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________________ श्रात्मविलास ] [१६४ द्वि० खण्ड (२६) इस प्रकार देश, काल, वस्तु व ज्ञानकी परस्पर सापेक्षता व अन्योऽन्याश्रयता सिद्ध हुई। जैसे रज्जुमे सर्प व सर्पबान परस्पर सापेक्ष, समकालीन और अन्योऽन्याश्रय होनेसे मिथ्या व भ्रमरूप हैं, सर्पके श्राश्रय सर्पज्ञान है, सर्पज्ञानके आश्रय सर्व है, दोनों ही (ज्ञान व विषय) अविद्याके परिणाम हैं, दोनों ही कल्पित होनेसे अधिष्ठान-रज्जुके आश्रय प्रतीत होते हैं और अपने अधिष्ठानमे कोई विकार नहीं करते, बल्कि अपने अविष्ठान-रज्जुरूप ही हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण प्रपञ्च कल्पित होने से अविद्याका परिणाम है, वह अपने अधिष्ठान चेतनके आश्रय अधिष्ठान-चेतनको स्पर्श किये बिना ही प्रतीत होता है और अधिष्ठान चेतनरूप ही है। क्योंकि देश, काल,'वस्तु और वृत्तिमानसे भिन्न प्रपश्चका और कोई रूप पाया नहीं जाता, जो कि उपर्युक्त रीतिसे अन्णेऽन्याश्रय होनेसे कल्पित सिद्ध हुए। इस रातिसे सम्पूर्ण प्रपञ्च अविद्याका परिणाम और चेतनका विवर्त्त जाना गया। (२७) उपर्युक्त विचारोके अनुसार कारण-कार्य, आधाराकारण-कार्यअभेट घेय, विशेषण-विशेष्य, धर्म-धर्मी एव भावअभावरूपमभी सम्बन्ध और सम्बन्धोके अनुयोगीय प्रतियोगी ..अपने उपादानसे गमानसत्ता और अन्यया स्वरुपको परिणाम' कहते है, जैसे दूध, दहीके सयम परिणामी होता है। दोनोंकी व्यवहारिक सत्ता होने से मममता है, परन्तु स्वरूपभेद है। अपने अधिष्ठानसे विपरोतसाता व अन्यथा स्वरूपको वियत' कहते है, जमे कन्यितसर्प अविष्ठान-रज्जुका विवर्त है ! रज्जुकी व्यवहारिक-सत्ता और मर्पणी प्रातिमानिक-मता होनेसे मत्ताभेट और अन्यया स्वरूप भी है। +जिमम सम्बन्ध रहै वह अपने सम्बन्धका 'अनुरोगी' और जिसका सम्पन्न हो वह 'अनियोगी' कहलाता है । जो घटका भूतलमे सयोग-सम्बन्ध है इन मम्मन्यका भनल अनुयोगी है और घट प्रतियोगी।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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