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साधारण ध ] गीताने कर्मको व्यापक व्याख्या यही की है कि जो भावको उत्पन्न धरनेवाली चेप्टाएँ है वे सब 'कर्म' है (अचलो.३)। इस दृष्टिसे बत शारीरिक चेष्टाएँ ही 'कर्म' नही, किन्तु मानसिक व बौधिक सम्पूर्ण सन्दरूप परिणाम भावोत्पादक होनेसे कम है, चाहे शरीरसे उनका कोई सम्बन्ध न हो और चाहे वे प्रवृत्तिरूप हो या निवृत्तिरूप।
(३) वेदान्त-मतसं लोकसंग्रह प्रवृत्तिसे ही सिद्ध नहीं होता बल्कि निवृत्चिद्वारा भी सिद्ध होता है, इसको पागे स्पष्ट किया बायगा । यदि भगवद्दष्टिसे मोक्षप्राप्ति व लोकसंग्रह केवल प्रवृत्चिद्वारा ही सम्भव होता तो उद्धवको निवृत्तिका उपदेश न किया जाता । परन्तु तिलक-मतमें केवल प्रवृत्तिद्वारा ही लोकसंग्रहकी सिद्धि मानी है, निवृत्तिद्वारा नहीं।
(१). वेदान्त मतसं गीता प्रकृतिविरुद्ध उपदेश देनेको प्रवृत्त नही हुई और प्रकृतिका स्वाभाविक स्रोत प्रवृत्तिसे निवृत्ति में ही है। रखोगुणसे प्रवृत्ति; व सत्त्वगुणसे निवृत्ति उत्पन्न होती है, इस प्रकार रजोगुण निवृत्त होकर सत्त्वगुणका उत्पन्न होना प्राकृतिक ६। परन्तु तिलक-मत प्रतिनित्य और निवृत्त होनेके लिये नहीं । वेदान्त-मतमें निवृत्ति प्रवृत्तिको निकालकर आप भी निवृत्त होने के लिये है, स्थिर रहने के लिये दोनों ही नहीं। * इस प्रकारसामान्यरूपसे दोनों मतोंका दिग्दर्शन कराया गया।
तिलक महोदयने (१) 'नानी के लिये कर्तव्य' (२) 'मोक्षकी मस सिद्धि' (३) 'कर्मको विशेषता' और (8) 'निवृत्ति खण्डन' जिन गीताश्लोकोंको प्रमाणमें दिया है वे ये हैं, अब उनपर
विचार किया जाता है:
(१) यत्सांख्यः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । ५, एक सांख्य चे योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। (अ.५.५)