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[आत्मविलास
(२) ज्ञानीके लिये ज्ञानोत्तर मृत्युपर्यन्त लोकसंग्रहके निमित्त निष्काम-बुद्धिसे कर्म करते रहना कर्तव्य है, क्योंकि ज्ञानोत्तर निष्काम-कर्म बन्धक नहीं रहता। जो मोक्ष 'संन्यास' (साल्य) से मिलता है वही 'कम' (योग) से भी प्राम होता है । इतना ही नहीं कि ज्ञानोत्तर दोनो मार्ग स्वतन्त्र हैं चाहे जिसको अङ्गीकार करें, किंतु भगवान्के मतसे 'संन्यास' (सांख्य) की अपेक्षा 'कर्म' (योग) श्रेष्ठ है । (गो. र. पू. ३०७, ३०८, ३०६)x
(३) यद्यपि प्रवृत्ति व निवृत्ति दोनों मार्ग प्राचीन समयसे प्रचलित चले आये हैं तथापि प्रवृत्ति-मार्ग अर्थात् 'कर्म' ही
आदिसे है और स्थिर रहनेके लिये है। निवृत्ति-मार्ग (स्मातेसंन्यास) पीछेसे धीरे-धीरे उसमें प्रवेश होने लगा। (गी. र. पृ.३४६)
(४) फुटकल संन्यास-मार्गियोंकी इस उक्तिको उद्देश्य करके कि 'गीतामें अर्जुनको चित्तशुद्धिके लिये कर्मका उपदेश किया गया है क्योंकि उसका अधिकार कर्मका ही था, परन्तु सिद्धावस्था में फर्मत्याग ही भगवानका मत है तिलक महोदयका कथन है कि “इसका भाव यह दीख पड़ता है कि यदि भगवान कह देते- अर्जुन! तू अज्ञानी है तो वह नचिकेवा के समान पूणे झानका आग्रह करता, युद्ध न करता और उनका उपदेश विफल जाता । अर्थात् अपने प्रिय भक्तको धोका देनेके लिये गीताका उपदेश किया गया ।" (गी. र. ३११)
(1) 'योग' के विपयमें गीतामें कहा है कि जब संसारमें रहना है तो कर्म छूटेंगे कैसे ? जबकि क्षणभर जीवित रहना भी xदेसो गीतारहस्य पूनाको छपी हुई सन् १९१७ द्वितीयावृत्ति ।
नचिकेता एक पिकुमारका नाम है, जिसने अपनी बाल्यावस्था में ही यमलोकमें जाकर यमराजसे ब्रहमान पाया। (कठोपनिपत्)