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आत्मविलास]
[१६६ द्वि० खण्ड पुनमें और गो-वत्सादिमें कारण-कार्यता प्रतीत होती है, परन्तु वास्तवमें स्वप्नके पिता-पुत्रादि समकालीन ही होते है और उनमे परस्पर कारण कार्यताप्रतीति बुद्धिका ही भ्रमरूप परिणाम होता है। ठीक, इसी प्रकार जाग्रतके सर्व कारण कार्य बुद्धिके ही परिरणाम हैं और क्या बुद्धि व क्या बुद्धिके परिणाम सब अधिष्ठान
चेतनके विवर्त ही हैं। उनका अपने अधिष्ठान-चेतनमे रख्खक भी स्पर्श नहीं, जैसे मृग-तृष्णाका जल पृथ्वीको रखकमात्र भी गीला नहीं कर सकता।
(३०) शङ्का :- तुम कहते हो कि कपाल-तन्तु आदि कारण अपने कार्योंसे पूर्व प्रसिद्ध हैं, परन्तु यदि तुम्हारे इस कथनको सत्य माना जाय तो तुम्हारे वेदान्तसिद्धान्तकी ही हानि होगी। क्योंकि वेदान्तका कथन है कि शेयके अनुसार ही ज्ञान होता है, शेय बिना ज्ञान नहीं होता। अर्थात् शेय घट हो और ज्ञान पटका हो, यह असम्भव है, जब ज्ञेय घट है तो ज्ञान भी घट ही होना चाहिये, ज्ञान व जेय समान ही रहने चाहिये, ज्ञेयसे विपरीत ज्ञान नहीं हो सकता। इस सिद्वान्तके अनुसार कपाल-तन्तु
आदि कारणोमें यदि प्रामिद्धता न होती तो प्राक्सिद्धताकी प्रतीति भी न होती। परन्तु कपाल-तन्तु आदि कारणोंमें प्राक्सिद्धता सर्वके अनुभवसिद्ध है, इसलिये तुम्हारे इस सिद्धान्तके अनुसार प्राक्सिद्धताकी प्रतीति ही उनमें प्राकृसिद्धताको सिद्ध कर रही है कि वे अपने कार्य घट-पटादिसे पूर्व सिद्ध हैं।
(३१) समाधान : हाँ, वेदान्तका सिद्धान्त यही है कि जेय विना ज्ञान नहीं होता। वेदान्तका आशय तो यह भी है कि जिस कालमे रज्जुमे सर्पकी प्रतीति होती है उस कालमे सर्प भी उत्पन्न होता है, निर्विपयक ज्ञान नहीं होता । अर्थात् सर्पका केवल ज्ञान ही उत्पन्न नहीं होता, बल्कि बान-कालमे सर्गरूप