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साधारण धर्म] - तेरा कुटुम्ब नहीं बल्कि समप्र संसारही तेरा 'कुटुम्ब है। किमी एक कुटुम्बमें उत्पन्न होना और ममत्व बाँधना तो आवश्यक है, परन्तु उसी चार-दीवारी में अपने समतको संकीणे रखकर मर जानातो जीते ही कवरमें सड़नेके समान है और पाश्विक जीयनसे भी निकृष्ट! किसी एक माताके उदरसे जन्म लेना तो जरूरी है, परन्तु केवल उसीका रहकर मर जाना तो मावाके यौवनको नष्ट करनेके लिये कुठाररूप ही बनना है। ऐसे उदार भावोंसे जिमका हत्य पूर्ण है वह समतारूपी प्रेमका मतवाला,
. : विरह कमण्डलु कर लियो, वरागी दो नैन । ___ 'माँगें दरश मधूकरी, छके रहैं दिन रैन ।
जत्र झोली हाथमें लेकर निकलता है तव कौन ऐसा कठोर हृदय होगा जो उसकी आँग्वोको देखकर पिघेल न जाय, संत्यस्वरूपकी एक लहर उसके हृदय में उमड़ न आवे और 'मसारकी असारताका फोटो हुँच न देवे । तिलक महोदयके विचारसे यह 'मंगनपन' भले ही जचे, परन्तु वास्तवमें यह माँगना तो माँगना नहीं, बल्कि तन-मन-धन सर्वस्व लुटा देना है। अहंकारकी लड़को निकाल फेंकनेका यही एक सच्चा व्यवहारिक साधन हैं। यद्यपि अहंकारकी मूल केवल ज्ञानमें ही निकाली जा सकती है, वथापि जिस प्रकार पड़दा मोटा हो तो एका-एक उसे फाड़ा नहीं जा सकता; परन्तु जब उसको घिस कर पतला कर लिया गया तो उसका फाइना सहज हो जाता है, इसी प्रकार अहंकारके ' पड़देको पतला करनेमें भिक्षावृत्ति परम उपयोगी साधन है।
जप-तप-व्रतादि जितने साधन हैं सधका फज एकमात्र मनपर विजय पाना है और मनोनाश वासनाक्षयकी सिद्धिद्वारा ही . सत्त्व-विचारका अधिकार प्राप्त हो सकता है, जिससे अहंकार