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आत्मविलास ]
[४२ प्रकार इनका विस्तार करनेसे रुकता है, तो जैसाकि उपर चर्चा की गई है, उसको टक्कर खाकर पीछे हटना ही पड़ेगा और निकृष्ट योनियोंमें यात्रा करनी ही पड़ेगी। चारों वर्षों और चारों आश्रमोकी मर्यादा जीवप्रवाहके तटोंको सुन्द बनाये रखने के लिये ही थी, जिससे जीवप्रवाह इधर-उधर किनारे मो न तोड़कर सीधा अपनी गतिसे चलता हुआ ब्रह्मसमुद्र में मिलकर प्रवृत्तिसे निवृत्तिमे और हदसे वेहदमें समाप्त हो
आय । इसीलिये वर्णाश्रम धर्मका लक्षण शास्त्रकारोंने इस प्रकार किया है।
प्रवृत्तिरोधको वर्णो निवृत्तिपोपश्चाश्रमः अर्थात् वर्णधर्म प्रवृत्तिको आगे बढनेसे रोकता है, यानि विषयप्रवृतिको हदमे रखता है और पानमधर्म निवृत्तिका पोपण करके उसको आगे बढाता है । वास्तवमे विचारसे देखा जाय तो विषयप्रवृत्ति भी विपयनिवृत्ति के लिये ही है। प्रवृत्ति बिना तो निवृत्ति ही कैसी १ इस प्रकार वर्णधर्मका उद्देश्य भी 'गुडजिद्वान्याय' से निवृत्तिमें ही है । जिस प्रकार माता अपने रोगी बालकको कटु श्रोपधि पिलाकर उसका रोग शान्त करना चाहती है। बच्चा श्रोपधिकी कटुता सुनकर उससे भागता है तो माता उम नादान बनेको बहलानेके लिये अपने , हाथकी एक अंगुलीमे चुपकेसे गुडका रस लगा लाती है और बचके मम्मुम दूसरी अंगुली ओपधिमे डुबोकर उसको दिखाती है कि देख, प्रोपधि कटु नहीं, मीठी है। परन्तु चटानेके समय ओपधिवाली अंगुली न चटाकर गुढके रमवाली अंगुली चटा दती है । वास्तवमै माताका आशय गुड चटानेमें ही नहीं यल्फि क ोपधि पिलाकर उमका रोग शान्त करनेमे है। ठीक इस प्रकार अतिमाताने भोग-रोगसे रोगी अपने जीवरुपी पुत्र * प्रवृत्तिरूपी करके निवारणकं लिये विषय-प्रवृत्तिको गुड