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(८) धोकेकी टट्टी हैं। ये देखनेमें भले ही सुन्दर लगे, परन्तु वस्तुत ये रोगरूप हैं । इसमे तो कोई सन्देह नहीं है कि बारम्बार जन्म लेना, जीवन-भर अनेक प्रकारके दुःखोंको सहना और बारम्बार दारुण मरणदुःखको भोगना इन सब दुखोके मूलमें इसके सिवाय और कोई कारण नहीं बनता कि इस जीवने पहले कभी न कभी इन दु.खरूप विपयोमे सुखबुद्धि धार करके अवश्य मन फंसाया था। वही विप इन नाना दुःखोंके रूपमें फूट-फूटकर निकल रहा है और कोई निमित्त नहीं बनता। इस अविनाशी जीवके इन दु.खोंके साथ बाँधे जानेमे यह भोग अपनी इच्छाकालमे भी इस जीवको तड़पाते हैं और अपनी निराशाकालमें भी महाकष्ट देते हैं यदि किसी प्रकार इनकी प्राप्ति हो भी जाय तो भोग चुनेपर भी यह विपय विषरूप ही हो जाते हैं और किसी तरह हमारे लिये सुखरूप नहीं ठहरते। इस प्रकार इनकी तीनों हालतें दु.खरूप ही हैं।
इस प्रकार हे स्वामी शोक है कि हम अबतक विषको. अमृतरूप जानकर सेवन करते रहे और अमृतरूप आपके चरणकमलोंसे विमुख रहे, स्वर्गके बदले नरकको मोल ले लिया। जिस प्रकार कॉच भले ही सुन्दर प्रतीत हो, परन्तु पेटमें जाकर अतडियोंको फाड़ डालता है, ठीक यही अवस्था जीवकी विपयोंके सम्बन्धसे होती है। जिस प्रकार मृगतृष्णाकी नदी देखनेमे सुन्दर प्रतीत होती है, परन्तु किसी तरह उससे प्याम नहीं मिटतो, बल्कि उसके पीछे दौडनेसे प्यास अधिक अधिक घढ़ती जाती है, इसी तरह इन झूठे सुखोंको सच्चा जान सुखी होनेके बजाय हम अपने दुःखोंको बढ़ाते रहे।
झूठे सुखको सच कहें, · मानत हैं मन मोद। जगत घवेना कालका, कुछ मुखमें कुछ गोद ।।