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[आत्मविलास चन ही कैसे सकती है और जब कर्ता-बुद्धि सत्य है, कर्तव्य सत्य है, विधि-निषेध सत्य है, ससार. सत्य है, तब फिर इस 'मोक्ष' को 'बन्ध' और इस 'ज्ञानी' को 'अज्ञानी' क्यों न कहा जाय ? मोक्ष किससे छाना है ? संसार से अथवा परमात्मा से ? परमात्मासे तो मुक्ति किसीको भी स्वीकार नहीं, छूटना संसार से ही है। यदि यह कहा जाय कि जन्म-मरणसे मुक्त होना है तो जन्म-मरण संसारके सम्बन्धसे ही है, संसारको सत्यरूपसे ग्रहण करके जब इसके साथ अहन्ता-ममता इस जीवात्माने बाँधी, तब कतृ त्व-भोक्तृत्वद्वारा ही यह जन्म-मरणके प्रवाहमें बहने लगा। ऐसी अवस्था में जब कि ससारके साथ इस ज्ञानी की इस प्रकार कर्तव्य-बुद्धि बनी हुई है, तब इसके लिये अभी मोक्ष कैसा १ इससे हमारा यह प्रयोजन नहीं कि इस प्रकार का निष्काम कर्तव्य मनुष्यके लिये पाप है। नही ! नही !! यह तो परम पवित्र है और इसके द्वारा तुच्छ स्वार्थ से छूटकर ज्ञानका अधिकार प्राप्त होता है, परन्तु यहाँ प्रसंग ज्ञानीका है। कर्ता-बुद्धि व कर्तव्य-बुद्धिका परस्पर सम्बन्ध है, अथोत् 'कर्ता' विना 'कर्तव्य' नही रह सकता और 'कर्तव्य' से मुक्त होने पर 'कर्ता' भी लय हो जाता है। कर्ता-धुद्धिसे किये गये कम चाहे फलाशारहित ही क्यों न हों, परन्तु फल अवश्य रखते हैं
और अपना फल भुगानेके लिये कर्ताको जन्म-मरणके बन्धनमें डालते हैं। चाहे उनका फल उत्तम है, परन्तु है अवश्य । यह विषय इसी लेख में 'कर्म-अकर्मका रहस्य' शीर्षकसे पीछे स्पष्ट किया जा चुका है।
पाठक इससे यह न समझ ले कि लोकसेवा हमारे मतसे निन्दित है। नही ! लोकसेवा एक पवित्र साधन है और सेवा । धर्म तो अपने स्वरूपसे ही सर्वोत्तम है तथा अपने व्यक्तिगत