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[ पुण्य-पापकी व्याख्या
गति सापेक्ष टिकी हुई है, यही सत्र गुणके विकासका चिह्न है । अन्य जाति के साथ तथा अपनी जातिमे यहाँ अनेक प्रकारसे प्रेमका प्रकाश स्थिर रूपसे प्रकट होता है । मनुष्य गो, कुत्ते
अश्वादिको पालते हैं, कुत्तों के द्वारा अनेक प्रकारके कार्य लिये जाते हैं । वह एक चौकीदारको ड्यटी भली भाँति पूरी करता है। वह अपने कुटुम्बके मनुष्योंमे तथा अन्य मनुष्य में भली-भाँति पहिचान करता है । कोई चीज इसको दिखलाकर पानीमें फेंकी जाय तो वह झट निकाल लाता है । अश्वादिको भी अनेक प्रकारते सधाया जाता है, जोकि बौद्धिक विकास ( विज्ञानमयकोश) के भली-भाँति परिचायक है। इस योनिमें जातीय भेदसे गौ श्रादि पशुओं में सत्त्वगुणका अधिक विकास देखने में आता है ।
इससे आगे चलकर जीवभावका विकास मनुष्य योनिमे हुआ । यहाँ उसमें तीनों गुण, तीनों अवस्था तथा पाँचों कोशी का विकास हो धाया, व उसकी प्रकृति पूर्ण है । जाग्रत्अवस्था, सत्त्वगुण तथा श्रानन्दमयकोशका भी यहाँ प्रादुर्भाव हो चुका है। आनन्दमयकोशके विकासका ही यह फल है कि अव उसकी दश इन्द्रियों, मन व बुद्धि पूर्ण रूपसे विकसित हो चुके है। यहाँ उसको रसना -इन्द्रियके सुस्वादु भोजनोंके नाना रसोंका ज्ञान है और उनकी इच्छा करता है । चतु-इन्द्रियके विपय सुन्दर रूपोंके देखनेकी लालसा होती है। श्रोत्र-इन्द्रिय के विषय मधुर शब्दों के सुननेको चित्त करता है । त्वक्-इन्द्रिय के विषय कोमल स्पर्श के पाने की जिज्ञासा होती है। घ्राणइन्द्रियके विषय सुगन्धित द्रव्यके पानेकी रुचि होती है, जोकि नीचेकी योनियोंमें प्रकट नहीं हुई थी । यह उसके अन्दर श्रानन्दमय कोश और मन इन्द्रियके पूर्ण विकासका चिह्न है । यहाँ उसमें बौद्धिक-विक्रामकी पूर्ण रूपसे प्रकटता हो चुकी है।