________________
( २० ।
॥ॐ॥
* भूमिका
'केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि' [अर्थात् हृदयस्थित किसी देवके द्वारा जैसे मैं जोड़ दिया जाता हूँ, वैसे ही बलात्कारसे मुझे करना होता है।]
उक्त वचनके अनुसार ग्रन्थरचनाका कोई सङ्कल्प न होते हुए भी,न जाने किस बलवान् शक्तिद्वारा गन्थाकारमे ये पक्तियाँ इसीप्रकार बलात्कारसे लिखा दी गई हैं, जैसे कोई हृदयमे खलबली मचाकर और हायमें कुलम पकड़ाकर आग्रहपूर्वक कहता हो कि लिख । इस लिये लेखकने भी बिना किसी ऐसे विचारोंके कि 'ये पंक्तियाँ विद्वानों और महानुभावोंके सम्मुख
आदरणीय होंगी या नहीं, अथवा ठुकराई जाकर अपमानित तो न होंगी किसी काभावके बिना निर्भयतासे जैसी अन्दरसे प्रेरणा हुई और जिसपर अन्दरवालेने अपनी स्वीकृतिकी मोहर लगाई, न्यूँ की-त्यू लिख दी गई हैं। जिसप्रकार शरीरमें फोड़ा उत्पन्न होकर पीप मर जाय, तब पीप अपने निकलनेका मार्ग चाहती है और जबतक उसको निकलनेका मार्ग न दिया जाय चित्तको चञ्चल ही करती है तथा पीपके निकल जानेसे शान्ति प्राप्त होती है। ठीक इसी प्रकार अन्धरचनाका यदि कोई प्रयोजन