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हिन्दुधर्मके अध्यात्मिक ग्रन्थोंमें श्रीमद्भगवद्गीताका अनूठा स्थान है और यह सदग्रन्थ भारतके अतिरिक्त पाश्चात्य देशोंमे भी प्रतिष्ठित है। इसकी अनेक टीकाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं । परन्तु बहुधा टीकाकारोंने अपनी-अपनी निष्ठाके अनुसार अपनी टिप्पणियोंमें 'कर्म'को विशेष स्थान देकर साधन
और साध्यको अभेद सा कर दिया है। स्वर्गीय विद्यावाचस्पति तिलक महोदयने अपनी प्रख्यात पुस्तक 'गीता-रहस्यमै गीताके सूक्ष्म उपदेशको कर्मपर ही तोड़ दिया है। ज्ञाननिष्ठ श्रीआत्मानन्द मुनिजी महाराजने 'गीता-दपर्ण रचकर एक प्रकारसे दूध-का-दूध और पानी-का-पानी कर दिया है और अपने स्थान पर कर्मकी उपयोगिताको मानते हुए यह सिद्ध किया है कि निष्काम कर्म गीताके सूक्ष्म उपदेशकी पराकाष्ठा नहीं है, परन्
आत्मसाक्षात्कारके पात्र वननेका एक साधन है। स्वामीजीने बड़े परिश्रम तथा बड़ी विद्वत्तासे ही नहीं, बल्कि स्वानुभावसे गीताके अमृतमय उपदेशोंमें पद-पदपर जो रहस्य भरा पड़ा है, उसपर खूब ही प्रकाश डाला है। हो सकता है कि आधुनिक टीकाकारोंकी मर-मारसे पीड़ित होकर लेखककी लेखनीमे कर्मवादियोंके प्रति कहीं-कहीं किसी अंशमें कठोरता नहीं तो पक्षपातकी-सी झलक प्रतीत हो और भापाकी दृष्टिसे कई बातें अनेक बार दुहराई गई मालूम हों, परन्तु उससे यह लाभ भी होगा कि अधिकतर आधुनिक टीकाकारोंकी टीकाएँ जिन्होंने पढी हैं, उनको तथा अन्य पाठकोंको स्वामीजीके स्पष्ट, विस्तृत व सरल लेखनीद्वारा समझनेमे बड़ी सुगमता होगी। इस अप्रिसे गीता-दर्पण' एक बड़ी ही उपयोगी और नवीन पुस्तक सावित होगी, जिससे जिज्ञासु व विद्वान् परम लाम उठावेंगे(५ पं० श्रीदुगोशङ्करजी नागर सम्मादक 'कल्प-वृक्ष' उज्जैन
पुस्तक वास्तवमें अपने ढगकी अनूठी है । आपने इसे