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आत्मविलास] हटना पडेगा, जिसके परिणाममे ईर्ष्या-द्वेप भैरव व कालीरूप धारकर इसका रक्तपान किये बिना न रहेंगे और मानके स्थान पर अपमान इसका स्वागत किये विना न छोड़ेगा। वर्तमान भारतमें अनेक कुटुम्ब इसके ज्वलन्त दृष्टान्तस्वरूप है।
आत्मविकास अब तीसरी श्रेणीमे प्रकट हुआ। अहंभाव तृतीय श्रेणी, 'पशु- | अपने शरीर तथा कुटुम्ब तक हो घिरा मनुष्य' अथात् न रहकर अब आगे बढा और जाति मे जातिप्रेमी _ डेरा जा लगाया । अब जातिका स्वार्थ ही इसका अपना स्वार्थ है, जातिका लाभ ही इसका लाभ और आतिकी हानि हो इसकी अपनी हानि । इस प्रकार कुटुम्बमें ही मानपात्र न रहकर अब यह जातिमे मान पाने लगा । अव इसकी गति लह व कोल्हूके सहश्य ही न रहकर आगे बढ़ी, परन्तु सीधी गति अव मी न हुई, जहाँ अन्य जाति व देशके स्वार्थ के साथ इमके जातीय स्वार्थको धक्का लगनेकी सम्भावना हुई, वहाँ तत्काल यह अन्य जाति व देशसे विरोध ठाननेको तत्पर हुआ। इसलिये अब इसको गतिको छकडे के वैलसे तुलना देसकते हैं। जिस प्रकार छकड़ेका बैल, एक दायरेके अन्दर ही न घूमकर, जैसे-जैसे सडक चॉकी-टेढ़ी जाती है वैसे-वैसे ही अपनी धीमी चालसे चला जाता है, सडक छोड़कर नहीं चल सकता, इसी प्रकार इसकी गति भी कुटुम्ब के स्वार्थ तक ही घिरी न रहकर जिधरको जातीय स्वार्थ ले जाता है उधरको ही खिंचा चला जाता है किन्तु जातीय म्वार्यकी सड़क छोडकर स्वतन्त्र नहीं चल सकता । जिस प्रकार पशुवामें फिसलकर चलना तो नहीं रहा, परन्तु फिर भी ये सब प्रकारसे प्रकृतिके वन्धनमें ही है, स्वतन्त्रता पूर्वक उनकी कोई चेष्टा नहीं हो सकती, इमी प्रकार ऐसे पुरुषों को जातीय ग्वार्थमें बंधे रहनेके कारण 'पशु-मनुष्य की तुलना