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________________ [ आत्म विलास ५०] अहंकारं बलं दर्षे काम क्रोधं परिग्रहम् । विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। अर्थः-विशुद्ध बुद्धिसे युक्त और साविकी धारणाले अन्त:करणको वशमे करके, शब्दादि विषयोंको त्यागकर और रागद्वपको नष्ट करके एकान्त देशका सेवन करनेवाला, अल्पाहारी, मन वाणी और शरीरको वशमें रखनेवाला, दृढ़ वैराग्यको भलीभौति आश्रित करके नित्य ध्यान-योगपरायण हुआ पुरुष अहं कार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और सग्रह को त्यागकर ममवा रहित और शान्त अन्तःकरण होकर ब्रह्ममें एकीभाव प्राप्त करने के योग्य होता है। साराश, उपयुक्त विवेचन व प्रमाणोंसे यह स्पष्ट है कि कमकी. व्यापक व्याख्या में प्रत्येक निवृत्ति मन-बुद्धिका साक्षात परिणाम होनेसे 'कम ही है, न कि 'अकर्म वा 'विकर्म । तथा यदि अधिकारानुसार किसी के लिये एक ओर प्रवृत्ति ही कम व निवृत्त विकर्म है तो दूसरी ओर किसी अन्य के लिये निवृत्ति ही कर्म व प्रवृत्ति विकर्म हो सकती है। सभी धर्मशाल और स्वयं भगवान्का यही श्रेष्ठ सम्मत् है। इससे हमारा यह आशग नहीं कि लोकसेवा निरर्थक वस्तु है। नहीं ! जिन हृदयोंमें रजोगुण भरा हुआ है उनके लिये यह परमार्थका अद्वितीय साधन है। परन्तु एकमात्र यही साधन है इससे आगे और कोई लक्ष्य है ही नहीं, केवल इतने मात्रमं हमारा विरोध है। अजी मायाके राज्य में किमी षातका नियम कैसे बनाया जा सकता है ? धर्मशास्त्र और राज्यके कानून यथाशक्ति नियम करते है, परन्तु पद-पद पर उनको भी अपवाद (exceptions) करने ही पड़ते हैं। जव, पाँच-पाँच वर्षके ध्रुव व नामदेवादि घालकोंमें निवृत्ति फड़क गई
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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