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________________ [६४ आत्मविलाम] जायेगा। स्वधर्मका अर्थ केवल घर्णाश्रम-धर्म ही न ले लेना। स्वधर्मका व्यापक अर्थ यह है कि जिस किसी भी शुभ चेष्टामें स्वाभाविक चित्तका लगाव हो, उसके लिये वही स्वधर्म हो सकता है । प्रकृतिका नियम है कि चित्त जिस अधिकारका होगा, अपने अधिकारानुसार चेष्टाके साथ स्वभाविक ही उसका लगाव हो जायगा और उस स्वभाविक चेष्टासे लगकर ही चिन्त ऊँचा उठाया जा सकता है । जिस तरहसे वीजमसे सब अवस्थाएँ अपने अपने समयपर उसके अन्दरमे श्राप निकल आती है, उसी प्रकार धर्मरूप स्वाभाविक चेष्टाओंमेसे भी शेप अवस्थाए अपने आप उसके अन्दरसे निकलेगी। इसी लिये ताकीद की गयी है - सहज कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सर्वारम्मा हि दोपेण धूमेनाग्निरिवायता: (गोभ० ५८ श्लोक ८) अर्थ-हे कौन्तेय ! स्वभावसिद्ध कर्म चाहे सदोष भी हो तोभी उसका परित्याग न करे, क्योंकि सभी कर्म इसी प्रकार प्रारम्भमे दोपोंसे घिरे हुए हैं जैसे अग्नि धूमसे । अग्निका स्वच्छ व निर्मल करनेके लिये जैसे धूममेंसे होकर निकलना जरूरी है, वैसे ही मनुष्यको निर्मल करनेके लिये भी स्वभावसिद्ध कमों से होकर निकलना जरूरी है। यही स्वधमेका ब्यापक अर्थ है । (विस्तार के लिये देखो पृ० ३३ से ३६) धर्म व अधिकारका परपर घनिष्ट सम्बन्ध है, धर्म व वधिकारका | अधिकारको मिन्न-भिन्न नहीं किया जा सकता। परस्पर सम्बन्ध धर्म ही अधिकार है और अधिकार ही धर्म है। अधिकारानुसार वतो हुआ धर्मका कोई भी अङ्ग शेप सब अगोंको इसी प्रकार खीच लावा है, जैसे जमीरकी एक कड़ी
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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