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आत्मविलास] द्वि० खण्ड
पूर्वपक्षी यह तो हमने जाना कि मोक्षका साधन केयले त्याग-वैराग्यमर ज्ञान है, अन्य निष्काम-कर्मादि अन्तःकरण
पूर्वपक्ष की शुद्विद्वारा रैराग्यके उपजानेमें सहायक हैं। परन्तु यह तुम्हारा ज्ञानका साधन वैराग्य तो बड़ा कडया है। इसका तो ध्यान पाने ही शरीर कम्पायमान होता है, इसका दृश्य तो हम अपनी आँखोंसे ही देख चुके हैं। सा दुःख परमामा किसीको न दिखावे, सम्बन्धियोंके लिये तो यह मृत्युसे भी अधिक शोकप्रद है । मरे हुए प्राणीका तो स्यापा सभी करते हैं
और देखते हैं, परन्तु यहाँ तो जीते हुए प्राणीको सम्मुख बैठाकर स्यापा किया जाता है । हरे! हरे ।। यह तो कठोरताकी अवधि है। जिन माता-पितादि सम्बन्धियोम जन्म, पले-पोये, खेले, खाये, मोज उड़ाई समय पडनेपर उनको इस प्रकार धोका दे बैठना, यह तो बडी कृतघ्नता है । धर्म तो कहता है :
आत्मस्थिति जानी उसने ही, परहित जिसने व्यथा सही। परहितार्थ जिनका चैभव है, है उनसे ही धन्य मही ।।
परन्तु इसके विपरीत यहाँ तो केवल अपने स्वार्थ के लिये ही सबको चिरका दे बैठना है। साथ ही तुम्हारा यह पैराग्य तो विद्वेपपूर्ण भी है, विद्वेपके बिना सम्बन्धियोंसे मुँह कैसे मोड़ा जा सकता है ? भला जिस चेष्टामें इतनता, स्वार्थपरायणता व विद्वप तीनों शामिल है, वह धर्म कैसे। यह हमारी समझमें नहीं आता।
हाँ भाई । ठीक कहते हो, संसारकी प्रत्येक गति ही जो उल्टी उक्त पूर्वपक्षका समाधान } ठहरी, फिर तुम ऐसा क्यों न कहीं ?
- दुःखमें सुखबुद्धि, अपवित्रमें पवित्र बुद्धि, धनित्यमे नित्यबुद्धि, अधर्ममे धर्मबुद्धि और धर्ममें अधर्म