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श्रात्मविलास ] वेदान्तमत 'विवत कार्यवादी' कहलाता है। अर्थात् रज्जु-सर्पके समान कार्ग अपने उपादानमे कल्पित-सत् और वास्तव असत्रूप है। इस प्रकार उपादान व अधिष्ठानका अभेद सिद्ध हुआ। वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्
(छान्दोग्योपनिषत् ) अर्थात् कार्य कथनमान व नाममात्र ही है, उपादान ही सत्य है। सुवर्ण, मृत्तिका, तन्तु आदि जिनको लौकिकदृष्टिसे भूपण, घट,पटादिके प्रति उपादान कहा जाता है, वास्तवमे यह उपादानकारण नहीं केवल निमित्त-कारण ही है। चूंकि यह सम्पूर्ण भूतभौतिक प्रपञ्च उत्पनिवाता होनेसे कार्य है और जो आप कार्य है वह किसी अन्यका उपादान नहीं हो सकता, क्योंकि कार्य रज्जुम सर्पके समान मिथ्या व कल्पित ही होता है। इसलिये सम्पूर्ण प्रपञ्चका एकमात्र त्रिकालाबाध्य, सत्वस्तु, अधिष्ठानचेतन ही विवर्तोपाटान है। इस प्रकार क्या अविद्या, क्या बुद्धि, वृत्ति, पञ्चभूत तथा सुवर्ण-मृत्तिकादि अपने-अपने कार्योंकी उत्पत्तिमे निमित्तमात्र ही होते हैं, अविद्यादि व सुवर्ण-मृत्तिकादि के निमित्तसे वह अधिष्ठान चेतन ही भूपण-घटादिके रूपमे प्रतीत होता है और स्वप्रयत क्या निमित्त व क्या कार्य सभी अधिष्ठानचननके विवर्त और अविष्ठानरूप ही होते है।
सन्मूलाः सौम्येमाः मर्याः प्रजाः। (छान्दोग्य) अर्थात हे सौम्य ! इस सर्व प्रपञ्चका मूल वह मन ही है। ऐतदात्म्यमिदं सर्व तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि
(बान्दोग्य) अर्थ :-यह मर्य इस अपरोक्षसन यात्मावाला है, सो परमार्थ है. गो ग्रात्मा है, सो तू है।