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आत्मविलास ]
[ १७६ साकार भक्तिको ही सिद्ध कर रहे होंगे और वह भी एक अप्सप से । वास्तव में जहाँ सगुणसे विद्वप है वहाँ तो निर्गुण भक्तिसे सम्बध ही क्या ? निर्गुण भक्ति तो तभी उत्पन्न हो सकती है जब समस्त रागद्व पोंसे हृदय निमल हो गयाहो,सम्पूर्ण संसार ही अपने पाचरणोंसे देवमन्दिर हो गया हो और प्रत्येक चेष्ठाऍही भगवान् की पूजास्वरूप वन गई हो।
जेता चले तेती प्रदक्षणा, जो कुछ करूँ सो पूजा । गृह उद्यान एक सम जान्यो, भाव मिटायो दूना ।।
इसके विपरीत किसी प्रकार द्वेष मनमें रखकर अथवा किसी मत-मतान्तरका आग्रह बनाये रखकर निर्गुण-भक्तिका हठ करना तो एक प्रकारसे उसका उपहास करना है। निगुणभक्तिका प्रादुर्भाव तो तभी हो सकता है जब कि कोई चित्तचोर अपनी विचित्र विचित्र छवियोंद्वारा चित्तको चुरा लेजाय और चित्तपरसे अपना अधिकार ही निकल जाय । चित्तपर अधिकार बनाये रखकर निर्गुण-भक्तिका श्राग्रह रखना तो कोरी भूल है। इसीलिये भगवानने कहा है :
क्लेशोविकतरस्तेपामव्यक्तासक्तचेतसाम् । अव्यक्ता हि गतिदुखं देहवद्भिवाप्यते ॥
(गीता अ. १२ पलो. ५) अर्थ:-उन अव्यक्तस्वरूपमे आसक्तचित्तवालोंको लश अधिक होता है, क्योंकि राज्यक्तरून गति देहधारीद्वारा दुःखसे प्राप्त हाती है।
अर्थात् जिनका देहमें अहं-अभिमान है वे इस अव्यक्त गति (निर्गुण-भक्ति ) के अधिकारी नहीं हो सकते । सगुण भक्ति द्वारा ही यह अधिकारी अपने सुन्दर भावोंका उद्गार