SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 519
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २१ ) करनेवाला है, सोनू कर । किर यदि किमाने व्यर्थ इस परिवार की हानि को है तो उसका हिमाव वे सत्गुरु परमात्मा श्राप कर लेंगे। उन त्र्यम्बककी ऑखोंमें कोई लण नहीं डाल सकता। तुझे क्या जरूरत पड़ी है कि तू अपनी ड्यटीसे आगे बढ़कर उल्टा अपने मनरूपी अमूल्यं रत्नको इन कौडियोंके वदले मलिन कर लेवे और कुटुम्बकी ममता जोड़कर उन सद्गुरुसे भी विमुख हो जावे । क्योंकि ममता विना क्रोध नहीं होता। दूसरे,यदि विचारसे देखा जाय तो इस हानिका कारण केवल यही है कि तू पहले कभीनं-कभी इन विषयोंमें मन फँसाकर अपने परमात्मासे अवश्य ही विमुख रहा है, जिसके बदलेमें उस परमात्माने इस रूपमे प्रकट हो तुझे चावुक लगाया है । अव तू फिर उन विरोधीसे बदला लेनेको दौड़ता है । जरा होश कर, अपनी भूलको फिर दुगनीचौगुनी कर रहा है और फिर चावुक खानेका सामान पैदा कर रहा है। (२) यदि अपमान समझकर तू क्रोधित होता है तो प्रथम तो अपमान तभी होता है जब तू इस चमड़ेको पापा करके जानना है और इसका अभिमान करता है। चमडेका अभिमान करनेवाले तो नीच जाति होते हैं। और सद्गुरुने तो अपने अनुभवसे बारम्बार हमको ऐसा उपदेश किया है कि तुम देह नहीं हो बल्कि आत्मा हो,फिर इसके विपरीत तेरा देहरूप बनना और देहरूप वनकर क्रोध करना सत्गुरुके बचनोंका अनादर करना है,जो महान काफिरपन है 1 इस तेरी दुष्टताके कारण तो तुझे तपना ही चाहिये। फिर उल्टा उस विरोधीसे बदला लेनेको दौड़ता है। जरा सम्हलकर देख कि ऐसे पवित्र वचनोंका अना दर करके अधोगतिको प्राप्त होगा। . हे प्रभू आपके चरण-कमलोंकी दुहाई है इस पापीसे हमको बचाओ और अपना वह आत्मिक बल हमको प्रदान करो
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy