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________________ - [३७ साधारण धर्म] सवपर लागू है चाहे कर्मकाण्डी-अर्जुन हो चाहे जनक । एक बार तो इसको धर्म-कर्म सभीकी बलि लेनी ही है । इस सिद्धान्त की सत्यतामें अर्जुनके लिये तो स्वयं गीता प्रमाण है ही। (देखो गीता श्र. २ श्लो. १ व श्लो ४ से)। इसी प्रकार जनकको भी यह बलि देनी पड़ी कि अनायास सिद्धोंकी गीता श्रवण कर उसका निर्मल अन्तःकरण तप गया । (देखी योगवासिष्ठ, उपशम प्रकरण, सिद्ध-गीता और जनक-विपाद सर्ग )। यह बात दूसरी है कि अर्जुन और जनकको बहुत काल इस वैराग्यकी अग्निमें तपना न पड़ा, क्योकि वे पूर्व जन्मके योगभ्रष्ट थे और इस मञ्जिल मेंसे वे पहले लगे हुए थे। तथापि ज्ञानसे पूर्व इस मखिलमेंसे होकर निकलना उनको भी आवश्यक था, चाहे . इसमें उनको रुकना न पड़ा। स्वामी रामतीर्थनीने अमेरिकाकी एक प्रदर्शनी में देखा कि बीके बदरमें गर्म प्रवेश होकर नौ मासके अन्दर वह बड़ी शीव्रतासे लाखों रूपोमें बदलता है कभी चूहा, कभी बिल्ली, कभी कुत्ता, इत्यादि । कहा गया है कि लगभग ८४ लाख रूपोंमेंसे उस गर्भको निकलकर फिर मनुष्यकी प्राकृति प्राप्त होती है। गर्भकी उन भिन्न-भिन्न ' योनियोंकी आकृति उस प्रदर्शिनी में दिखलाई गई थी। ठीक, इसी प्रकार योग-भ्रष्टको भी धर्मकी इन भिन्न-भिन्न कोटियोमेस लँघना ज़रूरी है, चाहे इनमे रुकना न पड़े। " " इसी सिद्धान्तके अनुसार जब भगवानले अर्जुनको तपा हुआ देखा तो अपने वचनामृतकी वर्षा उसपर करना ज़रूरी समझा। अपनी विचित्रयुक्तियोंसे जब उन्होंने अर्जुनको अपने वास्तविक स्वरूपका बोध करा दिया और जब उसका अपने व्यक्तिगत. शरीरपरसे कब्जा उठ गया, तव उसकी अपनी दृष्टिमें न कम रहा नाअकर्म, न योग रहा न सांख्य, न वह
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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