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[माधारण धर्म को सुखकी प्राप्ति होती है, तब-तव उसका हृदय अवश्य किमी न किसी इच्छासे खाली हुआ जाना जाता है। इसके सिवाय और कोई मुख-दुःखका निगित्त बन नहीं पड़ता।
'आशा हि परमं दुःखं, निराशा हि परमं सुखम्'
जैसे जब हमको शौचादिकी शङ्का होती है, उस समय हम अपन-आपको कष्टमे पाते है और जव शौच शङ्काकी निवृत्ति कर लेते हैं तो अपने-आपको सुग्वी मानते है। अथवा अपने शरीरपर कोचड़ लपेटकर हम अपनेको दुःवी बनाते है और कीचड़ धोकर कीचडके मलसे छूटकर अपनेको सुखी मानते हैं । ठीक, इमी प्रकार पदार्थोकी इच्छा करके, कीचड लपेटकर हम अपने हृदयको चञ्चल करते है व दुःखका अनुभव करते हैं
और उस इच्छित पदार्थकी प्राप्तिद्वारा इच्छारूपी कीचड़ धोकर अपने हृदयको निश्चल पाते हैं और हृदयकी निश्चलतामे मुखका अनुभव करते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि सुख केवल हृदयको इच्छासे खाली करनेमें है, चाहे पदार्थको प्रामि करके उनको खाली करलें, अथवा विचार-सत्संगद्वारा पदार्थोसे वैराग्य करके । भेट इतना ही है कि जिस विपयकी प्राप्तिद्वारा इच्छा निवृत्त हुई है वह विषयजन्य सुख क्षणिक होता है, क्योंकि जहाँ उस विषयको इच्छानिवृत्तिद्वारा क्षणभरके लिये हृदय निश्चिल हुआ, वहाँ तत्काल दूसरी इच्छा हृदयको चञ्चल कर देगी । तथा विचार-वैराग्यद्वारा जो इच्छानिवृत्ति है, वह निर्विपयक होनेसे और केवल त्याग ही उसका विषय होनसे म्यायो है, अर्थात् पदार्थ में अज्ञानद्वारा सुखरूपताका जो भ्रम हो रहा था, वह भ्रम विचार-वैराग्यद्वारा निवृत्त हो जाता है, इसलिये फिर इच्छा होती ही नहीं। चाहे कुछ भी हो, सुख मिलेगा केवल इच्छा से पल्ला छुड़ानेपर ही। जब ऐसा है तब