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इस ग्रन्थके सम्बन्धमें
कुछ महानुभावोंके सद्भाव माननीय श्रीमनु स्वेदार बम्बई (M. L. A Onetrel) प्रधान
श्रीसस्तु-साहित्य-वर्धक कार्यालय-ट्रस्ट अहमदाबाद, इसी ग्रन्थके गुजराती अनुवादको भूमिकामें इस ग्रन्थका परिचय • देते हुए यूं लिखते हैं - ।, आत्मविलास' अर्थात् 'संसारके खरे-खोटे खेल में अपना आत्मा किस प्रकार रम रहा है। यह दिखलानेवाला तथा 'अज्ञानमेंसे ज्ञानमें किस प्रकार पहुँचा जाता है। यह सूचित करनेवाला, यह ग्रन्थ है। लेखककी प्रखर विद्या और ज्ञानवल तो इस पुस्तकसे ज्ञात-होगा, परन्तु उन्होंने इस पुस्तकमें तो अपने अनुभवकी कथा लिखी है.। उनका गम्भीर और हृदयसी अध्यात्म ज्ञान इस पुस्तकमें स्थल-स्थलपर तर आता है।
वस्तु,एक ही है । देहभाव तथा जीवभावमेंसे आत्मभाव व ब्रह्मभावमें कैसे पहुँचा जा सकता है; व्यवहारिक जीवन मेंसे आंशिक अथवा पूर्णरूपसे पारमार्थिक जीवनमें कैसे जा सकते हैं, तामसमेंसे राजसमें और राजसमेंसे सत्त्वमें कैसे जाना होता है और क्यों जाना चाहये-इत्यादि प्रश्न प्रत्येक जिज्ञासुके चित्तमें प्रतिदिन खड़े होते हैं और वह इनका उत्तर बारम्बार नई-नई दृष्टिविन्दुसे मॉग रहा है। इस पुस्तकमें लेखकने ये उत्तर निश्चयात्मक रीतिसे अस्तुत किये हैं। भिक्षु अखण्डानन्दजीद्वारा जो ज्ञानगंगारूप यह संस्था बहाई गई है, उसकी ओरसे ऐसे उपयोगी और पथप्रदर्शक पुस्तकको जनताके सम्मुख रजु करते हुए हमें प्रसन्नता होती है।