वाँस खाली नहीं खोइये खुलक बीच,
कींचरूप कलङ्क अङ्क धोयले तो धोयले। ..यि ३ सुसगल ३. पीहर
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( ३१ ) उर अन्धियार पाप पूर से भरयो है,
तामें ज्ञान की चिराग चित जोय ले तो जोय ले । मानुष जन्म बार वार ना मिलेगो मुद्र,
परं प्रभू से प्यारो होय ले तो होय ले । क्षणमङ्गर देह तामें जन्म सुधारिखो है,
विजली के झमके मोती पोय ले तो पोय ले। अनके बाजी चौपड़ की पौ में अटकी प्राय । जो अबके पौ ना पड़े तो फिर चौरासी जाय ॥ मेरी वहिन ! मेरी प्यारी बुद्धि ! तू भ्राताके समान मेरा उपकार कर.। मैं तुम प्यारी वहिनका अतिथि है। तू ऐसा सत्यसत्य निर्णय कर जिससे हम-तुम सभी परिवार सुखी हो। इम पापी मनने मेरा बल मुझसे छीन लिया है, जिससे मैं अनन्त शक्ति होता हुआ भी इस दोनके सम्बन्धसे दीन हो गया हूँ। अव तू ज्यू -का-त्यूँ मुझे मेरा वल न्मरण करा, जिससे केमरीसिंहकी भांति इस मनके पिजरको तोड़ मुक्त हो जाऊँ। और पूर्ण त्यागका वल मेरेमे ऐसा भर, जिससे डंकेकी चोट मायाको जीत अपने वास्तविक स्वरूपमे प्रवेश पाऊँ, इस तुच्छ शरीरमै अहंभावको भस्मकर सर्व भूत-प्राणियोंमे अहंरूपसे स्थित होऊँ और सब सम्बन्धोको तोड़ तुम सबका ही आत्मा हो जाऊँ । __ मेरे प्यारे मन ! अब तू मेरा साथी वन, अपना विरोध त्यागकर मेरे वलमें अपना वल मिला और सत्यतासे विचार . कर कि विना त्यागके तो किसी प्रकार निर्वाह है नहीं:
(१) यदि आर्थिक दृष्टि से कुटुम्बियोंके किसी प्रकार क्लेश का विचार करता है तो तू उनके प्रारब्धका स्वामी बनता है
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और ईश्वरके कामको अपने हाथमे लेता है। यह तो महान नास्तिकता और काफिरपन है।
(२) यदि ऋणके विचारको गग्मुस लाता है, तो मुख्य-रण वह है जो ईश्वरकी पोरसे जीवपर लगाया गया है कि 'मुझको ठोक-ठोक जानो' इस ऋणके न चुकाने करके उसके व्याजव्याजम हो यह समारिक-ऋण मिरपर बढ़ते जा रहे हैं, जिनका पूरा-पूरा चुकाना ही कठिन है ।यदि किमी अंशमै चुकाया भी गया तो सञ्चित-कर्माका अनन्त भण्डार भरा पड़ा है जिमका चुकाना तो असम्भव ही है। परन्तु जब हम इस मुख्य-ऋणको चुका जायेंगे तो आँखे खोलते-खोलते चे सत्र ऋण आप पूर हो जायेंगे और 'त्याग' ही इस ऋणकी अदायगी है। ___ (३) यदि शरीरका विचार करता है तो अमरपटा तो लिख कर लाये ही नहीं हैं और वास्तवमै तो मरनेसे पहले ही मरना यही अमर होना है। इस लिये छोड दो इस शरीरकी आशाको, इसकी बलि दे दो उस वेनाम पर । मर्जी हो तो वह अपने शरीर की सेवा करे। उठ खड़ा हो, क्या मसाररूपी सरायमें डेरे डाले पड़ा है ? यहाँ कोई माँ तो वैठी ही नहीं, देख सिरपर काल मँडरा रहा है। सुख चाहता है तो चल रामके धामको। उठ जाग मुसाफिर भोर गई, अब रैन कहाँ जो सोवत है। जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सो पावत है। जो कल करना वह आज काले,जोबाज करनावह अब करले। जब चिड़ियाँ खेतको चुग गई, फिर पछताये क्या होवत है।
(१) तत्त्व विचार (१) घर-बार, कुटम्ब-परिवार, जितने भी ममताके नाते हैं, ये सव नाते केवल शरीर करके ही हैं। स्वप्नमें जब इस शरीर से हमारा सम्बन्ध नहीं रहता तभी ये ममताके नाते नहीं
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( ३ ) रहते, फिर शरीरके नाश होनेपर तो इन नातोंने रहना' ही क्या हैं ? अर्थात शरीरको जब मैं आपा करके जानता हूँ तभी यह ममताका बन्धन मुझको बाँध लेता है। ।
(२) मो शरीर में कदापि नहीं। किन्तु यह तो 'पाँचों भूतोंके साझेकी एक गठंडी है किसी एक भूत की भी नहीं, फिर मैं यह शरीर कैसे हो सकता हूँ? दूसरेकी वस्तुको अपना मान बैठना तो चोरी है। ऐसा पाप करके मैं दुःखका भागी क्यों चलूँ ? और मैंने तो अपनी भूलसे इसे शरीरको मेरा मानकर ही संतोप नहीं किया, किन्तु यह शरीरं ही में वन वैठा और ममताके नाते जोड़ने लेगा। यह तो एक घर पञ्चभूतोंने रचकर मुझको थोड़े काल निवासके लिये दिया था, परन्तु मैं तो अपनी जड़ता करके घर ही आप वन वैठा और इसके सुख-दुःख, मान-अपमान से तपने लगा। सभी क्लेशोंकी मूल इस शरीरके साथ अहेन्तासम्बन्ध ही है । घरमे रहनेवाला किरायेदार आप घर नहीं हो जाता और न घरके नाश होनेसे अपना नाश हो मानता है। .. . (इसलिये न मैं शरीर हूँ और ने मेरा शरीर है । और जब शरीरं ही मैं नहीं तो मर्मताके विषय पदार्थ कोई भी मेरे नहीं। मैं तोक्त्या स्थूल-शरीर, क्या सूक्ष्म शरीर क्या कारण-शरीरै अर्थात् जाग्रत, स्वप्न व सुषुप्ति तीनों अवस्थाओंका देखनेवाला व जाननेवाला हूँ। यह तीनों अवस्थाएँ व्यभिचारी हैं ! अर्थात् जाग्रत् में स्वप्न-सुपुप्ति नहीं, स्वममें जाग्रत सुपुप्ति नहीं और सुषुप्ति में जाग्रत्-स्वप्न नहीं रहते। परन्तु 'मैं तीनों अवस्थाओं में है और तीनों अवस्थाओंको देखने जाननेवाला ‘साक्षीरूप से सब अवस्थाओमें हाजिर हूँ। तथा संब'अवस्थाओंमें रहने को अपनी प्रत्यक्ष साक्षी भी देता हूं कि "धुमिमें मैंने देखा संसार तथा शरीर इन्द्रियाँ मन, बुद्धि व अहंकार कुछ भी नहीं थे, केवल सुख ही सुख था। और स्वप्नमें मैंने देखा कि बड़ी चञ्चल देशा थीं,
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( ३४ ) कभी मैं राजा था कभी भिखारी और वही मैं जाग्रत्मे यह सब टिकाऊ रूपसे देख रहा हूँ'। इससे स्पष्ट हुआ कि मैं सब अवस्थाओंमे हाजिर हूँ। ।
(४) अथवा दूसरा विचार यह कि जो चीज 'मेरी होती है वह चीज 'मैं आप नहीं हो जाता । किन्तु मेरी चीज़ मुझसे सदैव भिन्न होती है, जैसे मेरा भूपण, मेरा वस्त्र मुझसे अलग ही होता है। इसी प्रकार हम अपने वयानसे सिद्ध करते हैं कि 'मेरा शरीर रोगी है.' 'मेरी आँख-कान आदि इन्द्रियाँ थकित हो गई हैं, 'मेरा मन नहीं टिकता,' 'मेरी बुद्धि चञ्चल हो रही है, 'मेरा अन्तःकरण दुःखी है।' इत्यादि व्यवहारसे यह सिद्ध होता है कि न मै शरीर हूँ, न इन्द्रियाँ, न मन, न बुद्धि और न अन्तःकरण ही हूँ। किन्तु यह मेरे हैं और मेरा इनसे काल्पनिक मिथ्या सम्बन्ध है,क्योंकि सुपुप्तिमें यह कोई भी नहीं रहते परन्तु मैं तो वहाँ भी हूँ।
(५) इस प्रकार मैं सब अवस्थाओंका साक्षी, सबको देखने-जाननेवाला और नित्य-निरन्तर अजर-अमर हूँ । जरा. मरण, सुख-दुःख आदि विकार शरीरके हैं, शरीर अपने भोगों को भोगे, मुझे इससे क्या ? किन्तु मैं तो शरीरके सब विकारों को जाननेवाला हूँ और यह सिद्ध करता हूँ कि मेरा शरीर सुखी है, दुःखी है और उन दु.खादिको भी देखने जाननेवाला हुँ ।
और यह बात स्पष्ट है कि देखनेवाला-जाननेवाला देखी जानेवाली चीज नहीं बन जाता,किन्तु देखी हुई चीजसे अलग ही रहता है । जैसे घटका देखने जाननेवाला स्वयं घट नहीं बन जाता। इसीप्रकार दुःखादिको देखने-जाननेवाला मैं दुःखादिसे अलग हूँ । शरीरके मरनेसे मैं मरता नहीं, जन्मसे मैं जनमवा नहीं, शरीर रहे चाहे गिरे। शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि मेरे जलस्वरूपमे तरङ्ग के समान उत्पन्न होते और लय होते हैं, किन्तु मेरे जलस्वरूप
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( ३५ ) में कोई हानि नहीं कर सकते । शरीरादिके उत्पत्ति-नाशमें मैं अपने जलस्वरूपमें न्यू -का-त्यूँ हूँ। उत्पत्ति-नाश तरङ्गोंका है, मेरे जलस्वरूपकी न उत्पत्ति है न नाश । तरङ्गोंकी उत्पत्तिमें भी जल है, स्थितिमें भी जल है और तरङ्गोंके नाशमें भी जल है। यही 'सोऽह' ( वह मैं हूँ। का भावार्थ है। । नहीं देह' इन्द्रिय न अन्तःकरण । . ' '
नहीं बुद्धधहकार व प्राण मन ।। नहीं क्षेत्र घर वार नारी न धन ।
मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, चिदानन्द धन । '
(२) तत्व-विचार (१) जिस प्रकार अन्त करण व इन्द्रियाँ घटादिको देखतीजानती हैं, इसी प्रकार देखना व जानना आत्माका नहीं। क्योंकि अन्तःकरण आँखसे निकलकर घटादि देशमें जाता है और वस्तुके रूपको अपनी क्रिया करके देखता है । वही अन्तःकारण कानसे निकलकर शब्ददेशमें जाता है और शब्द को जानता है। परन्तु आत्मा वस्तुदेशमें जाकर वस्तुका ज्ञान नहीं करता, क्योंकि वह तो सर्व व्यापी है उसमें आना-जाना नहीं बनता, वह तो पहले ही वहाँ मौजूद है । इसलिये आत्मा का देखना व जानना अन्तःकरणको भॉति क्रियारूप नहीं, किन्तु केवल प्रकाशरूप है। , . , .
(२) जिस प्रकार दीपक घरमें आप. प्रकाशमान होता हुआ घरकी अन्य वस्तुओंको विना किसी क्रियाके प्रकाशित कर
न मैं देह, इन्द्रिय, मन व बुद्धयादि हूँ और न ही क्षेत्र, घर, स्त्री व धनादि मेरे हैं, किन्तु मैं तो वह अलुस-प्रकाश, आनन्द-धन शिव हूँ, जिसके प्रकाशमें यह सब प्रकाशमान हो रहे हैं और जिस प्रकाशमें इनका व्यवहार हो रहा है। ..
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( ३६ ) देता है इसी प्रकार आत्मा स्वयंप्रकाश होता हुआ शरीरके भीतर सुख-दुखादि तथा बाहर घट-पटादि सब पदार्थोंको प्रकाशित कर देता है। यह प्रकाशरूप ही उसका देखना-जाननाहै ।
(३) परन्तु इतना भेद और है कि दीपक भी घरके एक कौने में रखा हुआ अपनी किरणोंको फैलाकर वस्तुओंपर अपना प्रकाश डालता है, किन्तु आत्माका प्रकाश ऐसा भी नहीं, क्योंकि
आत्मा आकाशके समान वाहर-भीतर सर्वत्र व्यापक है। इस लिये वह सर्वत्र सुख-दुखादि तथा घट-पटादिके भीतर आप बैठा हुआ सबको प्रकाश कर रहा है, दीपकके समान एक कोने में रहकर नहीं।
(४ जिस प्रकार एक ही व्यापक आकाश १०० घटोंमे आया हुआ भिन्न-भिन्न एक-एक घटाकाश नामसे कहलाता है। वथा वही आकाश घरोंमे आया हुआ भिन्न-भिन्न मठाकाश नामसे कहलाता है। परन्तु उन भिन्न-भिन्न घठ तथा मठोंकी उपाधि करके व्यापक आकाशके टुकडे नहीं हो गये, किन्तु वह तो घटादि उपाधिके रहनेपर ज्यूँका त्यूँ है तथा घटादि उपाधि फूट-टूट जानेपर भी ज्यू की त्यू है। इसीप्रकार एक ही आत्मा सर्वव्यापी सव वस्तुओंके वाहर-भीतर रहता हुआ सवको प्रकाश देता है और सब वस्तुओंके उत्पत्ति नाश में उसका उत्पत्ति-नाश नहीं होता, वह चो सव भाव अभावमें ज्यू -का-त्यू है। मुख-दुखादिके प्रान्तर-नान, घट-पटादिके बाह्य ज्ञान तथा उनके भाव-अभावोंको अकाश देता है और आप ज्यू -का-त्यू, है । सो ही मैं हूँ (सोऽहम्)। मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ' इन आन्तरज्ञानोंको, "यह पहाड़ है, यह घर है। इन जड़े पदार्थोंको, 'यह घोड़ा है, यह गाय है इन जङ्गम वस्तुओंको, 'अव घट है अब नहीं है इन भाव;अभावोंको तथा 'अव सूर्य-चन्द्रादिका प्रकाश है और अब अन्धकार है' इत्यादि स्थावर-जगम, स्थूल-सूक्ष्म,
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( ३७ ) . भाव-अभाव, अन्धकार - प्रकाशरूप सब वस्तु व ज्ञानोको प्रकाश देनेवाला है। और आप न स्थूल है न सूक्ष्म. न स्थावर न जगम, बल्कि सबसे न्याग है. सोई सवका साक्षी मैं हूँ। . नहीं देह इन्द्रिय न अन्तःकरण ।
नहीं बुद्धयहकार व प्राण मन ॥ नहीं क्षेत्र घर वार नारी न धन ।
मैं शिव हूँ, 'मैं शिव हूँ, चिदानन्द धन ।।
(३) तत्व-विचार, (१) जो वस्तु उत्पन्न होती है सो कार्य है. जैसे घट उत्पत्तिवाला,होनेसे कार्य है। इसी प्रकार पञ्चभूतात्मक सम्पूर्ण बाह्य प्रपञ्च और देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धंगादि आन्तर प्रपन्च उत्पत्ति रूप होनेसे कार्य है। . (R) काय बिना किसी उपादान कारणके उत्पन्न नहीं हो सकता, जैसे मृत्तिका विना घटकी सिद्धि असम्भव है ! इसीप्रकार कार्यप इस आन्तर वृ वाह्य जगतका उपादान अवश्य चाहिये । और सो उपादान इस अखिल प्रपञ्चका कोइ एक ही वस्तु होना चाहिये । यदि नाना उपादान माने जाएँ तो वे नाना उपादान घट-पटादिके समान कार्य ही होंगे और फिर उन नाना उपादानोंका कोई एक ही पाटान मानना होगा।
.(३). ऐसा एक उपादान अपने कार्योंसे भिन्न होकर भी नहीं रह सकता, बल्कि अपने कार्योंके सर्व देशमैं अनुगत रहकर अभिन्नरूपसे ही उसकी स्थिति सम्भव है। जैसे मृत्तिका घट में अनुगत , होकर अभिन्नरूपसे ही स्थित रहती है। इसी प्रकार कार्यरूप उभय (आन्तर बाह्य) अपस्का उपादानं कारण सत्तासामान्य सत्-चिच श्रानन्दरूप आत्मा ही हो सकता है, जो सर्व कार्योंके अन्तर-बाहिर अनुगत होकर अभिन्नरूपसे स्थित रहताहै।
(१) अपने उपादानसे,भिन्न कार्यकी अपनी कोई सत्ता नहीं
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। ( ३८ ) हो सकती, केवल नाममात्र व प्रतीतिमात्र ही कार्य होता है। जैसे घटकी मृत्तिकासे भिन्न अपनी कोई सत्ता नहीं, मृत्तिकामे केवल नाममात्र व प्रतीतिमात्र ही घट होता है। इसी प्रकार कार्यरूप देहादि जगन्की आत्मासे भिन्न अपनी कोई सत्ता नहीं, केवल नाममात्र व प्रतीतिमात्र ही जगत है। जिस प्रकार घट मृत्तिकारूप ही है,इसीप्रकार देहादि जगत् आत्मस्वरूप ब्रह्म ही है।
(५) यद दहादि जगतका कोई अन्य कारण पञ्चभूतादि माने जाएँ तो नहीं बनता, क्योंकि पञ्चभूत स्वयं कार्य हैं। और जो कार्य है वह कारण नहीं बन सकता, क्योंकि कार्य अपने उपादानमें नाममात्र ही होता है, वस्तुतः अपनी कोई सत्ता नहीं रखता । उत्पत्तिवाले होनेसे पञ्चभूत जव स्वयं कार्य हैं, अपने उपादानमे केवल नाममात्र हैं और स्वसत्ताशून्य है, तब वे देहादि जगतका उपादान कैसे हो? क्योकि मिथ्यासे मिथ्या की उत्पत्ति अथवा प्रतीति सम्भव नहीं, किन्तु सत् वस्तुके आश्रय ही मिथ्या वस्तुकी प्रतीतिका सम्भव है। ।
(६) इन रीतिसे सम्पूर्ण देहादि जगत्का कारण एकमात्र सत्तासामान्य, अस्ति-माति-प्रियस्वरूप आत्मा ही है और उसीमें यह मव देहादि जगत, अन्तःकरण व वृत्तियॉ अभासमात्र व प्रतीतिमात्र ही हैं । सम्पूर्ण प्रपञ्चमे अस्तिरूपसे वह सत्तासामान्य स्पष्ट प्रतीत होता है और उसीके माससे ये सब भासमान हो रहे हैं। जैसे घट है, पट है, देह है, मन है, बुद्धि है, पर्वत है, वृक्ष है इत्यादि रूपसे सब प्रपञ्च सत्तारूप स्पष्ट प्रतीत हो रहा है, 'सो सवका सत्तारूप आत्मा मैं हूँ। नहीं देह इन्द्रिय न अन्तःकरण । ।
नहीं बुद्धयहकार व प्राण मन || ... नहीं क्षेत्र घर वार नारी न धन ।
मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, चिदानन्द घन॥ ..
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( ३६)
(४) तत्त्व-विचार (१) जिस प्रकार कटक-कुण्डलादि सुवर्णक विशेषरूप हैं व कार्य हैं, सुवर्ण कटका कुण्डलादिका सामान्यरूप हे व उपादान है।
इसी प्रकार पञ्चभूतरचित स्थावर-जगमरूप जगत् , देह, इन्द्रियों, अन्तःकरण और सुख-दुःखादि अन्तःकरणकी वृत्तियाँ उत्पत्तिवाले हैं। जो उत्पत्तिवाले हैं सो कार्य हैं और जो कार्य हैं सो सामान्यचेतनके विशेषरूप हैं। इसप्रकार मामान्यचेतन ही इन सब कार्यों (विशेष रूपों)का सामान्यरूप है और उपादान है।
(२) जिस प्रकार सामान्यरूप सुवर्ण विना कटक-कुण्डलादि विशेषरूपोंकी उत्पत्तिका सम्भव नहीं और मामान्यरूप सुवर्णमे विशेषरूपोंके उत्पत्ति-नाशका कोई विकार भी नहीं।
इसी प्रकार सामान्यचेतन विना इन विशेषरूप कार्योकी उत्पत्तिका सम्भव नहीं तथा सामान्यचेतनमे इन विशेपम्प कार्योंके उत्पचि-नाशका कोई विकार भी नहीं।।
(३) जिस प्रकार यद्यपि कटक-कुण्डलादि विशेषरूपोंका परस्सर भेट है, तथापि मामान्यरूप सुवर्णसे किसीका भी भेद नहीं, वह सामान्यरूप सुवर्ण तो मव विशेषरूपोंमे अनुगत होकर व्याप रहा है।
इसी प्रकार यद्यपि पञ्चभूत, घर, जङ्गल, नदी, वृक्ष, पर्वत व देहादि विशेपम्पोंका परस्पर भेद है, तथापि सामान्यचेतनसे किसीका भी भेट नहीं, वह तो सब विशेपरूपोंमें अनुगत होकर च्याप रहा है।
(४) जिस प्रकार कटक कुण्डलादि विशेषरूप अपने सामान्यम्पसे भिन्न कोई वस्तु नहीं हैं। सव कटक कुण्डलादि विशेषरूपोंमें सुवर्ण अपने सामान्यरूपको ही देखता है, विशेष. "रूप केवल प्रतीविमान ही है व भ्रममात्र ही हैं।
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________________ इसी प्रकार पञ्चभूतादि सब 'विशेषरूप मामान्यतनने भिन्न कोई वस्तु नहीं हैं, मव विशेषरूपोंमें मामान्यचेनन अप ही रुपको देखता है, विशेषरूप केवल प्रतीतिमात्र व भ्रममा ही हैं। क्योंकि सामान्यचेतनको निकाल लेनेसे विशेषरूपोंकी कोई सत्ता रहती ही नहीं है, जैसे सुवर्ण निकाल लेनेपर भूपणों स्थिति नहीं रहती। (5) जिस प्रकार उत्पत्ति व नाश कटफ-कुण्डलादि विशेषरूपोंका है, सामान्यरूप सुवर्णकी न उत्पत्ति है न नोश / वह तो सब विशेपम्पोंके उत्पत्ति-नाशमें ज्यूं का-त्यू है और मब विशेषरूपोंके उत्पत्ति-नाशको अपनी सत्तामानसे प्रकाशता है। इसीप्रकार उत्पत्ति-नाशं पञ्चभूतादि व देहादि विशेषरूपा का ही होता है, सामान्यचेतनकी न उत्पत्ति है न नाश / वह तो सब विशेषरूपोंके उत्पत्ति-नाशमें ज्यू -का-त्यू है और सब विशेपरूपोंके उत्पत्ति-नाशको अपनी सत्तामात्रसे प्रकाशता है.। (6. पञ्चभूतादिमे कारणता और देहादिमें कार्यताप्रतीति भ्रमरूप है, क्योंकि पञ्चभूतादि आप उत्पत्तिवाले होनेसे कार्य है व विशेषरूप हैं। और जो कार्य है सो आप भ्रमरूप है, फिर वह किसी दूसरेका कारण कैसे हो ? जैसे कटक आप कार्य है फिर वह कुण्डलादिका कारण कैसे हो ? केवलं सामान्यचेतन ही सर्व कारण कार्योंका एकमात्र कारण है / और घर है, देह है, सुख है, दुःख है इत्यादि सब भाव अभावरूप पदार्थोंमे है, है, है, है रूपसे प्रतीत होता है। 'सो सवका सत्तारूप सामान्य चेतन मैं हूँ,' यही 'सोऽहम्' शब्दका अर्थ है। नहीं देह इन्द्रिय न अन्तःकरण / नहीं बुद्धपहकार व प्राण मन / / नहीं क्षेत्र घर वार नारी न धन। ' मैं शिव हूँ मैं शिव हूँ चिदानन्द धन