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________________ आत्मविलास ] [८ की पूर्तिके लिये जितने साधन हो सकते हैं, उनको प्रवृत्तिप्रधान व निवृत्तिप्रधान दो ही भागों विभक्त कर सकते हैं। प्रवृत्तिप्रधान माधन वह है कि जिसके द्वारा व्यक्तिगत स्वार्थ व व्यक्तिगत अहंताका विस्तार करते हुए और कुटुम्ब, जाति व देशके स्वार्थ व अन्तासे जोडते हुए 'वसुधैव कुटुम्बकम(अर्थान् सव पृथ्वी ही हमारा कुटुम्ब है।) के रूपमे इस ग्वार्थ व श्रहन्ताकी पूर्णाहुति दे दी जाय । मंक्षेपसे जिसका निरूपण 'पुण्य-पापकी व्याख्या' में किया जा चुका है। इन सावनामे प्रवृत्तिका संकोच न होकर इसका विस्तार किया जाता है और विस्तारके साथ-साथ इसको पतला करते-करते इसका लय किया जाता है। निवृत्तिप्रधान साधनका संक्षेपसे नीचे निरूपण किया जाता है । इसमें प्रवृत्तिका विस्तार न होकर प्रवृत्तिको गलाया जाता है । जिस प्रकार सुवर्णकी डलीको फैलानेके दो ही साधन हो सकते हैं, एक इसको कूट-फूटकर फैलाया जाय, दूसरे इसको गलाकर । इसी प्रकार अहंकारकी जडताको फैलानेके लिये भी या तो इसे प्रवृत्तिद्वारा कूट-कूटकर फैलाया जा सकता है, अथवा निवृत्तिद्वारा गलाकर । अधिकारमेटसे प्रवृत्तिमुखीन व निवृत्तिमुखीन साधनोंकी प्रकृतिने रचना की है, इनके लक्ष्यका भेद नहीं है, लक्ष्य दोनोंका एक त्याग ही है। १) पामर पुरुष संसारमें जितने भी मनुष्य हैं उनको चार प्रकारकी कोटि पामर पुरुषका र-1 में विभक्त किया जा सकता है, (१) पामर, क्षण और उसके (२) विपयी, (३) जिज्ञासु और (४) ज्ञानी । प्रति उपदेश इनमेंसे प्रथम पामर-पुरुपका वर्णन किया जाता है। पामर कोटिमें वे मनुष्य समझे जा सकते हैं, जिनके
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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