SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मविलास [१६८ द्वि० खण्ड जिस-जिस आकारको बुद्धिवृत्ति धारण करती है वैसा वैसा ही रूप अधिष्ठान-चेतनमें प्रतीत होता है । वास्तवम अधिष्टान-चंतन मे उन आकारोका न कोई स्पर्श है न उनकी कोई सत्ता है, किन्तु अधिष्ठान चेतनके आश्रय चुद्धि श्राप ही उन श्राकारोको धारती है और उन आकारोको अपनेसे भिन्न जानकर आप ही उन मिथ्या आकारोमें सत्यताकी भ्रान्ति कर लेती है, जैसे चञ्चल वानर दर्पणमें अपने ही श्राकारको अपनेसे भिन्न सत्यरूपमे ग्रहण कर लेता है। फिर उन मिथ्या अनुभवजन्य-संस्कारोंमे भी सत्यताकी भ्रान्ति करके बुद्धि उन संस्कारीको सत्यरूपसे अपने भीतर ले जाती है तथा उन संस्कारके उद्बोधद्वारा जव वृत्ति फिर उन्ही श्राकारोको धारती है, तब वही यह वस्तु है' ऐसा प्रत्यभिज्ञा-भ्रम होता है। वास्तवमे तो वस्तु वही कदापि नहीं और है ही नहीं, जैसे जब हम अपना मुख दर्गणम प्रथम देखकर पुनः-पुन. दर्पणमें देखते हैं, तब पूर्वानुभवजन्य सस्कारोकी भ्रान्ति से ऐसा भ्रम होता है कि 'वही यह मुख है, परन्तु वास्तवमें तो जब-जब हमने दर्पणमे अपना मुख देखा, तव-तत्र नवीन ही मुख वहाँ होता है, 'यही यह मुख है। ऐसा प्रत्यभिना-प्रत्यक्ष दर्पणम तो भ्रमरूप ही है। (३३) इस दृष्टिसे जवकि कपाल-तन्तु आदि कारण प्राक्सिद्धरूपसे प्रसिद्ध हैं, तव चे घट-पटादि अपने कार्योंके प्रति कारण कैसे हो सकते हैं ? क्योकि कारण वे तभी हो सकते थे जबकि अपने कार्योंसे पूर्व उनकी विद्यमानता पाई जाती । परन्तु सम्पूर्ण प्रपञ्च त्रिविध-परिच्छेदवाला होनेसे भूत-भौतिक ऐसा पजिस वस्तुका पूर्व प्रत्यक्ष हुआ हो, उस पूर्व प्रत्यक्षके संस्कारसहित उसी वस्तुकी पुन प्रतीतिको ‘प्रत्यभिना-प्रत्यक्ष' कहते हैं; उपर्युक्त रीतिसे सभी प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्ष'भ्रमरूप ही है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy