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आत्मविलास ]
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गया ही नहीं । परन्तु स्मरण रहे कि इस रक्तपानसे भी इसकी भूख नहीं मिटने की, यह तो मुफ्तमे ही है। अपने भोजन की माँग' तो इसकी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही रहेगी। फिर मुफ्त में कलेजेका खन भी क्यों पिलाते हो? ऐसे अतिथिसत्कार के पीछे क्यों पडे हो ? 'बाँस भी खाए, मलाइ भी दी' वह हिसाब क्यों करते हो ।
लो जी ! वैतालको भोजन तो अभी क्या मिलना था ? परन्तु उसने तो कलेजेका खून जोकके समान चूस चूसकर बरवश त्यागकी दूसरी भेट अपने चरणोंमें रखवा हो ली । अर्थात् इसको पामर-कोटि से निकाल विषयी - कोटिमें और निषिद्धसकाम - कोटि से निकाल शुभ सकाम कोटि में प्रवेश कर ही दिया ! धन्य है । वैतालकी इस दयालुताको धन्य है ! इसको सच्ची पतित-पावनताको बारम्वार धन्य है ||
[२] विषयी-पुरुष
लक्षण
विपयी-पुरुष वे हैं जो संसारके भोगों तथा इन्द्रियों विपयी- पुरुषके के शब्द स्पर्शादि विषयोंमें रते हुए हैं। पार पुरुषोंसे भेद इतना ही है कि वे शास्त्रमर्यादा व लोकमर्यादाका उल्लघन करके भी विपयभोग भोगनेसे नहीं सकुचाते, परन्तु विपयी-पुरुषोंकी भोगप्रवृत्ति लोक व शास्त्रमर्यादा की हद्दमे रहकर होती है । यद्यपि भोग-कामनादृष्टिसे इनमे कोई विशेष अन्तर नहीं हुआ, बल्कि कामनामात्रको दृष्टिसे तो इनकी कामनाएँ अग्निमे घृतके समान कुछ वृद्धिको ही प्राप्त हुई है, ऐसा कहा जाय तो अनुचित नहीं । पामर पुरुषोंकी कामनाऍ इस लोकतक ही सीमित होती हैं, परन्तु इन्होंने तो इस लोकसे श्रागे चढ़कर आकाशव्यापी पारलौकिक स्वर्गादिकी कामनाओं पर भी हाथ मारना आरम्भ कर दिया है। इस प्रकार इस लोकके