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दो शब्द
इस ग्रन्थकी प्रथमावृत्ति एक हज़राकी संख्यामें श्रीयुत द्वारकाप्रसादजी लक्ष्मणदासजी नारनौलनिवासीने सन् १६४० में अपनी फर्म कराचीसे प्रकाशित कराई थी। उन्होंने अपनी स्वगीया श्रीमाताजीके स्मारकमें लोकहितार्थ दृष्टि से इस ग्रन्थको किसी नकद मूल्यके बिना ही वितरण किया था। अर्थात् श्रद्धा व विचारसहित पाठ तथा यथाशक्ति धारणा' ही इसका मूल्य रखा गया था। थोड़े सपयमें ही इस ग्रन्थकी सब प्रतियाँ वितरण हो गई और जनताने आदरभावसे इसको ग्रहण किया । कुछ महानुभावोंने अपने सद्विचार भी इस ग्रन्थके विषयमें प्रकट किये, जो पाठकोंकी जानकारीके लिये अलग पृष्टपर उद्धृत किये जाते हैं। यहॉतक कि 'सस्तु-साहित्य-वर्धक कार्यालय ट्रस्ट' अहमदाबादने गुजराती जनताके हितकी दृष्टिसे इस ग्रन्थको गुजराती भाषामें अनुवाद कराके ५ हजार प्रतिऍ प्रकाशित की । हर्षका विषय है कि गुजराती जनताने इस ग्रन्थको बहुत आदर दिया
और उक्त ५ हजार प्रतियाँ हाथों-हाथ विक गई। यह अनुवाद इस ग्रन्थके लेखकसे अनुमति प्राप्त किये बिना और इसके कुछ आवश्यक भाग छोड़कर प्रकाशित किया गया था।
जिज्ञासु जनताके सद्भाव और आदरको देखकर तथा इस इष्टिसे कि भविष्यमें कोई व्यक्ति मनमाने रूपमे इस ग्रन्थका अङ्गभङ्ग न कर सके, इस ग्रन्थके लेखकने सन् १६४६में इस ग्रन्थका और अपनी दूसरी पुस्तक 'गीतादर्पण'का प्रकाशन अधिकार श्री. आनन्द-कुटीर-ट्रस्ट पुष्कर' को समर्पण कर दिया है। ट्रस्ट उस समयसे ही सचेष्ट रहा कि जहाँतक हो सके यह ग्रन्थ जनताके
हाथोंमें शीघ्र पहुँचाया जाय । परन्तु देश-कालकी अनेक वर्तमान ' कठिनाइयोंके कारण हमे इस विषयमें इससे पहले सफलता न