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________________ १३] [ साधारण धर्म क्या धर्मसम्बन्धी विवाहका उद्देश्य केवल विषयवासनाकी धार्मिक विवाहका अधकती हुई अग्निमे भोगरूपी घृतकी उद्देश्य .... आहूति देते रहना ही हो सकता है नहीं, कदापि नहीं। ऐसा करके तो आप इस रमणीय संसारको श्मशानरूपमें बदल देंगे, नन्दनवनको रौरव-नरक बना लेगे, कुत्तोंकी भॉति मौक-भौककर मर जायेंगे, हथिनीके पीछे हाथीकी भॉति लगकर अपने आपको संसाररूपी गड्ढेम गिरा लेंगे । धार्मिकविवाहका उद्देश्य तो यह था कि जीवमे वह जडता, जो उद्धिजादि योनियोंसे प्रारम्भ होकर अनन्त कालसे चली आ रही है और जोधका मनुष्ययोनिमे विकास होनेपर भी चिरकालीन सम्बबसे जिसका रहना स्वभाविक ही है, उस जडताको अव धार्मिक विवाहसंस्कारके द्वारा पिघलाया जाय । अर्थात् जीवका श्रात्मभाव (मपन) जहाँ अपने माढ़े तीन हाथके टापूमे ही घिरा हुआ है और उसमें घर किये बैठा है, उससे आगे बढ़े और पिवलकर पवित्र धार्मिक प्रेमद्वारा अपनी वर्ग-पत्नीम पसर जाय । इम प्रकार सत्य व चढ़ प्रेमकी अग्निमें वह 'मैंपन' पिघल-पिघलकर क्रमशः जहाँसे यह प्रेमका स्रोत निकल रहा है, उस प्रेमस्वरूप, आनन्दकन्द, मदनमोहनके चरणकमलोंसे सम्बन्ध पा जाय । परन्तु इसकी मिद्धि तभी हो सकेगी जबकि यह प्रवाह नदीके तटों के समान धार्मिक मर्यादामें चले । प्रेम ही भगवानका स्वरूप है, प्रेमसे भिन्न उसका और कोई रूप नहीं बनता । इमी लिये मनु आदिकोंने स्पष्ट रूपसे कह दिया है: यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । अर्थ:-जहाँ स्त्रियोंका आदर-सत्कार होता है वहीं देवता रमण करते हैं।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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