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[ साधारण धर्म करती फिरती थी। बुढ़ियाको सड़ककी खाक छानते देख एक राहगीरने पूछा कि बुढ़िया ग्रह क्या करती है ? उत्तर दिया "वेदा ! सूई खो गई उसको ढूंढती हूँ"राहगीरने पूछा कहाँ खो गई ? उत्तर मिला, “घरमें"। राहगीर हँसकर वोला अन्दर खोई वस्तुको वाहर हूँढना कसी मूर्खता है ? बुढ़ियाने मह बनाके कहा "हाँ ! वेटा सच कहते हो, परन्तु घरमें दीपक जलानेकी सामग्री नहीं है। मैंने सोचा कुछ तो करना ही चाहिये, इसलिये सड़ककी खाक ही क्यों न छानी जाय" । ठीक, यही दशा उन पुरुषोंकी है जो अपने हृदयोंमें दीपक जलाकर मुझको वहाँ पानेकी सामर्थ्य नहीं रखते और वाहर चमकीलेचटकीले पदार्थामें मेरी खोजके लिये खाक छानते और भटकते फिरते हैं। जिस प्रकार भाप दवाई नहीं जा सकती, इसी प्रकार मेरा वेग व नहीं सकता, इसी लिये संसारमें कोई एक भी भूतप्राणी प्रेमशून्य नहीं पाया जाता, चाहे प्रेमका विषय अपना-अपना भिन्न-भिन्न क्यों न हो । प्रत्येक शरीरसे मेरा स्रोत किसी न किसी रूपमे इसी प्रकार फूट-फूटकर निकलता है, जैसे चश्मेसे पानी । वास्तवमें प्रेम तो स्वाभाविक रूपसे प्रत्येक जीवके अपने अन्दर ही दवा हुआ है, अन्दर हुए विना तो वह बाहर आये हो कैसे ? परन्तु वे मेरे पवित्रप्रेमका सदुपयोग नहीं जानते, इसी लिये कोई धनके लिये जान देता है वो कोई पुत्रके लिये, कोई खोके लिये मर रहा है तो कोई मानके लिये। मेरे इस असदुपयागके कारण ही वे मुझे न पाकर खेदको ही पाते हैं। वास्तवमें ये विपय अपने स्वरूपसे प्रेमरूप नहीं हो सकते,यद्यपि इनके द्वारा प्रेमका प्रकाश इसी प्रकार होता है जिस प्रकार दर्पणके द्वारा हमारे मुख का, परन्तु दर्पण प्यारा नहीं प्यारा मुख ही है। इसी प्रकार वाह्य पदार्थ प्रेमस्वरूप नहीं, किन्तु अपने वास्तविक