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साधारण धने] प्राप्त कर लेगा और दूसरे को कई पड़ाव लॉपने पड़ेंगे। ठीक इसी दृष्टान्तसे 'सांख्य' व 'योग' की एकता भगवानको इष्ट है न कि भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र मागे मान करके । श्लोकमे 'सांख्य' के साथ 'प्राप्यते' और 'योग' के साथ 'गम्यते' शब्द प्रयुक्त हुए है:-,
.. 'यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते' ... इस शब्दभेदका प्रयोजन भी यही है कि सांख्यद्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है, योगद्वारा उसीको गमन किया जाता है। श्राशय यह कि सांख्यके द्वारा जो स्थान प्राप्त करना है योगद्वारा भी पहुँचना तो उसी स्थानको है, परन्तु गमन करके, अर्थात् परम्परासे मञ्जिल लाँघ कर । 'प्राप्यते' और 'गम्यते' शब्दका भेद इसी आशयको सूचित करता है । विपरीन इसके परस्पर विरोधी साधनोंकी स्वतन्त्रता व तुल्यबलवत्ता किसी प्रकार युक्ति को नहीं सहार सकती-और न युक्तिविरुद्ध प्रमाण मान्य ही हो सकता है। परन्तु हमारा उपर्युक्त श्राशय तो युक्ति,प्रमाण और दृष्टान्तसे स्पष्ट सिद्ध होता है । तिलक-मतके अनुसार यदि 'सांख्य वयोग को स्वतन्त्र व वैकल्पिक माना जाय तो जो मुमुनु इन दोनो, मार्गोंमें से किसी एक मार्गमें प्रवृत्ति हुआ है, उसके लिये दूसरा मागे सर्वथा निरर्थक सिद्ध हो जाता है मानों वह दूसरा मार्ग संसारमें शून्यरूप ही है और उसका कोई मूल्य नही । परन्तु वेदान्त-भतमें ऐसा नहीं है, मुमुक्षुके लिये दोनो ही मागोका कालभेदसे सदुपयोग किया गया है, यही वेदान्त-मतमे गौरव और तिलक मतमें विचित्र लाघव है। (२) लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।। (अ.३.३)