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________________ आत्म-विलास] [३६ * प्राप्ति करती है और सत्त्वगणके विकासद्वारा मनुष्यमे बुद्धिकी पूर्णता प्रदान करदी है जिससे उसको सुख-दुःख, हानिलाभ और पुण्य-पापादिका ज्ञान होने लगा। बुद्धिको पूर्णताको प्रदान करके यद्यपि प्रकृतिने तो अपने कर्तव्यकी पूर्ति करदी है, जीवको स्वतन्त्रता प्रदान करती है और अपनी जुम्मेवारीसे हाथ उठा लिया है, परन्तु बुद्धिकी इस पूर्णता व स्वतन्त्रताको प्राप्त करके मनुष्य अब अपने व्यक्तिगत स्वार्थको पकड बन्दर को भॉति कर बैठा है, इसीकी पूर्तिमे लग पडा है और यही जीवनका लक्ष्य मान बैठा है । न इसको छोड़ना चाहता है और न आगे वढना चाहता है। अव प्रकृतिका मनुष्य पर तकाजा है कि वह क्रम-क्रमसे अपने तुच्छ तमोगुणी स्वार्थोकी वलि दे और इस प्रकार स्वार्थत्यागपरायण हुआ अन्तत. अपने परिच्छिन्न-अहंको ही सूली पर चढ़ा दे और जीवसे शिवरूप मे श्रारुढ होजाय । यही प्रकृतिका मुख्य ध्येय है। यद्यपि प्रकृतिका धेय इस प्रकार परम त्यागमे ही है, तथापि प्रकृतिका आशय यह है कि त्याग अधिकारीके अधिकारानुसार हो, अधिकारको उल्लङ्घन करके नहीं। जिस प्रकार अधिकारानुसार उचित मात्रामे खाया हुआ भोजन ही हमको वल देसकता है और अधिकारविरुद्ध अधिक मात्रामे सेवन किया हुआ अमृत भो विपरूप हो जाता है, इसी प्रकार अधिकारानुसार उचित मात्रामे त्यागस ही हम बल प्राप्त कर सकते हैं और इस त्याग-चलसे बलवान होकर हम और अधिक त्यागकी वलि दनेमे समर्थ हो सकते है। इस रीतिसे बलसे वल प्राप्त करते हुए हम सर्वत्यागके अविकारी हो सकते हैं और सर्वत्याग कर सकते हैं। यदि अधिकार व मात्राका निरादर करके हमने अनधिकार ऊँचा त्याग भी किया तो भी हम उससे बल प्राप्त न कर सकेंगे, बल्कि उल्टा निर्वल होने की संभावना होगी।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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