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________________ साधारण धर्म] इसको टिकने न देगा। इस लिये उसको फर्ममें ही प्रवृत्त किया गया और गीता के अन्तमें स्पष्ट कह दियाः-- यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे । 'मिथ्यष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।। (अ. १८,५६) अर्थान् अहंकारके वशीभूत हुआ जो तू ऐसा मानता है कि 'मैं युद्ध न करूंगा' यह तेरा मिथ्या निश्चय है, क्योकि तेरी प्रकृति तुमे वरवश युद्ध में जोड़ देगी। । परन्तु उद्धयको, जिसके अन्दर रजोगुण था ही नहीं, कर्म में प्रवृत्त कैसे किया जाता ? उसके लिये तो शुरूसे ही त्याग की महारनी पढ़ी गई । (देखो श्रीमद्भागवत् एकादश स्कन्ध कृष्ण-उद्धव सम्बाद अ.६ से २८) और अन्तमें कहा गया कि इस बानको अपरोक्ष करनेके लिये तुम बद्रिकाश्रममे जाओ, वल्कल-वस्त्र धारण करों और कन्द-मूल आहार करके तप करो इत्यादि । गीताके कृष्ण और भागवतके कृष्ण दो तो थे ही नहीं, यह वार्ग तो तिलक महोदयको भी स्वीकार ही होगी। यदि सारे संसारमें सब जीवोंके लिये कर्मयोग ही एकमात्र भेपज है तो उद्धवको छूटते ही त्यागका उपदेश क्या किया गया? तिलक मतके अनुसार यदि कर्मयोग ही एक ओपधि थी तो अपने महाप्रयाएके समय श्रीकृष्ण अवश्य अपने अत्यन्त प्रिय भक्त उद्धवको धोखा दे गये और अपनी चालाकीसे नहीं चूके। परन्तु नहीं जी! धोखे चोखेकी बातें जान दो। वास्तवमें अपनी विपरीत भावना करके अपना आप ही अपनेको धोखा देता है, जब कि हम संसारके किसी पदार्थको अथवा मत-मतान्तर व पन्थ-पन्थाईको सत्यं मान बैठते हैं और दूसरोम द्वेष करके विप उगलने लगते हैं, दूसरा तो कोई धोखा देनेवाला है ही नहीं।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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