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________________ - - १५१] [साधारण धर्म कर्म के साथ जो फलाशा वही रजोगुणकी मूर्ति है, जो कर्ताको अपनी जागीरमे अशान्ति प्रदान करती है और परमार्थसे भ्रष्ट करती है । इस विपके निकाल फेंकनेसे ऐसे सज्जनोंके हृदय व मस्तकपर शान्तिरूपी पूर्णमासीके चन्द्रमाकी कान्ति विराजमान होती है और वे लोक परलोक दोनोंके अधिकारी होते हैं। सारांश, कर्मका प्रयोजन इहलौकिक सुख, शान्ति व मान तथा पारलौकिक ईश्वरप्राप्ति ही है, निष्काम कर्मसे ये चारों ही प्राप्त होते हैं और सकामतासे चारों ही नहीं। यद्यपि इस जिज्ञासुने संसारसम्बन्धी इच्छा व कामना रूप फलाशासे तो छुटकारा पा लिया है, तथापि सर्वथा कामना व फलाशा से अभी इसफा छुटकारा नहीं कहा जा सकता। इस फलाशा का सर्वथा त्याग तो उन तत्त्ववेत्ता साक्षात्कारवान महापुरुष ज्ञानियोंके ही हिस्से में आया है, जिन्होंने संसारके तत्वको ज्योंका त्यों जाना है, ज्ञानाग्निसे कर्तृत्व अहंकारको सर्वथा भस्म कर दिया है और शरीर व इन्द्रियोंद्वारा सव कुछ करते हुए भी सव क्रियाओसे दूर खड़े हैं। इस जिज्ञासु के सम्बन्ध संसारसम्बन्धी फलाशा तो यद्यपि नहीं है, परन्तु कर्तृत्व-अहंकार व कर्तव्य-बुद्धि अभी खड़ी हुई है, जिसके फलस्वरूप अपने कर्मोद्वारा एकमात्र ईश्वर-प्राप्तिरूप इच्छा विद्यमान है, जो सांसारिक इच्छाओंकी अपेक्षा धन्य कही जा सकती है । वास्तव में सांसारिक इच्छाओंसे छटकारा भी इस पवित्र इच्छाके प्रबल हुए बिना असम्भव है। बल्कि सांसारिक इच्छाओंके निकाल फेंकनेका एकमात्र उपाय यही है कि ईश्वर प्राप्तिरूप इच्छा सर्वथा हृदयमे घर कर ले। जैसे किसी जलपूरित पात्रको. जलसे खाली करनेका उत्तम साधन
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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