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[आत्मविलास इन पञ्च-महायनोंमें नृयज्ञको मर्वश्रेप कथन किया गया है। जाति-पातिका विचार न करके अनायास द्वारपर आये हुए अतिथि-अभ्यागतको ईश्वररूप जान और उसके शरीर व मनके अधिकारका विचार न कर आदर-सत्कारपूर्वक यथाशक्ति अन्न-जलादिसे उसको सन्तुष्ट करना 'नृयज्ञ' कहा गया है। यही एक ऐसी पवित्र चेष्टा है जो कि विषम-दृष्टियुक्त गृहस्थको व्यवहारिक रूपसे स्वाभाविक समतादृष्टिका पाठ पढ़ाती है और सर्वत्र ईश्वरदर्शनके आनन्दकी चटक लगाती है । भावपूर्ण दानसे स्वभाषत ही कोमलता आती है और दानके अभावसे स्वभावत कठोरता उपजती है, यह नीति है। दानके मूल्यका ध्यान न रख श्रद्धाभावसे दिया हुश्रा एक टुकडेका भी दान दाताके चित्त को पानीके समान पतला करके बहा देने में समर्थ है और येनकेन प्रकारेण कोमलता उपजाना हो धर्मका लक्ष्य है। इस विषयमें महाभारतमें एक आख्यान है कि एक यतिको १०।१५ दिनके पश्चात एक रोटी मिली।ज्यू ही बलियैश्वदेव करके वह उसे खानेके लिये बैठा कि एक अतिथि उसके निकट आ पहुंचा। यतिने अतिथि-नारायणके दर्शनसे अपनेको कृतार्थ जाना
और धडा प्रसन्न हुआ, उसने ईश्वररूपसे उसकी पूजाकी और प्रसन्नमनसे नम्रतापूर्वक रोटीका श्राधा भाग उसको निवेदन किया और शेष श्राधा प्रसादके रूपमें ग्रहण किया । यति नव मोजन करके उस स्थानसे चला गया, तब एक नेवला स्वाभाविक उस स्थानपर आया और यतिकी जूठनपर आनन्दसे लोटपलोटे मारने लगा। उस जूठनसे नेवलेके मुम्बका, स्पर्श होने का,यह प्रभाव हुआ कि उसका आधा मुख स्वर्णमय हो गया। यह प्रमाव उस श्राधी रोटीके भावपूर्ण दानका था। वही नेवला युधिष्ठिरके राजसूय-यहमें, जहाँ भगवान कृष्णने अतिथियों के