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[आत्मविलास
४२] जो योग समताभावसे आपके द्वारा कहा गया, मनकी चञ्चलता के कारण इसकी स्थिति तो बड़ी दुर्लभ है। अर्जुनकी इस शङ्का का समाधन करते हुए इसी अध्याय ६ के अन्तमे भगवान इस 'योग' की मुक्तकण्ठसे सर्व श्रेष्ठता यूं वर्णन करते हैं:तपस्त्रिभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।।
(गी. अ. ६, श्लो. ४६) अर्थ'- (अपने आत्मस्वरूपमे योग पाया हुआ) योगी तपस्वियोसे श्रेष्ठ है, शास्त्रश्रवणद्वारा जिन्हे परोक्ष-ज्ञान हुआ है उनसे भी श्रेष्ठ माना गया है और कर्मकर्ताओंसे भी वह योगी श्रेष्ठ है। इस लिये है अर्जुन तू योगी बन, अर्थात् उपयुक्त रूपसे अपने परमात्मस्वरूपमें अभेद प्राप्त कर।
सातवें अध्यायके आरम्भमें ही इसी योगस्थितिके उपायके सम्बन्धमें भगवान कहते हैं:मथ्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः । असंशयं समय मां यथा ज्ञास्यसि तच्छणु। (अ.७, १.)
अर्थात्ः मेरे में आसक्त हुए मनवाला और मत्परायण हुआ जिस प्रकार इस योगको उपार्जन करता हुआ तू निश्चयपूर्वक समग्ररूप मुझको जान जायगा, वह ज्ञान मुझसे श्रवण कर। फिर सातवें अध्यायके दूसरे श्लोकमे ही इस ज्ञानको प्रशंसा इस प्रकार करते हैं.ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । यज्ज्ञात्वानेह भूयोऽन्यज्ज्ञावव्यमवशिष्यते ॥ (अ.७, २.)