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[पुण्य-पापकी व्याख्या मुक्त हो सकता है । अभिप्राय यह कि सत्त्वगुण कही बाहरसे इसमे प्रवेश नहीं करेगा, बल्कि वह इसके अन्दर ही है और रज-तम गुणों के नीचे दवा हुआ है, रज-तमका वेग निवृत्त होने पर सत्त्वगुण इसके अन्दर ही विक्रमित हो पायेगा, जैसे फुलके पीछे ही फल है, फूल निकल चुकने पर फल अपने श्राप निकल आता है। इसका आशय यह नहीं कि स्वाभाविक सदोप काँका प्रवाह चालु ही रक्खा जाय, बल्कि आशय यह है कि जिस प्रकार एक मुँहजोर घोड़ा सवारके हाथमे हो किन्तु उसके अधीन न हो तो उसको चाहिये कि उमपर भारुड होकर उसी के रुखेपर थोड़ा उसको चलावे, फिर चावुक लगाकर उसको अपने मार्गपर ले आये। इसी प्रकार इधर स्वाभाविकटोपयुक्त कर्मके वेगको थोडा कके द्वारा निवृत्त कर, किन्तु चित्तमे उसको समूल नष्ट करनेका ध्यान रक्वे और उधर प्रकृतिके अनुकूल वरताव करता हुआ, जैसा पीछे वर्णन किया जाचुका है, अधिकारानुसार त्यागका बल अन्दर भरे। इसी प्रकार स्वा. भाविककर्मके प्राचरणमे भगवानका प्राशय है। अत: सिद्ध हुआ कि प्रकृतिके अनुकूल चलना ही पुण्य है, धर्म है और इसके विपरीत चलना ही पाप है, अधर्म है । क्या व्यवहारिक, क्या पारमार्थिक, क्या शारीरिक, क्या मानसिक सभी प्रकार की उन्नतियोंके साथ प्रकृतिका सम्बन्ध है। घटान्त रूपमे देखा जा सकता है कि पशु-पक्षियोंम खान-पान, रहन-सहन, मैथुन आदि मय शारीरिक चेष्टा प्रकृति के अनुकूल होती है, उसीलिचे वे प्रायः स्वस्थ रहते हैं। उनके लिये प्रकृति ही एक वै है जो कि उनके स्वास्थ्यकी जुम्मेवार है । परन्तु मनुष्ययोनिमे आकर जीव प्राय शारारिक व मानसिफ चंद्राओं में प्रकृतिक नियमको तोडता रहता है, यही उमकं नितापोंस तपनका एकमात्र