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________________ १९६] [ साधारण धर्म यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ (गी श्र. १६ लौ १३, १४, १५) अर्थ:-यह तो भान मैंने पाया और अपना यह मनोरश मैं और पूरा करूँगा, इतना धन तो मेरे पास है फिर भी यह इतना और होवेगा । इस शत्रुको तो मैने मार डाला अब औये को भी मैं मालगा। मैं सबसे बड़ा हूँ, ऐश्वर्यको भोगनेवाला हूँ, मैं सिद्ध हूँ, वलवान हूँ और सुखी हूँ। मैं बड़ा धनवान और कुटुम्बवाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है ? मै यज्ञ करूंगा, दान दूंगा और भोगोका आनन्द लूंगा-जो इस प्रकार के अज्ञान व अभिमानसे मोहित हो रहे हैं। तथा इसके फलस्वरूप जिनकी ऐसी गति हो रही है : अनेकचित्तविम्रान्ता मोहजालसमावृताः। प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ अर्थः-अनेक प्रकारसे भ्रमित हुए चित्तवाले, मोहरूप जाल मे फंसे और काम-भोगोमे आसक्त हुए ऐसे पुरुष अपवित्र नरको में पड़ते हैं। ____ भला! इसके समान भी कोई कटु वस्तु हो सकती है ? हरे। हरे !! यहाँ तो चित्त घबराता है ! वडी दुर्गध आती है । हमसे तो यहॉ ठहरा नहीं जाता। निकलो भागो भला इस प्रकार. इस संसारमें उलझे हुए मनके समान और कौन कड़वा होगा। जिसनें अपने सम्बन्धसे इस चेतन-पुरुपको भी बाँधकर शरीररूपी कारागारमें डाल दिया है। चेतन रोगी है रह्यो . अस्यो वहम आजार, कहूँ स्वर्ग पुनि नरककी, लाग्यो खान पजार। लाग्यो खान पंजार रन-दिन राखे किस्सा,
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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