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________________ श्रामविलाम] [२४६ यद्यपि रोगी तो पहले भी था, तथापि रोग इस पढ़ी-बढ़ी अवस्थाको प्राप्त हो रहा था कि रोगी रहते हुए भी अपनेको रोगी न समझता था और इस अवधिरूप रोगमे ही उसकी स्वास्थ्यबुद्धि हो रही थी। जैसे किसी मशीनका पहिया गतिके वेगसे स्थिर प्रतीत होता है, अथवाजैसे कोई मद्यप्रेमी मधके आवेशसे इतना प्रभावित हो जाय कि उसको अपना मधपान ही विस्मृत हो नाय और वह नशीली अवस्था उसकी स्वभावमिद्ध बन जाय । परन्तु धर्भप पिताकी शरणमें आकर सोपान-क्रमसे ज.वनकी उपर्युक्त कोटियोंसे उत्तीर्ण हो जब यह इस वैराग्यको समतल भूमिमें पहुंचा और अखे खुली, तब अपनेको ठगा हुआ पाया और अपने आत्मधनको गुमाकर इसी प्रकार सन्तप्त होने लगा, जिस प्रकार सुमन्त भगवान रामचन्द्रको सुरसरी-तीरपर छोड़ कर अयोग्याको लौटता हुआ दारुण दुःखसे दुःखी हो रहा थामीजि हाथ सिर धुनि पछिताई । मनहु कृपण धन राशि गंवाई।। लेइ,उसाँस शोच इहि भॉति । सुरपुर ते जनु खसेउ ययाति ।। विन विवेकी वेदवित्, संमत साधु सुजाति । जिमि धोखे मदपान करि, सचिव शोच इहि माँति ॥ उस आत्मधनकी जिज्ञासाने संसारसम्बन्धी अखिल रागको भस्मकर अब यह माव हृदयमें ढूंस-ठूसकर भर दिया है। पुत्र कलत्र सुमित्र चरित्र, धरा धन धाम हैं बन्धन जी को पारहिं बार विपय फल खात, अघात न जात सुधारस फोको । ओर से घेर लिया है जिससे मैं माग नहीं सकता। इस प्रकार इन्होंने मेरे भारमधनको चुरा लिया है इसलिये मैं तेरे बिना और कोई सहारा नहीं देता।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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