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[साधारण धर्म मनमें जो रजोगुण, चलता अर्थात् विक्षेप-दोप है उसको सगुण भकिकी | निवृत्त करना, यही भक्तिका प्रयोजन है । इस
विश्यकता। | रजोगुणको निवृत्तिका उपाय यह नहीं है कि उमको दवा दिया जाय और उसको बाहर निकालनेका मार्ग न दिया जाय, यह तो एल्टा हानिकारक है। जिस प्रकार शरीरके अन्तर रक्तविकार करके उत्पन्न हुआ जो फोड़ा, उसको राजी करनेका उपाय यही है कि उसकी पीपको वाहर निकाल दिया जाय । पीप ज्यू ही बाहर निकली कि शान्ति तत्काल मिलती है। इसके विपरीत यदि इस पीपको निकालनेका मार्ग न दिया गया तो यह हड्डियोंको गलाकर अपने-आप निकासका कोई दूसरा मार्ग खोल लेगी । इसी प्राकृत नियमके अनुसार रजोगुणके वेग को दवा न रखकर उसको ईश्वरीय भक्तिके द्वारा निकाल देना जरूरी है । हाँ! कर्तव्य इतना ही है कि उस रजोगुणका प्रवाह बदल दिया जाय । जहाँ इसका प्रवाह संसारकी ओर चला हुआ था इसे उधरसे रोककर परमार्थकी ओर खोलना आवश्यक है। जहाँ 'घर मेरा वार मेरा, कुटुम्ब मेरा परिवार मेरा, शरीर मेरा प्राण मेरा' की कहानी पढ़ी जा रही थी, उसको 'घर तेरा वार तेरा, कुटुम्ब तेरा परिवार तेरा, शरीर तेरा प्राण तेरा' में बदल देना जरूरी है। यद्यपि भक्तिसम्बन्धी साधन-सामग्री भी रजोगुण सम्भूत हो है, तथापि जिस प्रकार लोहसे लोहा काटा जाता है, परन्तु गरम लोहसे गरम लोहा नहीं कट सकता किन्तु ठंडा लोहा ही गरम लोहेको काटनेमें समर्थ होता है, इसी प्रकार रजोगुणसे ही रजोगुण निवृत्त किया जा सकता है, परन्तु ठण्डे लोहेके ममान भक्तिप्रधान सत्त्वगुणमिश्रित रजोगुण से हो रजोगुणकी निवृत्ति सम्भव है। इसकी आवश्यकता इस लिये है कि संसारकी ओर चलाया हुआ इस रजोगुणका प्रवाह रजोगुणको शान्त नहीं कर सकता, वल्कि अग्नि में घृतके