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________________ [ साधारण धर्म और योगमें स्थित होकर हे भारत ! तू खड़ा होना ।। । __ इस श्लोकसे भी तिलक-मतको कोई अङ्ग प्रमाणित नहीं होता। इस श्लोकका तात्पर्य यह है कि यह जो तेरे हृदय में संशय स्थिर हो गया है कि 'मैं भीष्मादिकोंको मारनेवाला हूँ और वे मारेजानेवाले हैं। यह तेरे कर्तृत्वाभिमान करके ही सिद्ध होता है। कर्तृत्वाभिमान देहासिमानके कारणसे है, जब तूने शरीरको ही आपा करके जाना और भीष्मादिकोंको अपनेसे भिन्न जाना, तभी तू मारनेवाला बन रहा है। किन्तु यह अज्ञानसम्भूत है। इस संशयको तू अपनी ज्ञानरूपी तलवारसे काट, कर्मरूपी तलवारसे नहीं; क्योंकि भज्ञानसिद्ध वस्तुको नाश करने के लिये ज्ञानकी ही जरूरत है। अन्धकारको नष्ट करनेके लिये प्रकाश ही चाहिये, किसी शखादिकोंसे अथवा जप-तपादिकोसे अन्धकारकी निवृत्ति असम्भव है । वह ज्ञान यह है कि तूने नो अपने-आपको देहरूप करके नाना है सो तू नहीं, बल्कि तू शरीर का सार व अधिधानरूप आत्मा है । देहादि तेरे वास्तविक स्वरूप को ढाँपनेके लिये पोशाकके समान कल्पना किये गये हैं। जब तू 'अात्मस्वरूप जानतसे निकलकर स्वप्नमें जाता है तब स्थूलदेह रूपी पोशाक तेरेसे उतर जाती है, लेकिन उस समय भी तू देही (आत्मा) अवश्य रहता है और, सूक्ष्मशरीरको सब रचनायोंको देखता है । सुषुप्ति अवस्थामें जब तू अपने वास्तविक प्रानन्दस्वरूपमें विश्राम करता है तब यह सूक्ष्मशरीररूपी पोशाक भी तेरे से उत्तर जाती है, परन्तु तू तो यहाँ भी अवश्य रहता है और जाप्रतमे आकर सुपुप्ति व स्वप्नके अनुभवोंकी स्मृति भी करता है। इसलिये वही तू है, जो तीनों अवस्थाओं में हाजिर नाजिर है और यह तीनों शरीररूपी पोशाकें तेरे में -कल्पित हैं। जो तू * इस अर्जुन शरीर में है वही तू मीप्रमादि सर्व शरीरों में है और
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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