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प्रामविलास]
[१० नृत्य करने लगता है। यह अभी सिद्धान्त किया जा चुका है कि वह जीव श्रद्धाका ही पुतला है, जैसी इसकी श्रद्धा होतो है वैसा ही भृङ्गोकोटके समान इसका रुप हो जाता है । यह सव नाम का ही माहात्म्य है जोकि रूपसे कई गुणा अधिक है। ध्रुव, प्रह्लाद और नामदेवादि इसके प्रत्यक्ष यान्त हैं, जिन्होंने नाम के प्रभावसे रूपको पकड़ बुलाया और अपने सम्मुख हुजूरी चना लिया। इस स्थलपर कई पुरुप शङ्का कर बैठते हैं कि 'देखी हुई वस्तुमे ही प्रीति होती है, विना देखी वस्तुमें किसीकी प्रीति होती नहीं । ईश्वरको किसीने देखा नहीं, इसलिये उसमे प्रीति भी नहीं हो सकती। यह शङ्का
आस्तिकताशून्य है, देखी हुई वस्तु में ही प्रीति हो यह नियम नहीं, किन्तु सुनी हुई वस्तुमे भी प्रीति सम्भव है । सुने हुए पारलौकिक स्वर्गादिमें श्रद्धावान् पुरुपकी प्रीति होती है तथा इहलौकिक पैरिस आदि अन्य विलायतके भोगोंमें कामी पुरुषोंको प्रीति श्रवणद्वारा देखनेमें आती है । इसी प्रकार शुद्धान्तःकरण पुरुषोंकी प्रीति श्रवणद्वारा ईश्वरमें होना निश्चित है । नामको महिमा भक्तशिरोमणि गोस्वामी तुलसी • दासजीने क्या ही सुन्दर कथन किया है:
समुमत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परस्पर प्रभु अनुगामी ॥ नाम रूप दोउ ईश उपाधी ।
अकथ अनादि सुसामुझि साधो ॥१॥ नाम और नामी समझनेमें एक जैसे हैं, किन्तु दोनोंमें प्रीति परस्पर स्वामी सेवक जैसी है। अर्थात् जिस प्रकार सेवक स्वग्मोके पीछे-पीछे चलता है इमी प्रकार 'प' 'नाम'के अधीन रहता है और नामी नामके पोछे-पोछे चलता है। जहाँ नाम