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( २१ ) हो सकता है तो इतना ही, कि समय-समयपर विचारोंके प्रवाहने जब-जब अन्दर खलबली मचाई तब-तब उनको निकालकर चित्त को शान्त कर लिया गया। शेषमें यह प्रन्थ किसोके लिये कुछ उपयोगी होगा या नहीं, यह तो दृष्टि रक्खी ही नहीं गई है। क्योंकि ईश्वरको नीति कुछ ऐमी ही है कि कोई वस्तु कदापि निरुपयोगी उत्पन्न होती ही नहीं है, जैसी वस्तु उत्पन्न होती है उसकी उत्पत्तिसे पहले वैसे ही उसके ग्राहक भी मौजूद रहते हैं। जिसप्रकार समुद्र-मथनके समय अमृत और वारुणी साथ-साथ उत्पन्न हुए, परन्तु उनकी उत्पत्तिसे पहले ही वस्तु के अनुसार उन दोनोंके ग्राहक देव और असुर हाजिर खड़े हुए थे।
संसारमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दो ही मार्ग हैं। दोनों प्रकारके मार्गावलम्बियोंको अपने अपने अधिकारानुसार जिस-जिसमार्गके जिस-जिस सोपानप जो अधिकारी है, उसको यह गन्थ श्रामविकासका मार्ग देगा, ऐसी शशा की जाती है। 'पुण्य-पापकी व्याख्या में प्रवृत्ति-मार्ग और 'माधारण धर्म' शीर्षकमें निवृत्तिमार्गका बहुलतासे वर्णन है। • अपनी अज्ञान-निद्रामें यह आत्मदेव प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप कैसे-कैसे विलास (खेल) करता है,इसी विषयका इस गन्थमें निरूपण हुआ है, इसलिये इस गन्थका नाम 'यात्मविलास रखा गया है ।। ॐ॥
-लेखक