SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मविलास ] [ २३८ ऐसी भावना की जाय कि हमारा इष्टदेव हमारे आह्वान करने पर अपने वाहनपर श्रारूह होकर हमारे हृदयमें पधार रहे हैं। ऐसा जान मनसे ही उनके स्वागतके लिये उत्थान किया जाय और प्रेमपूर्वक मनसे ही उनको वाहनसहित प्रदक्षिणा की,जाय। अपने हृदयको ही, जो कि खिले हुए अष्ट-कमलदलके समान है, इष्टदेवके लिये उचित आसन जान मनसे ही उसपर विराजनेके लिये उनसे प्रार्थना की जाय । इसके उपरान्त मनसे ही उत्तमउत्तम तीर्थजलकी भावना करके उनके पादप्रक्षालन किये जाय और इस चरणामृतका मनसे ही प्रेमपूर्वक पान किया जाय। मनसे ही उत्तम-उत्तम सामग्री कल्पना करके पवित्र केशरकस्तूरीमिश्रित गड्डोटकसे उनको स्नान, धूप, दीप, चन्दन, वन और अलङ्कार आदिसे तुटकर नैवेद्य, मेवा आदि उत्तम-उत्तम पढार्थ जो अपने चित्तको रुचिकर हॉ, उनसे उनको भोग लगाया जाय । तदनन्तर विधिपूर्वक मनसे ही आरतो की जाय । फिर बारम्बार नमस्कार प्रदक्षिणा करके गद्गद् हो मनको उनके चरणोंमे गिरा दिया जाय और निष्काम भावसे उनमें तन्मय होने के लिये प्रार्थना की जाय। बाह्य स्थूल सामग्रीसे वाह्य देवपूजाकी अपेक्षा आन्तर मानसिक सामग्रीद्वारा श्रान्तर देवपूजा, सूक्ष्म होनेके कारण तथा मननरूप होनेसे अधिक प्रभावशाली है । जुगाली करनेवाले पशु जिसप्रकार प्रथम खाधको अपने पेटमें विना चवाये डाल लेते हैं और जब उदर पूर्ण हो जाता है, तब उस खाद्यको थोड़ा-थोड़ा उगलकर और भली-भॉति चबा-चबाकर पचा लेते हैं, तभी वह खाद्य पचकर उनके शरीरका भाग बनता है। इसी प्रकार उपासक भी प्रथम बाह्य मूर्तिपूजनद्वारा जब पवित्र भावोंसे अपने मनको पूर्ण कर लेता है, तब जुगालीके रूपमें इस मानसिक पूजाद्वारा उन भावोंको भली प्रकार चा-चबाकर उनको पचानेके योग्य
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy