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________________ ३५ ] [पुण्य-पाप की व्याख्या ने भून अथवा निकटवर्ती वर्तमान कालमे किसी प्रकार पकड़ को ग्रहण किया था, इसके सिवा अन्य कोई कारण न हुा है न होगा। इससे स्पष्ट है कि अध्यात्म (आधि-व्याधिताप) अधिदेव व अधिभूत निविध-तापोंकी प्राप्ति एकमात्र पकड़ का के ही है । जितनी पकड़ अधिक होगी उतने ही ताप भी अधिक होग, जितनी पकड़ कम होगो उतने ही ताप भी कम होंगे और ज्यूँ ही पकड़का परित्याग किया जायगा, त्यूँ हो इसका वातावरण सुख-शान्तिमय होजायगा और तीनों ताप भी पीठ दिखाते होगे। भगवान् दत्तात्रेयने अपने २४ गुरुवोंमे ईल (चील) पक्षी को भी अपना गुरु बनाया है जोकि एक मांसका टुकडा लेकर आकाशमें उड़ी जारही थी। उस मांसके टुकडेको देख ईलसमुदाय इसके विरोधके लिये खड़ा होगया और इसको नोच-नोच खाने लगा। ज्यूँ ही इसने मांसके टुकड़ेका परित्याग किया त्यूँ ही सब पक्षियोंने इसका पीछा छोड़ दिया और यह सुखने विचरने लगी। इससे स्पष्ट है कि जिस-तिस प्रकारसे त्यागका अनुसरण करना, इसीमे प्रकृति की अनूकूलता है और ग्रहणका अनुसरण करना, इसीमें प्रकृतिकी प्रतिकूलता है । उपयुक्त रीतिसे स्पष्ट हुआ कि त्यागमें ही प्रकृतिकी अनुकूलता है और सर्वत्याग ही प्रकृतिका ध्येय और अन्तिम लक्ष्य है । वहीं प्रकृतिको विश्राम है और वहाँ पहुँचकर ही प्रकृतिके वन्धनसे छुटकारा है । इसी उद्देश्यको सम्मुख रख कर प्रकृति ने, जैसा पीछे वर्णन किया जाचुका है, जीवको पाषाण व उद्भिजादिकी जड़योनियोंसे उठाकर क्रम-क्रमसे तमोगुण व रजोगुण को गलाते हुए पन्चकोशके विकासद्वारा मनुष्ययोनि , शारीरिक व मानसिक दु.ख ! २. गृह, नक्षत्र व अग्निजलादिजन्य दुःख । ३. मनुष्य पश्वादिजन्य दुःख ।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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