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________________ श्रामविलास] १४२ विकास करके चेतना शक्तिको पूर्णता सम्पादन कर दी गई। इस क्रमका विस्तृत विवरण 'पुण्य-पापकी व्याख्यामे (पृ०१८ में २४ पर किया जा चुका है। ___ इसप्रकार नीचे जड योनियोसे आरम्भ करके मनुष्ययोनि में पॉचों कोशीका विकास करते हुए जडताके त्यागद्वार प्रकृति की प्रत्येक चेष्टामे निवृत्तिरूप त्याग ही दशाया जा रहा है, जिससे प्रकृतिको निवृत्तिमुखीनता ही सिद्ध होती है। संसार मे जड़ व चेतन दो ही पदार्थ हैं, इनमेंसे चेतन तो निवृत्ति के योग्य हो ही नहीं सकता और न चेतनको निवृत्त करना प्रकृति का लक्ष्य हो है, केवल जड़को ही शनैः शनेः गलाकर निवृत्त कर देना प्रकृतिका मुख्य धेय है। मनुष्ययोनिमे पञ्चकोशोंके पूर्ण विकामके कारण यद्यपि उसमे सुख-दुःखके तारतम्यका ज्ञान, सुख-दुःखके साधनोंका ज्ञान, पुण्य-पापका ज्ञान, इहलोकपरलोकका ज्ञान, छल-कपट एवं भले-बुरेका ज्ञान, व्यवहारकी चतुराईका ज्ञान, विद्यत् भाप आदि पदार्थ विद्या और अनेक प्रकारकी विद्याका ज्ञान-विज्ञान उपार्जन करनेकी सामथ्र्य उत्पन्न हो पाई है। तथापि जो जड़ता आरम्भसे ही रद होती चली आ रही है, उस जड़ताका इस मनुष्ययोनिमें भी किसी न किसी रूपमें स्थिर रहना आवश्यक है। इसी कारण देहामिमान तथा स्वार्थमूलक रूपसे इस योनिमें भी जड़ता अधिक घर किये बैठी है, जिससे मनुष्य वन्दरकी भाँति देह व कुटुम्वादिके स्वार्थ की पकड़से मुट्ठी वॉध बैठा है। अब कर्म के द्वारा उस वढ़े चढे देहाभिमान तथा स्वार्थरूप जड़ताको धक्रम से पिघलाकर सर्वथा नष्ट कर देना ही प्रकृतिका निवृत्तिरूप लक्ष्य है। जैसा कि पामर व विषयी पुरुपोंके प्रसंगसे स्वार्थ की उन भिन्न-भिन्न कोटियोंका पीछे निरूपण किया जा चुका है और उसकी निवृत्तिका क्रम इस समय तक स्पष्ट किया जा रहा है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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